29 जून 2012

आप सभी का 3 जुलाई को सप्रेम निमन्त्रण है

विश्व स्तर पर हम बहुत से दिवस मनाते हैं । इतने कि उन सभी का नाम बताना भी बेहद कठिन है । पर
अपने अब तक के अनुभवों से मैं समझता हूँ । इस प्रथ्वी पर गुरु पूर्णिमा से अधिक महत्वपूर्ण दिन कोई नहीं है । इसे व्यास पूर्णिमा या आषाङी पूर्णिमा भी कहा जाता है । हिन्दू तिथियों के अनुसार बस मुझे इसके जुलाई महीने में ही पङने से कुछ उलझन होती है । क्योंकि अभी नये नये स्कूल कालेज खुले होते हैं । और एडमीशन आदि चल रहे होते हैं । अबकी बार तो यह 3 जुलाई को पङ रही है । इससे थोङा पहले यह जून के महीने में पङती । तो सभी लोग बेफ़िक्र होकर इस महा दिवस पर सपरिवार गुरु आश्रमों में सम्मिलित होकर आध्यात्मिक लाभ उठाते । लेकिन मनुष्य जीवन के अनुसार इसके बे समय पङने से बहुत से इच्छुक लोग भी मजबूरी में वंचित रह जाते हैं ।
इस सबके बाबजूद भी इसका महत्व जानने वाले श्रद्धालु लोग हजारों किमी की यात्रा कर देश विदेश से गुरु के दर्शनों हेतु पहुँचते हैं क्योंकि - गु अंधियारा जानिये । रु कहिये प्रकाश । मिटि अज्ञाने ज्ञान दे । गुरु नाम है तास । गुरु पूर्णिमा का निमंत्रण हमारे शिष्यों श्रद्धालुओं को भेजते हुये मुझे इसी बात का अहसास हुआ । जब उन्होंने 3 जुलाई के कारण आने में बङी असमर्थता सी जताई । क्योंकि 1 दिन के कार्यकृम में भी दूर दूर से आने वालों को 3 दिन का समय चाहिये होता है । पर मैं

इसको एक दूसरे दृष्टिकोण से भी देखता हूँ कि शायद इसी को किस्मत भी कहते हैं । और दूसरे शब्दों में कोई पुण्य अर्जित करना भी हमारे हाथ में नहीं होता । इसके लिये सालों पहले से भावना भक्ति की धारा ह्रदय में संचरित हो । तभी ऐसे सुयोग बनते हैं । खैर..यदि आपके अन्दर भावना हो । तो गुरु कहीं दूर भी नहीं होते । बल्कि दीक्षा प्राप्त हंस ज्ञान में गुरु अंग संग होते हैं । इसलिये - लच्छ ( लाख ) कोस जो गुरु बसे । दीजे सुरति पठाय । शब्द तुरी असवार है ।  छिन ( पल में ) आवे छिन जाय । यानी आप अपनी भावना अनुसार घर पर ही गुरु चित्र के आगे भाव पूजन कर सकते हैं ।
ये विराट की अखिल बृह्माण्डी सत्ता - शब्द ( सबसे ऊपर के आसमान में धुर ( केन्द्र ) पर होती बहुत तेज घनघोर टंकार ) के वायव्रेशन से पल पल निर्मित और ध्वंस हो रही है । शब्द के वायव्रेशन से ही चुम्बकीय बल पैदा होता है । जिसे दूसरे शब्दों में गुरुत्व बल और अंग्रेजी में gravity force कहते हैं । अब आप इन्हीं 3 लाइनों में छिपे ( वास्तव में अलौकिक ) बिज्ञान के इस महा रहस्य को समझने की कोशिश करें । इस चुम्बकीय बल से ही ये सभी बृह्माण्ड निराधार टिके भी हुये हैं । और गति भी कर रहे हैं ।  किससे ? सिर्फ़ चुम्बकीय बल यानी gravity force से । और ये चुम्बकत्व किससे है - शब्द से । और शब्द ( स्वयं ) किससे है ? शाश्वत प्रकाश से । और गुरु का अर्थ

क्या है ? जीव को इसी गु ( अज्ञान के अंधकार ) से उसी  रू ( शाश्वत प्रकाश ) तक ले जाकर मिला दे । वही गुरु है । यानी हर चीज का अन्त होकर । शाश्वत सत्य से - गुरु बिन ज्ञान न उपजे ।  गुरु बिन मिले  न मोक्ष । गुरु बिन लखे न सत्य को ।  गुरु बिन मिटे न दोष ।
अब साइंस की बीन बजाने वाले एक और मजेदार चीज पर गौर करें । 500 साल पहले आये कबीर । जिन्हें दुनियाँ अंगूठा टेक कहती समझती है ( हालांकि ये बात अलग है कि कबीर का एक एक दोहा समझने में ही अच्छे अच्छे लम्ब लेट हो जाते हैं ) क्या कह रहे हैं - सतगुरु सम कोई नहीं । सात दीप नौ खण्ड । तीन लोक न पाइये ।  अरु इक्कीस बृह्मण्ड । तमाम बङी बङी दूरबीनें लगाये बैज्ञानिक और उनके पिछलग्गू आज भी मुझे इतना ही बता दें कि - 7 दीप 9 खण्ड  3 लोक  और 21 बृह्मण्ड का आखिर सही सही मतलब क्या है ? ये कहाँ हैं ? और अनपढ ? कबीर आखिर किस आधार पर ऐसा कह सके ? यहाँ कहा जा सकता है । कबीर कवित्त की कल्पनायें करने में माहिर थे । उन्होंने कल्पना के घोङे दौङाये होंगे । तो कबीर वाणी में जो धार्मिक साहित्य वेद पुराण और सबसे बङी बात कृमवद्ध ढंग से युगों युगों की बैज्ञानिक तरीके से जानकारी दी गयी है । वो एक बुनकर अनपढ जुलाहा दे सकता है ? तब जब उसे जीविका के लिये कङी मेहनत करनी होती हो ।
देखिये द्वैत के महा योगी और राम के ससुर राजा जनक के शिष्य शुकदेव के लिये उन्होंने क्या कहा - शुकदेव

सरीखा फेरिया । तो को पावे पार । बिनु गुरु निगुरा जो रहे । पड़े चौरासी धार । शुकदेव को विष्णु ने निगुरा होने के कारण स्वर्ग से लौटा दिया था । मुझे नहीं लगता । बैज्ञानिक आज भी 84 लाख योनियों के बारे में कुछ जानते हों । जबकि आत्म ज्ञानियों का सन्त मत इसका विस्त्रत बैज्ञानिक विवेचन करता है । और भी देखिये । द्वैत का कोई कथावाचक । साधु सन्त  ये कहने की हिम्मत रखता है - बिन सतगुरु उपदेश ।   सुर नर मुनि नहिं निस्तरे । बृह्मा   विष्णु  महेश । और सकल जीव को गिने ।
देवता । मुनि । बृह्मा   विष्णु  महेश जब इनका खुद का उद्धार मोक्ष बिना सतगुरु के नहीं हो सकता । तो फ़िर तुच्छ जीव ये मनुष्य किस गिनती में है ? मुझे एक बात याद आती है । कबीर सचखण्ड से जब मान सरोवर से जीवों को चेताने सतपुरुष के आदेश पर आ रहे थे । तो रास्ते में

विष्णु मिला । कबीर ने कहा - सतनाम को जानो । उसका सुमरन करो । तुम्हारा मोक्ष होगा । विष्णु चौंक गये । विष्णु ने कहा - मैं खुद जीवों को 4 प्रकार का मोक्ष देता हूँ । फ़िर मेरा कैसा मोक्ष ? कबीर ने कहा - तुम्हारा छोङो । तुम्हारे माता ( अष्टांगी या आदि शक्ति ) पिता ( काल पुरुष या निरंजन ) को भी मोक्ष प्राप्त नहीं है । वे भी अमर नहीं । वे भी समय आने पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं । फ़िर तुम  क्या मोक्ष दोगे ? तुम्हारा मोक्ष ( मुक्त ) नहीं मुक्ति ( एक लम्बे समय तक दिव्य जीवन आदि मिलना ) है ।
खैर..घोर अहंकारी विष्णु को यह बात अच्छी नहीं लगी ( जबकि उसे ये सोचना चाहिये था - मुझसे आखिर ये बात कहने वाला कौन है ? ) ।  कबीर आगे आये । तब अष्टांगी और काल पुरुष के सबसे छोटे पुत्र शंकर ने उनकी बातों को समझा । गौर किया ।
इसी को आगे दोहे में कहा है -  गुरु सरनागति छाड़ि के ।  करे भरोसा और । सुख सम्पति की कह चली ।   

नहीं नरक में ठौर । यहाँ - करे भरोसा और..का मतलब यही है । जो मनुष्य इन देवी देवताओं के उलझाऊ कठिन और लगभग पाखण्डी ( क्योंकि इनके द्वारा प्रेरित शास्त्र गोलमाल शब्दों में जीव को उलझाकर मोक्ष के नाम पर सदा धोखा देते हैं ) ज्ञान ? में फ़ँस जाता है । उसे नरक में भी स्थान पाना मुश्किल हो जाता है । क्योंकि नरक से भी भयानक स्थितियाँ इन 5 - काल पुरुष इसकी पत्नी आदि शक्ति तीनों पुत्र बृह्मा   विष्णु  महेश ने निर्मित की हैं । एकमात्र उद्देश्य वही । जीव को सदा काल के जाल में फ़ँसाये रखना । जीव ! जो काल पुरुष का भोजन है । अष्टांगी अपने पति काल पुरुष से डरती है । और उसकी ( अष्टांगी की ) शक्ति के आगे बृह्मा   विष्णु  महेश सिर्फ़ बच्चे हैं । जाहिर है । ये चारों काल पुरुष की इच्छा अनुसार ये धूर्तता करने पर विवश हैं ।


और देखिये - सतगुरु मिले तो सब मिले ।   न तो मिला न कोय । मात  पिता सुत बांधवा । ये तो घर घर होय । माता पिता पुत्र भाई बहन पत्नी पति मित्र रिश्तेदार ये तो हर जन्म में मिलते रहे । और यही रोटी दाल कमाने का बखेङा फ़ैला रहा । पर सतगुरु लाखों करोंङो जन्मों के बाद पुण्य संचित होने पर ही मिलते हैं । इसलिये - गुरु को कीजे दण्डवत । कोटि  कोटि परनाम । कीट न जाने भृगं को ।   गुरु कर ले आप समान । एक मामूली तिनके के समान रेंगने वाले किसी भी ( यहाँ जीव मनुष्य ) कीङे को भृंग ( उङने वाला । पंखों वाला चींटा ) अपने ( शब्द की गुंजार हूँऽऽ हूँऽऽ  से ) समान शक्तिशाली बना देता है । सोचिये । कहाँ जमीन पर मुश्किल से घिसटते हुये रेंगना । और कहाँ मुक्त भाव से उङना । है अदभुत बिज्ञान ।
इसीलिये सन्तों की महिमा में कितना उचित ही कहा है - साधु बिरछ सत ज्ञान फल ।  शीतल शब्द विचार । जग में होते साधु नहिं ।  जर भरता संसार ।


लेकिन एक ही खास बात है । वो क्या - जो गुरु ते भृम न मिटे ।  भ्रान्ति न जिसका जाय । सो गुरु झूठा जानिये ।  त्यागत देर न लाय । जैसा कि कबीर वाणी अनुराग सागर इस काल पुरुष इसकी पत्नी तीनों पुत्र बृह्मा   विष्णु  महेश और काल द्वारा नियुक्त विभिन्न रूपा काल दूतों ( संसार में फ़ैले नकली साधुओं के रूप में ) की सटीक पोल खोल कर रख देती है । उसी प्रकार अन्य नकली पाखण्डी गुरुओं की भी संसार में भरमार है । खास अभी कबीर और आत्म ज्ञान के नाम पर तो झूठा ज्ञान देने वाले धूर्त बहुत मुखर हो गये हैं । इसलिये दीक्षा उपदेश के बाद तुरन्त से लेकर 3 महीने के अन्दर यदि आपके अंतर में प्रकाश नहीं हुआ । 3rd eye तीसरी आँख नहीं खुली । किसी प्रकार की अलौकिकता का अनुभव नहीं हुआ । तो गौर करिये । आपका गुरु वास्तव में ही गुरु है । या आप किसी काल दूत के चक्कर में फ़ँसे हुये हैं ?
गुरु पूर्णिमा के शुभ पावन अवसर पर आपको ठोस सच्चाईयों और गुरु महिमा से कुछ कुछ परिचित कराने की कोशिश करते हुये - आप सभी का 3 जुलाई को हमारे आश्रम में सादर सप्रेम निमन्त्रण है । भले ही आप हमारे मण्डल के शिष्य हैं । या नहीं है । आप हमारे पाठक हैं । मित्र हैं । या विश्व के नागरिक हैं । आप सभी का सप्रेम निमन्त्रण है । कार्यकृम की जानकारी स्थान आदि इसी लेख में छपे अंग्रेजी हिन्दी निमन्त्रण पत्र में देखें ।
- यह निमन्त्रण पत्र अमित ( गाजियाबाद ) द्वारा तैयार किया गया है ।

27 जून 2012

एक मासिक पत्रिका के प्रकाशन की योजना

जय गुरुदेव की ! राजीव जी ! शायद आप मुझे भूल गये होंगे । क्योंकि आपके पाठकों की संख्या इतनी हो गयी है कि सबको याद रखना मुश्किल है । मैंने पहले भी आपसे कई सवाल पूछे हैं । जिनका मुझे मनोनुकूल जबाब मिला है । और काफ़ी समय बाद अब मैं एक नया सवाल लेकर आया हूँ । आशा है । आप जबाब दोगे । अरे मैंने अपना नाम तो बताया नहीं । मैं - विजय तिवारी । मेरा सवाल ये है राजीव कि आजकल लोग जो प्यार करते हैं । उसमें प्रेम तो कहीं होता नहीं । वस वासना होती है । और इस वासना को प्यार का नाम देकर ये लोग प्यार को बदनाम कर रहे हैं । ऐसा क्यों ? धन्यवाद । आपके जबाब की प्रतीक्षा करूँगा ।
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आजकल कुछ कामों में बेहद बिजी हूँ । एक तो ट्रस्ट के गठन से सम्बंधित कार्य चल रहा है । दूसरे गुरु पूर्णिमा महोत्सव का कार्य भी है । जिज्ञासुओं के फ़ोन काल्स भी सुनने समझाने होते हैं । इनके अलावा कुछ और महत्वपूर्ण कार्य हैं । जिन्हें समय देना होता है ।
देश विदेश के हमारे बहुत से पाठक । जिज्ञासु और शिष्य काफ़ी समय से ये मांग करते रहे कि हमारे आश्रम से सम्बंधित पुस्तकें किस तरह से प्राप्त हो सकती हैं ? लेकिन तव क्योंकि ऐसी कोई पुस्तकें थी ही नहीं । इसलिये मैंने कहा - अभी ये सुविधा हमारे पास नहीं है । पर अब दिल्ली के अशोक जी ने इस कमी को दूर करने की दिशा में कदम उठाये हैं । और इसके लिये एक मासिक पत्रिका के प्रकाशन की योजना बनायी है । जिसके रजिस्ट्रेशन आदि औपचारिक पहलूओं पर कार्य हो रहा है ।

उम्मीद है । ये पत्रिका सितम्बर अक्टूबर में मुक्त रूप से बुक स्टाल पर उपलब्ध होगी । लेकिन क्योंकि सम्भव है । यह पत्रिका इतनी जल्दी डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क के अभाव में अभी देश विदेश में हर जगह उपलब्ध न हो । और प्रारम्भ में अधिक धन के अभाव में इसकी सीमित प्रतियाँ ही छपेंगी । इसलिये जो पाठक इस पत्रिका को नियमित रूप से प्राप्त करना चाहते हैं । वे वार्षिक subscription के द्वारा इसकी अग्रिम बुकिंग करा सकते हैं । इसके लिये आपको अशोक जी के नेट खाते में 360 रुपये 12 प्रति ( वर्ष भर के ) के भेजने होंगे । अगर ये सुविधा आपके पास उपलब्ध नहीं है । तब आप उनके पोस्टल एड्रेस पर मनी आर्डर आदि विकल्पों से भुगतान कर सकते हैं । और भी कोई जानकारी सीधे सीधे अशोक जी से उनके मोबायल नम्बर 0

96549 65477 पर या उनकी ई मेल ID  - dipl91( यहाँ एट द रेट आफ़ @ लगायें)rediffmail( यहाँ डाट )com पर ले सकते हैं । इसी ब्लाग की तरह इस पत्रिका में भी आपके प्रश्नों के उत्तर दिये जायेंगे । पर पत्रिका का स्थान ( पेज ) सीमित होने की वजह से आपके बङे प्रश्नों को एडिट करके संक्षेप में छापा जायेगा । इसके साथ ही हमारे स्थायी पाठकों के फ़ोटो ( मगर सिर्फ़ नये भेजे गये । ब्लाग में छपे फ़ोटो नहीं ) भी प्रकाशित किये जायेंगे । और आत्म ज्ञान या अलौकिक अनुभवों पर उनके लेख भी सचित्र प्रकाशित किये जायेंगे । इसके अलावा पाठकों द्वारा भेजे गये दुर्लभ फ़ोटो दुर्लभ जानकारी को भी पत्रिका में शामिल किया जायेगा ।
इसके अतिरिक्त मेरे अनुभव लेख आदि भी पत्रिका में नियमित छपेंगे । इसके अलावा ये खबर जो शायद आपके

लिये खुशखबरी जैसी हो सकती है । मेरी नयी प्रेत कहानियाँ और भूतिया अनुभव अब आपको पुस्तकों के रूप में बुक स्टाल द्वारा उपलब्ध होंगे ।
ध्यान रहे । हमारे सभी प्रकाशन आम धार्मिक संस्थाओं की तरह बोरिंग और नीरस नहीं होंगे कि आपको सर पकङकर रोना आ जाय । और न ही उनमें आश्रम या गुरु के प्रोग्राम या गुरु के सिर्फ़ बङे बङे फ़ोटो आदि छाप कर ही आपकी जेब काटी जायेगी । बल्कि पूरी तरह व्यवसायिक अन्दाज में आपके पैसा वसूल तर्ज पर विशुद्ध दुर्लभ ज्ञान । चरित्र निर्माण । उच्च स्तरीय मनोरंजन । और आपकी शंकाओं का समाधान किया जायेगा । जिसको कहते हैं - गागर में सागर ।
पत्रिका में इस ब्लाग की तरह ग्लैमरस या अर्धनग्न फ़ोटो को जरा भी स्थान नहीं दिया जायेगा । कोई अशोभनीय शब्द या अपशब्दों को भी स्थान नहीं दिया जायेगा । कहने का मतलब ये पत्रिका न सिर्फ़ संग्रहणीय होगी । बल्कि आप इसको घर में आराम से सभी को पढाकर प्रेरित कर सकते हैं ।

इसके भी अतिरिक्त समय समय पर आपके बहुमूल्य सुझावों पर अमल करते हुये पत्रिका में उस तरह के बदलाव करने की कोशिश की जायेगी । और एक बात का आपको खास ध्यान रखना होगा कि - आपके द्वारा भेजा गया कोई भी मैटर पत्रिका में अगले 2-4 दिन में छप जाये । जैसा ब्लाग में होता है । ऐसा संभव नहीं होगा । हो सकता है । वह अगले 2 महीने बाद स्थान पा सकें । इसलिये कोई भी MATTER समय से काफ़ी पहले भेजना होगा । भेजने का तरीका वही मेरा ई मेल आई डी golu224 होगा । जिनके पास नेट सुविधा उपलब्ध न हो । वह डाक या कोरियर द्वारा अशोक के एड्रेस पर भेज सकते हैं । यह एड्रेस शीघ्र ही उपलब्ध होगा ।
वैसे हमारी पूरी पूरी कोशिश इस पत्रिका को देश भर में उपलब्ध कराने की होगी । पर कुछ समय लग सकता है । 


इसलिये इस अति दुर्लभ अद्वैत ज्ञान के धार्मिक प्रचार प्रसार में हमारे स्थायी पाठक महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर पुण्य अर्जित कर सकते हैं । इसके लिये आप अपने शहर में 100-200 जितने सदस्य बना सकते हैं ।  बना लें । तब पत्रिका की सभी प्रतियाँ एक ऐजेंट की भांति आपके पते पर इकठ्ठी रजिस्टर्ड डाक से भेज दी जायेगी । जिसका आप वितरण कर सकते हैं । इससे पत्रिका को भेजने में खर्च बहुत कम आयेगा ।
इसके अलावा आने वाले कुछ ही महीनों में हमारे आश्रम में ध्यान की क्लासें और उनका तकनीकी ज्ञान अलौकिक अनुभव आदि शुरू हो जायेगा । जिसमें सिर्फ़ पंजीकृत लोगों को ही शामिल किया जायेगा । इसके लिये आपको पहले से पंजीकरण कराना होगा । और अपने खर्चे पर आश्रम में रहना होगा ।
इसके अतिरिक्त हम SUPREME POWER सहज योग के शिक्षक और प्रचारकों को भी तैयार करेंगे । जाहिर है । ये निरा परमार्थी कार्य नहीं होगा । इससे उन्हें आमदनी भी होगी । अतः इसके लिये ऊर्जावान लङकियाँ लङके महिलायें पुरुष आदि अभी से आवेदन कर सकते हैं । क्योंकि ऐसे स्थान फ़िलहाल तो सीमित होंगे । इसमें बेरोजगार और निर्धन लोगों को प्रमुखता दी जायेगी । या फ़िर जो परमार्थ भाव से भक्ति को समर्पित होना 


चाहते हैं । या योग में ऊँचाईयों को पाना चाहते हैं । उन्हें विशेष महत्व देते हुये अलग से खास तैयार किया जायेगा ।
जो माया को झूठा कहें । उनका झूठा ज्ञान । माया से ही होत हैं । तीर्थ पुण्य और दान ..की तर्ज पर फ़िलहाल 10 बीघा जमीन में फ़िरोजाबाद  ( से 25 किमी दूर ) के पास ग्रामीण माहौल में भरपूर हरियाली और स्वच्छ हवा ( जंगल में मंगल ) के वातावरण में आश्रम का निर्माण कार्य शनै शनै हो रहा है । इसके निर्माण में जो लोग मन्दिर आश्रम आदि को दान करने में यकीन रखते हों । वे हमसे सम्पर्क कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त जैसा कि अन्य आश्रमों में भी होता है । पूरा कमरा बनबाकर आप आश्रम के आजीवन सदस्य भी बन सकते हैं । इसमें आपके कभी भी आश्रम आने पर वह कमरा आपके रहने के लिये विशेष उपलब्ध होगा । अब मुझे जितना अधिक से अधिक इस वक्त याद आया । मैंने लिख दिया । फ़िर भी कोई शंका सवाल शेष रहने पर आप मुझसे या श्री महाराज जी से फ़ोन पर पूछ सकते हैं । साहेब ।
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विजय तिवारी के प्रश्न का उत्तर देने की शीघ्र कोशिश की जायेगी ।

25 जून 2012

काम बहुत है जीवन थोङा

जय गुरुदेव की बन्धुओ ! अक्सर कभी कभी ऐसा होता है । हम फ़ुरसत में होते हैं । और हमें समझ नहीं आता कि - क्या करना चाहिये ? और उस ( मानसिकता में ) समय कोई उचित शब्द भी याद नहीं आते । जिसके आधार पर हम नेट पर ही कुछ सर्च कर सकें । आपके ऐसे ही पलों हेतु कुछ महत्वपूर्ण लिंक्स जिनसे आप बहुत कुछ जान सकते हैं । लेकिन जो भी मैटर या इमेज आपको अपने लोगों या ब्लाग्स हेतु महत्वपूर्ण लगें । उसे कापी करके मुझे भेज दें । इन लिंक्स को विजिट करते समय आप कमेंट द्वारा उन्हें बता भी सकते हैं । इन सभी अनुत्तरित सवालों के प्रयोगात्मक और स्व अनुभूत ( प्रश्नकर्ता को खुद प्रक्टीकली अनुभव 


होगा ) जबाब 100% हमारे पास हैं । और आप उनको बेहद सरलता से जान सकते हो ।  यदि आप ( वे लोग भी ) चैलेंजिंग स्थितियों के शौकीन हैं । तो श्री महाराज जी के लिये ये खेल तत्क्षण से लेकर सिर्फ़ 11 दिन का है । आदि जानकारी सम्बन्धित लोगों को दें ।
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http://jsh.christianscience.com/contact-us
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http://bloomsbury.com/contactus/content/1
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http://en.wikipedia.org/wiki/Lolita

24 जून 2012

गुरु अपने शिष्य को सब कुछ दे देता है

राजीव जी ! नमस्कार । सबसे पहले मैं आपका धन्यवाद करना चाहुँगा कि आपने मेरी जिज्ञासा का समाधान करने की कृपा की । मैं आपकी सभी बातों से सहमत हूँ । किन्तु क्षमा करें कि मैं अपने प्रश्न को आपके सामने सही शब्दों में कह नहीं पाया । मैं बिना कुछ करे ही आपसे सीधे कुछ नहीं माँग रहा था । अपितु मेरे द्वारा आपसे सहायता माँगने का तात्पर्य मुझे साधना में आपके मार्ग दर्शन से था । क्योंकि मेरी नजर में ऐसा कोई नहीं है । जो इतने उच्च स्तर का हो ।
और जो किसी भी साधना में मेरा सही तरीके से मार्ग दर्शन कर सके । क्योंकि हर किसी को प्रत्येक प्रकार की साधना की सही जानकारी नहीं होती है । और आप उस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं । जहाँ प्रत्येक साधना का व हर प्रकार का ज्ञान आपसे ही निकलता है । और इस बात का मतलब आप अच्छी तरह जानते हैं ।
मैं भी थोडा सा स्वाभिमानी टाइप का इंसान हूँ । मैं उनमें से नहीं हुँ । जो बिना कुछ करे । सब कुछ पाना चाहता हो । आम धारणा है कि भक्ति साधना आदि उन लोगों के लिये है । जो मेहनती न हों । काम चोर हों । किन्तु कोई भी साधना करना कितना मुश्किल होता है । व उसमें कितना जोखिम होता है । यह आप भली भांति जानते हैं । कभी -2 पागलपन व मृत्यु तक के हालात बन जाते हैं । एक बात और । ऐसा नहीं है कि मुझे अपने गुरु पर भरोसा नहीं है ।

एक कहावत है - बिन माँगे मोती मिले । माँगे मिले ना भीख  ये कहावत गुरु - शिष्य परम्परा पर लागू होती है । जहाँ गुरु अपने शिष्य को अपने आप सब कुछ दे देता है । किन्तु शिष्य की इच्छा भी जायज होनी चाहिये । और मैं मानता हूँ कि मेरी ये इच्छायें ( साधना आदि ) जायज नहीं हैं । किन्तु मैं भी एक आम व साधारण मनुष्य हूँ ।
जो पूरी तरह से मन ( काल ) के वश में है । जो मान सम्मान इज्जत धन दौलत रुतबे को पाना चाहता है ।
और मैं नहीं जानता कि किस अदृश्य शक्ति के वशीभूत होकर मैंने आपसे मार्ग दर्शन माँगा था । शायद ये भी मेरे भले के लिये ही था । आप जो भी कहेंगे । मेरा मार्ग दर्शन करेंगे । मेरे भले के लिये ही करेंगे । ऐसा मेरा विश्वास है । आप का एक बार फ़िर से धन्यवाद है ।
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दीपक ! पूर्ण साफ़गोई से अपनी बात कहने के लिये आपका धन्यवाद । कुछ आवश्यक सूचनाओं के बाद आपसे बात करते हैं ।
- इस बार गुरु पूर्णिमा 3 july को पङ रही है । आध्यात्मिक दृष्टि से यह बहुत महान दिन होता है । कोई भी शिष्य अपनी बेहद मजबूरियों के चलते यदि पूरे साल गुरु के दर्शन नहीं कर पाता ।  तो कम से कम इस दिन उसे जरूर करना चाहिये । जिनका कोई गुरु अभी नहीं हैं । निगुरा हैं । उनको भी किसी आश्रम में जाकर इस पर्व में शामिल होना चाहिये । जो गुरु उपदेश लेने की इच्छा रखते हैं । वे भी बिना गुरु के ही किसी आश्रम में जाकर कोई सतसंग सुनें । ऐसा मेरा सुझाव है । इससे आपको सभी तीर्थों के बराबर पुण्य अनायास ही मिलता है । लेकिन जिनको कोई गुरु.. आश्रम समझ में नहीं आ रहा हो । वे सभी । और और भी जाने अनजाने अन्य सभी हमारे आश्रम पर 3 दिवसीय सतसंग में सादर आमंत्रित हैं । इसकी सूचना अलग से पूरे लेख के साथ भी प्रकाशित होगी । पर ये अभी से आपके संकल्प प्रोत्साहन और मन में उठे प्रश्नों के लिये अग्रिम जानकारी हेतु है । ताकि आप ऐसी भावना होने पर आने की पहले से तैयारी कर सकें । अन्य कोई भी जिज्ञासा होने पर आप मुझे निसंकोच फ़ोन कर सकते हैं ।
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मेरा लक्ष्य 10 लाख जीवों ( स्त्री पुरुषों ) को आत्म ज्ञान मार्ग में चेताने का है । और 7 अरब की वैश्विक जनसंख्या में यह गिनती कोई बहुत बङी नहीं है । और ऐसा मैं अकेले नहीं कर रहा । या करूँगा । आप में से बहुत लोग मेरे साथ है । खुद को मतिभृष्ट और निकृष्ट मानने वाले उत्कृष्ट और बुद्धिमान अशोक जी अपनी बेहद व्यस्तता के बाबजूद अपनी सामर्थ्य से ज्यादा तन मन धन से इस पुण्य कार्य में मेरा भरपूर सहयोग कर रहे हैं । पर इसके लिये प्रथ्वी के नियम कानून अनुसार हमें एक सोसायटी का  गठन करना होगा । खास अशोक जी का नाम मैंने इसलिये लिया । क्योंकि सोसायटी के गठन से सम्बंधित सभी कार्यभार वही संभाल रहे हैं । यह सोसायटी अभी राष्ट्रीय स्तर पर गठित होगी । इसकी प्राथमिक जरूरतों में 5 राज्यों से अलग अलग 1-1 सदस्य बनेगा । जो लगभग तय हो  चुके हैं । इस सोसायटी के अभी तय 2 मुख्य उद्देश्यों में से एक अधिकाधिक लोगों को आत्म ज्ञान या सरल सहज.. सहज योग का ज्ञान देना है । जिससे प्रत्येक अपनी दैहिक दैविक भौतिक बाधाओं से छुटकारा पा सकेगा । और निसंदेह एक सुखी खुशहाल विश्व का निर्माण होगा । सोसायटी का अभी तय दूसरा मुख्य उद्देश्य निर्धन कन्याओं का सनातन रीति से आर्य ( श्रेष्ठ ) परम्परा से विवाह कराना होगा ।


इसमें भारत या विश्व का कोई भी नागरिक अपनी सामर्थ्य अनुसार सहयोग कर सकता है । उम्मीद है । अगले 2 महीने में सोसायटी का गठन हो जायेगा । तब इसके बारे में विस्त्रत जानकारी प्रकाशित होगी । लेकिन इस अग्रिम जानकारी से आप हमारे साथ जुङ सकते हैं । और पात्रता होने पर तन मन धन आत्मा का चहुमुखी नहीं बहुमुखी लाभ पा सकते हैं । ये राजीव बाबा का वादा नहीं दावा है । अगर आप इस महान पुण्य कार्य में सहयोगी होना चाहते हैं । तो तैयार हो जाईये । और अपना विवरण प्रार्थना पत्र आदि भेज दीजिये ।
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अब दीपक जी से चर्चा करते हैं । जैसा कि मैंने बहुत बार स्पष्ट किया है । आपका कोई भी प्रश्न नितांत व्यक्तिगत हो सकता है । उसमें प्रेषित प्रश्न भाव सिर्फ़ 1 ही हो सकता है । पर मेरा उत्तर उस भाव के आधार पर बहु आयामी और सार्वजनकि भावना के साथ होता है । जिससे अधिकाधिक लोगों की 1 ही बार में जिज्ञासा शान्त हो सके । अतः मैं प्रश्न की मूल भावना में निहित सभी पक्षों पर खुलकर बताने की कोशिश करता हूँ । इसलिये मैंने आपका प्रश्न बखूबी समझ लिया । और उन सभी बिन्दुओं पर उत्तर देने की कोशिश की । जो भले ही आपके भावों में नहीं थे । पर दूसरे बहुत से लोगों के हो सकते हैं । होते हैं ।
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सबसे पहले तो मैं आप सभी से यही कहना चाहूँगा कि - मनुष्य का प्रथम लक्ष्य और कर्तव्य यही होना चाहिये

कि आत्म ज्ञान की हँस दीक्षा द्वारा वह अपना अगला मनुष्य जन्म निश्चित कर ले । ताकि मृत्यु के बाद 84 लाख योनियों में गधा घोङा कुत्ता बिल्ली आदि बनने से बच सके । लेकिन यह दीक्षा असली और सच्ची हो । तभी यह संभव है । इसका प्रमाण तुरन्त से लेकर अधिकतम 3 महीने में अंतर प्रकाश द्वारा मनुष्य को स्वयं ही मिल जाता है । यदि आपको ये हँस दीक्षा मिलने में कठिनाई आ रही हो । तो आप हमारे यहाँ से ले सकते हैं । ये पूरी तरह से निशुल्क है । बस आपको विश्व के किसी भी स्थान से फ़िरोजाबाद ( से 25 किमी दूर ) हमारे आश्रम पर सिर्फ़ 1 दिन को आना होगा ।

देखिये क्या है - ये नाम उपदेश । नाम लिया तिन सब लिया चार वेद का भेद -  ये 9 शब्द कितनी बङी बात कह रहे हैं । ये नाम ( हँस दीक्षा ) जिसने लिया । उसने 4 वेदों का भेद जान लिया । जबकि हर इंसान जानता है । सिर्फ़ वेदों के रहस्य ही जानना कितना मुश्किल है । सिर्फ़ वेदों पर ही सदियों से शोध हो रहा है । और कोई नतीजा नहीं निकला । जबकि नाम के आगे वेदों की तुच्छता भी अगले 8 शब्द पूर्ण बेबाकी से कह रहे हैं - बिना नाम नरकै पङा पढ पढ चारों वेद । इसलिये आपके इसी नाशवान शरीर की आती जाती स्वांसों में गूँजता ये उल्टा नाम अपने असीमित सदा लाभदायी प्रभावों के चलते अवर्णनीय है ।
आपसे सहायता माँगने का तात्पर्य मुझे साधना में आपके मार्ग दर्शन से था - हाँ ! ये बहुत सही है । जब आप मुझ पर पूरा विश्वास करते हैं । तो मैं भी आपको अधिकाधिक लाभ पहुँचाऊँ । वास्तव में सबसे उचित सरल सहज सलाह यही है कि - आपको सार शब्द ज्ञान भक्ति का सर्वोच्च मंत्र सतनाम उपदेश प्रथम लेना चाहिये । इससे आप एकदम सेफ़ जोन में पहुँच जाते हैं । और इस ज्ञान का दूसरा नाम या भाव - लय योग है । यानी इसमें सभी द्वैत मंत्र तंत्र कुण्डलिनी आदि विधाओं का स्वतः समावेश हो जाता है । इसके बाद बङे सरल सहज ढंग से बिना किसी आडम्बर ( पूजा पाठ के बाहय टोटके ) के आपको सिर्फ़  सुमरन करना होता है । फ़िर यदि आपके कोई संस्कार बेहद जटिल और विपरीत नहीं है । तब यह नाम ? आपकी सभी मनोकामनाओं को इच्छा लता की भांति कृमशः फ़ल देने लगता है । जैसी कि आपने किसी दिव्य कन्या से विवाह की इच्छा की । तो ये आपकी मानुषी पत्नी में ही दिव्य गुण उत्पन्न कर देगा । इसके बाद नाम के प्रभावों से अभिभूत होकर आप स्वयं ही लगन से नाम जप करने लगेंगे ।  तब यह आपको विभिन्न दिव्य अनुभव कराने लगेगा । और कृमशः अगले जन्मों में आपकी दिव्य सुन्दरी से विवाह ( क्योंकि ये आपका संस्कार बन चुका होगा ) की मनोकामना भी पूरी करायेगा । ये इच्छा पूरी होने से आप और भी लगन से भक्ति करेंगे । तब यह आपको हर तरह से धनी बनाता जायेगा । और जन्म मरण के आवागमन चक्र से मुक्त कर देगा । 

क्योंकि हर किसी को प्रत्येक प्रकार की साधना की सही जानकारी नहीं होती है - ये सही है । लेकिन इससे भी अधिक सही ये है कि आज साधना सिद्ध के नाम पर झूठे लोगों का बोलबाला अधिक है । इसलिये जन सामान्य इस दुर्लभ ज्ञान को संदेह की दृष्टि से देखने लगा है ।  और जो सच्चे लोग हैं । वे प्रायः आसानी से शिष्य नहीं बनाते । और आम आदमी से दूर ही रहना पसन्द करते हैं ।
भक्ति साधना आदि उन लोगों के लिये है । जो मेहनती न हों । काम चोर हों - इसे भक्ति साधना नहीं । भीख माँगना कहते हैं । अगर कोई साधु और भिखारी में फ़र्क नहीं कर पाता । तो मैं गलती उसी इंसान की अधिक मानता हूँ ।
किन्तु कोई भी साधना करना कितना मुश्किल होता है । व उसमें कितना जोखिम होता है - प्रायः ऐसी जोखिम भरी साधनायें निकृष्ट और तामसिक मार्ग वाली ही होती हैं । जो मायावी शक्तियाँ हासिल करने हेतु की जाती हैं । भक्ति श्रेणी के अंतर्गत आने वाली द्वैत अद्वैत कुण्डलिनी आदि सभी साधनायें हर तरह से जोखिम रहित होती हैं । एक डरपोक किस्म की औरत भी आसानी से कर सकती है । लेकिन ये सत्य है । कई साधनाओं में धैर्य । और नियम । संयम आचरण आदि के द्वारा कठिन तप स्थिति से गुजरना होता है । लेकिन किसी भी साधना की पहली कक्षा भक्ति से शुरू होती है । फ़िर हम अभ्यास द्वारा साधना के पात्र बन ही जाते हैं ।
कभी -2 पागलपन व मृत्यु तक के हालात बन जाते हैं - ऐसा सिर्फ़ किताबों को पढकर किये गये हठ योग या शिष्य की अति मूढता के चलते की गयी मनमुखता से ही संभव है । चालाकी । कपट और मनमुखता शिष्य को किसी प्रकार का लाभ पहुँचाने के बजाय घोर गम्भीर नरकों में ले जाती है । पर ऐसे केस बहुत कम ही होते हैं । गुरु मुख शिष्य सदैव निरंतर उत्थान करता है । और कृमशः स्थायी सुख शान्ति की ओर अग्रसर होता रहता है । मैंने कभी कोई कपट चालाकी या गुरु से मनमुखता तो नहीं की । पर हठ योग का मुझे बहुत अनुभव है । जिसके चलते मैं कई बार मृत्यु के मुँह में पहुँच गया ।
जहाँ गुरु अपने शिष्य को अपने आप सब कुछ दे देता है - अपने शिष्य को उन्नति करते देख कर गुरु को सर्वाधिक खुशी होती है । वास्तव में कोई भी सच्चा गुरु अपना पूरा ज्ञान मेधावी शिष्य पर उङेल देना चाहता है । बस शिष्य गुरु की कसौटी पर खरा उतरना चाहिये । परमात्मा के नियम अनुसार सच्चा गुरु शिष्य को अपने समान बनाकर ही छोङता है । इसी को गुरु से एका होना कहा जाता है । बहुत सी अन्य स्थितियों में यदि गुरु वृद्ध हैं । और उनके शरीर त्यागने का समय आ गया । तो वो अपना ज्ञान और शक्तियाँ अपने सबसे प्रिय शिष्य में ट्रांसफ़र कर जाते हैं । क्योंकि ऊपर इसकी आवश्यकता नहीं होती ।
शिष्य की इच्छा भी जायज होनी चाहिये । और मैं मानता हूँ कि मेरी ये इच्छायें ( साधना आदि ) जायज नहीं हैं - ये आपकी गलतफ़हमी है । अभी अज्ञान ( जीव की सीमित ज्ञान क्षमता ) स्थिति में आप बहुत छोटी कल्पनायें ही प्राप्ति हेतु कर ( सोच ) सकते हैं । जबकि महत्वपूर्ण प्राप्तियों के लिये बङी इच्छायें बङे लक्ष्य ( 1 लालच की हद तक ) बेहद आवश्यक होते हैं । मैं जब द्वैत ज्ञान में था । एक साधु से मेरी बात हुयी । उसने मेरे मोक्ष क्या ? प्रश्न के उत्तर में बताया - परमात्मा में लीन  हो जाना । जैसे जल की बूँद समुद्र में मिल जाये । मैंने अपनी बेहद चालाक बुद्धि से इसका मतलब ये निकाला कि इससे तो जो मैं हूँ । वो भी गया । बूँद भी गायव हो गयी । मैंने तुरन्त निर्णय लिया - भाङ में जाये मोक्ष । ऐसा मोक्ष ? मुझे नहीं चाहिये । ऐसे ही एक दूसरे प्रसंग में द्वैत जीवन में ही एक साधु ने मुझे बरगदिया ( वट ) यक्षिणी सिद्ध करने का सुझाव दिया । जो भारी धन सम्पत्ति और अकल्पनीय काम भोग देती है । जैसी लङकी स्त्री ( जितनी आयु वाली ) की आप कल्पना करो । वह तुरन्त वैसी ही हो जाती है । मैंने और मेरे साधक दोस्त ने निगाह बचाकर एक दूसरे को आँख मारी । और इशारों इशारों में ही कहा - बस हो गयी बल्ले बल्ले । और क्या चाहिये ? भाङ में गयी भक्ति अक्ति । और वट यक्षिणी के जागते हुये ही सपने देखने लगे ।

आप अन्दाजा लगाईये । मेरे जैसे 100% चालू मार्का भक्त पर भी जब प्रभु कृपा करते हुये कृमशः अद्वैत की सर्वोच्च भक्ति देते हैं । फ़िर आपकी इच्छायें तो बहुत सीमित और स्वाभाविक हैं । मैं तो अब भी कमाई ( नाम भक्ति ) कम करता हूँ । एकाउंट ज्यादा देखता हूँ । कितना माल पानी जमा हो गया ? आप मेरा यकीन करिये । मैं अब भी बहुत मामलों में 100% चालू हूँ ।
जो मान सम्मान इज्जत धन दौलत रुतबे को पाना चाहता है - सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिमि हरि शरण न एक हू बाधा । नाम लेय और नाम न होय । सभी सयाने लेय । मीरा सुत जायो नहीं शिष्य न मुँङया कोय । अर्थात जिस तरह मछली अथाह पानी वाले स्थान पर सदा सुखी रहती है । उसी प्रकार हरि ( शरीर को हरा भरा रखने वाली एकमात्र स्वांस को ही गूढ रूप में हरि कहा जाता है ) की शरण या भक्ति ( जुङा हुआ मनुष्य ) करने वाले  को कोई परेशानी कभी नहीं होती । वैसे तो ये नाम इतना देता है कि फ़िर कुछ भी पाने की अभिलाषा शेष नहीं रहती ।  फ़िर भी ये मान सम्मान इज्जत धन दौलत रुतबा सिर्फ़ इसी मृत्यु लोक में ही नहीं । अलौकिक जगत में भी  इसकी थोङी सी कमाई के बाद दिलाना शुरू कर देता है । नाम लेय और नाम न होय । इसका प्रमाण मीरा जी ( गुरु - रैदास ) हैं । जो स्वयं परमात्मा स्वरूप ही हो गयीं । उनके न कोई पुत्र हुआ । और न उन्होंने कोई शिष्य बनाया । फ़िर भी उनका नाम आदर के साथ चमक रहा है ।

22 जून 2012

मैं दिव्य कन्या से विवाह करना चाहता हूँ




राजीव जी ! नमस्कार । मैंने पहले भी आपसे एक प्रश्न पूछा था । किन्तू उसका उत्तर प्राप्त नहीं हो पाया था । इस बार फिर से आपसे अपनी एक जिज्ञासा का समाधान चाहता हूँ । आशा है । इस बार जवाब मिल जायेगा ।
Q - क्या अप्सरा । यक्षिणी । गन्धर्व आदि की तरह कोई योद्धा जाति भी होती है ? जिसकी स्त्रियां भी योद्धा होती हैं ? क्या कोई मनुष्य इनसे विवाह कर सकता है ? यदि हाँ ! तो क्या वह मनुष्य रूप में प्रथ्वी पर ही रहेगी । व क्या वह सन्तान भी उत्पन्न कर सकती हैं ? यदि सम्भव हो । तो क्या आप मुझे ऐसा करने में मेरी सहायता कर सकते हैं । यानी कोई साधना आदि के द्वारा । यदि आपकी सहमति हो तब ही । मैं कोई गलत भावना से यह सब नहीं कह रहा । या करना चाहता हूँ । बल्कि मैं हकीकत में किसी ऐसी ही दिव्य कन्या से विवाह करना चाहता हूँ । जो सुन्दर । सुशील । बहादुर । पतिवृता आदि गुणों से युक्त हो । क्योंकि प्रथ्वी पर इन गुणों से युक्त कन्या का मिलना अत्यन्त कठिन व मुश्किल है । किन्तु आप चाहें । तो यह सब बडी आसानी से मिल सकता है । क्योंकि जितना मैंने आपके ब्लाग को पडा व समझा है । उस हिसाब से आप परम तत्व को प्राप्त कर चुके है । और ये सब बातें आपके लिये अत्यन्त मामूली स्तर की हैं । इसलिये बडे सोचने व समझने के बाद ही मैं आपसे अपने मन की बात कह पा रहा हूँ । यह बात मैंने आज तक किसी से नहीं कही है । इसलिये यदि आपको सही व उचित लगे । तो कृपया मेरा मार्गदर्शन करें ।
एक और बात है । मैंने कुछ समय पूर्व हनुमान व शिव की साधना भी की थी । किन्तु उन्हें बीच में ही छोड दिया 

था । मुझे स्वपन में यह सन्देश भी मिला था कि - मेरी साधना मेरे विवाह के बाद ही पूरी होगी । व मेरी समस्त अभिलाषायें भी पूरी हो्गी । किन्तु मेरी सबसे बडी अभिलाषा तो विवाह से ही सम्बन्धित है । अतः आपसे विनमृ निवेदन है कि - कृपया मेरी सहायता कीजिये । आपके मार्ग दर्शन के इन्तजार में -
कृपया यदि सम्भव हो । तो मेरी पहचान गुप्त रखी जाय । क्योंकि इस तरह के सवालों पर हमारे समाज में मजाक बनायी जाती है । और मैं स्वभाव से थोडा अंतर्मुखी हूँ । बडे प्रयास के बाद ही मैं अपनी बात को आपके सामने रख रहा हुँ । क्योंकि हमारे समाज में इन बातों ( यक्षिणी । अप्सरा । साधनायें आदि ) का कोई भी स्थान नही है । आम आदमी तो इन बातों से पूरी तरह अनभिज्ञ है । जबकि यह सब हमारे प्राचीन इतिहास का एक अभिन्न अंग है । पर आज के आधुनिक समाज में इन बातों का कोई अस्तित्व ही नही है । माफी चाहता हुँ । मैंने आपका बहुमूल्य समय लिया । आपका एक तुच्छ सा जिज्ञासु ।
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दीपक जी ! सत्यकीखोज पर प्रथम प्रत्यक्ष आगमन पर आपका बहुत बहुत स्वागत है । आपसे मिलकर बेहद खुशी हुयी । यह सच है । यदि कोई नवयुवक हो । और वह साधना करने का इच्छुक और इन विषयों का वास्तविक जिज्ञासु हो । तो मुझे वाकई खुशी होती है । हालांकि योग आध्यात्म और भगवद विषयों को रोमांटिक मजाकिया और बेहद हल्के फ़ुल्के अंदाज में पेश करने की वजह से तमाम लोग मेरी ( कटु 

भी ) आलोचना  करते हैं । पर मैं ये कटु सत्य भी जानता हूँ । तमाम लङके लङकियाँ । जो अक्सर 18 के आसपास भी हैं । इसी शैली और भाव के कारण इस दुर्लभ योग बिज्ञान की तरफ़ तेजी से आकर्षित हुये । और मुझसे सम्पर्क किया । अधिकतर साधु अपने मानवीय जीवन के पक्षों को छुपाते हैं । जबकि इसके अपवाद मैंने अपने जीवन के अधिकाधिक सामान्य और योग पक्षों को सिर्फ़ इसीलिये उजागर किया । ताकि लोग समझ सकें कि - एक आम आदमी भी किसी न किसी स्तर पर साधना कर सकता है । न कि अपनी महिमा गाने हेतु ।
सबसे पहले मैं आपकी शिकायत दूर कर दूँ । आपने शायद एक बहुत छोटी सी ब्लाग टिप्पणी द्वारा ये प्रश्न किया था । जो उस वक्त मेरे ध्यान से उतर गयी । मैं अपने सभी पाठकों से कहना चाहूँगा । यदि आप गम्भीरता से अपनी किसी इच्छा जिज्ञासा पर बात करना चाहते हैं । तो मेरे सभी ब्लाग्स पर ऊपर फ़ोटो पर मेल I D और फ़ोन नम्बर दिया है । जिस पर आप अपनी बात रख सकते हैं । कृपया अपनी जिज्ञासा पूरे विस्तार से परिचय के साथ फ़ोटो के समेत भेजें । आपकी इच्छा अनुसार ही आपके परिचय को गुप्त या प्रकट किया जायेगा । ध्यान रहें । ये सेवा पूरी तरह निशुल्क है । निर्मल बाबा के ढाबा की तरह 2000 रुपया रजिस्ट्रेशन और बाद में आमदनी के 10% के रूप में कोई दसबन्द ( हमेशा के लिये ) भी नहीं देना होता ।
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आपके प्रश्नों पर बात करने से पहले मैं आपको देवलोक के ताजा समाचारों से अवगत करा दूँ । आपने भक्त ध्रुव
और प्रहलाद का नाम अवश्य सुना होगा । अपनी भक्ति के चलते इन दोनों को ही देवराज इन्द्र का पद और स्वर्ग लोक प्राप्त हुआ था । जिसमें अभी तक इन्द्र पद पर प्रहलाद था । अब उसका कार्यकाल समाप्त हो रहा है । उसे  नीचे फ़ेंक दिया जायेगा । और उसकी जगह नया इन्द्र ध्रुव बनेगा । बस इस कार्य हेतु कार्यवाही जारी है । प्रथ्वी से जाने के बाद इतना समय ध्रुव ने दिव्य लोकों में ऐश्वर्य भोगते हुये गुजारा । आप इनके प्रथ्वी पर होने के कालखण्ड से अभी तक की समय गणना करते हुये अलौकिक रहस्यों के नये ज्ञान से परिचित हो सकते हैं । गंगा 1 महीने से कुछ ही पहले प्रथ्वी पर अपना शाप और उतरने के अन्य उद्देश्य पूरा कर वापस चली गयी । अब आईये । आपके प्रश्नों पर बात करते हैं ।
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क्या अप्सरा । यक्षिणी । गन्धर्व आदि की तरह कोई योद्धा जाति भी होती है ? अप्सरा । यक्षिणी । गन्धर्व आदि योनियाँ हैं । और जिस प्रकार मनुष्य और जानवरों में भी डरपोक और बहादुर दोनों तरह के जीव होते हैं । हर योनि में होते हैं । चाहे वो देवता हो । या राक्षस । योद्धा कोई जाति न होकर किसी कला विशेष और वीरता युक्त लोगों का एक वर्ग ही होता है ।

क्या कोई मनुष्य इनसे विवाह कर सकता है ? अगर इस बात का आशय साधारण मनुष्य से लिया जाये ।

तो कभी नहीं । दरअसल उपरोक्त खासियतों का 1 अर्थ - खास अमीरी । खास सुन्दरता । खास विशेषता से भी लिया जा सकता है । जाहिर है । 1 राजकुमारी या अपूर्व सुन्दरी ( साधारण मानवी ) भी कभी साधारण पुरुषों से आकर्षित नहीं होगी । दूसरे शारीरिक क्षमतायें उसके लिये साधारण मनुष्य के पास नहीं होंगी । जैसे मान लो । वह किसी लोक में ही अपने साथी हेतु विहार के लिये जाना चाहे । तो बिना सूक्ष्म शरीर ज्ञान और उससे सम्बंधित ताकत योग्यताओं के साथी पुरुष नहीं जा सकता । दूसरा काम भोग और सम्बंधित श्रंगार कलायें आदि भी साधारण मनुष्य नहीं जानता । दरअसल एक आम धारणा सी बन गयी है कि किसी विशेष मंत्र के जाप सिद्धि आदि से ऐसी अलौकिक योनियाँ वश में हो जाती हैं । और उनसे मनचाहा काम लिया जा सकता है
। यह बात सत्य तो है । पर उतना स्थूल रूप में नहीं । जितना कि लोग समझते हैं । क्योंकि कोई भी मंत्र का सिद्ध कर्ता जब तक उस मंत्र को सिद्ध करने लायक होगा । तब तक उसमें दिव्यता आ चुकी होगी । संक्षेप में कहूँ । तो ऐसी उचित पात्रता प्राप्त करने में 10 साल लग ही जाते हैं । बाकी वह मनुष्य रूप ही आराम से रह सकती है । और बच्चे भी पैदा कर सकती है । शान्तनु के साथ गंगा । और विश्वामित्र के साथ मेनका आदि अनेकों बहुत से उदाहरण हैं । जिनमें दिव्य स्त्रियों ने मनुष्य जीवन जिया । और संतान उत्पन्न की ।
क्या आप मुझे ऐसा करने में मेरी सहायता कर सकते हैं ? मैं आपकी क्या सबकी सहायता करना चाहता हूँ । चाहे वह लङका हो । लङकी हो । स्त्री हो । पुरुष हो । बूढा हो । जवान हो । ये एक पढाई है । बिज्ञान है । योग बिज्ञान । अगर आप में इसकी पात्रता आ जाती है । तो इससे भी बङे लक्ष्य आसानी से मिल सकते हैं । लेकिन पढाई मेहनत आपकी ही होगी । और इसके 2 तरीके हैं । 1 कुछ साल निरंतर आश्रम में रहकर साधना करना । और 2 योग विधि सीखकर मंत्र दीक्षा आदि के बाद अपने घर रहकर लक्ष्य की प्राप्ति करना । इसके लिये बीच बीच में अङचन महसूस करने पर आपको आश्रम आना होगा । आप हनुमान व शिव की

साधना कर चुके हैं । ये उससे बहुत सरल है । इसीलिये इसका नाम सहज योग है ।
मैं हकीकत में किसी ऐसी ही दिव्य कन्या से विवाह करना चाहता हूँ - अगर मैं कहता । तो शायद लोग विश्वास न करते । पर सन्त मत की किताबों में एक दिलचस्प बात लिखी होती है । आत्म ज्ञान की इस पढाई में आपके 0/0 नम्बर भी आते हैं । तो भी स्वर्ग आपके पैरों में होगा । द्वैत में स्वर्ग की प्राप्ति को जहाँ बहुत बङी प्राप्ति माना गया है । वहीं सन्त मत में इसे बेहद तुच्छ और हेय माना गया है । अक्सर मुसलमान और ईसाई भक्ति भाव और धार्मिक होने का अंतिम फ़ल स्वर्ग प्राप्ति को ही मानते हैं । अज्ञान का चश्मा पहने सिख भी अब इसी लाइन में लग गये । और हिन्दुओं को पण्डों पुजारियों कथावाचकों ढोंगी बाबाओं ने स्वर्ग के सपने दिखा दिखा कर तबाह कर दिया । ऐसा ही कोई भृमित भटका इंसान जब किसी सच्चे सन्त के पास आता है । और कहता है - स्वर्ग । तो सन्त 1 ही बात कहेगा - थू .. स्वर्ग थू ।
और आप समझिये । स्वर्ग में ऐसी दिव्य कन्याओं की भरमार होती है । लेकिन जैसा कि आपके प्रश्न से ध्वनि निकल रही है । अभी इसी स्थिति अनुसार किसी दिव्य सुन्दरी से विवाह नहीं हो सकता । यदि आप योग की दिव्यता में आते हैं । तब कुछ विकल्प बनते हैं । 1 आप साधना की ऊँचाई प्राप्त करते हुये बिना विवाह ही ऐसी दिव्य स्त्रियों के सम्पर्क में रह सकते हैं । 2 कोई अच्छा योग पद प्राप्त कर हजारों साल किसी सुन्दर रमणी के साथ आनन्दमय जीवन व्यतीत करें । जो दोनों के लिये सदा बुढापा रहित होता है । लेकिन ये पुण्य फ़ल समाप्त होने पर आपको वापस इन्हीं कीङों मकोङों में फ़ेंक दिया जायेगा । 3 आत्म ज्ञान में कोई अच्छी स्थिति प्राप्त हो जाने पर देवी स्तर की लाखों सुन्दरियाँ 

आपको पाने के लिये हर जतन करेंगी । ये स्थिति ( स्थिति अनुसार ) सदा के लिये होगी । कहने का मतलब आप दिव्यता की शुरूआत करते हुये कृमशः एक लम्बा दिव्य ऐश्वर्य युक्त जीवन प्राप्त कर सकते हैं ।
प्रथ्वी पर इन गुणों से युक्त कन्या का मिलना अत्यन्त कठिन व मुश्किल है - प्रथ्वी के नियम अनुसार आपको कोई कन्या या वर अपनी मर्जी से नहीं । बल्कि पूर्व जन्म संस्कार अनुसार मिलते हैं । जिसको बुजुर्गों ने लम्बे अनुभव के बाद गठजोरी ( यानी जिसका जोङ जहाँ तय है ) कहा है । हालांकि लोगों को ऐसा भृम फ़िर भी हो जाता है । उन्होंने अच्छा या बुरा विवाह अपनी अक्ल से कर लिया । पर यह सही नहीं है । आपके इस जन्म के संस्कारों में जो लिखा होगा । उसे सर्वोच्च आत्म ज्ञान से भी नहीं मिटाया जा सकता । हाँ उसका प्रभाव बहुत हद तक क्षीण हो जाता है । जहाँ लिखने मिटाने की योग्यता आती है । वह बहुत ऊँची स्थिति होती है । और वहाँ पर ये पूरी सृष्टि ही सिर्फ़ एक खेल प्रपंच मात्र है । प्रथ्वी की कोई भी लङकी सिर्फ़ संस्कारी जीव ही होती है । उसे ढंग से चाय रोटी बनाना आता हो । यही बहुत बङा गुण है । कुल मिलाकर जैसा आपने पहले बोया है । वही फ़सल काटेंगे । चाहे वह फ़सल पत्नी ही हो । अभी की बोयी फ़सल समय आने पर फ़ल देगी । न कि तुरन्त के तुरन्त । फ़सल तैयार होने का समय फ़सल की किस्म के ऊपर निर्भर है कि उसका फ़ल कितना आयु वाला और प्रभावी होगा ।


आप चाहें । तो यह सब बडी आसानी से मिल सकता है - हाँ ! ये सच है । लेकिन ये बात कम से कम ऐसी ही आशा और याचना के साथ 10 000 लोग मुझसे विभिन्न कार्यों के लिये कह चुके हैं । पर मैं सभी से 1 ही बात कहता हूँ । क्यों ? क्यों मैं आपकी सहायता करूँ ? जबकि सभी तो ऐसा ही चाहते हैं । ऐसा ही कहते हैं । कोई बेहद धनी और शक्तिशाली आदमी चाहे तो बीसियों निर्धनों का पलक झपकते जीवन बदल सकता है । पर सवाल वही है । वो ऐसा क्यों करें ? क्योंकि गरीब या परेशान सिर्फ़ गिने चुने 100-200 लोग नहीं हैं । बल्कि पूरी दुनियाँ ही गरीब है । दया बिन सन्त कसाई । और दया करी तो आफ़त आई । इसलिये मैं यही महत्वपूर्ण सवाल करता हूँ - आप मुझे वह वजह स्वयं बतायें । जिसके लिये आपकी सहायता की जाये । हाँ ! एक बात पर आपकी पूरी पूरी सहायता की जा सकती है । और वो है - पात्रता । आप इस सहायता ( लोन ) के बाद समाज ( सृष्टि और जीव ) के लिये उपयोगी हों । इसलिये कोई भी सन्त आपको हल्की सहायता के बाद मजबूत बनाता है । ताकि आपको आगे सहायता की आवश्यकता ही न हो । पारस और सन्त में यही अन्तरौ जान । वो लोहा कंचन करै  यह करले आप समान । हाँ ! ये सच है । इसकी प्राप्ति हेतु आपको खोजबीन मेहनत और भटकना नहीं होगा । वह सब बैज्ञानिक तरीके से सुलभ है । सिद्ध है ।
मेरी साधना मेरे विवाह के बाद ही पूरी होगी - जीव स्तर पर स्वपन आदि ऐसी बातें सच भी हैं । पर क्योंकि मनुष्य योनि कर्म योनि भी है । अतः  भक्ति बिज्ञान द्वारा आप किसी भी रोग का इलाज करते हुये कृमशः स्वस्थ हो सकते हैं । अतः स्वपन आदि के आधार पर हाथ पर हाथ रखकर बैठना भी उचित नहीं ।
क्योंकि इस तरह के सवालों पर हमारे समाज में मजाक बनायी जाती है - अहम रूपी मनुष्य समाज अपने दोहरे आचरण से खुद मजाक बना हुआ है । आप शादी के लिये लङकी लङका खोजते हैं । तब अधिकतम सुन्दरता यौवन बहुत मुश्किल 50 साल ( यदि पूरा स्वस्थ जीवन 100 का मिले  ) का होता है । फ़िर भी उसके लिये कितना जतन करते हैं । सुन्दर जवान लङकी । सुन्दर बलिष्ठ मेहनती धनी लङका । क्यों खोजते हैं ? यदि इन बातों का कोई महत्व ही नहीं । सिनेमा का पर्दा हमारी अतृप्त वासनाओं को ही तो अप्रत्यक्ष रूप से पूरा करता है । धन । यौवन । शक्ति । ज्ञान । मुक्त सदा आनन्दमय जीवन पाने का नाम ही योग है ।

हमारे समाज में इन बातों ( यक्षिणी । अप्सरा । साधनायें आदि ) का कोई भी स्थान नही है - हमारा समाज पाखण्डियों का समाज है । अच्छे से अच्छा लखपति भी अगर 100 रुपये का नोट रास्ते में पङा मिल जाये । तो लपक कर उठा लेगा । साधारण लङकियों स्त्रियों को ऐसे घूर घूर कर देखेंगे । मानों आँखों से ही हजम कर जायेंगे । और जब बातें करेंगे । तो आदर्शवाद का शिखर भी इनके समान न होगा । वास्तविकता तो ये है कि सबकी ऐसी प्राप्तियों के लिये लार टपकती रहती है । पर बिल्ली मजबूरी में अंगूर खट्टे बताती है । हकीकत में समाज का कोई व्यक्ति खुद को कभी रोगी नहीं बतायेगा । पर डाक्टर के सामने सबको नंगा होना ही पङता है । वह सबकी असलियत जानता है ? साधारण लोगों की क्या बिसात । जब साधु भी ऐसे ही दिव्य भोगों प्राप्तियों के आकांक्षी होकर साधना करते हैं । मुझे ये स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं । मेरी समस्त भक्ति साधनायें लालच पर ही केन्द्रित थी । मोक्ष भी एक तरह से लालच ही है ।

- जैसा कि मैं हमेशा स्पष्ट करता हूँ । कोई भी प्रश्न आपका व्यक्तिगत होता है । पर मेरा उत्तर सार्वजनिक दृष्टिकोण से होता है । अतः उसी भाव से अध्ययन करें ।

20 जून 2012

A B C D छोङो हिन्दी से नाता जोङो

हापुङ के अमित मुझसे फ़ोन पर बात करते हुये आश्चर्य प्रकट करते हैं - मैं सोच नहीं सकता था । भक्ति और आध्यात्म में इतना बङा और जटिल विज्ञान छुपा हुआ है । पर उनके आश्चर्य पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता । ऐसा ही है, हमारी भोगवादी प्रवृति हमें सिर्फ़ भोगना सिखाती हैं । किसी चीज में ये उत्सुकता नहीं कि आखिर इसका रहस्य क्या है । आध्यात्म रहस्य ? योग विज्ञान । जो माँ के गर्भ में शुक्राणु अंडाणु के निषेचन के साथ ही शुरू हो जाते हैं । प्रकृति नियम अनुसार लिंग योनि संयोग से सिर्फ़ 1 बच्चा ही जन्म नहीं लेता । बल्कि 9 महीने बन्द उदर ( गर्भ ) में रहस्य दर रहस्य परतों की श्रंखला जारी रहती है । यह रहस्य सिर्फ़ ज्ञात चिकित्सा विज्ञान या शरीर विज्ञान तक ही सीमित नहीं हैं । इसमें आध्यात्म का पूरा समावेश होता है ।
पर अभी उसे छोङिये । बच्चे के ( प्रथम बार ) बोलने से ही शुरू करते हैं । संसार के किसी भी धर्म देश भाषा का बच्चा हो । वह रोता हँसता आऽ ऊऽ ईऽ एऽ ओऽ एक समान और सिर्फ़ हिन्दी में ही करता है । सिर्फ़ हिन्दी में । स्वर में ।

और यहीं से विभिन्नता के निर्माण की वह प्रक्रिया शुरू हो जाती है । क्योंकि मूल अक्षरों के बाद फ़िर वह अपनी मातृभाषा की ओर मुढ जाता है । जिस पर शायद किसी का ध्यान न गया हो । और बङे अदभुत और रहस्यमय हैं - ये अक्षर भी ।
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ अं अः ( 12 स्वर )  क ख ग घ ङ ( 5 ) च छ ज झ ञ ( 5 )  ट ठ ड ढ ण ( 5 ) त थ द ध न ( 5 ) प फ ब भ म ( 5 ) य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ ( 11 ) व्यंजन ।
A B C D E F G H I J K L M N O P Q R S T U V W X Y Z ( 26 ) 
ए बी सी डी ई एफ़ जी एच आई जे के एल एम एन ओ पी क्यू आर एस टी यू वी डब्ल्यू एक्स वाई जेड
अलिफ़, बे, पे, ते, टे, से, जीम, चे, हे, खे, दाल, डाल, जाल, रे, अङे, जे, बङी जे, शीन, बङी शीन, स्वाद, ज्वाद, तोय, जोय, एन, गेन, फ़े, काफ़, काफ़, गाफ़, लाम, मीम, नून, हे, हमजा, छोटी इये, बङी इये,
यहाँ मैंने सिर्फ़ 3 भाषाओं हिन्दी अंग्रेजी और उर्दू के ही उच्चारणों का खास प्रयोग किया है । वो इसलिये कि मुझे अन्य भाषाओं के वर्णमाला उच्चारण ठीक मालूम नहीं । पर प्रायः अन्य प्रांतीय देशीय लोगों के कुछ कुछ वर्णमाला उच्चारण भी सुने हैं ।
और अफ़सोस ! उनमें किसी का भी उच्चारण हिन्दी के समान सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं । और यही बहुत बङा रहस्य है ? हिन्दी या संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ होने का ।
सबसे पहले तो यही खासियत देखिये । हिन्दी वर्णमाला में प्रत्येक अक्षर को छत मिली हुयी है । जो हिन्दी लेखन को एक अलग ही सौन्दर्य प्रदान करती है । जो अंग्रेजी में सिर्फ़ T को मिली है । ये अलग बात है । आप मुङिया अक्षर ( अक्षरों के ऊपर लाइन न करना ) बनाते हैं । तब अलग बात है । और अधिकतर अक्षरों को लम्ब आधार ( । ) मिला हुआ है । जैसे किसी इमारत के लिये मजबूत स्तम्भ । इसमें छोटे बङे 2 अक्षरों का झमेला नहीं है । जो कम से कम अंग्रेजी और उर्दू में है । इतना तो मुझे मालूम ही है । अब इसके उच्चारण पर गौर करिये । सिर्फ़ हिन्दी में एक खङे मजबूत स्तम्भ का धातु मौजूद है ।

आप अ से ज्ञ तक किसी अक्षर का उच्चारण करके देखिये । ये 1 - वायु 2 स्वर 3 अक्षर 4 स्फ़ोट ( गूँज ) और अन्त में विलीनता का सफ़र है । यह अदभुत विज्ञान खास हिन्दी अक्षरों ( वर्णमाला ) में ही है । जैसे आप अ या क  या च या ज किसी का भी उच्चारण करें । उसमें अ का आधार है । क आदि कोई वर्ण बोलने पर अ और  स्फ़ोट ( गूँज ) साथ में है । ( हालांकि सभी वाणी भाषाओं के निकलने का स्वर तंत्र विज्ञान यही है । पर थोङे से लय के अंतर में ही बहुत बङा राज छिपा हुआ है । )
जबकि बोलकर देखिये - A B C D  या अलिफ़ बे पे ते में ऐसा नहीं है । मैंने ऊपर कहा । जीव ( मनुष्य ) विभिन्नता के निर्माण का आधार बहुत कुछ इसी बात में हैं । जिसका मतलब है । मजबूती से कृमशः कमजोरी का स्तर % । हिन्दी 100% । बाकी अन्य स्तरों पर निम्न % । ये मान लीजिये । हिन्दी और संस्कृत को छोङकर सभी का स्तर एकदम 50% से नीचे गिरकर शुरू होता है । और फ़िर गिरता ही चला जाता है ।
इतना बताने के बाद आईये इसके रहस्यों पर बात करते हैं । यदि आप इनका सही ठोस उच्चारण करना सीख जाते हैं । तो आश्चर्यजनक रूप से आपके चरित्र व्यक्तित्व स्वस्थता सुन्दरता बलिष्ठता आध्यात्मिकता आदि का बहुमुखी सर्वांगीण विकास निश्चित है ।
आपको क्या करना होगा  ? सुबह सुबह जब आप अनुलोम विलोम या रामदेव बाबा या किसी अन्य का मेडीटेशन करते हैं । उसके साथ आप इस वर्णमाला के एक एक अक्षर का ठोस उच्चारण बारबार करना सीखिये । इसको अ आ इ ई उ ऊ ऐसे जल्दी जल्दी न करें । बल्कि बहुत ठहरे गम्भीर अंदाज में एक एक अक्षर अऽ ( ऽ इसका मतलब गाने मत लगना ) अऽ अ अ आ आदि धीरे धीरे बारबार तब तक दोहरायें । जब तक आपके गले से अ से ज्ञ तक अक्षर अमिताभ बच्चन या ओमपुरी जैसे बेस साउंड में न निकलने लगें । अ क फ़ आदि ऐसे बोलें । जैसे अ.. लठ्ठ उठाया हो । आ ( इधर आ । तुझे बताऊँ अभी ) क ( कहाँ जायेगा बच के ) ख ( खा ले लड्डू )
दरअसल आपने देखा होगा । किसी समाचार वाचक, टीवी कार्यकृम प्रस्तोता । फ़िल्मी नायक या किसी भी क्षेत्र का प्रख्यात प्रवक्ता । स्पष्ट और ठोस उच्चारण इनका विशिष्ट गुण माना जाता है । तो अ से ज्ञ तक अक्षर जब आपके स्वर तंत्र से पूर्णता युक्त । सभी धातुओं के साथ 100% निकलने लगेगें । तो निश्चय ही आपकी बहुत सी शारीरिक आंतरिक मानसिक आध्यात्मिक कमियाँ तेजी से दूर होंगी । यहाँ तक कि नपुंसकता धातु कमजोरी जैसे रोग भी इससे दूर हो जाते हैं । क्योंकि आपकी शरीर धातुओं का संबन्ध इसी से है । वैसे इसका विज्ञान बहुत बङा है । जिसको अक्षर व्याकरण शब्द धातु आदि कहा गया है । अ से ज्ञ तक हर अक्षर का देवता या प्रतिनिधि  है । जिसको प्रमाण  रूप आप संस्कृत हिन्दी शब्दकोश में भी देख सकते हैं । जो कि A B C D या अलिफ़ बे में तो हरगिज नहीं है ।
इसके आध्यात्मिक लाभ भी हैं । जो कि वास्तव में सभी लाभों के स्रोत ही हैं । प्रत्येक अक्षर के ठोस उच्चारण के साथ उसका देवता पुष्ट और वह क्षेत्र ( या अंग भी ) ऊर्जा और हरियाली को प्राप्त होता है । सनातन धारा यानी अबाध चेतना से जुङता है । आपने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के पुराने हिन्दी स्कूलों में देखा होगा कि बच्चे उच्च स्वर में अऽऽ आऽऽऽ इ ई या 1 इकाई 2 इकाई 10 की दहाई 10..1 ग्यारह 2 की बिन्दी 20 और 90..9 निन्यानबे के बाद 1 कङा 2 बिन्दी 100 तक जोर जोर से गाते चिल्लाते थे । और मिट्टी में लोट मारते हुये स्वस्थ रहते थे । 

जबकि आज के बच्चे ? जाने दो । इसलिये लौट जाईये । एक बार फ़िर बचपन में । चाहे आप 9 के हैं या 90 के । ये आपके लिये समान रूप से लाभदायक है । और इसमें किसी गुरु का भी झंझट नहीं । बस एक बार अक्षर योग विज्ञान को आजमा कर देखिये ।
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नोट - जैसा कि ये लेख कुछ अटपटा सा और शीघ्र न समझ आने वाला लग सकता है । इसका कारण मेरी लेखन शैली में बदलाव हो जाना भी है । और आपके सटीक चिंतन मनन हेतु कुछ बातें संकेत रूप में कहकर छोङ देना भी है । जिससे ज्ञान ( गहराई से सोचने पर ) क्रियात्मक रूप से आप में घटित भी हो । फ़िर भी आप लेख के किसी भी बिन्दु पर जिज्ञासा या कोई प्रश्न रखते हैं । तो इसी ब्लाग के ऊपर फ़ोटो में लिखे फ़ोन नम्बर या ई मेल पर पूछ सकते हैं । स्वास्थय । सौन्दर्य । बीमारी । ग्रह नक्षत्र आदि जीवन की सभी बाधाओं समस्याओं में इसका क्या कैसे उपयोग हो सकता है ? उसी खास प्रश्न द्वारा भी पूछ सकते हैं । साहेब ।

19 जून 2012

न करो तो ठीक और करो तो बङिया

जय श्री गुरुदेव महाराज की ! आज संयोग से कुछ ऐसी घटना घटी कि आपको मेल करना पड़ा । अभी हमारे यहाँ 10 बजे दिन में लाइट आई । मैं कुछ काम कर रहा था । खाली हो के तुरंत कम्प्यूटर स्टार्ट किया । और आपका ब्लॉग पढने लगा । जो कि रोज की आदत है । पहले आपका ब्लॉग पढूँ । फिर बाकी काम होता रहेगा । आज का पोस्ट - मै और मेरी तनहाई..अक्सर ये बातें करते हैं.. पढ़ा । पढने के बाद कुछ नया पढने के लिए साइड में आपके और ब्लॉग को देखने लगा । तो सबसे ऊपर find pease नाम से ब्लॉग मिला । जिसका लेख था - the fall of kal पर क्लिक करके वो ब्लॉग पढ़ा । पढने के बाद पता चला कि यह नया ब्लॉग
अशोक जी का है । जो कि आपके कहने से इंगलिश में शुरू हुआ है । मैं इसको पढने के तुरंत बाद ही इसका follower बन गया । और एक comment भी कर दी । क्योंकि इनकी लिखी इंगलिश ब्लॉग में सरल word का प्रयोग है । जिससे लोग आसानी से समझ सकते हैं । मेरे कमेंट का टाइम 11:35 था । इसके बाद मैंने अपना ई मेल चेक किया । जिसमें आपका भेजा हुआ massage मिला । जिसमे आपने इस ब्लॉग को पढने और कमेंट करने का सुझाव दिया था । ये संयोग की बात थी । या कुछ और ?
गुरु पूर्णिमा जो कि 3 जुलाई को पड़ रहा है । के अवसर पर चिंताहरण आश्रम के कार्यक्रम के बारें में भी कब क्या कैसे होगा ? अपने शिष्यों और पाठकों को बताने की कृपा करें । डॉ संजय केशरी । 
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Monday, June 18, 2012, 2:55:49 PM को डा. संजय का ये मेल प्राप्त हुआ ।
आजकल समय और तारीखों का हिसाब रखने की आदत सी पङ गयी है । जहाँ समय ही नहीं है । वहाँ का निवासी समय गणना करे । ये कुछ अजीव सा है ना ? पर हर चीज अपनी जगह पर महत्वपूर्ण है । परसों  ही मैंने हिसाब लगाया । ब्लाग शुरू किये मुझे लगभग 26 महीने हो गये । MARCH 2010 में मैंने ब्लाग शुरू किया था । अगर उद्देश्यपूर्ण ब्लागिंग की दृष्टि से गम्भीरता से देखा जाये । तो 6 महीने इसमें से हटाये जा सकते हैं । क्योंकि मैंने इसको बेहद हल्के फ़ुल्के ही लिया था । बीच बीच में काम भी रुक गया था । और सभी ब्ला्ग्स के URL अड्रेस चेंज करने से नये पाठक तो दूर पुराने स्थायी भी नहीं आ पाये । मेल द्वारा उन्हें नये अड्रेस का पता चला । इस तरह सिर्फ़ 20 महीने का आंकलन संतोषजनक से कहीं बहुत ऊपर के परिणाम घोषित करता है । पर मेरा उद्देश्य सफ़ल ब्लागिंग आदि तो दूर दूर तक नहीं है । कल मैं यही सोच रहा था । फ़िर क्या कुछ हासिल हुआ ? वास्तव में रिजल्टस चौंकाने वाले थे ।
अक्सर हम बहुत सी चीजों पर ध्यान नहीं दे पाते । यदि हमारे पास अपनी एक बङिया कोठी बंगला होता है । तो हम प्रायः उसका कोई महत्व नहीं समझते । जबकि दूसरे बहुत से अन्य अपने एक साधारण मकान की भी बङी तमन्ना रखते हैं । जो उनका अपना निजी हो । तव यही मेरे साथ है । उपलब्धियाँ अब मुझे आकर्षित नहीं करतीं । मेरा एक परिचित था । उसका तम्बाकू का बङा व्यापार था । उसके यहाँ छोटे नोट बोरियों में भरे जाते थे । और 100-100 के नोटों ( उस समय 500 या 1000 का नोट चलन में नहीं था ) की 
सील गड्डियाँ उसके पूरे बेड पर गद्दे के नीचे बिछी रहती थीं । आप ये न सोचें । ऐसा रईसी दिखाने या दौलत के घमण्ड की वजह से था । उसकी कंपनी में 24 घण्टे कार्य होता था । अतः पैसों का लेन देन चलता ही रहता था । तब बिस्तर से गद्दा हटाकर देना आसान था । मैंने अनुमान लगाया था । उसकी फ़र्म में स्वयं उसके कर्मचारी ही 10 लाख रुपया प्रतिमाह विभिन्न रूपों में चोरी करते थे । और ये बात उसे बखूबी पता भी थी । पर इस ( छोटी सी ) चोरी से उसकी सेहत पर कोई फ़र्क नहीं था । उपलब्धियाँ ही इतनी अधिक थीं । इसके बाबजूद वह जिन्दगी से उदासीन था । और बहुत से मामलों में बहुत बहुत गरीब था ।
- पैसा ही सब कुछ नहीं होता । वह अक्सर लोगों से कहता - और हर सुख किसी को नहीं मिलता ।
उसकी ये बात मुझे बिलकुल सही लगती है । अगर मैं अपनी ( योग ) सम्पदा का आंकलन करना चाहूँ । तो ये असम्भव ही है । क्योंकि निरंतर एकरसता एकाकीपन और पूर्ण निष्ठा से मुझे इसमें बहुत समय ( 10400 वर्ष ) हो गया । और अब यही मेरी नीरसता का कारण है । इसलिये मैं यहाँ एक तरह से Time pass कर रहा हूँ । जो कि मेरी मजबूरी ( संस्कारी प्रजनन देही की अंतिम औपचारिकतायें अगले 37 वर्ष तक ) ही है । मुझे शेष समय अब बहुत लम्बा प्रतीत हो रहा है । सच कह रहा हूँ । किसी फ़ौजी की पत्नी अपने पति के इंतजार में जिस तरह कलेंडर में तारीखों पर घेरा खींचती हुयी ( कि 1 दिन और कम हुआ ) खुद को तसल्ली देती है । ठीक वैसा ही । मैंने महाराज जी से बात की थी । मैं अपना टीका पूरना ( आयु को समय से पहले ही खत्म करना ) चाहता हूँ । 
उन्होंने कहा - कोई फ़ायदा नहीं । शेष संस्कारों के लिये आगे भी फ़िर इसी स्थिति से गुजरना होगा । फ़िर दोबारा यही लोग ( जिनसे संस्कार जुङे हैं । और ऊब महसूस होती है ) दूसरे रूपों में मिलेंगे । और उस वक्त तुम्हें इससे ज्यादा ऊब महसूस होगी । इसलिये धीरता और धैर्य से काम लो । देह धरे के दण्ड को भोगत है हर कोय । ज्ञानी भोगे ज्ञान से मूरख भोगे रोय । काया से जो पातक होई । बिनु भुगते छूटे नहीं कोई ।
इसी आधार पर मैं अक्सर सोचता रहता हूँ । सब कुछ मेरी जिन्दगी में ठीक वैसा ही चल रहा है । जिसकी महान आत्माओं को भी बेहद ख्वाहिश होती है । फ़िर भी 1 अनजानी सी ऊब है । मैंने महाराज जी से कहा - मैं एक बेहद लम्बी शीत निद्रा जैसी नींद में जाना चाहता हूँ । अब मुझसे ये सब नहीं होता
। महाराज जी हमेशा स्पष्ट ही उत्तर देते हैं । उन्होंने बहुत संक्षिप्त में इतना ही कहा - न करो तो ठीक । और करो  तो बङिया । इसका मतलब है । न करो तो ठीक स्थिति कहा जा सकता है । क्योंकि ( मेरा ) भजन तो फ़िर भी चलता ही रहेगा । और इस भजन के साथ इस विनाशी देह का परमार्थ कार्यों में उपयोग हो जाये । ये बङिया माना जायेगा । बात को गहरायी से समझें । ये कोई सामान्य उपदेश भर नहीं है कि ये भी ठीक । वो भी ठीक । ये घर की पंचायत भी नहीं कि चलो जैसे चाहा । निबटा ली । यहाँ किसी भी प्राप्ति में 1 सख्त कानून है 
। जिसके सभी बिन्दुओं पर गौर किया जाता है । और अखिल सृष्टि में किसी भी स्थिति पद के आंकलन का सिर्फ़ 1 ही गणित है । विभिन्न जटिल परिस्थितियों में दबाब सहन करने की क्षमता । और उसमें सम रहना ।  अगर उस समय ( अंतिम परिणाम )  दस्तावेज ये कहें । प्रत्येक परिस्थिति में प्रभावित होने का % 0 था । तो यही सर्वश्रेष्ठ स्थिति मानी जाती है । राम चाहो तो मर रहो । जियत न मिलयें राम । मरजीवा । मुरदे के समान जीना । यही सन्तमत का प्रमुख सिद्धांत है । और मुरदे को सुख दुख । मान अपमान । इच्छा अनिच्छा कुछ भी नहीं व्यापते । बस यहीं वो बिन्दु कह लीजिये । जहाँ मैं अंतिम सांसे लें रहा हूँ । अच्छा न लगना । ऊब होना । पर मैं जानता हूँ । ये भी मर जायेगा ।
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गुरु पूर्णिमा और अन्य पर श्री महाराज जी से बात होने पर ही सूचना प्रकाशित होगी । वैसे 3 दिन का कार्यकृम है । जिसमें अंतिम दिन भंडारा और 2 दिन सतसंग आदि होगा । 

17 जून 2012

अहंकार की बोली प्रार्थना नहीं

प्रार्थना - प्रार्थना का प्रयोजन ही प्रभु तक पहुँचने में नहीं है । प्रार्थना तुम्हारे हृदय का भाव है । फूल खिले । सुगंध किसी के नासापुटों तक पहुँचती है । यह बात प्रयोजन की नहीं है । पहुँचे तो ठीक । न पहुँचे तो ठीक । फूल को इससे भेद नहीं पड़ता । प्रार्थना तुम्हारी फूल की गंध की तरह होनी चाहिए । तुमने निवेदन कर दिया । तुम्हारा आनंद निवेदन करने में ही होना चाहिए । इससे ज्यादा का मतलब है कि कुछ माँग छिपी है भीतर । तुम कुछ माँग रहे हो । इसलिए पहुँचती है कि नहीं ? पहुँचे तो ही माँग पूरी होगी । पहुँचे ही न तो क्या सार है सिर मारने से । और प्रार्थना प्रार्थना ही नहीं है । जब उसमें कुछ माँग हो । जब तुमने माँगा । प्रार्थना को मार डाला । गला घोंट दिया । प्रार्थना तो प्रार्थना ही तभी है । जब उसमें कोई वासना नहीं है । वासना से मुक्त होने के कारण ही प्रार्थना है । वही तो उसकी पावनता है । तुमने अगर प्रार्थना में कुछ भी वासना रखी । कुछ भी । परमात्मा को पाने की ही सही । उतनी भी वासना रखी । तो तुम्हारा अहंकार बोल रहा है । और अहंकार की बोली प्रार्थना नहीं है । अहंकार तो बोले ही नहीं । निरअहंकार डांवाडोल हो । प्रार्थना आनंद है ।
कोयल ने कुहू   कुहू का गीत गाया । मोर नाचा । नदी का कलकल नाद है । फूलों की गंध है । सूरज की किरणें हैं । कहीं कोई प्रयोजन नहीं है । आनंद की अभिव्यक्ति है । ऐसी तुम्हारी प्रार्थना हो । तुम्हें इतना दिया है परमात्मा ने । प्रार्थना तुम्हारा धन्यवाद होना चाहिए । तुम्हारी कृतज्ञता । लेकिन प्रार्थना तुम्हारी माँग होती है । तुम यह नहीं कहने जाते मंदिर कि - हे प्रभु ! इतना तूने दिया, धन्यवाद कि मैं अपात्र, और मुझे इतना भर दिया । मेरी कोई योग्यता नहीं । और तू औघड़दानी, और तूने इतना दिया । मैंने कुछ भी अर्जित नहीं किया । और तू दिये चला जाता है । तेरे दान का अंत नहीं है । धन्यवाद देने जब तुम जाते हो मंदिर । तब प्रार्थना पहुँची । या नहीं पहुँची । यह सवाल नहीं है ।
तुमने कुछ माँगा । तो उसका अर्थ हुआ कि तुम परमात्मा को बदलने गये । उसका इरादा मेरे अनुसार चलना चाहिए । यह प्रार्थना हुई । तुम परमात्मा से अपने को ज्यादा समझदार समझ रहे हो ? तुम सलाह दे रहे हो ? यह अपमान हुआ । यह नास्तिकता है । आस्तिकता नहीं है । आस्तिक तो कहता है - तेरी मर्जी, ठीक । तेरी मर्जी ही ठीक । मेरी मर्जी सुनना ही मत । मैं कमजोर हूँ । और कभी कभी बात उठ पाती है । मगर मेरी सुनना ही मत । क्योंकि मेरी सुनी । तो सब भूल हो जाएगी । मैं समझता ही क्या हूँ ? तू अपनी किये चले जाना । तू जो करे । वही ठीक है । ठीक की और कोई परिभाषा नहीं है । तू जो करे । वही ठीक है ।
जलालुद्दीन रूमी ने कहा - लोग जाते हैं प्रार्थना करने । ताकि परमात्मा को बदल दें । और उसने यह भी कहा कि - असली प्रार्थना वह है । जो तुम्हें बदलती है । परमात्मा को नहीं। यह बात समझने की है । असली प्रार्थना वह है । जो तुम्हें बदलती है । प्रार्थना करने में तुम बदलते हो । परमात्मा सुनता है कि नहीं । यह फिकर नहीं । तुमने सुनी । या नहीं ? तुम्हारी प्रार्थना ही अगर तुम्हारे हृदय तक पहुँच जाए । सुन लो तुम । तो रूपांतरण हो जाता है ।
प्रार्थना का जवाब नहीं मिलता ।
हवा को हमारे शब्द शायद आसमान में हिला जाते हैं ।
मगर हमें उनका उत्तर नहीं मिलता ।
बंद नहीं करते तो भी हम प्रार्थना ।
मंद नहीं करते हम अपने प्रणिपातों की गति धीरे धीरे ।
सुबह शाम ही नहीं प्रतिपल. प्रार्थना का भाव हममें जागता रहे ।
ऐसी एक कृपा हमें मिल जाती है ।
खिल जाती है शरीर की कंटीली झाड़ी प्राण बदल जाते हैं ।
तब वे शब्दों का उच्चारण नहीं करते ।
तल्लीन कर देने वाले स्वर गाते हैं ।
इसलिए मैं प्रार्थना छोड़ता नहीं हूँ ।
उसे किसी उत्तर से जोड़ता नहीं हूँ ।
प्रार्थना तुम्हारा सहज आनंद भाव । प्रार्थना साधन नहीं, साध्य । प्रार्थना अपने में पर्याप्त । अपने में पूरी, परिपूर्ण । नाचो । गाओ । आह्लाद प्रगट करो । उत्सव मनाओ । बस वहीं आनंद है । वही आनंद तुम्हें रूपांतरित करेगा । आनंद रसायन है । उसी आनंद में लिप्त होते होते तुम पाओगे - अरे, परमात्मा तक पहुँचे । या नहीं । इससे क्या प्रयोजन है । मैं बदल गया । मैं नया हो आया । प्रार्थना स्नान है - आत्मा का । उससे तुम शुद्ध होओगे । तुम निखरोगे । और 1 दिन तुम पाओगे कि प्रार्थना निखारती गयी । निखारती गयी । निखारती गयी । 1 दिन अचानक चौंककर पाओगे कि तुम ही परमात्मा हो । इतना निखार जाती है प्रार्थना कि 1 दिन तुम पाते हो तुम ही परमात्मा हो । और जब तक यह न जान लिया जाए कि - मैं परमात्मा हूँ । तब तक कुछ भी नहीं जाना । या जो जाना । सब असार है । ओशो
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मेरे 1 मित्र हैं । संन्यासी हो गए । पुराने ढंग के संन्यासी हैं । बारबार जब भी मिलते हैं । वे कहते हैं कि - लाखों पर लात मार दी । तो मैंने उनसे पूछा - वर्षों हो गए छोड़े हुए । लगता है । लात ठीक से लगी नहीं । नहीं तो याद क्यों बाकी है । लग गयी लात । खतम हो गयी । और लाख वगैरह भी नहीं थे । मैंने उनसे कहा - क्योंकि तुम मुझसे ही, मेरे ही सामने कहते हो कि लाख थे । मुझे पक्का पता है कि तुम्हारे पोस्ट आफिस की किताब में कितने रुपए जमा थे । वह थोड़े डरे । उनके 2-4  शिष्य भी बैठे हुए थे । कहने लगे - फिर पीछे बात करेंगे । मैंने कहा - पीछे नहीं । अभी ही बात होगी । लाख वाख कुछ थे नहीं । होमियोपैथी के डाक्टर थे । अब होमियोपैथी के डाक्टरों के पास कहीं लाख होते हैं ? लाख ही हों । तो होमियोपैथी की कोई डाक्टरी करता है ? मैंने कहा - मक्खी उड़ाते थे बैठकर दवाखाने में । कभी मरीज तो मैंने देखे नहीं । हमीं लोग गपशप करने आते थे । तो बस वही थे जो कुछ । कितने रुपए थे ? तुम ठीक ठीक बोल दो । मुझे मालूम है । मैंने उनसे कहा । और तुम धीरे धीरे पहले हजारों कहते थे । फिर अब तुम लाखों कहने लगे कि लाखों पर लात मार दी । पहली तो बात लाखों थे नहीं । दूसरी बात । यह लात मारने का जो भाव है । इसका मतलब है । अभी भी तुम्हारे मन में मालकियत कायम है । अब भी तुम कहते हो कि मेरे थे । लाखों थे । और देखो । मैंने छोड़ दिए । छोड़ना तो उसी का हो सकता है । जो मेरा हो । जागने में तो सिर्फ इतना ही होता है कि पता चलता है । मेरा कुछ भी नहीं । छोड़ना क्या है ? इस भेद को खयाल में ले लेना । जागा हुआ आदमी भागता नहीं । न कुछ छोड़ता है । सिर्फ इतना ही समझ में आ जाता है । मेरा नहीं है । फिर करने को कुछ बचता नहीं । छोड़ने को क्या है । इतना ही समझ में आ गया । पत्नी मेरी नहीं । बेटे मेरे नहीं । सब मान्यता है । ठीक है । इसको कुछ कहने की भी जरूरत नहीं किसी से । इसकी कोई घोषणा करने की भी जरूरत नहीं । इसको कोई छाती पीटकर बताने की भी जरूरत नहीं । यह तो समझ की बात है । तुम 2 और 2  = 5  जोड़ रहे थे । फिर तुम मुझे मिल गए । मैंने तुमसे कहा कि - सुनो भई, 2 और 2 = 5  नहीं होते । 2 और 2 = 4 होते हैं । तुम्हें बात जंची । तो क्या तुम यह कहोगे कि मैंने पुराना हिसाब छोड़ दिया । 2 और 2 = 5 होते हैं । वह मैंने छोड़ दिया ? तुम कहोगे कि छोड़ने को तो कुछ था ही नहीं । बात ही गलत थी । बुनियाद ही गलत थी । जब तुम 2 और 2 = 5 कर रहे थे । तब भी 5 थोड़े ही हो रहे थे । सिर्फ तुम कर रहे थे । हो थोड़े ही रहे थे । यथार्थ में तो 2 और 2 = 4 ही हैं । चाहे तुम 5 जोड़ो । चाहे 7 जोड़ो । तुम्हें जो जोड़ना हो । जोड़ते रहो । 2 और 2 तो 4 ही हैं । जिस दिन तुम्हें दिखायी पड़ गया - 2 और 2 = 4 हैं । समझ में आ गया । 2 और 2 = 4 हो गए । 4 थे ही । सिर्फ तुम्हारी भ्रांति मिटी ।
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झूठा ब्रह्मज्ञान - मैं जब छोटा था । तो मेरे गांव में 1 बहुत बड़े विद्वान पंडित रहते थे । वह मेरे पिता के मित्र थे । मैं अपने पिता के उलटे सीधे प्रश्न पूछकर सर खाता रहता था । पर मेरे पिता ईमानदार आदमी थे । जब वह किसी प्रश्न का उत्तर न दे पाते । तो कह देते - मुझे मालूम नहीं है । आप मेरे मित्र इन पंडित से कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं । यह ज्ञानी ही नहीं । बह्म ज्ञानी भी हैं । मेरे पिता की इस ईमानदारी के कारण उनके प्रति अपार श्रद्धा है । मैं पंडित जी के पास गया । उन पंडितजी के प्रति मेरे मन कोई श्रद्धा कभी पैदा नहीं हुई । क्योंकि मुझे दिखता ही नहीं था कि जो वह हैं । उसमें जरा भी सच्चाई है । उनके घर जाकर बैठकर मैं उनका निरीक्षण भी किया करता था । वह जो कहते थे । उससे उनके जीवन में कोई तालमेल भी है । या सब ऊपरी बातें हैं । लेकिन वह करते थे बहुत - ब्रह्मज्ञान की बातें । ब्रह्मसूत्र पर भाष्य करते थे । और मैं जब उनसे ज्यादा विवाद करता । तो वह कहते - ठहरो, जब तुम बड़े हो जाओगे । उम्र पाओगे । तब यह बात समझ में आएगी । मैंने कहा - आप उम्र की 1 तारीख तय कर दें । अगर आप जीवित रहे । तो मैं निवेदन करूंगा उस दिन आकर । मुझे टालने के लिए उन्होंने कह दिया होगा - कम से कम 21 साल के हो जाओ ।
जब मैं 21 साल का हो गया । मैं पहुंचा । उनके पास । मैंने कहा - कुछ भी मुझे अनुभव नहीं हो रहा । जो आप बताते हैं । 21 साल का हो गया । अब क्या इरादा है ? अब कहिएगा - 42 साल के हो जाओ । 42 साल का जब हो जाऊँगा । तब कहना - 84 साल के हो जाओ । बात को टालो मत । तुम्हें हुआ हो । तो कहो कि हुआ है । नहीं हुआ हो । तो कहो नहीं हुआ । उस दिन न जाने वह कैसी भाव दशा में थे । कोई और भक्त उनका था भी नहीं । नहीं तो उनके भक्त उन्हें हमेशा घेरे बैठे रहते थे । भक्तों के सामने और भी कठिन हो जाता । उस दिन उन्होंने आंखे बंद कर ली । उनकी आंखों में 2 आंसू गिर पड़े । उस दिन मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा पैदा हुई । उन्होंने कहा - मुझे क्षमा करो । मैं झूठ ही बोल रहा था । मुझे भी कहां हुआ है । टालने की ही बात थी । उस दिन भी तुम छोटे थे । लेकिन तुम पहचान गए थे । क्योंकि मैं तुम्हारी आंखों से देख रहा था । तुम्हारे मन में श्रद्धा पैदा नहीं हुई थी । तुम भी समझ गए थे । मैं टाल रहा हूं कि बड़े हो जाओ । मुझे भी पता नहीं है । उम्र से इसका क्या संबंध । सिर्फ झंझट मिटाने को मैंने कहा था । मैंने कहा - आज मेरे मन में आपके प्रति श्रद्धा भाव पैदा हुआ । अब तक मैं आपको निपट बेईमान समझता था । ओशो

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326