17 अगस्त 2019

बाणासुर राक्षस बना महाकाल




=धर्म-चिन्तन= महाकाल बाणासुर

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि के पुत्र कश्यप की बङी पत्नी दिति से दो पुत्र हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष पैदा हुये। हिरण्यकशिपु के चार पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद थे। प्रह्लाद के विरोचन के बलि के बाण नाम का पुत्र हुआ। बाण ने शोणितपुर को राजधानी बनाया। बाणासुर की कन्या उषा ने शंकर के कामवश होने पर गिरिजा का रूप धर कर भोग करना चाहा पर गिरिजा के आ जाने से सफ़ल न हुयी।

अनेक छल-प्रपंचों के बाद उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध के साथ, (विष्णु के अवतार) श्रीकृष्ण-बलराम के शंकर जी एवं उनके गणों के साथ घोर युद्ध के बाद हुआ। इसी युद्ध में श्रीकृष्ण ने शीत-ज्वर एवं शंकर ने पित्त-ज्वर से एक-दूसरे पर आक्रमण किया। फ़िर शंकर ने इन ज्वरों को अपना गण बना लिया।

खास बात यह हुयी कि युद्ध के बाद शंकर ने बाणासुर को अपने सभी गणों का स्वामी घोषित करते हुये “महाकाल” की उपाधि दी।

इस तरह बाणासुर राक्षस “महाकाल’’ हुआ। (शिव पुराण)
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ब्रह्मा के भाई/बराबर के देव, शंकर के प्रति छह-सात पीढ़ी बाद हुयी, उषा का कामातुर होना अजीब नहीं? सतयुग से अभी के द्वापर तक ब्रह्मा की सातवीं पीढ़ी ही हुयी?

गौर करें तो अन्य सब कुछ भी आपसी खानदानी झगङे सा है।  



जब शब्द अर्थहीन, भाव रसहीन, रस स्वादहीन हो जाते हैं तब कर्मरत योगी, कर्मशील रहते हुये भी निःकर्म ही रहता है। कर्म एवं कर्मफ़ल उसके लिये प्रभाव रहित हो जाते हैं। उस जीवन-मुक्त योगी के लिये जीवन मात्र स्फ़ुरणा जनक प्रकृति-प्रपंच ही है।

कर्मनाश होने से गर्भवास एवं मरण नाश हो जाता है।
तब वह अमर, शाश्वत, अविनाशी हुआ सदा रहता है।

पूरब दिसि ब्याधि का रोग, पछिम दिसि मिर्तु का सोग।
दक्षिण दिसि माया का भोग, उत्तर दिसि सिध का जोग॥  

अमरा निरमल पाप न पुंनि, सत-रज बिबरजित सुंनि।
सोहं-हंसा सुमिरै सबद, तिहिं परमारथ अनंत सिध॥  



=धर्म-चिन्तन= गजेन्द्र मोक्ष
मलय पर्वत पर आराधना करते, विष्णु के घोर उपासक राजा इंद्रद्युम्न, अगस्त्य ऋषि के शाप से ‘गजेन्द्र’ हाथी हुये। एवं महर्षि देवल के शाप से ‘हूंहूं’ गंधर्व ग्राह हुआ। एक दिन गजेन्द्र त्रिकूट पर्वत की तराई में वरूण के ‘ऋतुमान’ नामक क्रीङा-कानन के सरोवर में हथिनियों के साथ विहार कर रहा था। तभी हूंहूं ग्राह ने उसका पैर पकङ लिया।

फ़िर दोनों में एक सहस्र वर्ष संघर्ष हुआ, और गजेन्द्र शिथिल पङने लगा। ग्राह अभी भी शक्ति से भरा था। प्राण-अन्त जैसी स्थिति होने पर गजेन्द्र को पूर्वजन्म की आराधना फ़ल से भगवद स्मृति हुयी, और उसने विष्णु को पुकारा। विष्णु ने सुदर्शन चक्र से ग्राह का वध किया।

हूंहूं गंधर्व ग्राह योनि से मुक्त होकर अपने लोक गया, और गजेन्द्र को विष्णु ने अपना पार्षद बना लिया।
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वास्तव में यह एक ‘योग-रूपक’ है। शब्दों के गहन अर्थ को न समझ कर लोग कथाओं में उलझ जाते हैं। अब चित्र देखिये।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326