21 जुलाई 2020

आंतरिक उर्जा

एक पूर्ण स्वस्थ आत्मिक जीवन के लिये मनुष्य को प्रचुर मात्रा में तीवृ वेगवान उर्जा की आवश्यकता तो है ही, योग क्रियायें एवं आत्मिक यात्रा के लिये भी यह अति आवश्यक है। लेकिन सुखद बात यह है कि अष्टांग योग एवं सहज योग में आवश्यकतानुसार उर्जा स्वयं उत्पादित होती रहती है। जबकि तन्त्र, मन्त्र आदि क्रियाओं में उर्जा बेहद क्षीण एवं उष्मा बेहद अधिक होती है।
(इसी कारण से तांत्रिक, मांत्रिकों के नेत्र लाल, शरीर गर्म एवं तनाव पूर्ण रहता है)

इस उर्जा का मध्य स्रोत मुख्यतः ब्रह्माण्ड, फ़िर आकाशीय शब्द एवं फ़िर उच्च स्रोत आत्मा ही है। अतः अनुकूल योग द्वारा प्रथम योगी ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध जोङता है फ़िर आकाशीय शब्द से, तदुपरान्त आत्मा से। और इस तरह वह निरन्तर उर्जावान रहता है।

शरीर में उर्जा का मुख्य सम्बन्ध ह्रदय और उसकी पम्पिंग क्रिया से है क्योंकि यह कृतिम और व्यष्टि (जीव) भूमिका है। जबकि समष्टि (विराट) में उर्जा का कारण ब्रह्माण्ड में होने वाला धुनात्मक आकाशीय शब्द है।

सरल सी बात है उर्जा को विराट करना योगी के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक है।
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भूमिका अंतरण

एक गलती जो 99% लोग करते हैं, और इसका उनके जीवन एवं स्वास्थय पर बहुत दुष्प्रभाव पङता है।

मन द्वारा इच्छित आवश्यकता को शारीरिक गतिविधियों द्वारा क्रिया/कार्य रूप देना, शारीरिक अंगों द्वारा निभायी गयी भूमिका होती है। इसका कौशल पूर्ण एवं पूर्णता युक्त होना शारीरिक एवं मानसिक पुष्टता हेतु अति आवश्यक है। अतः यही कारण है कि वर्तमान समय में लगभग सभी अस्वस्थ एवं बेडौल हैं।

यदि किसी ने यौगिक क्रियाओं (योगासन आदि) द्वारा शरीर स्वस्थ बना रखा है तो वह मानसिक स्तर पर स्वस्थ नहीं है, और यही वह प्रमुख कारण है जिससे हम एक रुग्ण समाज, रुग्ण विश्व को देखते हैं। जबकि “भूमिका अंतरण” को समझ लेने पर यह समस्या बहुत सरलता से हल हो जाती है।

भूख, प्यास, चलना, दौङना, पढ़ना, सोना, प्रणय, झगङा आदि आदि शरीर द्वारा होने वाली अनेक भूमिकायें हैं जिनका संचालन मन/मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र आदि शरीरी अंगों से होता है। अतः जब मनुष्य किसी “एक कार्य” को करने को प्रेरित होता, विचारता है तब शरीर सम्बन्धित रस, धातुओं, रसायन का सही उत्पादन, सन्तुलन एवं कार्य नियन्त्रण आदि अनेक क्रियाओं को अंजाम दे रहा होता है। और कार्य पूर्ण होने पर वह फ़िर पूर्व और स्थिर भूमिका में आ जाता है।

गलती तब होती है जब मनुष्य एक साथ दो, तीन या चार तक कार्य करता है, या कर रहे कार्य को जल्दी-जल्दी निबटा कर दूसरे कार्य में प्रवत्त हो जाता है। उदाहरण - भोजन के साथ फ़ोन पर या सामान्य बातचीत करना, या टीवी देखना। पढ़ने के साथ चाय पीना या नाश्ता करते जाना, नहाते समय शरीर सम्बन्ध बनाना। चाय या कुछ खाने के तुरन्त बाद धूम्रपान करना आदि आदि।

अतः किसी भी एक कार्य को पूर्ण मनोयोग से, बिना हङबङी के, शान्त चित्त से करिये। इससे स्वस्थता को लेकर जीवन में चमत्कारिक बदलाव आयेगा। 

09 जुलाई 2020

योगी को सपने नहीं आते

स्वपन, मनुष्य की गहरी, अतृप्त, दबी हुयी वासनाओं के परिणाम स्वरूप हैं जो अर्धनिद्रा (सुषुप्ति) की अवस्था में मन की अवचेतन स्थिति में अनुभूत होते हैं। लेकिन ये क्रिया सामान्य मनुष्य के (भौहों से नीचे) पिंड से नीचे तक ही रहने की विवशता के कारण होती है। और कंठ स्थित चित्रणी नाङी में जमा “कारण” संस्कारों से होती है।

कारण में जाय, नाना संस्कार देखे।

जबकि एक सफ़ल योगी का (भौंहों के मध्य स्थित) ब्रह्माण्डी द्वार खुला होता है, और उसका (सुरति) ध्यान सदैव ब्रह्माण्ड में रहता है।

कर से कर्म करो विध नाना। राखो ध्यान “जहाँ” कृपानिधाना॥

उसकी चेतना का उर्जा स्तर भी सामान्य मनुष्य से सौ गुना या हजार गुना तक होता है। अत: उसकी तुरिया अवस्था में से एक “सुषुप्ति” हमेशा के लिये खत्म हो जाती है। दूसरे, योग समाधि द्वारा वह अचेतन में दबी ‘कारण’ रूपी वासनाओं को जलाता
रहता है।

तब उसका अगला कदम तुरिया की शेष दो अवस्थाओं “निद्रा” से जागना और “जाग्रत” स्वपन से बाहर आकर आनन्द स्वरूप अवस्था मोक्ष ही रह जाता है। अतः अपने ही इस रहस्य को जानने का गहन चिन्तन करें।
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कोड-डिकोड (आत्मा, परमात्मा एवं प्रकृति के रहस्य)

तत्वदर्शी, प्रकाशित आत्म, अनहद-नाद का श्रोता, शब्द का भेदी/मर्मी, आत्मदर्शी, अनन्त का यात्री..साधु-सन्त, गुरू-सदगुरू के आधीन हुये बिना किये गये ज्ञान, ध्यान, योग आदि अंतर-क्रियायें उस “कागज के फ़ूल” के समान हैं, जो देखने में तो सुन्दर है पर उसमें पुष्प के वास्तविक तत्व सुगन्ध, पराग, अर्क आदि नाम को नहीं है। अतः ऐसी कोई भी साधना, भक्ति, आराधना आदि भगवत उपक्रम क्षीण लाभ पहुँचा कर अन्ततः थोथे ही साबित होते हैं।

जस है तस जानत नाहीं। जस जानत हैं तस है नाहीं॥

अधिकतर मनुष्य, शारीरिक (ध्यान) क्रियाओं एवं उनके अवयवों पर ध्यान केन्द्रित कर आत्मा, परमात्मा एवं प्रकृति के रहस्य को जानना चाहते हैं जो कि सम्भव ही नहीं हैं। क्योंकि इससे, सिर्फ़ कुछ हद तक शरीर के रहस्यों का ज्ञान एवं शरीर की उर्जा, विद्युत, तरंगें और नाङी, प्राण आदि की कार्य-प्रणाली का ही पता चलता है। और वह भी बेहद न्यून स्तर पर।

वस्तु कहीं खोजे कहीं, वस्तु ना आवै हाथ।
वस्तु तभी पाईये, जब भेदी होवै साथ॥

वास्तव में ज्ञान, ध्यान, शक्ति एवं प्रकृति के सभी रहस्य “शब्द” से उत्पन्न “चेतन अणु” में कोड के रूप में छिपे हुये हैं, और किसी स्थान विशेष में नहीं हैं। क्योंकि परमात्मा असंख्य कला है इसलिये ये अणु भी असंख्य ही हैं। तब..

होय बुद्धि जो परम सयानी।

के द्वारा गुरू, ज्ञान (वस्तु) एवं ध्यान तीनों के संयोग से इस कोडेड अणु को विस्फ़ोट करके डिकोड किया जाता है। तब वह शक्ति, उपकरण, रहस्य उस साधक में लय होकर समाहित हो जाता है। और मनुष्य की सभी ध्यान चेष्टायें इन्हीं लक्ष्यों को लेकर प्रयासशील हैं। पर सही जानकारी न होने से वह इन्हें कभी प्राप्त नहीं कर पाता।

सत्य तो यह है कि मनुष्य “मोक्ष है क्या” यही नहीं जानता।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326