12 अगस्त 2016

आत्मज्ञान के गूढ़ सूत्र

है प्रगट पर दीसत नाहीं ? सतगुरु सैन सहारा हो ।
कहे कबीर सर्ब ही साहब ? परखो परखनहारा हो ।
सुरत निरत ले राखै जहवाँ । पहुँचै अजर अमर घर तहवाँ ।
सब जग झूठ नाम इक साँचा । श्वास श्वास में साचा राचा ?
कहँ कबीर सुन धर्मनि नागर । सत्यनाम है जगत उजागर ?
एकहि ज्योति सकल घट व्यापक ? दूजा तत्व न होई ?
जो गुन पावे तत्त को । तत्ते जाये समाय ।
कहं कबीर अमर तब होवे । कहीं न आवे जाय ?

आदि अंत दो मत हैं । तिन में मत्ता अनंत ।
कहें कबीर दोनों के मध्य में ? देखो हमारा तंत ?
पांच तत्व का धड़ नहीं मेरा ? जानूं ज्ञान अपारा ।
सत्य स्वरूपी नाम साहिब का । सो है नाम हमारा ।
अधर दीप गगन गुफा में ? तहां निज वस्तु सारा ?
गर्भवास मे भक्ति कबुल्यो ? सो सब सुधि बिसराई ?
छन इक ध्यान विदेह समाई ? ताकी महिमा वरणि न जायी ?

सूच्छम सहज पँथ है पूरा ? ता पर चढो रहे जन सूरा ।
नहिं वह शब्द न सुमरन जापा ? पूरन वस्तु काल दिखदापा ।
पदम अनंत पंखुरी जाने । अजपा जाप डोर सो ताने ।
सूच्छम द्वार तहाँ जब दरसे ? अगम अगोचर सतपद परसे ?
अंतर शून्य मंह होय परकासा ? तहवां आदि पुरुष का वासा ?
ताहि चीन्ह हँसा तंह जायी । आदि सुरति तहं लै पहुँचायी ?
आदि सुरति पुरुष को आही ? जीव सोहंगम बोलिये ताही ?
मन पवन थिर कर शब्द निरखै ? करम मनमथ त्यागिये ।
शब्द सार विदेह निरखत ? अमरलोक सिधारिये ।
एक नाम है अगम गंभीरा ? तहवाँ अस्थिर दास कबीरा ?
सार शब्द नि:अक्षर आही ? गहै नाम तेही संशय नाहीं । 
सार नाम विदेह स्वरूपा ? नि:अक्षर वह रूप अनूपा ?
तत्व प्रकृति भाव सब देहा ? सार शब्द नि:तत्व विदेहा ?
गुरु बिन हिरदय ज्ञान न आवे । ज्यों कस्तूरी मिरग भुलावे । 
गुरु बिन मिटै न अपनों आपा । भरम जेवरी बांध्यो साँपा ।
गुरु बिन स्वान देखि बहु भेखा । मंदिर एक कांच को देखा ।
चहूँ दिसि दिखै अपनी छाया । भूंकत भूंकत प्राण गंवाया ।

भरम जेवरी गज बंध्यो । फिर जन्मे मर जाय ।
गगन बाज गरजै असमाना ? निःश्चै ध्वजा पुरुष फहराना ?
कबीरा इश्क का माता । दुई को दूर कर दिल से ।
जो चलना राह नाज़ुक है । हमन सिर बोझ भारी क्या ?
भारी कहौं त बहु डरौ । हलका कहूँ तो झूठ ।
मैं का जाँणौं राम कूं । नैनूं कबहुं न दीठ ।
दीठा है तो कस कहूँ । कह्या न को पतियाइ ।
हरि जैसा है तैसा रहौ । तूं हरिषि हरिषि गुण गाइ ।

छीर रूप सतनाम है । नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है । सत का छाननहार ।
ओऽहं सोऽहं अर्ध उर्ध नहि । स्वासा लेखन को है । 
सोऽहंगम नाद नहि भाई । न बाजै संख सहनाई ।
तन थिर मन थिर । सुरति निरति थिर होइ ?
कहे कबीर वा पलक को । बिरला पावै कोइ ?
स्वांसा में साहिब मिले ? समझो ज्ञान सुजान ।
गंग जमुन उर अंतरै । सहज सुंनि ल्यौ घाट ?
तहाँ कबीरै मठ रच्या । मुनि जन जोवैं बाट ।
पिंड ब्रह्माण्ड के पार है ? सत्यपुरुष निजधाम । 
सार शब्द जो कोई गहै । लहै तहां विश्राम । 
उलटि समाना आप में । प्रगटी जोत अनंत ?
साहेब सेवक एक सँग ? खेलैं सदा बसन्त ।

जोग करे ते मर गये । दसो दिशा भई सुन्न ।
कहें कबीर जुगति चीन्ह ले ? जो छूटे वह धन्न ।
जहिया जन्म मुक्ता हता । तहिया हता न कोय ।
छठी तुम्हारी हौं जगा । तू कहां चला बिगोय ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326