22 नवंबर 2019

एकलौ बीर


क्षण भर में ही क्रमश​: एक देश से दूसरे अत्यन्त दूर देश तक प्राप्त संवित (ज्ञान) का दोनों देशों के बीच में जो निर्मल, निर्विषयक रूप है वही पर-ब्रह्म परमात्मा का वह सर्वोत्कृष्ट अक्षुब्ध रूप है।

देशाद्देशान्तरं दूरं प्राप्ताया: संविद: क्षणात।
यद्रूपममलं मध्ये परं तद्रूपमात्मन:॥

एकलौ बीर दुसरौ धीर, तीसरौ खटपट चोथौ उपाध।
दस-पंच तहाँ, बाद-बिबाद॥

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ज्ञानी लोग पर्वत के समान अकम्पनीय, वायुरहित स्थान में स्थित दीपक की नाई सदा सम-प्रकाश युक्त तथा आचार शून्य होते हुए भी आचार युक्त स्वस्थ ही बने रहते हैं।

अचला इव निर्वाता दीपा इव समत्विष:।
साचारा वा निराचारास्तिष्ठन्ति स्वस्थमेव ते॥

गगन मंडल मैं गाय बियाई, कागद दही जमाया। 
छांछि छांणि पंडिता पीवीं, सिद्धा माखण खाया।। 

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शरीरधारियों के लिए महा भयंकर दो व्याधियाँ हैं - एक तो यह लोक, और दूसरा परलोक​। क्योंकि इन्हीं दोनों के कारण पीड़ित होकर मनुष्य आध्यात्मिक आदि भावों से अनेक दु:ख भोगता है।

द्वौ व्याधी देहिनो घोरावयं लोकस्तथा पर:।
याभ्यां घोराणि दु:खानि भुङ्क्ते सर्वैर्हि पीङित:॥

नेह निबाहे ही बने, सोचे बने न आन।
तन दे मन दे सीस दे, नेह न दीजे जान।।

15 नवंबर 2019

बिदेही ब्रह्म निरंजन


सृष्टि का सबसे ऊपरी आवरण (खोल, अंडा) ‘विराट’ कहलाता है। इसी विराट के अन्दर का खोल ‘हिरण्यगर्भ’ कहलाता है। हिरण्यगर्भ के भी अन्दर का खोल (जिसमें सभी जीव आदि स्थूल सृष्टि है) ‘ईश्वर’ कहलाता है। मुख्यतः हिरण्यगर्भ का अर्थ ‘सूक्ष्म प्रकृति’ या कारण-शरीरों से है। यह गुह्य ज्ञान ग्रन्थों में रूपक अन्दाज में लिखा है, और कुछ शास्त्रकारों के अपने शब्दों के कारण भिन्नता सी प्रतीत होती है।

हंसा-बगुला एक सा, मान-सरोवर माही।
हंसा ताकूं जानिये, जो मोती चुग ले आही।

बिना भजन तू बैल बनेगा, सर पर बाजे लाठी।
भगती कर भगवान की, क्यों व्यर्थ खोओ या माटी।

नेह निबाहे हि बने, सोचे बने न आन।
तन दे मन दे सीस दे, नेह न दीजे जान।



न तो कोई चिति के सिवा दूसरा बीज है, न अंकुर है, न पुरूष है, न कर्म है, और न दैव आदि ही कुछ है, केवल चिति का ही यह सब कुछ विलास है।

न बीजमादावस्त्यन्यन्नाङ्कुरो न च वा नर:।
न कर्म न च दैवादि केवलं चिदुदेति हि॥

प्रथम पुरूष अनाम-अकाया, जास हिलोर भई सत माया।
माया नाम भया इक ठौरा, सत मत नाम बंधा इक डोरा।। 




संसार के जीवों का आत्मज्ञान, अनादि-अविद्या से ढक गया है। इसी कारण वे संसार के अनेकानेक क्लेशों के भार से पीड़ित हो रहे हैं। यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मों से बँधा हुआ है। वह सुख की इच्छा से दुःखप्रद कर्मों का अनुष्ठान करता है। जैसे कोई अंधा अंधे को ही अपना पथ प्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानी को ही अपना गुरू बनाते हैं।

नैन में मिलाकर नैन, देख बिदेही ब्रह्म निरंजन। 
जो नैन का पावे भेद, वो ही कला होवै अभेद।।

04 नवंबर 2019

मैं जिस पर कृपा करता हूँ



मैं जिस पर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ। क्योंकि जब मनुष्य धन के मद से मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगों का तिरस्कार करने लगता है। यह जीव अपने कर्मों के कारण विवश होकर अनेक योनियों में भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपा से मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है।

मनुष्य योनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदि के कारण घमंड न हो जाये तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है।

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भारत! कुआँ दूसरे का, घङा दूसरे का, और रस्सी दूसरे की है। एक पानी पिलाता है, और एक पीता है। वे सब फल के भागी होते हैं।

कृपोस्य्स्य घटोस्य्स्य रज्जुरंयस्य भारत।
पायवत्येक पिबत्वेकः सर्वे ते संभागिनः॥

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महाभारत, विष्णु-पुराण के अनुसार जय-विजय में से एक हिरण्यकशिपु, फ़िर रावण, फ़िर (श्रीकृष्ण के फ़ूफ़ा, चेदि देश के दमघोषका पुत्र होकर) शिशुपाल हुआ। विदर्भराज भीष्मक की पुत्री रुक्मणी थी।
और श्रीकृष्ण कमली (कमरिया) वाले के नाम से प्रसिद्ध थे। रुक्मणी का भाई रुक्मी, उसका विवाह शिशुपाल से करना चाहता था। परन्तु विवाह श्रीकृष्ण के साथ हुआ। इसलिये घोष हारे, और कमली वाला जीता।  

हम लख हमहिं हमार लख, हम-हमार के बीच।
तुलसी अलखहिं का लखै, राम-नाम लखु नीच॥

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जो मनुष्य अपने धन को पाँच भागों में बाँट देता है - कुछ धर्म के लिये, कुछ यश के लिये, कुछ धन की अभिवृद्धि के लिये, कुछ भोगों के लिये, और कुछ अपने स्वजनों के लिये, वही इस लोक और परलोक दोनों में ही सुख पाता है। (श्रीमद भागवत महापुराण)

चलै बटावा थाकी बाट, सोवै डूकरिया ठोरे खाट।
ढूकिले कूकर भूकिले चोर, काढै धणी पुकारे ढोर॥


मेरे बारे में

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326