जिस प्रकार अनर्गल खाद्यों से अधिक भरा उदर, शारीर-व्याधि का हेतु तथा अनर्गल विचारों से भरा मन/अंतःकरण, जीव-विकार का हेतु है। उसी प्रकार पंच-विकारों से ग्रसित, आवरित हुआ आत्मा भव-विकारों का हेतु है।
क्रमशः आहार शोधन ही विकार निदान का हेतु
है।
शब्द-आत्म से ही पूर्ण विकारों का निदान संभव
है।
अति
आहार इंद्री बल करै, नासै ग्यांन मैथुन चित धरै।
व्यापै
न्यंद्रा झंपै काल, ताके हिरदै सदा जंजाल॥
थोड़ा
बोलै थोड़ खाइ, तिस घटि पवनां रहै समाइ।
गगनमंडल
से अनहद बाजै, प्यंड पड़ै तो सतगुरू लाजै॥
प्रथम दीक्षा में, शब्द-नाम जाग्रति, ब्रह्मांडी रंध्र खोलना, जङ-चेतन ग्रन्थि अलग करना एवं अंतर-बोध, अंतर-प्रविष्टि
ये चार क्रियायें सिर्फ़ समर्थ सदगुरू द्वारा सम्पन्न होती हैं। तदुपरांत साधक के
ध्यान-समाधि अभ्यास से अंतर-यात्रा आरम्भ होती है।
यह यात्रा जीव की तुरीया/कारण का नाश
करती है।
तुरीयातीत आत्मा, ही चौथी मुक्त अवस्था को जानता है।
अंधों का हाथी सही, हाथ
टटोल-टटोल।
आंखों से नहीं देखिया, ताते
भिन-भिन बोल॥
अशुभ वेशभूषा धरे, भच्छ-अभच्छ जे खाय।
ते जोगी ते सिद्ध नर, पुजते
कलयुग माय॥
जो तुम हो, वही
(सोऽहं वीर) मैं हूँ। लेकिन स्वयं को भूला हुआ। अबोध जीव के जङ-शरीर में, स्पंदन रूपी स्वांस से, चेतन काया-वीर, मन की जङ-ग्रन्थि द्वारा जन्म-जन्मांतरों से बंधा हुआ इस असार जगत में
स्वयं सहित परमात्मा को खोज रहा है।
खोज सिर्फ़ सच्चे-सदगुरू द्वारा समाप्त
होगी।
और, उसके लिये
तुम्हें सच्चा शिष्य बनना होगा।
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय॥
साधू होय तो पक्का ह्वै के खेल।
कच्ची सरसों पेर के, खली बने न तेल॥
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