24 जनवरी 2017

सोऽहम से ओऽहम में

सबके और सबसे गहन रहस्य को अपने में समाये गूढ़ लेख, जो उतर जाने पर ‘आदि’ में ले जाने में सक्षम है । इसलिये एक एक शब्द में गहरे उतरते हुये मर्म भेदने की कोशिश करें ।
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एक समय एक दैत्य वेदों को लेकर समुद्र की तह में चला गया ।
वेद शब्द के दो अर्थ हैं । मूल अर्थ है - ज्ञान, स्वर्ग का साम्राज्य । दूसरा अर्थ है हिन्दुओं का पवित्र धर्मग्रन्थ ।
जो राक्षस वेदों को समुद्रतल में लेकर गया, उसका नाम शंखासुर था । शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार जिसका अर्थ ‘शंख का दैत्य’ या शंख में रहने वाला कीङा है । वेदों के उद्धार के लिये, ज्ञानकोषों को लौटा लाने के लिये ईश्वर ने मछली (मत्स्यावतार) का अवतार लिया । दैत्य से युद्ध कर उसका वध कर वेदों को संसार में लौटा लाये ।
लोग साधारणतया ऐसी कथाओं को पढ़ सुनकर अक्षरसः ग्रहण करते हैं । किन्तु इनमें एक गम्भीर गुह्य (छिपा हुआ) अर्थ है । कथा एक सामान्य सत्य को समझाने हेतु है ।
शंख में रहने वाले कीङे से वेदों को लौटा लाने हेतु ईश्वर ने मत्स्यावतार लिया और समुद्र की तह में दैत्य या कीङे से युद्ध कर उसका वध किया ।
इसका क्या मतलब है ?
मछली समुद्री जन्तु है और शंख में भी समुद्री प्राणी का वास होता है । ईश्वर ने, सर्व स्वरूप ने मछली के रूप में समुद्र के कीङे से संग्राम किया । कीङा शंख से निकाल बाहर किया और समुद्र की लहरों ने रिक्त शंख बहा कर किनारे लगा दिया । 
लोगों ने उसे उठाकर (फ़ूंका) बजाया । 
उससे गूंजती हुयी ध्वनि ॐ निकली । यह वेद है !
इस अर्थ में वेद, शंख, समुद्र तह से लाया गया ।
यह अक्षर ॐ सम्पूर्ण जगत के ज्ञान की इति श्री है । सकल वेद है । अपनी अल्पतं परिधि में घन व संक्षिप्त रूप से शंख में रखा ‘स्वर्ग का साम्राज्य’ है ।
अपने भीतर इन निधियों को पाने के लिये या स्वर्ग का साम्राज्य खोलने के लिये इस चाबी को काम में लाना होगा । ठीक तरह से उच्चारण होने पर यह मन्त्र जो प्रबल प्रभाव मनुष्य के चरित्र पर डालता है या दुनियां की सब निधियों को हमारे अधीन कर देने, भीतर का भेद खोलने का जो गुण इसमें है । उससे इंकार नही किया जा सकता ।
ॐ मन्त्र किसी विशेष भाषा का नही है । यह ‘संस्कृत’ का शब्द है ऐसा समझना भूल है । यह अक्षर तुम्हें अन्दर से प्राप्त है जो जन्म के साथ ही मिल जाता है ।
बच्चे की चीख ऊँ, ओं आं की ध्वनि से जो ॐ का विकृत रूप है, अनोखी समानता है ।

ॐ लिखने का ठीक ढंग अ उ म है । संस्कृत व्याकरण नियमों के अनुसार अ और उ की सन्धि होकर साथ मिलाने पर ओ बन जाता है । गूंगा भी अ उ और म की आवाज निकाल सकता है ।
इस तरह ॐ अपने पूर्ण रूप में और खंडशः भी हरेक के द्वारा और स्वयं उसके द्वारा दुनियां में लाया जाता है । यह अत्यन्त प्राकृतिक शब्द है जो हरेक को सूझ सकता है ।
जब लोग बीमार पङते हैं या जब उन्हें मर्मभेदी पीङा होती है । तब उनके अन्तर से ओऽ ओह उमू आदि निकलते हैं जो ॐ का अपभ्रष्ट हैं ।
हिब्रू, अरबी, अंग्रेजी प्रार्थनाओं का अन्त ‘आमीन’ से होता है जिसका ॐ से अनोखा सादृश्य है । ग्रीक (यूनानी) वर्णमाला में अन्तिम अक्षर ‘औमेगा’ है जिससे ॐ की धुनि को प्रमुख स्थान प्राप्त होता है ।  
ॐ यह धुनि सुन्दर वृक्ष के तुल्य है जो रोगी मनुष्य को, जिसे प्रचण्ड सूर्य झुलसा रहा हो, शीतल छाया देता है । रोगियों को यह ध्वनि उच्चारण करने से आराम मिलता है । दुखी, माँदे को जब यह आराम पहुँचा सकती है तो क्या यह शान्ति, एकता देने वाली न होगी । यदि हम इसे ठीक से उच्चारें ?
हम इसे ‘प्रणव’ कहते हैं और उस वस्तु का वाचक समझते हैं जो जीवन में व्याप्त है या जो प्राण (या स्वांस) में संचार करती है । प्रत्येक प्राणी इस ध्वनि को स्वांस के साथ मिलाकर निकालता है । यदि तुम (नासिका द्वारा) इतनी जोर से सांस लो कि उसकी आवाज सुनाई पङे तो तुम देखोगे कि उस आवाज का यदि कोई परिस्फ़ुट शब्द स्थान ले सकता है तो वह ‘सोऽहम’ है । 
यह ध्वनि सबकी सांस में है । इसमें हम ‘सोऽहम’ पाते हैं ।
संस्कृत व्याकरण दुनियां के सभी व्याकरण से उन्नत है । उसने सब ध्वनियों और शब्दों का पूर्ण विश्लेषण किया है ।
म अक्षर व्यंजन है किन्तु अनुनासिक है । और सिद्ध किया कि ‘म’ व्यंजन की सीमा स्वर से सटी हुयी है । ओ और अ सब व्याकरण के अनुसार स्वर हैं । स और ह व्यंजन हैं । व्यंजन निकाल देने पर हमें ओ, अ, म या ओं मिलता है ।
स्वर स्वतन्त्र और व्यंजन परतन्त्र ध्वनियां हैं । व्यंजन अकेले या अपने सहारे नहीं टिक सकते ।
जैसे व्यंजन ‘क’ है । अंग्रेजी में K और संस्कृत में क् है अतः मूल ध्वनि में इ या ए सरीखा स्वर मिलाने पर उच्चारण योग्य होता है ।
विशेष - व्यंजन ही दुनियां में ‘नाम, रूप’ को स्पष्ट करते हैं । दुनियां के सभी नाम, रूप व्यंजनों के पराश्रित हैं । उनके पीछे यदि परम सत्यता न हो तो उनमें से एक भी अपने आप नही ठहर सकता । सब दृश्य, नाम और रूप मय है । जिनका उच्चारण ‘आधारभूत सत्य’ या सत्यता अथवा स्वर के बिना नही हो सकता ।  
फ़िर हम ‘उस सत्य’ को चाहे परमेश्वर कहें या न जानने योग्य तत्व या अन्य कुछ; पर आधारभूत सत्यता, पूर्ण सत, पूर्ण ज्ञान और पूर्ण आनन्द सिद्ध है । जिसके सूचक यथाकृम अ उ और म हैं ।
इस प्रकार सोऽहम में स और ह व्यंजन, दृश्य व्यापारों के नाम, रूप और आकृति के स्पष्ट करने का काम देते हैं और अन्तर्वर्ती ॐ मूलस्थ सत्यता दर्शाने व स्पष्ट करने का काम देता है ।
जैसे खांड से बने विभिन्न आकारी खिलौने आकृति, रूप, नाम भेद रखते हैं लेकिन है सब खांड (शक्कर) ही ।
जैसे समुद्र की लहरों के नाना रूप, नाम भेद है किन्तु है सब समुद्र (जल) ही ।
अतः संसार के सभी प्रथक विभाग ‘नाम और रूप’ के कारण हैं । यदि गहरे तह में जायें और सब नाम, रूप के अधिष्ठान स्वरूप तत्व की छानबीन करें तो देखेंगे कि - सबका आधार एक ही नित्य, निर्विकार, अव्यय तत्व है । वह तत्व अपना आधार ‘आप ही’ है । 
उस तत्व की तुलना स्वर ध्वनियों तथा नाम, रूप की तुलना व्यंजन ध्वनियों से करना ठीक होगा ।
इस प्रकार सोऽहम के स और ह जो नाम, रूप का काम देते हैं और पराश्रित है, छोङ देने पर असल रूप में एकाक्षर अ उ म, ॐ की प्राप्ति होती है । इस प्रकार से ॐ वह असलियत है जो प्रत्येक की सांस में संचार करती है और वैश्विक स्वांस है ।      
सम्पूर्ण भेद, सब विभागों, सम्पूर्ण प्रथकता के पीछे जो ‘शक्ति’ है । उसका वह अत्यन्त नैसर्गिक नाम है । सार-तत्व का अत्यन्त स्वाभाविक नाम है ।
मैक्समूलर और अन्य तत्वज्ञानियों ने सिद्ध किया; सम्पूर्ण विचार और भाषा का सिक्के के दोनों पहलुओं की भांति सम्बन्ध है । कोई एक, दूसरे के बिना नही है ।
विशेष - क्या किसी पदार्थ, मेज आदि को बिना विचार किये देख सकते हो ? 
किसी वस्तु को तदनुसार विचार किये बिना धारण कर सकते हो ?
‘धारण’ शब्द ही मानसिक विचार का सूचक है ।
विचार और भाषा एक ही है । बिना भाषा के सोचना असम्भव है । शब्दों का अर्थ के साथ वही सम्बन्ध है जो सवार का घोङे से । अर्थ रूपी सवार शब्दों के घोङे पर चढ़कर अंतःकरण में पहुँचता है ।
अति विशेष - दुनियां और विचार भी एक ही हैं । इसलिये भाषा और विचार एक प्रकार से अनन्य होने से, और विचार तथा संसार भी अनन्य होने से, शब्द और संसार एक दूसरे के कुटुम्बी हैं ।
विचार के बिना संसार में कुछ नही देख सकते ।
किसी पदार्थ को देखने का यत्न करो और अपने चित्त में उसकी धारणा न प्रवेश करने दो तो देखना सम्भव न होगा । वास्तव में काले तख्ते को देखने, मालूम करने का अर्थ है - काले तख्ते का विचार (ख्याल) करना ।
संसार के सभी पदार्थ तदरूप कल्पना के उत्तर (प्रतिरूप) हैं । बिना ख्याल के कुछ देखा नही जाता और बिना भाषा के ख्याल संभव नहीं ।
इस बात से इस वचन की कि -
प्रारम्भ में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था । 
in the beginning there was word, the word was with GOD, and the WORD was GOD. की पुष्टि होती है ।
अतः हम एक ही शब्द या ध्वनि चाहते हैं जो समग्र संसार को प्रदर्शित करे । कोई शब्द जो शक्ति, सत्व, बल, नियामक तत्व, विश्व को धारण करने वाली वस्तु का प्रदर्शक बन सके ।
हमारे पास अ उ म है ।
अ - कंठ स्थानीय ध्वनि है, यह वाचिक इन्द्रियों के एक घेरे से आती है ।
उ - ध्वनियों की परिधि के ठीक बीच से, वाचिक स्थानों के मध्यस्थ तालु के निकट से निकलता है ।
म - ध्वनि वाचिक इन्द्रियों या भागों के अन्त या सिरे के ओष्ठ और नासिका से निकलती है ।
इस तरह -
अ - ध्वनि के परिधि के प्रारम्भ का प्रदर्शक ।
उ - मध्य का प्रदर्शक ।
म - अन्त का प्रदर्शक । यह सारे क्षेत्र को छाये है ।
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