17 अगस्त 2019

बाणासुर राक्षस बना महाकाल




=धर्म-चिन्तन= महाकाल बाणासुर

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि के पुत्र कश्यप की बङी पत्नी दिति से दो पुत्र हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष पैदा हुये। हिरण्यकशिपु के चार पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद थे। प्रह्लाद के विरोचन के बलि के बाण नाम का पुत्र हुआ। बाण ने शोणितपुर को राजधानी बनाया। बाणासुर की कन्या उषा ने शंकर के कामवश होने पर गिरिजा का रूप धर कर भोग करना चाहा पर गिरिजा के आ जाने से सफ़ल न हुयी।

अनेक छल-प्रपंचों के बाद उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध के साथ, (विष्णु के अवतार) श्रीकृष्ण-बलराम के शंकर जी एवं उनके गणों के साथ घोर युद्ध के बाद हुआ। इसी युद्ध में श्रीकृष्ण ने शीत-ज्वर एवं शंकर ने पित्त-ज्वर से एक-दूसरे पर आक्रमण किया। फ़िर शंकर ने इन ज्वरों को अपना गण बना लिया।

खास बात यह हुयी कि युद्ध के बाद शंकर ने बाणासुर को अपने सभी गणों का स्वामी घोषित करते हुये “महाकाल” की उपाधि दी।

इस तरह बाणासुर राक्षस “महाकाल’’ हुआ। (शिव पुराण)
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ब्रह्मा के भाई/बराबर के देव, शंकर के प्रति छह-सात पीढ़ी बाद हुयी, उषा का कामातुर होना अजीब नहीं? सतयुग से अभी के द्वापर तक ब्रह्मा की सातवीं पीढ़ी ही हुयी?

गौर करें तो अन्य सब कुछ भी आपसी खानदानी झगङे सा है।  



जब शब्द अर्थहीन, भाव रसहीन, रस स्वादहीन हो जाते हैं तब कर्मरत योगी, कर्मशील रहते हुये भी निःकर्म ही रहता है। कर्म एवं कर्मफ़ल उसके लिये प्रभाव रहित हो जाते हैं। उस जीवन-मुक्त योगी के लिये जीवन मात्र स्फ़ुरणा जनक प्रकृति-प्रपंच ही है।

कर्मनाश होने से गर्भवास एवं मरण नाश हो जाता है।
तब वह अमर, शाश्वत, अविनाशी हुआ सदा रहता है।

पूरब दिसि ब्याधि का रोग, पछिम दिसि मिर्तु का सोग।
दक्षिण दिसि माया का भोग, उत्तर दिसि सिध का जोग॥  

अमरा निरमल पाप न पुंनि, सत-रज बिबरजित सुंनि।
सोहं-हंसा सुमिरै सबद, तिहिं परमारथ अनंत सिध॥  



=धर्म-चिन्तन= गजेन्द्र मोक्ष
मलय पर्वत पर आराधना करते, विष्णु के घोर उपासक राजा इंद्रद्युम्न, अगस्त्य ऋषि के शाप से ‘गजेन्द्र’ हाथी हुये। एवं महर्षि देवल के शाप से ‘हूंहूं’ गंधर्व ग्राह हुआ। एक दिन गजेन्द्र त्रिकूट पर्वत की तराई में वरूण के ‘ऋतुमान’ नामक क्रीङा-कानन के सरोवर में हथिनियों के साथ विहार कर रहा था। तभी हूंहूं ग्राह ने उसका पैर पकङ लिया।

फ़िर दोनों में एक सहस्र वर्ष संघर्ष हुआ, और गजेन्द्र शिथिल पङने लगा। ग्राह अभी भी शक्ति से भरा था। प्राण-अन्त जैसी स्थिति होने पर गजेन्द्र को पूर्वजन्म की आराधना फ़ल से भगवद स्मृति हुयी, और उसने विष्णु को पुकारा। विष्णु ने सुदर्शन चक्र से ग्राह का वध किया।

हूंहूं गंधर्व ग्राह योनि से मुक्त होकर अपने लोक गया, और गजेन्द्र को विष्णु ने अपना पार्षद बना लिया।
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वास्तव में यह एक ‘योग-रूपक’ है। शब्दों के गहन अर्थ को न समझ कर लोग कथाओं में उलझ जाते हैं। अब चित्र देखिये।

15 अगस्त 2019

साधू होय तो पक्का ह्वै के खेल


जिस प्रकार अनर्गल खाद्यों से अधिक भरा उदर, शारीर-व्याधि का हेतु तथा अनर्गल विचारों से भरा मन/अंतःकरण, जीव-विकार का हेतु है। उसी प्रकार पंच-विकारों से ग्रसित, आवरित हुआ आत्मा भव-विकारों का हेतु है।

क्रमशः आहार शोधन ही विकार निदान का हेतु है।
शब्द-आत्म से ही पूर्ण विकारों का निदान संभव है।

अति आहार इंद्री बल करै, नासै ग्यांन मैथुन चित धरै।
व्यापै न्यंद्रा झंपै काल, ताके हिरदै सदा जंजाल॥  

थोड़ा बोलै थोड़ खा‍इ, तिस घटि पवनां रहै समा‍इ।
गगनमंडल से अनहद बाजै, प्यंड पड़ै तो सतगुरू लाजै॥



प्रथम दीक्षा में, शब्द-नाम जाग्रति, ब्रह्मांडी रंध्र खोलना, जङ-चेतन ग्रन्थि अलग करना एवं अंतर-बोध, अंतर-प्रविष्टि ये चार क्रियायें सिर्फ़ समर्थ सदगुरू द्वारा सम्पन्न होती हैं। तदुपरांत साधक के ध्यान-समाधि अभ्यास से अंतर-यात्रा आरम्भ होती है।

यह यात्रा जीव की तुरीया/कारण का नाश करती है।
तुरीयातीत आत्मा, ही चौथी मुक्त अवस्था को जानता है।

अंधों का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल।
आंखों से नहीं देखिया, ताते भिन-भिन बोल॥

अशुभ वेशभूषा धरे, भच्छ-अभच्छ जे खाय।
ते जोगी ते सिद्ध नर, पुजते कलयुग माय॥



जो तुम हो, वही (सोऽहं वीर) मैं हूँ। लेकिन स्वयं को भूला हुआ। अबोध जीव के जङ-शरीर में, स्पंदन रूपी स्वांस से, चेतन काया-वीर, मन की जङ-ग्रन्थि द्वारा जन्म-जन्मांतरों से बंधा हुआ इस असार जगत में स्वयं सहित परमात्मा को खोज रहा है।

खोज सिर्फ़ सच्चे-सदगुरू द्वारा समाप्त होगी।
और, उसके लिये तुम्हें सच्चा शिष्य बनना होगा।

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय॥

साधू होय तो पक्का ह्वै के खेल।

कच्ची सरसों पेर के, खली बने न तेल॥    

12 अगस्त 2019

सर्वव्यापी सत्ता शब्द-वीर



एक सोऽहं वीर सौ के, हंऽसो हजार एवं परमहंस लाख वीरों के समान है। शब्द-वीर सर्वव्यापी सत्ता है। महामन्त्र, अजपा सोऽहं (बीज) निर्वाणी सिद्ध होने पर क्रमशः हंऽसो, परमहंस एवं शब्दवीर तक भेदता है।
सोऽहं-सार से शब्द-सत्ता तक शक्ति है।
शब्द के पार विलक्षण आपही आप है।

कासी मुक्ति हेतु उपदेसू।
महामंत्र जोइ जपत महेसू।

उल्टा-नाम जपा जग जाना।
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।



=धर्म-चिंतन=

याज्ञवल्क्य - जो समझता है कि मैं अन्य एवं देवता अन्य हैं। इस प्रकार अन्य की उपासना करता है वह अज्ञानी, देवताओं का पशु है। जैसे बहुत से पशु एक-एक मनुष्य का पालन करते हैं। उनमें एक भी पशु हाथ से निकल जाये तो मनुष्य को बहुत बुरा लगता है।

वैसे ही बहुत से मनुष्य मिलकर एक-एक देवता का पालन करते हैं। अतः यदि एक भी मनुष्य देवताओं को छोङकर अलग हो जाये, और अपनी आत्मा की उपासना करने लगे, तो देवों को यह कैसे पसन्द होगा?

इसलिये देवता नहीं चाहते कि मनुष्य यह समझ ले कि “मैं ही ब्रह्म हूँ” मैं तुच्छ नहीं महान हूँ, मैं आत्मा ही हूँ। देवता यही चाहते हैं कि मनुष्य अपने निज आत्म-स्वरूप को न पहचाने, और देवताओं का पशु बनकर उनकी सेवा करता रहे।

योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहम।
स्मीत न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम॥
यथा ह वै बहवः पशुवो मनुष्यं भञ्जुरेवमेकैकः
पुरूषो देवान भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं।
भवति किमु बहुषु तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विदुः॥
(बृहदारण्यक उपनिषद 1-4-10) 


काम, कर्म एवं वासना, अंतःकरण के विकार ये तीनों मल, द्वैतरूपी माया के अज्ञान/अबोध से ही स्थित हैं। गुरू के सैन-बैन से उत्पन्न जाग्रति/बोध/समाधि से ये विकारी आवरण क्षीण होकर नष्टप्रायः हो जाते हैं।

भ्रंगी शब्द-गुरू द्वारा हुयी जाग्रति ही असली मोक्ष है।
भ्रंगी, अंतर-बाहर, देह-विदेह समान रूप अंग-संग है। 

जब लग मन स्थिर नहीं, तब लग आतमज्ञान।
कहन-सुनन अस जान, जस हाथी को असनान॥

इंगला बिनसै पिंगला बिनसै, बिनसै सुखमन नाङी।
कहै कबीर सुनो रे गोरख, कहाँ लगावै तारी॥


10 अगस्त 2019

अचल आत्मा, सचल प्रकृति



भूत एवं भविष्य तथा उनके समय एवं स्थान को खत्म कर सकने वाला, निरंतर प्रकृति-प्रवाह से जुङा, वर्तमान क्षण में सक्रिय/सचेत/जाग्रत योगी, इच्छामात्र से समस्त प्रारब्ध/शरीरी/स्रष्टिक गतिविधियों का कुशल नियंता होता है।
यह “है” में “होना” का योग है।
अतः अचल आत्मा, सचल प्रकृति को यथावत जानो।

तासो ही कछु पाइये, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥

आपा छिपा है आप में, आपही ढूंढे आप।
और कौन को देखिये, है सो आपही आप॥



भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे। देवों को प्रसन्न करने के लिए भजन करे। नाना शुभ-कर्म करे। तथापि जब तक ब्रह्म, आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं (सौ कल्प) के बीत जाने पर भी मुक्ति नहीं हो सकती।

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवता।
आत्मैक्यबोधेन बिनापि मुक्तिर्न सिद्धयाति ब्रह्मशतान्तरेअपि॥
(विवेक चूङामणि)

अपने किये हुये शुभ-अशुभ कर्म अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। बिना भोग के कर्म नहीं मिटते। चाहे करोड़ों कल्प बीत जायें।

अश्वयमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि॥ 



शब्द व्युत्पत्ति से अर्थ प्रसार एवं शब्दार्थ से स्थिति, स्थित है। भाव से स्वर में सन्निहित मूल अक्षर क्रमशः संस्कृत, देवनागरी लिपि है। जिससे विराट फ़िर आर्य पुरूष स्थित है। तदुपरान्त अन्य कृति विकृति हैं।
ट ठ ड ढ ण ङ, वर्ण शेष से भिन्न हैं।
क्षर से अक्षर का मूल निःअक्षर है।

केवल बुद्धि-विलास से, मुक्त हुआ न कोय।
जब अपनी प्रज्ञा जगे, सहज मुक्त है सोय॥

वचन वेद अनुभव युगति, आनन्द की परछाहीं।
बोधरूप पुरूष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहीं॥

07 अगस्त 2019

सुदामा से शंखचूङ दैत्य तक



साइकिल टयूब में वायु भरने की भांति “हूँ” को कंठ से नाभि तक छोङना, ब्रह्म-मंत्र। एवं तदैव निर्वाणी (“हूँ” रहित) क्रिया में एक चमत्कारी गूढ़-रहस्य है, जो साधक को (भव)सागर का कुशल तैराक बना देता है।
यह “होना” एवं “है” दोनों में प्रविष्टि है।
हंसा अब लख आप अपारा।

जो “सतनाम” साधु नहिं जाना।
सो साधु भये जिवत मसाना॥

कलियुग साधु कहैं, हम जाना।
झूठ-शब्द मुख करहिं बखाना॥




वहाँ-यहाँ, ऊर्ध्व-मध्य, भगवान-शैतान, पुरूष-प्रकृति, ब्रह्म-माया के मध्य “जीव” प्रतिनिधि के रूप में रजोगुण से क्रियाशील, सत्व-तम इन दो गुणों में अहं-भाव होकर बरतता है। उपरोक्त दोनों को यथावत “जानने वाला” ही ज्ञानी है।
हे साधो, मच्छ वृति से कच्छ वृति धारो। 

जब जन्में नहीं रामचन्द्र राजा, तब क्या रटती बाजी।
वेद-कुरान कतेब नहीं थे, तब क्या पढ़ते पंडित-काजी॥

चीन्हि-चीन्हि का गावहु बौरे, वाणी परी न चीन्ह।
आदि-अन्त उत्पति-प्रलय, आपु आपु कहि दीन्ह॥



=धर्म-चिंतन=

दो मुठ्ठी चने से निर्धन एवं तीन मुठ्ठी चावल से अपार सम्पदा, प्रतिष्ठा को प्राप्त हुआ, श्रीकृष्ण का परमभक्त सुदामा मर कर गोलोक वासी हुआ। एक दिन कृष्ण ने राधा को छल से भेज कर विरजा गोपी के साथ भोग किया। राधा पता चलते ही तुरन्त विरजा के घर आयीं परन्तु सुदामा जो एक लाख गोपों के साथ द्वार पर पहरेदार था, उसने राधा को अंदर जाने नहीं दिया। अधिक हल्ला होने पर भयभीत कृष्ण अंतर्ध्यान और विरजा नदी हो गयी।

बाद में राधा ने कृष्ण को शाप दिया कि विरजा और तुम नदी-नद होकर भोग-विलास करो तथा कृष्ण का मनुष्य रूप में जन्म हो। फ़िर राधा ने सुदामा को (शंखचूङ) दैत्य होने का शाप दिया। बदले
में सुदामा ने भी उन्हें मनुष्य होने एवं अविवाहित रहने का शाप दिया।

सुदामा, शंखचूङ दानव होकर शिव एवं देवों का शत्रु हुआ। तब शिव ने (अवतार में कृष्ण) विष्णु द्वारा छल से उसका कवच मांगकर, तथा उसकी पत्नी तुलसी (वृंदा) का सतीत्व भंग कर उसे मारा।
(शिव पुराण)

06 अगस्त 2019

सारशब्द प्रवचन लिंक


1.  https://www.youtube.com/watch?v=4E_ft2lDDeM

2.  https://www.youtube.com/watch?v=Ne3VLPusEMA&t=10s

3.  https://www.youtube.com/watch?v=OrL3AKivepk

4.  https://www.youtube.com/watch?v=rmCOYmCvkDI

5.  https://www.youtube.com/watch?v=EsLh3LYAVKY&feature=youtu.be

6.  https://www.youtube.com/watch?v=l8sV0DOwz48

7.  https://www.youtube.com/watch?v=Y0-c7vQxVt0

8.  https://www.youtube.com/watch?v=slSvzqD5RTI

9.  https://www.youtube.com/watch?v=v01Kiq5M83s

10. https://www.youtube.com/watch?v=o5jk6KHeJEs

11. https://www.youtube.com/watch?v=zw_cudd689M

12. https://www.youtube.com/watch?v=LeaR8ldTJjU

13. https://www.youtube.com/watch?v=hCqzucAneTA

14. https://www.youtube.com/watch?v=bBr2PjXityQ&t=7s

15. https://www.youtube.com/watch?v=ajt_D7tKWZg

16. https://www.youtube.com/watch?v=LEMb2YpbHR8

17. https://www.youtube.com/watch?v=y-Fbnq-1vwA

18. https://www.youtube.com/watch?v=G1aiEtbQx3s

19. https://www.youtube.com/watch?v=rb5lEIsu2UM

20. https://www.youtube.com/watch?v=wxxikZuvScU

21. https://www.youtube.com/watch?v=Bd1TDEj2MGc&t=1s



सदगुरू श्री शिवानन्द जी महाराज ‘परमहंस’ का प्राकटय-दिवस अष्टमी (दुर्गाष्टमी, आश्विन मास,  नवरात्र) मनजीत और सुलखन (अमृतसर) द्वारा आश्रम में मनाया गया।


04 अगस्त 2019

गुप्त भगवान एवं मोक्ष क्या है?



बाह्य सुधार/खोज भी अंतर द्वारा ही है। भिन्न ये कि बाह्य भिन्न और अंतर अभिन्न है। बाह्य भ्रांति एवं अंतर निर्भ्रांति है। निर्भ्रांति ही सत्य है। अंतर का भी अन्तर, अन्त हो जाना, शाश्वत, परम, अविनाशी, घन-चैतन्य है।

अंतर से निरंतरता ही सर्वव्यापी “हहर” है।

घट में है सूझै नहीं, लानत ऐसी जिन्द।
तुलसी या संसार को, भओ मोतियाबिंद॥

सदगुरू पूरे वैदय हैं, अंजन है सतसंग।
ज्ञान सराई जब लगे, तो कटे मोतियाबिंद॥



समाधि में कुल अस्तित्व “एक” रहता है। वहाँ इष्ट/अहं नहीं है। संकल्प-समाधि के भाव/स्थिति अनुसार परिणाम हैं। निर्विकल्प समाधि में सिर्फ़ “होना” शेष रहता है किन्तु परिपक्व समाधि अस्तित्व की सिर्फ़ विद्युत/उर्जा स्थिति है।
जिसमें इच्छानुसार त्रिकाल कर्म, लिखा/मिटाया जा सकता है।
यही असली मोक्ष/प्राप्ति होना है।

रामनगर गुरूवा बसा? मायानगर संसार।
कहैंकबीर यहि दो नगर ते? बिरले बचे विचार॥

विषय-भोग जड़बुद्धि है, माया-मोह अन्धेर।
गुरू ज्ञानप्रकाश बिनु, कबहुँ न होय उजेर॥



=धर्म-चिंतन=

आश्चर्य! कि ब्रह्मा के पुत्र स्वयंभू मनु ने, चौथेपन तक, भोगविलास में ही रत रहने एवं भक्ति न कर पाने का दुख मानते हुये, एक पैर पर खङे रहकर, तेईस हजार वर्ष तक आहार सिर्फ़ पानी/वायु/फ़िर ये दोनों भी नहीं, करते हुये भगवान? के दर्शन हेतु घनघोर तप किया।

किस भगवान हेतु? शास्त्र अनुसार विष्णु (अवतार में राम) तो ब्रह्मा के सम्बन्ध से उनके चाचा/रिश्तेदार/सम्पर्की ही थे, और सभी देव, ऋषि, नारद आदि उनसे सामान्य/अक्सर मिलते थे।

फ़िर भगवान ने मनु के अगले जन्म (दशरथ) में स्वयं को उनका पुत्र होने का वर दिया, और दशरथ की वृद्धावस्था में अनेक उपाय द्वारा पैदा हुये।

सन्तान उत्पत्ति के सही समय, यौवनावस्था में इस उपाय/इलाज का दशरथ/तीनों रानियों/कुलगुरू वशिष्ठ आदि किसी को पता न था?

मनु/दशरथ की देह छोङने के बाद दोनों बार वह ब्रह्मलोक/विष्णुलोक से निम्नलोक स्वर्ग में रहे। फ़िर वह गुप्त भगवान एवं मोक्ष क्या है? क्योंकि ब्रह्मा के पुत्रों या अन्य देवों का मोक्ष विष्णु करेंगे, यह बात बेहद अजीब लगती है।

03 अगस्त 2019

कालपुरूष-निरंजन



अतिरिक्त रूप से नमक, मिर्च, खट्टा, मीठा, बादी भक्षक कभी योगी/निरोगी नहीं हो सकते। उसी प्रकार अतिरिक्त रूप से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद युक्त मनुष्य इहलोक/परलोक में उत्तम गति वाले नहीं होते। प्रकृति में निहित ही समाहित है।

अतः आत्म-प्रकृति का स्वाध्याय ही पूर्ण स्वस्थता है।

दोष पराया देखकर, चले हसन्त-हसन्त।
अपने याद न आवहीं, जिनका आदि न अन्त।

अपने-अपने घरन की, सब काहू को पीर।
तुम्हें पीर सब घरन की, सो धन्य-धन्य रघुवीर॥




=धर्म-चिंतन=

स्वयंभू मनु और सतरूपा जिनसे यह नर सृष्टि हुयी, के पुत्र उत्तानपाद थे। उत्तान के पुत्र ध्रुव, प्रियव्रत तथा पुत्री देवहूति (कर्दम मुनि पत्नी) हुयी। देवहूति के पुत्र कपिल (सांख्य शास्त्र) हुये। जब मनु, सतरूपा का चौथापन आया तब उन्हें दुख, वैराग हुआ कि भक्ति न की, जन्म व्यर्थ गया।
तब पुत्र को राज देकर, नैमिषारण्य में, उन्होंने एक पैर पर खङे होकर, छह हजार वर्ष पानी पीकर, तथा पुनः सात हजार वर्ष वायु पर, और पुनः दस हजार वर्ष पानी, वायु के बिना अस्थिमात्र देह रहने तक कठोर तप किया।

प्रभु? प्रसन्न हुये। मनु के वर मांगने पर, प्रभु ने उन्हें दशरथ के रूप में जन्म लेने पर, उनका पुत्र होने का वर दिया, और तब तक स्वर्गवास के लिये कहा। लेकिन दशरथ के वृद्धावस्था तक पुत्र न होने पर वैश्या, श्रंगी ऋषि का तप भंग कर लायी, और श्रंगी द्वारा यज्ञ-खीर से दशरथ पुत्रवान हुये।
बालपुत्र पहले गुरू आश्रम, फ़िर विश्वामित्र के साथ, फ़िर वनवास चले गये। दशरथ उस पुत्र के मोह में, जिसके नाम लेने दर्शन मात्र से मोक्ष होता है, बिना मोक्ष ही फ़िर स्वर्गवासी हुये। 
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ओह, लेकिन आजकल ऐसा कोई नहीं जिसका मोक्ष न होता हो।




कालपुरूष-निरंजन एवं आद्या-माया ने, कच्चे-तत्वों से, त्रिलोकी विषयों की रचना, जैसे विष के लड्डू पर मीठे, मधुर, आकर्षक पदार्थों की ऊपरी परत चढ़ाकर की। जो अन्ततः फ़लरूप मृत्यु/दुर्गति देय हैं।
जबकि सतपुरूष एवं मूलमाया ने, चौथे लोक की रचना, पक्के तत्वों से, अन्दर-बाहर समान रूप अमृत द्वारा की। जो सदा अमरत्व का हेतु है।

काम एवं ताप कालपुरूष के ही गुण हैं।

कृतयुग केवल “नाम” अधारा।
सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा॥

उमा कहहुं मैं अनुभव अपना।
सत हरिनाम जगत सब सपना॥

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326