सृष्टि का सबसे ऊपरी आवरण (खोल, अंडा) ‘विराट’ कहलाता है। इसी विराट के अन्दर का खोल ‘हिरण्यगर्भ’ कहलाता है। हिरण्यगर्भ के भी अन्दर का खोल (जिसमें सभी जीव आदि स्थूल सृष्टि है) ‘ईश्वर’ कहलाता है। मुख्यतः हिरण्यगर्भ का अर्थ ‘सूक्ष्म प्रकृति’ या कारण-शरीरों से है। यह गुह्य ज्ञान ग्रन्थों में रूपक अन्दाज में लिखा है, और कुछ शास्त्रकारों के अपने शब्दों के कारण भिन्नता सी प्रतीत होती है।
हंसा-बगुला एक सा, मान-सरोवर माही।
हंसा ताकूं जानिये, जो मोती चुग ले आही।
बिना भजन तू बैल बनेगा, सर पर बाजे लाठी।
भगती कर भगवान की, क्यों व्यर्थ खोओ या माटी।
नेह निबाहे हि बने, सोचे बने न आन।
तन दे मन दे सीस दे, नेह न दीजे जान।
न तो कोई चिति के सिवा दूसरा बीज है, न अंकुर है, न पुरूष है, न कर्म है, और न दैव आदि ही कुछ है, केवल चिति का ही यह सब कुछ विलास है।
न बीजमादावस्त्यन्यन्नाङ्कुरो न च वा नर:।
न कर्म न च दैवादि केवलं चिदुदेति हि॥
प्रथम पुरूष अनाम-अकाया, जास हिलोर भई सत माया।
माया नाम भया इक ठौरा, सत मत नाम बंधा इक डोरा।।
संसार के जीवों का आत्मज्ञान, अनादि-अविद्या से ढक गया है। इसी कारण वे संसार के अनेकानेक क्लेशों के भार से पीड़ित हो रहे हैं। यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मों से बँधा हुआ है। वह सुख की इच्छा से दुःखप्रद कर्मों का अनुष्ठान करता है। जैसे कोई अंधा अंधे को ही अपना पथ प्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानी को ही अपना गुरू बनाते हैं।
नैन में मिलाकर नैन, देख बिदेही ब्रह्म निरंजन।
जो नैन का पावे भेद, वो ही कला होवै अभेद।।
2 टिप्पणियां:
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