10 नवंबर 2015

सदैव दीपावली

दरअसल हम रहे हैं सदैव आकांक्षी एक सुखी समृद्ध विलासी जीवन के  । पर झूठी है यह तलाश ही । ठीक कुत्ते के हड्डी चूसने जैसी । हवा को बांधने जैसी । आकाश को समेटने जैसी । स्वेच्छिक अनुकूल अनुरूप वर्गीय जीवन की अन्धी मनःवासना । जो कि न है न कभी होना सम्भव है । कुछ वर्ष नहीं, कुछ माह, कुछ दिन, कुछ क्षण को भी नहीं । 
क्योंकि यह होगा समय को बांधना । पर नहीं बांधा जा सकता है समय को । हाँ रोक देते हैं कुछ योगी, कुछ सन्त, कुछ सती भी इस चक्र को । पर तब समय होता ही कहाँ है । जो पहले से ही नहीं है । उसमें कैसे क्या कुछ हो सकता है ?
इसलिये हम नहीं समझ पाते होली को दीवाली को ईद को क्रिसमस या किसी ओर को । दिये जलाते हैं । रंग उछालते हैं । पकवान बांटते हैं । वृक्ष आदि जङ को सजाते हैं ।
पर भूल जाते हैं खुद को । तेल को बाती को मिट्टी के दिये को । गुणों के रंग को । स्वभाव की मिठास को । चाह के परिधानों को । कल्पना के वृक्ष को माया की झिलमिल को ।
मैंने नहीं देखी दीप आवली । नहीं जलता दिया । तो फ़िर कौन जलायेगा पूरी श्रंखला ।
सोचिये, इन सबके पीछे सिर्फ़ आकांक्षायें है । झूठी कल्पनाओं की । निर्मूल धरातलों की । कोरी भावनाओं की । फ़िर कैसे जलेगा दिया और जगमगायेगी प्रकाशित आवली ।
स्मृति है बाती । भाव है तेल । शरीर दिया । विवेक है उजाला । जगत है वृक्ष । मन है जीव । इनसे परे शिव । और सर्व ।
हम कहते हैं वही । करते हैं प्रतीक वही । पर जानते नहीं । जो प्रकृति दर्शाती अनकही । 
अनकही प्रकृति की । खोजो दिया तेल बाती और युक्ति । युक्ति प्रकाश की । शाश्वत की । तब जलेगा दीप और और बनेगी आवली ।
कच्चा दिया । क्षणिक प्रकाश । छोटी सी बाती । और अशुद्ध तेल । तब नहीं होगा उजाला । सदैव दीप आवली वाला ।
सदैव दीप आवली । एक दो दिन नहीं । झूठी नहीं । न ही दिखावे की । न ही खुशी रहित ।
सदैव शाश्वत अक्षय अविनाशी अविचल अनुपम स्वतः ।
न तेल न बाती न दीप ।
फ़िर सदैव
दीपावली ।
की चिन्ताहरण आश्रम ( मुक्त मंडल ) की ओर से सभी को हार्दिक शुभकामनायें ।

01 नवंबर 2015

अनन्तकला परमात्मा

हिन्दू शास्त्रों का एक महत्वपूर्ण और निर्णयात्मक सूत्र - बृह्म सत्य जगत मिथ्या । मिथ्या कुछ कठिन शब्द है । सरल अर्थ है झूठ । और भी सरल करें तो - जो नहीं है ।
कुछ अजीब सा लगता है । ये कौन कह रहा है । किससे कह रहा है । कब कह रहा है ?
जब हम इसकी तलाश करेंगे । तो ये जीव कह रहा है । जीव जीव से या स्वयं से कह रहा है । या बोध रहा है । जगत मिथ्या ।
पर यह सूत्र अपने आप में पूर्ण नहीं है । यदि इसमें जीव अविनाशी अमर जैसी बात और ज्ञात न हो । क्योंकि मोटे तौर पर जीव जगत में ही है । और जगत मिथ्या तो जीव क्या ?
फ़िर आगे जगत मिथ्या को और भी सरल किया गया - स्वपनवत । अब स्वपन का भी साधारण ज्ञान रखने वाले बारीक अर्थ नहीं जानते । वह यह - अपनी ही अवस्था । चाहे तुरीया के जाग्रत या निद्रा में । है स्वपन स्व-पन ही । क्या स्वपन है - जगत ।
उमा कहहुं मैं अनुभव अपना, सत हरि नाम जगत सब सपना ।
अव प्रश्न यह उठा कि स्वपन कहाँ से आया ? उत्तर है - कल्पना से । कल्पना कहाँ से आयी ? उत्तर - वासना से । वासना कहाँ से ? उत्तर - चाह से । चाह कहाँ से ? उत्तर - इच्छा से । इच्छा कहाँ से ? उत्तर - स्फ़ुरणा, होने का बोध ।
बोध किसको, स्फ़ुरणा किसको ? उत्तर - जीव । जीव कौन ? उत्तर - हंकार, हंग । हंकार किससे ? उत्तर - निहंग से, आत्मा से ।
निहंग क्या, आत्मा क्या ? उत्तर - .....( निशब्द, शब्दातीत, अवर्णनीय, है, जो है सो है )
कोष्ठक में जो शब्द लिखने पङे । वह मजबूरी है । बात खत्म, मौन, जैसा भी लिखना झूठ हो जायेगा ।
कुछ भी कहना सम्भव नहीं । आदि से अब तक कोई कह न सका । कहने का प्रयत्न किया । पर वक्ता को स्वयं लगा - नहीं, कहा नहीं जा सकता ।
किसी भी जीव के आदि सृष्टि से अब तक की स्थिति का यही कृम है । यही मार्ग है । जिस पर वह चलकर आया । अब ठीक इसी कृम को उलटना है ।
गहराई से सोचें - बृह्म सत्य जगत मिथ्या, किसने कब क्यों कैसे कहा ?
अक्सर लोग कहते हैं, मुझे अपने अनुभव अधिक लिखने चाहिये । योग समाधि आदि क्रियाओं में हुये अनुभव । जैसे परीकथाओं जैसा कोई वृतांत कोई दृश्य का सृजन हो । कोई देव देवी मिले । यक्ष राक्षस मिले । पारलौकिक भूमियों देशों के विस्तृत वर्णन । एक रोचक रहस्यमय कहानी जैसे ।
यह उनकी एक और कल्पना है । शब्द, कथन यहाँ तक कि अक्षर सब अनुभव ही है । बस उनके पीछे उनकी तह में उनके मूल में जाने की कोशिश करो । फ़िर उस अस्तित्व को सोचो ।
इस सूत्र का पुनर्निरीक्षण करें - बृह्म सत्य जगत मिथ्या । क्या ध्वनि क्या संदेश निकल रहा है ?
सबसे पहले यह सोचें - जगत मिथ्या क्यों कहा ? बृह्म सत्य भी क्यों कहा ? जीव भी अविनाशी अमर कैसे हो सकता है ? और ये कब क्यों किसके द्वारा कहे गये ।
यदि कोई सूत्र का सही अर्थ जानता हो । तो फ़िर इस सूत्र के भी उपरोक्त शब्दों के द्वारा तहों या तल पर जा सकता है ।
क्या यहाँ 3 हैं - सत्य बृह्म, कल्पनाओं से बनता मिटता जगत और ऐसा कहने वाला स्वयं ?
ये भी योग की एक स्थिति है । तीन भी हो सकते हैं । फ़िर वह और बृह्म ऐसे दो भी होते हैं । और फ़िर बृह्म हुआ वह स्वयं ही शेष रहे । यह भी होता है । और स्थिति के उपरान्त फ़िर तीन हो जाते हैं । स्थिति बारबार के अभ्यास से दृढ होने पर अक्सर ही कभी दो कभी तीन कभी एक होता रहता है । लेकिन बृह्म होने का सत्य तब तक प्रतिष्ठित हो जाता है - अहं बृह्मास्मि ।
ईश्वर बृह्म जीव और माया । कैसा अदभुत खेल बनाया ।
मेरे सामने एक अङचन रहती है ‘बृह्म सत्य’ ऐसा किसने और क्यों कहा ? बृह्म शब्द का अर्थ उसने क्या लिया । नाम नहीं लेना । पर अधिकांश शून्यवादी शून्य समाधि वाले शून्य को ही सब कुछ घोषित कर गये । अन्दर सिर्फ़ शून्य ही शून्य है और कुछ नहीं । कुछ ने इसमें प्रकाश जोङ दिया । आत्मा ( या बहुतों ने इसे कहा परमात्मा ) प्रकाश स्वरूप है ।
कुछ विद्वानों ने कहा - बृह्म का अर्थ आत्मा या शाश्वत से है । लेकिन जिन शास्त्रों में बृह्म शब्द है । उन्हीं में पारबृह्म शब्द भी है । यदि बृह्म को एक चेतन पुरुष माना जाये । तो फ़िर पारबृह्म के अर्थ उससे पार या परे जो कुछ है न कि कोई पारबृह्म पुरुष ।
लेकिन सुरति शब्द योग में मजबूरन परम आत्मा के लिये जो सम्बोधन ‘मालिक, साहिब, कुल मालिक’ आदि कहा गया है । यह कुल तस्वीर को अधिक साफ़ करता है । मतलब साफ़ है । सबके बाद सबसे परे जो है । वही सबका स्वामी है ।
दरअसल बृह्म सत्य जगत मिथ्या को लेकर भृम की जो स्थिति बन सकती है । वह योग ध्यान की एक अच्छी स्थिति है । जिसमें मुख्य दो तरह का अनुभव होता है । एक, जिसमें वह अभ्यास के द्वारा पूर्णतया निर्विचारी ( अंतःकरण के विचार नष्ट नहीं होते । बल्कि उस समय वह विचारों से ऊपर या परे निकल जाता है ) हो जाता है । ऐसी स्थिति में वह खुद स्वयं सशरीर भान के साथ दूर दूर तक जहाँ जहाँ देखता है । दसों दिशाओं में खाली स्थान और चमकीला सफ़ेद दिखाई देता है । सहजता से समझने के लिये बर्फ़ के विशाल और समतल मैदान की कल्पना कर सकते है । लेकिन फ़र्क यह होता है कि बर्फ़ के मैदान पर भूमि और सृष्टि का पूर्ण अहसास होता है । जबकि यहाँ पूर्ण रिक्तता और बेहद हल्कापन महसूस होता है । यह स्थिति जगत मिथ्या कही जा सकती है । क्योंकि बेहद भीङभाङ या निर्माण के बीच भी यह स्थिति बन जाये तो सब कुछ अलोप हो जाता है ।
और दूसरी, अहम बृह्मास्मि वाली जिसमें वह खुद से जगत को प्रकाशित होते और प्रकृति को हलचल करते हुये देखता है । एक आवश्यक बात बता दूं । समाधि संयुक्त उच्च ध्यान में आँखे खुली हों या बन्द दृश्य एक ही दिखाई देता है । अन्दर बाहर समान । बस ध्यान निर्धारित स्थान या धुर पर केन्द्रित होना चाहिये । ऐसे अनुभव वाला भी कोई बृह्म सत्य जगत मिथ्या कह सकता है । पर इसको आंशिक सत्य ही कहा जायेगा । क्योंकि असली और अन्तिम सच्चाई अभी बहुत दूर है ।
एक बात विशेष स्मरण की है कि जिसके लिये बृह्म सत्य हो गया । उसके लिये भी जगत मिथ्या नहीं है । क्योंकि यह अपने सभी घटकों के साथ अब उसी में है । और स्थायी रूपेण अलग नहीं हो सकता । हाँ मोह आसक्ति आदि अज्ञान मूल से नाश हो जायेगा ।
हमें एक बात पर बारबार गौर करते रहना चाहिये - परमात्मा अनन्त कला है ।
और यदि साधक कोई स्थिति को जान रहा है । कुछ बार पहुंचा है । तो उससे फ़लित परिणाम क्या हुआ ? क्या उसे कोई विशेष शक्ति, उपाधि आदि कुछ प्राप्त हुआ । यदि ऐसा नहीं है । तो उसका तमाम योग एक खूबसूरत धोखा है ।
ये चर्चा बेहद विस्तार की मांग रखती है । अतः अभी समाप्त करते हुये एक चीज की ओर आपका ध्यानाकर्षण करता हूँ ।
आपने जीव के लिये अजर अमर अविनाशी अमल निर्मल यह सब सुना होगा । लेकिन शाश्वत नहीं । जीव को शाश्वत नहीं कहा जा सकता । यदि जीव शाश्वत है । तो जैसे परमात्मा अनादि है वैसे ही जीव भी अनादि हो जायेगा ।
हंकार रूपी बुलबुले से उत्पन्न जीव पुनः हंकार मिटने तक अंतःकरण अनुसार विभिन्न उपाधियों स्थितियों में अनन्तकाल तक भृमण करता रहता है । हंकार नष्ट हो जाने पर यह मूल हो जाता है यानी - शाश्वत आत्मा ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326