एक पूर्ण स्वस्थ आत्मिक जीवन के लिये मनुष्य को प्रचुर मात्रा में तीवृ वेगवान उर्जा की आवश्यकता तो है ही, योग क्रियायें एवं आत्मिक यात्रा के लिये भी यह अति आवश्यक है। लेकिन सुखद बात यह है कि अष्टांग योग एवं सहज योग में आवश्यकतानुसार उर्जा स्वयं उत्पादित होती रहती है। जबकि तन्त्र, मन्त्र आदि क्रियाओं में उर्जा बेहद क्षीण एवं उष्मा बेहद अधिक होती है।
(इसी कारण से तांत्रिक, मांत्रिकों के नेत्र लाल, शरीर गर्म एवं तनाव पूर्ण रहता है)
इस उर्जा का मध्य स्रोत मुख्यतः ब्रह्माण्ड, फ़िर आकाशीय शब्द एवं फ़िर उच्च स्रोत आत्मा ही है। अतः अनुकूल योग द्वारा प्रथम योगी ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध जोङता है फ़िर आकाशीय शब्द से, तदुपरान्त आत्मा से। और इस तरह वह निरन्तर उर्जावान रहता है।
शरीर में उर्जा का मुख्य सम्बन्ध ह्रदय और उसकी पम्पिंग क्रिया से है क्योंकि यह कृतिम और व्यष्टि (जीव) भूमिका है। जबकि समष्टि (विराट) में उर्जा का कारण ब्रह्माण्ड में होने वाला धुनात्मक आकाशीय शब्द है।
सरल सी बात है उर्जा को विराट करना योगी के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक है।
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भूमिका अंतरण
एक गलती जो 99% लोग करते हैं, और इसका उनके जीवन एवं स्वास्थय पर बहुत दुष्प्रभाव पङता है।
मन द्वारा इच्छित आवश्यकता को शारीरिक गतिविधियों द्वारा क्रिया/कार्य रूप देना, शारीरिक अंगों द्वारा निभायी गयी भूमिका होती है। इसका कौशल पूर्ण एवं पूर्णता युक्त होना शारीरिक एवं मानसिक पुष्टता हेतु अति आवश्यक है। अतः यही कारण है कि वर्तमान समय में लगभग सभी अस्वस्थ एवं बेडौल हैं।
यदि किसी ने यौगिक क्रियाओं (योगासन आदि) द्वारा शरीर स्वस्थ बना रखा है तो वह मानसिक स्तर पर स्वस्थ नहीं है, और यही वह प्रमुख कारण है जिससे हम एक रुग्ण समाज, रुग्ण विश्व को देखते हैं। जबकि “भूमिका अंतरण” को समझ लेने पर यह समस्या बहुत सरलता से हल हो जाती है।
भूख, प्यास, चलना, दौङना, पढ़ना, सोना, प्रणय, झगङा आदि आदि शरीर द्वारा होने वाली अनेक भूमिकायें हैं जिनका संचालन मन/मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र आदि शरीरी अंगों से होता है। अतः जब मनुष्य किसी “एक कार्य” को करने को प्रेरित होता, विचारता है तब शरीर सम्बन्धित रस, धातुओं, रसायन का सही उत्पादन, सन्तुलन एवं कार्य नियन्त्रण आदि अनेक क्रियाओं को अंजाम दे रहा होता है। और कार्य पूर्ण होने पर वह फ़िर पूर्व और स्थिर भूमिका में आ जाता है।
गलती तब होती है जब मनुष्य एक साथ दो, तीन या चार तक कार्य करता है, या कर रहे कार्य को जल्दी-जल्दी निबटा कर दूसरे कार्य में प्रवत्त हो जाता है। उदाहरण - भोजन के साथ फ़ोन पर या सामान्य बातचीत करना, या टीवी देखना। पढ़ने के साथ चाय पीना या नाश्ता करते जाना, नहाते समय शरीर सम्बन्ध बनाना। चाय या कुछ खाने के तुरन्त बाद धूम्रपान करना आदि आदि।
अतः किसी भी एक कार्य को पूर्ण मनोयोग से, बिना हङबङी के, शान्त चित्त से करिये। इससे स्वस्थता को लेकर जीवन में चमत्कारिक बदलाव आयेगा।
(इसी कारण से तांत्रिक, मांत्रिकों के नेत्र लाल, शरीर गर्म एवं तनाव पूर्ण रहता है)
इस उर्जा का मध्य स्रोत मुख्यतः ब्रह्माण्ड, फ़िर आकाशीय शब्द एवं फ़िर उच्च स्रोत आत्मा ही है। अतः अनुकूल योग द्वारा प्रथम योगी ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध जोङता है फ़िर आकाशीय शब्द से, तदुपरान्त आत्मा से। और इस तरह वह निरन्तर उर्जावान रहता है।
शरीर में उर्जा का मुख्य सम्बन्ध ह्रदय और उसकी पम्पिंग क्रिया से है क्योंकि यह कृतिम और व्यष्टि (जीव) भूमिका है। जबकि समष्टि (विराट) में उर्जा का कारण ब्रह्माण्ड में होने वाला धुनात्मक आकाशीय शब्द है।
सरल सी बात है उर्जा को विराट करना योगी के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक है।
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भूमिका अंतरण
एक गलती जो 99% लोग करते हैं, और इसका उनके जीवन एवं स्वास्थय पर बहुत दुष्प्रभाव पङता है।
मन द्वारा इच्छित आवश्यकता को शारीरिक गतिविधियों द्वारा क्रिया/कार्य रूप देना, शारीरिक अंगों द्वारा निभायी गयी भूमिका होती है। इसका कौशल पूर्ण एवं पूर्णता युक्त होना शारीरिक एवं मानसिक पुष्टता हेतु अति आवश्यक है। अतः यही कारण है कि वर्तमान समय में लगभग सभी अस्वस्थ एवं बेडौल हैं।
यदि किसी ने यौगिक क्रियाओं (योगासन आदि) द्वारा शरीर स्वस्थ बना रखा है तो वह मानसिक स्तर पर स्वस्थ नहीं है, और यही वह प्रमुख कारण है जिससे हम एक रुग्ण समाज, रुग्ण विश्व को देखते हैं। जबकि “भूमिका अंतरण” को समझ लेने पर यह समस्या बहुत सरलता से हल हो जाती है।
भूख, प्यास, चलना, दौङना, पढ़ना, सोना, प्रणय, झगङा आदि आदि शरीर द्वारा होने वाली अनेक भूमिकायें हैं जिनका संचालन मन/मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र आदि शरीरी अंगों से होता है। अतः जब मनुष्य किसी “एक कार्य” को करने को प्रेरित होता, विचारता है तब शरीर सम्बन्धित रस, धातुओं, रसायन का सही उत्पादन, सन्तुलन एवं कार्य नियन्त्रण आदि अनेक क्रियाओं को अंजाम दे रहा होता है। और कार्य पूर्ण होने पर वह फ़िर पूर्व और स्थिर भूमिका में आ जाता है।
गलती तब होती है जब मनुष्य एक साथ दो, तीन या चार तक कार्य करता है, या कर रहे कार्य को जल्दी-जल्दी निबटा कर दूसरे कार्य में प्रवत्त हो जाता है। उदाहरण - भोजन के साथ फ़ोन पर या सामान्य बातचीत करना, या टीवी देखना। पढ़ने के साथ चाय पीना या नाश्ता करते जाना, नहाते समय शरीर सम्बन्ध बनाना। चाय या कुछ खाने के तुरन्त बाद धूम्रपान करना आदि आदि।
अतः किसी भी एक कार्य को पूर्ण मनोयोग से, बिना हङबङी के, शान्त चित्त से करिये। इससे स्वस्थता को लेकर जीवन में चमत्कारिक बदलाव आयेगा।