28 जून 2016

प्रकृति के रहस्य

क्या है स्वाति नक्षत्र के वर्षा जल में ? क्यों पपीहा सिर्फ़ यही जल पीता है ? चातक नर मादा क्यों बिछुड़कर ही रात बिताते हैं ? गहरे प्राकृतिक और आध्यात्मिक रहस्य युक्त यह लेख सभी को गम्भीर चिन्तन मनन की प्रेरणा देता है ।
चिन्तन हेतु महान सिद्ध हस्तियों के उदाहरण भी दिये गये हैं ।  

स्वाति का शाब्दिक अर्थ - स्वत: आचरण करने वाला, झुंड में अग्रणी, पुजारी ।

जो बरसै स्वाती । कुनबिन पहिरै सोने के पाती । 
- यदि स्वाती नक्षत्र में एक बार वर्षा हो जाये । तो किसान की स्त्री ( कुनबिन ) फसल अच्छी होने से सोने का पत्तर ( हाथ में पहनने का जहाँगीरी गहना ) पहनेगी ।
कदली सीप भुजंग मुख । स्वाति एक गुन तीन ।
- केला में कपूर, सीप में मोती, सर्प में विष ।

रे रे चातक सावधान मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम ।
अम्बोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ।
केचिद वृष्टिभिरार्द्रयन्ति  धरणीं गर्जन्ति केचिद वृथा ।
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रुहि दीनं वचः । 
नीतिशतक /47
- सावधान मित्र ! आकाश में कई मेघ होते हैं । पर सभी एक जैसा नहीं होते । प्रत्येक मेघ जल देकर तृप्त नहीं करता । कोई धरती पर वृष्टि करके उसे तृप्त करेगा । कोई सिर्फ गरजेगा । इसीलिये हर किसी मेघ के आगे हाथ फैलाकर जल मत मांगो ।

पपीहा अक्सर शरद ऋतु और बरसात में अपनी मधुर आवाज़ पिउ पिउ बोलता है । इसे चातक, पपीहा, चकवा चकवी आदि नाम से भी जानते हैं । यह पक्षी मादा के साथ दिन भर जोड़े के रूप में रहता है । किन्तु नर मादा रात बिछुड़कर ही बिताते हैं । सुबह इनका मिलन होता है ।
अलग अलग रहकर ही जिनको । सारी रात बितानी होती ।
निशाकाल के चिर अभिशापित । बन्द हुआ क्रंदन फिर उनमें । 
नागार्जुन । बादल को घिरते देखा है

साँझ पड़े दिन बीतबै । चकवी दीन्ही रोय । 
चल चकवा वा देश को । जहाँ रैन नहिं होय । कबीर
सांझ पड़ दिन आथम्यौ । चकवी भयौ वियोग ।
पणिहारी यूं भाखियौ । ये विधना का जोग ।
चकवी चकवा दो जने । इन मत मारो कोय ।
ये मारे करतार के । रैन विछोया होय ।
चकवी बोली माय ते । क्यों जन्मी मेरी माय ।
सभी पखेरू रुड मिले । हमको बैरिन रात ।  
चकवी बिछुड़ी रैन की । आय मिली प्रभात ।
जो जन बिछुड़े राम सौं । ते दिन मिलै न रात ।

स्वाति नक्षत्र का पानी चातक के लिए जीवन उपयोगी सिद्ध होता है । साहित्य में चातक को प्रतीक्षारत विरही के रूप में प्रस्तुत किया है । उसका वर्षा जल से अटूट रिश्ता बताया जाता है ।

चातक सुतहि पढ़ावहिं । आन नीर मत लेई ।
मम कुल यही सुभाष है । स्वाति बूँद चित देई । 
कबीर । बीजक

मुक्ता करै करपूर कर । चातक जीवन जोय ।
एतो बड़ी रहीम जल । व्याल बदन विष होय ।
रहीम

रहु रहु पापी पपीहा रै । पिउ को नाम न लेय ।
जे कोई विरहनि साम्हल । तो पिउ कारन जिब देय । 
मीराबाई

मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर ।
सुजस धवल, चातक नवल । रहयो भुवन भरि तोर ।
एक भरोसे एक बल । एक आस बिस्वास ।
एक राम घनश्याम हित । चातक तुलसीदास ।
तुलसीदास 

बहुत दिन जियो पपीहा प्यारो ।
बासर रैन नांव लै बोलत । भये विरह जुटकारी ।
आप दुखित पर दुखित जानि जिय । चातक नाव तियारो ।
देखौ सफल विचारी सषि जिय । बिछुरनि को दुख न्यारो । 
सूरदास । भ्रमर गीत 

लगत सुभग सीतल किरन । निसि सुख दिन अब गाहि ।
माह ससी भ्रम सूर ज्यौं । रहित चकोरो चाहि ।
बिहारी

चाहै प्रान चातक सुजान घनआनंद को ।
हैया कहूं काहू को परै न काम कूर सौं । 
घनानंद

वरषा है प्रतापूज, घटिधरौ । अबलां मन को समझायो जहाँ ।
यहि व्यारी तवै बदलेगी कहू । पपीहा जब पूछि है । ( पिउ कहाँ )
कवि प्रताप नारायण मिश्र । पपीहा विरह वर्णन 

बलि जाऊँ बलि जाऊँ चातकी । बलि जाऊँ इस रट की ।
मेरे रोम रोम में आकर । यह काँटे सी खटकी ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त । यशोधरा की विरह अवस्था 

चपला की व्याकुलता लेकर । चातक का करुण विलाप ।
तारा आँसू पोंछ गगन के । रोते हो किस दुख से आप   ।
जयशंकर प्रसाद । नीरद

पपीही की वह पनि पुकार । निर्झरों की भारी झर झर ।
झींगरों की झीनी झनकार । घनों की गुरू गंभीर घहर ।
सुमित्रानन्दन पंत ( पपीहा की पुकार )

मेघदूत की सजल कल्पना । चातक के सिर जीवन धार ।
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर । सुभग स्वाति के मुक्ताकार ।
विहग वर्ग के गर्भ विधायक । कृषक बालिका के जलधार ।
सुमित्रानन्दन पन्त । बादल

लागि कुवांर नीर जग घंटा । अवहुं आउ कंत तन लटा ।
तोहि देखि पियु पलु है कया । उतरा चीतु बहुरि करू मया ।
चित्रा मित्र मीन आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ।
उवा अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा ।
स्वाति बूँद चातक मुख परे । समुद्र सीप मोती सब भरै ।
सरबर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहि खंजन देखाए ।
भा परगास कांस बन फूलै । कंत न फिरे विदेसहि भूले ।
मलिक मुहम्मद जायसी । नागमती वियोग वर्णन 

नैन लागु तेहि मारग पदुमावति जेहि दीप ।
जैस सेवाती सेवहिं बन चातक जल सीप ।

चातक स्वाति बूँद को प्यासो । मन दरसन को प्यासो ।
म्हारो आँगन तरस्यो तरस्यो । दुनिया में चोमासो । 
मोहन सोनी 

सुरसुन्दरी, कर्पूर मंजिरी सिर से नहाकर वह अपने काले घने केशों को सुखा रही है । उसके काले घने बाल जैसे काले बादल हैं । और उनसे टपकते पानी को बारिश का पानी समझ कर चातक उसकी बूंदों से अपनी प्यास बुझाने आता है ।
संसार भी ऐसा ही मायावी है कि उसके सम्मोहन में आसानी से आ जाते हैं । समझते कुछ हैं और असल में होता कुछ है ।
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अनल पंखी आकाश को । माया मेरु उलंघ । 
दादू उलटे पंथ चढ । जाइ बिलंबे अंग । 

हम पशुवा जान जीव हैं । सतगुर जात भिरंग ।
मुर्दे से जिन्दा करै । पलट धरत हैं अंग । 
हम पशु समान जीव और सदगुरु भृंग ( कीट ) समान है । जैसे भृंगी किसी रेंगने वाले तुच्छ तिनके से जीव को पकड़ कर लाता है । और अपने मिट्टी के घर में बंद कर देता है । खुद बाहर बैठ कर भिनभिनाता ( भूं भूं ) है । जिसे सुनकर अंदर बैठा जीव डरता है । और उसका ध्यान भृंगी पर ही रहता है । भृंगी अपने शब्द से उस जीव को भी भृंगी ही बना देता है । धीरे धीरे भृंगी की भांति उसके सभी अंग तैयार होकर वह भृंगी ही हो जाता है ।
सतगुर कंद कपूर हैं । हमरी तुनका देह ।
स्वांति सीप का मेल है । चंद चकोरा नेह । 
केले में स्वाति नक्षत्र के समय बारिश की बूंद गिरे । तो उसमें कपूर पैदा होता है । और तिनके की तरह हमारा शरीर सदगुरु उपदेश की बूंद ह्रदय में पड़ने से ज्ञान रुपी कपूर उत्पन्न हो जाता है ।
स्वाति नक्षत्र में सीप में स्वाति बूंद पङ जाने से मोती उत्पन्न होता है । सदगुरु के प्रति चन्द्र चकोर  जैसा स्नेह हो । तभी ज्ञान संभव है ।
पट्टन नगरी घर करै । गगन मण्डल गैनार ।
अलल पंख ज्यूं संचरै । सतगुरु अधम उधार ।
अलल ( अनल = वायु  ) वायु में ही रहने और उसी में विचरण करने के कारण उसे अनल पक्षी कहा जाता है । वह आकाश मंडल के शिखर पर विचरण करता है । सदगुरु का तरीका भी यही है ।
अलल पंख अनुराग है । सुन्न मण्डल रहे थीर ।
दास गरीब उधारिया । सतगुरु मिले कबीर । 
अलल पक्षी आकाश मंडल में स्थिर रहते हुए भी अपने सुरति से अपने बच्चों को अपने पास खींच लेता है । उसी प्रकार सदगुरु उद्धार करता है ।

अमले सिचाई उडत रहाता । अनल पक्षी पण उडत क्याता । 
गरुड पण उडत रहेउ जाहीं । यह सवकु आकाश हि ताकी ।  
अपार अपार रहत हि जाई । जिनकु पांख में यल रहाई । 
अधिक यल रहस्यों जी जितना । आकाश के महिमा हि क्तिना ।

चन्डूल पक्षी की विशेषता - किसी भी पुरुष, महिला, जानवर, पक्षी की आवाज की बखूवी नकल कर लेता है । इसकी वजह से कई बार लोग जंगलों में मुसीबत में पङ गये । क्योंकि इसने किसी की आवाज नकल कर लोगों को भ्रमित किया । इसीलिये चान्डाल जैसे स्वभाव के कारण इसका नाम चन्डूल रखा गया ।

झुंड में रहने वाला हारिल ( हरियल ) पक्षी जमीन पर सीधे पैर नहीं रखता । पंजों में छोटी पतली लकङी दबाये रहता है । इसका रंग हरा, पैर पीले, चोंच कासनी रंग की होती है । इसकी विशेषता है कि यदि घायल होकर किसी वृक्ष की शाखा में लटक जाय । तो मरने पर भी इसके पंजों से वह शाखा नहीं छूटती । 
हारिल लकङी ना तजे, नर नाहीं छोडे टेक ।
कहें कबीर गुरु शब्द ते, पकड रहा वह एक ।
इसी आधार पर यह पद बना है - हमारे हरि हारिल की लकरी 

हमारे हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम वचन नंद नंदन उर । यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि । कान्ह कान्ह जकरी ।
मृगमद छाँड़ि न जात, गही ज्यौं हारिल लकरी ।
हारिल की लकड़ी । पकड़ी सो पकड़ी । कहावत
हारिल = हारा हुआ - ऐसा आधार या आश्रय जो किसी प्रकार छोड़ा न जा सके । 

पाकिस्तान का राष्ट्रीय पक्षी, मयूर वर्ग कुल का , चंद्रमा का एकांत प्रेमी तथा रहस्यमय और साहित्यिक पक्षी चकोर सारी रात चंद्रमा की ओर ताका करता है । अँधरी रातों में चंद्रमा और उसकी किरणों के अभाव में वह अंगारों को चंद्रकिरण समझ कर चुगता है । यह स्वभाव और रहन सहन में तीतर से बहुत मिलता है ।

इसका एक नाम विषदशर्न मृत्युक है । कहते हैं - विष युक्त खाद्य सामग्री, विषाक्त पदार्थों को देखते ही उसकी आँखें लाल हो जाती हैं । और वह मर जाता है । इसीलिये पूर्व काल में राजा उसे भोजन की परीक्षा के लिए पालते थे ।  
उदात प्रणय का उदाहरण चकोर मैदान में न रहकर पहाड़ों पर रहना पसंद करता है । शिकारी इसका स्वादिष्ट माँस खाने के काम लेते हैं ।


मोरनी मोर का आंसू पीकर गर्भधारण करती है । अलल पक्षी दृष्टि से गर्भधारण करता है । भ्रंगी कीट अपनी धुनि से विजातीय कीट को भ्रंगी में रूपांतरित कर देता है ।
यानी सामान्य नर मादा की तरह परस्पर दैहिक संयोग से वंश वृद्धि नहीं करते ।

24 जून 2016

सिर्फ़ 11 दिन में परमात्म ज्ञान

वर्तमान में जैसा कि अनुभव में आ रहा है । तमाम धर्मगुरुओं, पंथों, धर्म पुस्तकों ने धर्म और भक्ति के नाम पर आम आदमी को कोई राहत पहुँचाने के स्थान पर भटकाते हुये कुमार्गी अधिक बनाया है । इंसान भक्ति से सुख शान्ति को प्राप्त होने के बजाय परेशान अधिक हुआ है ।
ते बिरले संसार मां । जे हरिहि मिलावैं ।
कान फ़ुकाय कहा भयै । अधिका भरमावै ।  
आदि सृष्टि से ही निर्विवाद ‘सहज योग’ या ‘सुरति शब्द योग’ भक्ति का सबसे सरल सहज और उच्च माध्यम रहा है । जिसका सिद्धांत जाति, पांति, रूढ़ियों, वर्जनाओं, मान्यताओं, देश, धर्म, कुल, समाज से हटकर सिर्फ़ मानवता और आत्मज्ञान द्वारा जीव के निज स्वरूप के पहचान की बात कहता है ।  
एकहि ज्योति सकल घट व्यापक । दूजा तत्व न होई ?
कहै कबीर सुनौ रे संतो । भटकि मरै जनि कोई ।
जिसको सन्तवाणी गुरुग्रन्थ साहिब में -
जपु आदि सचु जुगादि सचु । है भी सचु नानक होसी भी सचु । 
कहकर बताया है । यानी जो सृष्टि की शुरूआत से ही सत्य है । हर युग में सत्य है । स्वयं भी सत्य है  और इसको जपने वाले को भी सत्य स्वरूप ही कर देता है ।

इसी भक्ति को कबीर साहब, गुरुनानक, रैदास, मीरा, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, दादू, पलटू, रज्जब, अद्वैतानन्द, नंगली सम्राट स्वरूपानन्द, खिज्र, मंसूर, तबरेज आदि आदि प्रसिद्ध सन्तों ने किया है और सरल सहज भाव से परमात्मा को जाना है । यह ज्ञान कुण्डलिनी ज्ञान से बहुत उच्च श्रेणी का होता है ।
किसी भी सन्त, गुरु, सदगुरु द्वारा दी जाने वाली दीक्षा 4 प्रकार की होती है ।
1 मन्त्र दीक्षा - इसमें मन के कषाय (दोष) शुद्ध होते हैं । 
2 अणु दीक्षा - इसमें सूक्ष्म अलौकिक वस्तुओं पदार्थों का ज्ञान होता है । 
3 हँस दीक्षा - इसमें साधक को नीर क्षीर यानी सार असार ज्ञान होता है । यह दीक्षा साधक को बृह्माण्ड की चोटी तक ले जाती है । 
4 परमहँस दीक्षा - यह साधक को बृह्माण्ड की चोटी से ऊपर सत्यलोक की सीमा में यानी आत्मा परमात्मा के क्षेत्र में ले जाती है और लगनशील समर्पित साधक को परमात्मा का साक्षात्कार भी कराती है ।
इसके बाद ऊपर एक ‘शक्ति दीक्षा’ भी होती है । जो साधक को भी आंतरिक रूप से और गुरु भी आंतरिक रूप से दीक्षा देता है । यानी यह दीक्षा शरीर रूप से गुरु शिष्य के बीच नहीं होती ।
1 - सन्तमत के सहज योग का नामदान सीधा ‘हंसदीक्षा’ से शुरू किया जाता है और साधक को सीधा ‘आज्ञाचक्र’ से ऊपर उठाते हैं । इस तरह नीचे के चक्रों की मेहनत बच जाती है । जो अक्सर कई वर्षों का भी समय ले लेती है । हंसदीक्षा में तीसरा दिव्य नेत्र खुल जाता है । जङ चेतन की गाँठ खुल जाती है और साधक दिव्य प्रकाश या दिव्य लोकों के दर्शन दीक्षा के समय ही अपनी संस्कार स्थिति अनुसार करता है ।
हंसदीक्षा के बाद गुरु प्रदत्त नाम जप का सुमिरन वर्तमान में बहु प्रचलित ध्यान Meditation से भी सरल होता है । जो कभी भी कहीं भी किया जा सकता है । और इसे साधक आराम से अपने घर आदि पर करता हुआ अलौकिक अनुभूतियों के साथ भक्ति पदार्थ और अक्षय धन का संचय करता है । जो इस जीवन में और मृत्यु के बाद भी काम आता है ।
2 - यदि साधक लगनशील और अच्छा अभ्यासी है । तो अक्सर 1 या 2 वर्ष में उसकी ‘परमहंस दीक्षा’ कर दी जाती है । इस दीक्षा में साधक के अंतर में ‘अनहद ध्वनि रूपी नाम’ प्रकट किया जाता है । जिसका अभ्यास करने पर साधक को अनेकों सृष्टि के रहस्य और आत्मा के रहस्यों की जानकारी तथा स्वयं की पहचान Who Am I आदि होने लगती है । इस दीक्षा के अभ्यास को सफ़लता से करने पर साधक कृमशः अमर पद को प्राप्त करने की तरफ़ बढ़ने लगता है ।
3 - यदि कोई साधक अच्छा अभ्यासी समर्पित और सात्विक आचार विचार वाला होता है । तब शीघ्र ही उसको समाधि ज्ञान भी कराया जाता है । यह परमहंस दीक्षा के बाद होता है ।
समाधि ज्ञान बहु उपयोगी है । इसमें एक तरह से साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है और स्वयं तथा अन्य के तथा देश दुनियां आदि में होने वाली (या हो चुकी) घटनाओं को प्रत्यक्ष देखने लगता है । समाधि द्वारा वह अपनी तथा अन्य लोगों की समस्याओं का बखूबी निवारण कर सकता है । तथा संस्कारों को जला सकता है ।
4 - आजकल बहुत से लोगों को जिस तरह से ‘ध्यान’ Meditation का अच्छा अभ्यास है । या किसी अन्य गुरु से नाम लेकर एक से तीन घन्टे तक ध्यान योग में बैठने का अभ्यास है । पर उनको कोई विशेष कामयाबी नहीं मिली है । वह सिर्फ़ पूरे 11 दिन का समय निकाल कर कृमशः हंसदीक्षा और परमहंस दीक्षा और फ़िर उसके बाद सहज समाधि का ज्ञान कर सकते हैं ।
लेकिन 11 दिन का ये विशेष ज्ञान सिर्फ़ उन्हीं लोगों पर कारगर हो पाता है । जो हर तरह से सन्तुष्ट हों और उनमें धन, स्त्री, पुत्र, परिवार, नौकरी, मकान, दुकान आदि जैसी कोई अतृप्त इच्छा शेष न रही हो । वरना वही ‘इच्छा रूपी संस्कार’ इस ज्ञान के पूर्ण होने में बाधक बन जाता है ।
सरल शब्दों में, जिसमें सिर्फ़ निज पहचान या परमात्म साक्षात्कार की ही वासना शेष रही है और अब तक के सतसंग, ध्यान अभ्यास और चिन्तन, मनन से जो सांसारिक भावों से राजा जनक की भांति लगभग शून्य हो चुका है । वो इसमें सच्चे सन्त, सदगुरु के मिलते ही शीघ्र सफ़ल (एकाकार) हो सकता है ।
इसमें उसकी कुछ स्वयं की कृपा, गुरु की कृपा और स्वयं परमात्मा की कृपा का भी पूर्ण सहयोग रहता है ।
जेहि जानहि जाहि देयु जनाई ।
जानत तुमहि तुमही होय जाही ।
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जीवों के 5 कष्टदाता

इस पूरी पोस्ट का सार सत्य यही है कि कालपुरुष ने अपनी अलग सृष्टि में चहल-पहल हेतु सतपुरुष से जीवों को मांगा था क्योंकि वह जीव उत्पत्ति नहीं कर सकता था । ये जीव आद्या यानी अष्टांगी यानी प्रथम स्त्री लेकर आयी थी  जो निरंजन की पत्नी बन गयी । वो हंस जीव सिर्फ़ यहाँ स्वेच्छा से (जब तक जी चाहे, रहने आये थे । ज्ञान पूर्ण थे और जरा, व्याधि, जन्म मरण से पूर्ण मुक्त थे) कुछ समय के लिये आये थे ।
परन्तु दुष्ट, क्रूर और विषयभोगी प्रवृति के कालपुरुष ने उन्हें तरह तरह के मोह, माया और अज्ञान में फ़ंसा कर कैद कर लिया और भांति भांति के कष्ट देने लगा ।
और अब जीव उसके आगे लाचार हो चुका था क्योंकि वह अपना ज्ञान, निजी पहचान और घर भूल चुका था । तब वह कष्ट से त्राहि त्राहि कर अपने बनाने वाले को पुकारने लगा । 
उसकी ये करुण पुकार सतपुरुष के पास गयी और उसने अपना प्रतिनिधि उद्धारकर्ता सदगुरु के रूप में भेजा । जिसने जीव को उसका अपना ज्ञान, निजी पहचान और घर याद दिलाया ।

लेकिन इस रास्ते में अब भी एक बाधा थी । सतपुरुष का काल निरंजन को दिया वचन । 
इस ‘नये खेल’ के शुरू हो जाने से ही कालपुरुष ने धर्म के नाम पर तमाम भृमजाल फ़ैलाया । वास्तव में जीव को जिसकी कोई आवश्यकता ही न थी क्योंकि बिना कुछ किये वह इससे उच्च, अमर, अविनाशी स्थिति में था, है ।

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यह आद्या (इच्छाशक्ति या योगमाया या प्रमुख देवी) तथा काल निरजंन (मन या धर्मराज या राम या कृष्ण या ररंकार) दोनों पति पत्नी लोक (जीवेषणा) तथा वेदरूपी (जानना, मानना) भवसागर (होना) के दोनों किनारों (जन्म मृत्यु - बन्धन, मोक्ष) पर जीवों को रोकने के लिए अत्यंत सावधानी पूर्वक बैठे हैं । 
सात द्वीप नौ खण्ड में, औ इक्कीस ब्रम्हांड ।
सतगुरु बिना न बाचिहा, काल बडो परचंड ।
संसार के धर्मग्रन्थों में जिन पहले स्त्री पुरुष के विषयभोग में आसक्त होने के कारण सत्यलोक से निकाले जाने या वहाँ प्रवेश वर्जित हो जाने का जिक्र है । वे भी यही दोनों है ।
देव पैगम्बर रिषि मिलि, इनही माना मूल ।
निराकार में यह सब अटके, यही सबन की भूल ।
हमरा यह सब कीन कराया, हमहीं बस पर गांव ।
कहे कबीर सबको जगह, हमको नाहीं ठांव ।
और इस भवसागर के बीच में (इनके तीन पुत्र)  तीन अहेरी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश - रज, सत, तम) कर्मों का जाल लिए फिरते हैं । यह अनेक हजारों प्रकार के पंथ प्रचलित करके एक दूसरे के विपरीत राह दिखाकर स्वपक्ष यानी अपने अपने धर्म, जाति, मजहब में फँसाकर मनुष्य मात्र को अंधा करते हैं । जिससे समस्त मनुष्य अज्ञानतावश भटक भटक कर मरते हैं ।
माता ते डांइन भई, लिया जगत सब खाय । 
कहें कबीर हम क्या करें, जगत नाहिं पतियाय । 
त्रियदेवा समझे नहीं, भई माय ते नार ।
उन भूलत भूला सब कोई, कहें कबीर पुकार ।
वेदन बरन जो पावें, कहें एक तो बात । 
जैसी कुछ माता कही, सोइ कहें दिन रात । 
किसी को भी मुक्ति का मार्ग नहीं मिलता । ये तीनों मछुआरें (ब्रह्मा, विष्णु, महेश - रज, सत, तम)   ऐसे बलिष्ठ हैं कि अपने अनंत कपट जालों द्वारा जीवों को फँसा ही लेते हैं । और भांति भांति के कर्म, उपासना, योग तथा ज्ञान द्वारा लोभ लालच बतलाकर किसी को अपने जाल से बाहर जाने नहीं देते ।
माता गुरु पुत्र भये चेला, सुत को मंत्र दीन ।
कहें कबीर माता को वचन, सबहिन चित धर लीन ।
अज्ञानवश समस्त मनुष्य अपने आप आकर स्वयं कैद होकर इन पाँचों शिकारियों का शिकार बनते हैं । इस भवसागर में समस्त जीव मछलियों के समान हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों मछुआरों की तरह इस
भवसागर में गरजते फिरते हैं । कोई इनका सामना कर नही सकता । यदि कोई ऋषियों मुनियों में से कोई इनके सामने खड़ा हो  तो सहस्रों प्रकार की माया से उनको भी वशीभूत कर लेते हैं । जहाँ कहीं ये तीनों दबते या कमजोर पङते हैं । वहाँ तुरंत इनके माता पिता आद्या तथा कालपुरुष उनकी सहायता करते हैं  और उनको बल देकर उनकी कामना पूरी करते हैं । ये पाँचों बड़े भयानक तथा जीवों के कष्टदाता हैं ।
और अनजान मनुष्य इनको अपना भगवान, अल्लाह, रब, खुदा, मालिक मानते हैं । पर जीवों को क्या पता कि हमारे दुःख का कारण यही पाँचों हैं ।
तिसका मंत्र सब जपे, जिसके हाथ न पांव ।
कहें कबीर सो सुत माको, दिया निरंजन नांव ।
कबीर साहेब अपनी वाणी में इनके बारे में बहुत समझाते हैं कि अगर मनुष्य इन देवी देवताओं की पूजा आराधना करेगा तो वो जीव कभी मालिक को नहीं पा सकेगा ।
कबीर ने कहा है ।
देवी देव मानैं सबै, अलख ना मानैं कोय ।
जा अलखे का सब किया, तासों वेमुख होय ।
मांइ मसानी सेढी सीतला, भैरु भूत हनुमंत ।
साहेब से न्यारा रहै, जो इनको पूजंत ।
राम कृष्ण अवतार है, इनकी नाही मांड़ ।
जिन साहब रचना रची, कबहू ना जन्मा रांड ।
ब्रह्मा विष्णु शंकर कहिये, इन सर लागी काई ।
इनके भरोसे कोई मत रहियों, इनै ना मुक्ति पाई ।
पाँच तत्व तीन गुण के, आगे मुक्ति मुकाम ।
जहाँ कबीरा घर किया, गोरख दत ना राम ।
काल के मुँह से निकला पहला शब्द ॐ है । और वो ही भवसागर में डालने वाला मंत्र (शब्द) है । 
करता ते अनखानी माया, आगम कीन्ह उपाय ।
कहॅ कबीर त्रिया चंचल, राखा पुरुष दुराय ।
पौरुष अपने ते विरची नारी, घर घर कीन्हा ठांव ।
निरगुन को करता ठहराया, मेट हमारा नांव ।
कबीर साहब कहते हैं -
केता हम समझाइया, पै ना समझे कोय ।
उनका कहा जगत मिल माना, हमरे कहे क्या होय ।
जिन ॐकार निश्चय किया, वो करता मत जान ।
साँचा शब्द कबीर का, पर्दा माही पहचान ।
करता के हम करता कहिये, सब दातो के दात । 
सकल मूल सत साहेब कहिये, बाकी जम जंजाल ।

23 जून 2016

परमात्मा से मिलाने का धंधा

एक संन्यासी सारी दुनिया की यात्रा करके भारत वापस लौटा । एक छोटी सी रियासत में मेहमान हुआ ।
उस रियासत के राजा ने जाकर संन्यासी को कहा - स्वामी, एक प्रश्न 20 वर्षो से निरंतर पूछ रहा हूँ । कोई उत्तर नहीं मिलता । क्या आप मुझे उत्तर देंगे ?
स्वामी ने कहा - निश्चित दूंगा ।
संन्यासी ने राजा से कहा - नहीं, आज तुम खाली नहीं लौटोगे । पूछो ।
उस राजा ने कहा - मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूँ । ईश्वर को समझाने की कोशिश मत करना । मैं सीधा मिलना चाहता हूँ ।
संन्यासी ने कहा - अभी मिलना चाहते हैं कि थोड़ी देर ठहर कर ?
राजा ने कहा - माफ़ करिए, शायद आप समझे नहीं । मैं परमात्मा की बात कर रहा हूँ । आप यह तो नहीं समझे कि किसी ईश्वर नाम वाले आदमी की बात कर रहा हूँ । जो आप कहते हैं कि अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हो ?
संन्यासी ने कहा - महानुभाव, भूलने की कोई गुंजाइश नहीं है । मैं तो 24 घंटे परमात्मा से मिलाने का धंधा ही करता हूँ । अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हैं । सीधा जवाब दें ।
20 साल से मिलने को उत्सुक हो और आज वक्त आ गया तो मिल लो ।
राजा ने हिम्मत की, उसने कहा - अच्छा मैं अभी मिलना चाहता हूँ । मिला दीजिए ।
संन्यासी ने कहा - कृपा करो, इस कागज पर अपना नाम पता लिख दो । ताकि मैं भगवान के पास पहुँचा दूँ कि आप कौन हैं ।
राजा ने लिखा - अपना नाम, अपना महल, अपना परिचय, अपनी उपाधियां और उसे दीं ।
संन्यासी बोला - महाशय, ये सब बातें मुझे झूठ और असत्य मालूम होती हैं । जो आपने कागज पर लिखीं ।...मित्र, अगर तुम्हारा नाम बदल दें । तो क्या तुम बदल जाओगे ? तुम्हारी चेतना, तुम्हारी सत्ता, तुम्हारा व्यक्तित्व दूसरा हो जाएगा ?

राजा ने कहा - नहीं, नाम के बदलने से मैं क्यों बदलूंगा ? नाम नाम है, मैं मैं हूँ ।
संन्यासी ने कहा - तो एक बात तय हो गई कि नाम तुम्हारा परिचय नहीं है । क्योंकि तुम उसके बदलने से बदलते नहीं । आज तुम राजा हो । कल गांव के भिखारी हो जाओ । तो बदल जाओगे ?
राजा ने कहा - नहीं, राज्य चला जाएगा । भिखारी हो जाऊँगा । लेकिन मैं क्यों बदल जाऊंगा ?
मैं तो जो हूँ हूँ । राजा होकर जो हूँ । भिखारी होकर भी वही होऊंगा ।
न होगा मकान, न होगा राज्य, न होगी धन संपति, लेकिन मैं ? मैं तो वही रहूंगा जो मैं हूँ ।
संन्यासी ने कहा - तय हो गई दूसरी बात कि राज्य तुम्हारा परिचय नहीं है । क्योंकि राज्य छिन जाए । तो भी तुम बदलते नहीं । तुम्हारी उम्र कितनी है ?
उसने कहा - 40 वर्ष ।
संन्यासी ने कहा - तो 50 वर्ष के होकर तुम दूसरे हो जाओगे ? 20 वर्ष या जब बच्चे थे । तब दूसरे थे ?
राजा ने कहा - नहीं । उम्र बदलती है । शरीर बदलता है लेकिन मैं ? मैं तो जो बचपन में था । जो मेरे भीतर था । वह आज भी है ।
संन्यासी ने कहा - फिर उम्र भी तुम्हारा परिचय न रहा । शरीर भी तुम्हारा परिचय न रहा ।
फिर तुम कौन हो ? उसे लिख दो । तो पहुँचा दूँ भगवान के पास । नहीं तो मैं भी झूठा बनूंगा तुम्हारे साथ ।..यह कोई भी परिचय तुम्हारा नहीं है ।
राजा बोला - तब तो बड़ी कठिनाई हो गई । उसे तो मैं भी नहीं जानता फिर ! जो मैं हूँ । उसे तो मैं नहीं जानता ! इन्हीं को मैं जानता हूँ मेरा होना ।
संन्यासी ने कहा - फिर बड़ी कठिनाई हो गई । क्योंकि जिसका मैं परिचय भी न दे सकूं । बता भी न सकूं कि कौन मिलना चाहता है । तो भगवान भी क्या कहेंगे कि किसको मिलना चाहता है ?
तो जाओ पहले इसको खोज लो कि तुम कौन हो ? और मैं तुमसे कहे देता हूं कि जिस दिन तुम यह जान लोगे कि तुम कौन हो ? उस दिन तुम आओगे नहीं भगवान को खोजने ।
क्योंकि खुद को जानने में वह भी जान लिया जाता है । जो परमात्मा है ।

22 जून 2016

सूरदास की विश्वयुद्ध भविष्यवाणी

साहित्यकार अमृतलाल नागर के चर्चित उपन्यास ‘खंजन नयन’ के एक दृश्य में भक्त कवि सूरदास द्वारा ऐसी वाणी सृजित होने का (घटना) जिक्र है । जब सन 1490 में दिल्ली पर सिकंदर लोदी का शासन था ।
उपन्यास का वह अंश देखने के लिये यहाँ क्लिक करें - खंजन नयन


सूरदास की इस भविष्यवाणी को स्पष्ट करने में सहायता करें ।
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#एक सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसो योग परे । 
#शुक्ला जयनाम सवंत्सर, #छट #सोमवार परे ।
#हलधर पूत #पवार धर उपजे, #देहरी क्षत्र धरे ।
#सौ पे शुन्न शुन्न (शून्य) के भीतर, आगे योग परे । (1000)
#संवत दो हजार के ऊपर छप्पन वर्ष चढ़े । 
#माघ मास संवत्सर व्यापे, #सावन ग्रहण परे ।
उड़ि विमान अम्बर में जावे, गृह गृह युद्ध करे ।
#मारूत विष फैंके जग माहिं, परजा बहुत मरे ।
द्वादस कोस शिखा हो जाकी, #कंठ सूं तेज भरे । (द्वादस कोस शिखा = 36 किमी)
#सहस्र वर्ष लगि सतयुग व्यापै, सुख की दशा फिरे
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रे मन धीरज क्यों न धरे ।
#एक सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसो योग परे ।
#शुक्ला जयनाम सवंत्सर, #छट #सोमवार परे ।
#हलधर पूत #पवार धर उपजे, #देहरी क्षत्र धरे । 
मलेच्छ राज्य की सगरी सेना, आप ही आप मरे ।
सूर सबहि अनहोनी होइहै, जग में अकाल परे ।
हिंदू मुगल तुरक सब नाशै, कीट पतंग जरे ।
#सौ पे शुन्न शुन्न (शून्य) के भीतर, आगे योग परे । (1000 )
मेघनाद रावण का बेटा, सो पुनि जन्म धरे ।
पूरब पश्चिम उत्तर दक्खिन, चहुँ दिशि राज करे ।
अकाल मृत्यु जग माहीं ब्यापै, परजा बहुत मरे ।
दुष्ट दुष्ट को ऐसा काटे, जैसे कीट जरे ।
#एक सहस्र नौ सौ के ऊपर, ऐसा योग परे ।
सहस्र वर्ष लों सतयुग बीते, धर्म की बेल बढ़े । (1000 वर्ष का सतयुग)
स्वर्ण फूल पृथ्वी पर फूले, पुनि जग दशा फिरे ।
सूरदास यह हरि की लीला, टारे नाहिं टरे ।
#संवत दो हजार के ऊपर छप्पन वर्ष चढ़े ।
#माघ मास संवत्सर व्यापे, #सावन ग्रहण परे ।
उड़ि विमान अम्बर में जावे, गृह गृह युद्ध करे ।
#मारूत विष फैंके जग माहिं, परजा बहुत मरे ।
द्वादस कोस शिखा हो जाकी, #कंठ सूं तेज भरे । (द्वादस कोस शिखा = 36 किमी)
सूरदास होनी सो होई, काहे को सोच करे ।
संवत दो हजार के ऊपर छप्पन वर्ष चढ़े ।
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण, चहुं दिस काल फिरे ।
अकाल मृत्यु जग माहिं व्यापै, परजा बहुत मरे ।
#सहस्र वर्ष लगि सतयुग व्यापै, सुख की दशा फिरे
स्वर्ण फूल बन पृथ्वी फूले, धर्म की बेल बढ़े ।
काल ब्याल से वही बचे, जो गुरू का ध्यान धरे ।
सूरदास हरि की यह लीला, टारे नाहिं टरे ।
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- अभी विक्रम संवत 2073 (2016) और शक संवत 1938 (2016) है ।
शक संवत में 57-58 साल घटाये जायेंगे और विक्रम संवत में 57-58 साल जोङे जायेंगे ।
2014 से 2015 में हिन्दी वर्ष अनुसार यानी चैत्र से जयनाम संवत्सर था । 
21 मार्च 2015 शनिवार से नया मन्मथ संवत्सर प्रारंभ हुआ ।
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अन्य भविष्यवाणियां -
जब आवे संवत बीसा, तो मुस्लिम रहे न ईसा । गुरुनानक (पंजाबी कहावत)
- बीसवीं सदी में मुसलमान और ईसाइयों में ऐसा भयंकर युद्ध होगा कि दोनों की बर्बादी हो जायगी ।
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विजयाभिनन्दन बुद्धजी, और निष्कलंक इत आय ।
मुक्ति देसी सबन को, मेट सबै असुराय ।
एक सृष्टि धनी भजन एकै, एक ज्ञान, एक आहार ।
छोड बैर मिलै सब प्यार सों, भया जगत में जै जैकार ।
कहा जमाना आबसी झूठा और नुकसान ।
यार असहाब होसी कतल, तलवार उठसी सब जहान ।
अक्षर के दो चश्मे, नहासी नूसर नजर ।
बीस सौ बरसें कायम होसी, बैराट सचराचर ? योगी प्राणनाथ (महाराज छत्रसाल के गुरु)

- 20वीं शताब्दी में जब युग परिवर्तन का कार्य पूर्ण होगा और 1 विराट (विश्वव्यापी) दैवी विधान समस्त देशों में व्याप्त होगा तब विभिन्न मतमतान्तरों की द्विविधा मिट कर सब लोगों में 1 ही परब्रह्म, 1 ही उपासना, 1 सी मान्यतायें, रहन सहन, खानपान में एकता होगी । उस समय आपस की फूट, बैर का अन्त हो जायगा । सब सदभाव पूर्वक रहते हुये दैवी जीवन व्यतीत करेंगे ।
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बहुमत तियमत बालमत, बिन नरेश को राज ।
सुख सम्पदा की कौन कहे, प्राण बचे बड़ भाग ।

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यह अधिक अच्छा होगा कि यदि आप आत्मज्ञान की साधना और स्वयं के वास्तविक परिचय हेतु हंसदीक्षा प्राप्त करना चाहते हैं । तो ततसम्बन्धी साहित्य, सन्तवाणी और इस ब्लाग पर लिखे गये सम्बन्धित लेखों का भलीभांति अध्ययन कर लें और दीक्षा के लिये आने से पूर्व अपनी सभी जिज्ञासाओं, उत्सुकताओं, शंकाओं, प्रश्नों का पूर्ण समाधान कर लें । 
इस सम्बन्ध में जब तक आपका मन मस्तिष्क पूर्ण ठहराव और सन्तुष्टि को प्राप्त नही होता । तब तक किसी भी ज्ञान दीक्षा का पूर्ण लाभ प्राप्त नही होता । अतः आने से पहले हर स्तर पर आपका सन्तुष्ट होना आवश्यक है ।
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फ़िरोजाबाद जिले के छोटे से गांव ‘नगला भादों’ के एकदम पास स्थित चिन्ताहरण आश्रम आने के लिये (आपके शहर से) मुख्य रेल या बस मार्ग अथवा निजी वाहन द्वारा..
आगरा, फ़िरोजाबाद, टूंडला, शिकोहाबाद, एटा (जो भी सही पङता हो) आना होगा ।
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- फ़िरोजाबाद आकर आपको ‘ठार पूंठा’ प्राइवेट बस स्टेंड पहुंचना होगा । यहाँ से चलने वाली बसें सीधा आश्रम के सामने उतारती हैं । 
- आटो रिक्शा भी आते हैं । जो व्यक्तिगत रूप से 250 रुपये किराया लेते हैं । अन्य सवारी की स्थिति बन जाने पर 50 से 100 रुपये, जैसा तय हो जाये, लेते हैं ।

- निजी वाहन से आपको ‘सैलई की पुलिया’ स्थान पर आकर उसी सङक पर ‘हाथवन्त’ होकर आना होगा । आश्रम हाथवन्त से 10 किमी आगे और मुस्तफ़ाबाद से 5 किमी पहले ही स्थित है ।
- कुछ सवारी आटो रिक्शा हाथवन्त तक ही आते हैं । जो 50-70 रुपये किराया लेते हैं ।
- शिकोहाबाद से आने पर आपको ‘जसराना तिराहे’ पर आना होगा । यहाँ से सिर्फ़ मुस्तफ़ाबाद तक के लिये बस आती है । मुस्तफ़ाबाद से 5 किमी का मार्ग आपको दूसरी बस या अन्य साधन से करना होगा ।
- आप फ़िरोजाबाद या शिकोहाबाद बहुत हद तक 5-6 बजे तक अवश्य पहुंच जायें । क्योंकि अन्तिम बस 7 बजे तक ही है । अतः इससे कुछ पहले आपका बस स्टेंड पहुंचना आवश्यक है ।
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विभिन्न स्थानों से चिन्ताहरण आश्रम की दूरी -
आगरा से 72 किमी दूर
फ़िरोजाबाद से 22-23 किमी
हाथवन्त से 10 किमी आगे 
नगला भादों से लगा हुआ (चिन्ताहरण आश्रम)
मुस्तफ़ाबाद से 5 किमी पहले (फ़िरोजाबाद से आने पर)
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शिकोहाबाद से 27 किमी दूर
एटा से (लगभग) 50 किमी दूर
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पता -
सदगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज
चिन्ताहरण आश्रम 
निःअक्षर ज्ञान दीक्षा केन्द्र
नगला भादों, डा. मुस्तफ़ाबाद, तहसील - जसराना
जिला - फ़िरोजाबाद
राज्य - उत्तर प्रदेश
देश - भारत
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नोट - इसके बाद भी आपको कोई परेशानी आ रही है । या कुछ जानना है तो टिप्पणी में लिखें ।

सहज समाधि दीक्षा

अणुदीक्षा वास्तव में ‘सुरति शब्द योग’ और ‘कुण्डलिनी योग’ का ही एक सूक्ष्म अंग है । जो कुण्डलिनी ज्ञान के गुरु या सहज योग के सदगुरु द्वारा (उनकी इच्छा से) दिये जाने पर द्वैत अद्वैत योग दोनों में अनभूत है । ये साधक की सूक्ष्मता और तीक्ष्ण बुद्धि से शीघ्र अनुभव में आता है । 
यदि अनन्त अलौकिक (लय योग के) आत्मज्ञान को मोटे तौर पर 4 प्रमुख भागों में बाँटा जाये ।
तो सबसे पहले -
1 मन्त्र दीक्षा 
2 अणु दीक्षा 
3 हँसदीक्षा (समाधि दीक्षा - गुरु इच्छा होने पर)
4 परमहँस दीक्षा (शक्ति दीक्षा - गुरु इच्छा होने पर) 
5 सार शब्द दीक्षा (जीव और परमात्मा का एकीकरण) 
ये कृम बनता है ।
मन्त्र दीक्षा - में मन के मल कषाय (मलिन आवरण, दोष, विकार) आदि दोष निवृत होते हैं । ये वृति और सुरति दोनों तरह के सन्तों (गुरुओं) द्वारा दी जाती है । इसमें पंचाक्षरी (ॐ नमः शिवाय आदि) से लेकर द्वादशाक्षरी मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय आदि) और रं लं ह्यीं क्लीं श्रीं आदि बीज मन्त्र गुरु अनुसार कुछ भी हो सकते हैं (आत्मज्ञान या सुरति शब्द योग में ‘मन्त्र दीक्षा’ नही दी जाती)  
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अणु दीक्षा - में प्रकृति के अणुओं को जानना, उनका व्यवहार नियन्त्रण आदि सिद्ध किया जाता है । प्रकृति संयोगी गुण आधारित पदार्थ का रूप धरने से पूर्व का आणविक परमाणविक और चेतन, उर्जा के मिलने से जो दृव्य सा बनता है । वह दृश्य होता है । इसके संयम से योगी पदार्थ रूपान्तरण आदि क्रियायें करते हैं ।
सिर्फ़ परमात्मा को छोङकर सृष्टि या बाकी सभी कुछ चेतन अणु परमाणुओं से जङ प्रकृति के विभिन्न पदार्थों और चेतन उर्जा द्वारा तीन गुणों से तालमेल, संयोग करता हुआ विलक्षण सृष्टि का निर्माण कर रहा है । अतः अणु दीक्षा में किसी भी साधक को मिले गुरु अनुसार यही सब कुछ ज्ञान साधन और सिद्ध कराया जाता है ।
वास्तव में अणु दीक्षा अलग से देने का कोई विधान नहीं हैं । क्योंकि सर्वोच्च ‘सुरति शब्द योग’ या सहज योग या ‘राजयोग’ या आत्मज्ञान योग एक ऐसी भक्ति साधना है । जिसको दूसरे अर्थों में ‘लय योग’ भी कहा जाता है । अर्थात इसमें सभी प्रकार के योग, ज्ञान, अलौकिक विद्यायें स्वतः साधना अनुसार ‘लय’ होती जाती है ।
एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जायें । 
रहिमन सीचों मूल को, फ़ूलहि फ़लहि अघाय ।
अणु दीक्षा ज्ञान में हम स्वयं के शरीर या किसी अंग विशेष या मन या प्रकृति या सृष्टि में आने वाले सभी पदार्थ आदि के अणुओं को परस्पर क्रिया करते हुये देखते, जानते, सिद्ध करते हैं । किसी भी उच्चस्तरीय योगी का

समस्त ज्ञान अणु ज्ञान या अणु सिद्धि के बिना बेकार ही है । यदि वो स्थूल रूप से उसके आंतरिक स्वरूप घटकों क्रियाओं आदि को जाने बिना स्थूल पदार्थ आदि रूप में सिद्ध कर व्यवहारित करता है ।
इसको सरल उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं । जैसे कोई कम्प्यूटर का सिर्फ़ फ़ंडामेंटल जैसा ही ज्ञान रखता हो । और कोई साफ़्टवेयर हार्डवेयर इंजीनियर जैसा ज्ञान रखता हो ।
अणु दीक्षा से बहुत प्रकार के लाभ भी हैं । अगर किसी योगी की चेतना वांछित स्तर तक सशक्त है । तो वह किसी भी व्यक्ति, पदार्थ या प्रकृति आदि तत्वों में चेतना के संयोग से अणुओं में इच्छित परिवर्तन कर सकता है ।
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हँस दीक्षा - में जीवात्मा सार, असार, सत, असत (नीर-क्षीर विवेक) को जानकर सार को ग्रहण करने लगता है । यह दीक्षा पाँच शब्दों (धुनों) और पाँच मुद्राओं के ज्ञान पर आधारित है । हंस की पहुँच ब्रह्म शिखर तक होती है ।
(पूर्ण जानकारी हेतु हंसदीक्षा लेख देखें - क्लिक करें)
http://searchoftruth-rajeev.blogspot.com/p/blog-page_16.html
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समाधि दीक्षा - सन्तमत की ‘चेतन समाधि’ और ‘विदेह अवस्था’ के अनुभव, स्वयंभव और ध्यान की सरलता हेतु समाधि दीक्षा दी जाती है । इसका कोई निश्चित समय नही है । न ही हंसदीक्षा की भांति कोई नामदान (उपदेश) या दीक्षा आयोजन आदि होता है । गुरु दीक्षा सूत्र बताते हैं और दीक्षा आदेशित कर देते हैं ।  
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परमहंस दीक्षा - जब बृह्माण्ड की चोटी को सफ़लता पूर्वक पार किया हुआ हंस उपदेशी परमहंस दीक्षा का अधिकारी हो जाता है (हँस अविनाशी जीव को कहा जाता है और परम शब्द सृष्टि से परे परमात्मा का द्योतक है) तब इसका सीधा सा अर्थ है कि - ऐसा हँस परमात्मा के क्षेत्र में पहुँचने लगता है । और यदि उसकी श्रद्धा, भक्ति, लगन, गुरु सेवा आदि सब कुछ पूर्ण उत्तम श्रेणी का है । तो वह परमात्मा के साक्षात्कार तक पहुँचता है ।
अतः पारब्रह्म क्षेत्र में प्रवेश के लिये ‘परमहंस दीक्षा’ सिर्फ़ सदगुरु द्वारा दी जाती है । गुरु इसका अधिकारी नही होता । 
दीक्षा का समय और सामग्री, तरीका लगभग हंसदीक्षा वाला ही है । इसमें ध्यान का तरीका, स्थान हंसदीक्षा से भिन्न है । इस दीक्षा में तीन अन्य भिन्न चीजें भी हैं । जो सिर्फ़ दीक्षा पात्र को बतायी जाती हैं ।
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सार शब्द दीक्षा - इसके बारे में सब कुछ गुप्त है । यह सिर्फ़ अधिकारी शिष्य हेतु है । जो गिने चुने हो पाते हैं । 

भविष्यवाणी सत्य हुई

साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर के चर्चित उपन्यास ‘खंजन नयन’ के एक दृश्य में भक्त कवि सूरदास द्वारा ऐसी वाणी सृजित होने का (घटना) जिक्र है । जब सन 1490 में दिल्ली पर सिकंदर लोदी का शासन था ।
भविष्यवाणी देखने के लिये क्लिक करें - सूरदास की विश्वयुद्ध भविष्यवाणी
उपन्यास का अंश -
चीत्कार के स्वर मथुरा की गलियों में गूँज रहे थे । रह रहकर उठती आहें पाषाण को भी पिघला देने के लिए पर्याप्त थीं पर आतताइयों के हृदय शायद पाषाण से भी कठोर थे या फिर पता नहीं । उनमें हृदय नाम की कोई चीज भी थी या नहीं ।
आज सावनी तीज का दिन था । कुँआरियों. सुहागिनों का त्योहार पिछले 8-9 सालों से चले आ रहे प्रलयकाल में जिन सुहागिनों की ससुरालें मथुरा के आसपास के गाँवों और कस्बों में हैं । वे तो तीज के दिन अपने मायके नहीं आ पाती हैं ।
पर शहर के भीतर आसपास के मुहल्लों में या शहर से लगे गाँवों में जिनके मायके ससुराल हैं । उनके दिलों में तीज का त्योहार उल्लास बनकर बरबस पत्थर पर हरियाली सा उमंग ही पड़ता है ।
इसी मल्हार पर घमासान मच गयी । सेठ हुलासराय के घर घुसकर उनके कर्जदार पठान और उसके साथियों ने खूनी तीज मना डाली । न इज्जत बची न लक्ष्मी । गाँव के लोग सामना करने आये तो मारकाट के शोर से पड़ोसी गाँव की आग शहर में भी फैल गयी । द्वेष और घृणा की चिंगारियों ने कब धधकती ज्वालाओं का रूप ले लिया पता ही न चला । धर्म के नाम पर बदला लेने के लिए स्त्री और धन की लूट कुछ लोगों के लिए पुण्य कार्य बन गयी । 
कुछ बरसों पहले सिकंदर सुलतान ने जब गद्दी पर बैठने के बाद (सन 1490 में दिल्ली पर सिकंदर लोदी का शासन था) महावन से आकर मथुरा में पहली मारकाट मचायी थी । तभी से यह सिलसिला बदस्तूर जारी था । आज भी मथुरा के सैकड़ों घरों में क्षतविक्षत लाशें मानवता के दर्दनाक अन्त की करुण गाथा कह रही थीं । धर्मान्धता के नाम पर इस तरह के भीषण कृत्य तो अब सामान्य सत्य बन चुके थे ।
यूँ भी काफिरों का काबा मथुरा और मथुरा वासियों को बड़ी ओछी दृष्टि से देखा जाता था ।
मथ्यते तु जगसर्वे ब्रह्मज्ञानेन येन वा तत्सार भूतं यदस्याँ मथुरा सा निगद्यते । 
जहाँ ब्रह्मज्ञान से जगत मथा जाता है और जहाँ सारे सारभूत ज्ञान सदा विद्यमान रहते हैं । वही पुरी मथुरा है । तीन लोक से न्यारी कही जाने वाली मथुरा आज अपने अस्तित्व के लिए बिलख रही थी ।
कई मथुरावासी भागकर वृंदावन की ओर जा रहे थे । अभी वृंदावन से तकरीबन 2 कोस पहले यानी गाँव के किनारे पर पहुँचे थे । तभी उन्हें नाव दिखायी पड़ी ।
इन 4-6 लोगों ने सुरीर से आती हुई नाव को हाथ हिला हिलाकर अपने पास बुला लिया - मथुरा मती जइयों ! आज खून की मल्हारें गायी जा रही हैं ।
सुनकर नाव पर बैठी सवारियाँ सन्न रह गयी । 19-20 लोग थे । तीन को वृंदावन उतरना था बाकी सब मथुरा जा रहे थे । सभी के होशहवास सूली पर टंग गये ।
- आखिर बात क्या हुई भाई ?
- सुल्तान के राज में मारकाट कोई नई बात है क्या ? कहने वाले की वाणी में विवशता और हताशा एक साथ सिमट आयी ।
यह सुनकर मथुरा जाने वाली 18 सवारियों में से 8 ने तो वहीं उतर कर आड़े तिरछे रास्तों से अपने घर को पहुँचने का निश्चय तुरंत कर लिया बाकी 10 लोग अजब ऊहापोह में पड़ गये । उनमें हाथरस के सीताराम भी थे ।
नाव पर लौटकर अपने अंधे साथी से बोले - स्वामी आपकी भविष्यवाणी सत्य हुई ।
कालू केवट पास ही खड़ा था - क्या सूर बाबा ने पहले ही बता दिया था महाराज ?
अंधे सूर बाबा मुँह उठाकर बोले - मैं क्या बताऊंगा । यह सब तो श्यामसुन्दर की कृपा है ।
उनकी अंधी आँखों से आँसू की बूंदें गिरने लगी । विनाशलीला से उनका मन पूरी तरह से विकल था । इस आँतरिक विकलता की छाप उनके गौर मुखमण्डल को स्याह बना रही थी । उनकी यादों में काफी दिन पहले की सांझ उजागर हो गयी ।
जब.....।
पीपल के पेड़ के तने से सिर टिकाये हुए बैठे थे । अंधे सूर के मनोलोक में उजाले का अधिकार पाने का भयंकर संघर्ष हो रहा था ।
क्रोध रंजित करुणा के स्वर मुखर हो उठे थे - किन तेरो नाम गोविंद धरोय ।
गुरु साँदीपनि का पुत्र शोकताप हरने के लिए तुमने असंभव को संभव कर दिखलाया यमलोक से उनके प्राण छुड़ा लाये । मैंने तुम पर इतना भरोसा किया इतनी इतनी स्तुति चिरौरिया की किंतु सूर की बिरियाँ निठुर है् बैठयौ जन्मत अंध करयो ।
उस दिन भी बड़ी विकलता थी मन में । पिता भी अविचारवश भाइयों का ही साथ देते थे । माँ को छोड़कर घर में सभी हर पल ही उसे तरह तरह से तिरस्कृत करते रहते थे । घर से निराश होकर उसने अपने श्याम को पुकारा था । माँ की वाणी हर पल उसके हृदय में दीपशिखा की भाँति प्रज्ज्वलित रहती थी । 
उसने कहा था - पुत्र श्यामसुन्दर त्रिलोकी नाथ है, जगत के पालनहार है । 
इसी विश्वास से ओतप्रोत होकर उसने पुकारा था । अपने चिर सखा यशोदा के लाडले को ।
उलाहने से भरा हुआ पद समाप्त हुआ ही था कि एक गैरित वस्त्रधारी संन्यासी उसके पास आ गये । वह अंधा भला क्या जानता कि वे गेरुआ कपड़ा पहने है अथवा पीला । उन्होंने ही मंत्र विद्या सिखायी । फलित ज्योतिष तुर्कों के साथ बाहर से आयी हुई रमल विद्या का ज्ञान भी उन्हीं से मिला । सबसे बढ़कर उन्हें मिला प्यार जिसके लिए वह तरस रहा था ।
उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था - वत्स तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है ।
अंधे सूर के फीके चेहरे पर आशा की चमक धूप छाँव सी आयी और उतर भी गयी । 
कहा - ईंट पत्थर की अंधेरी कोठरी में दीप जलाकर उजाला किया जा सकता है । किंतु काया की अंधी कोठरी में....।
- अंतर्ज्ञान से उजाला होगा पुत्र । मैं तुम्हारा वर्तमान नहीं भविष्य देख रहा हूँ । तुम तो श्याम सखा हो वृंदावन बिहारी के अपने हो ।
उन्हीं संन्यासी नाद ब्रह्मानंद ने स्वामी हरिदास से उसे मिलाया । हरिदास जी एकांत साधक थे उनकी साधना दिनोंदिन ऊंची होती जा रही थी । ब्रह्मानंद जी को देखकर स्वामी हरिदास दौड़े हुए आये और वयोवृद्ध के चरण छूने के लिए झुके ।
स्वामी जी ने उन्हें बीच में ही उठाकर कलेजे से लगा लिया, कहा - देखो मैं तुम्हें प्रेम सरोवर के एक कृष्ण कमल से परिचित कराने के हेतु यहाँ आया हूँ ।
- कुटिया में चलकर विराजो बाबा, ये तो मेरे जन्म जन्मांतरों के भाई है । कहकर सूर का हाथ पकड़ कर चले गये ।
तभी हरिदास ने मचल कर स्वामी नादब्रह्मानंद का हाथ हिलाते हुए पूछा - बाबा तुमने कुँडलिनी तान कैसे सिद्ध की थी ।
- मैंने 7 वर्षों तक अभ्यास किया परंतु सफल न हो सका । फिर ज्वालाजी में एक महात्मा मिले उनकी प्रेरणा से भगवती आज्ञा शक्ति कृपालु हो गयी ।
बाबा हम दोनों को भी प्रसाद मिल जाये । अंधे सूर एवं स्वामी हरिदास जी ने लगभग एक साथ आग्रह किया ।
स्वामी नादब्रह्मानंद जी ने तान छेड़ी । बूढ़े स्वामी की इस कुण्डलिनी तान ने हरिदास और सूरदास की रसकली खिला दी । समय मानो स्तब्ध हो गया था  एक अलौकिक ज्योति धारा बहने लगीं । हरिदास और सूरदास के बीच अंतर नहीं रहा ।
अंधे सूर वहाँ से लौटते हुए सोच रहे थे । सचमुच श्याम सुन्दर अपने भक्तों की पुकार सुनते है । 
सबके सब लगभग एक साथ बोल पड़े - महाराज ये तो सब कहने सुनने की बातें है । श्याम सु्न्दर अगर पुकार सुनते तो आज मथुरा की ये दशा न होती ।
सूर स्वामी के अन्तःकरण में ये बातें तीर की तरह जा लगी ।
उनकी भावनाओं को समझते हुए पंडित सीताराम बोल उठे - महाराज आप तो भक्त हैं आप ही बताईये कब तक ऐसी दशा रहेगी देवभूमि भारत की ? कब पूरी करेंगे कन्हाई अपनी दुष्ट दलन की प्रतिज्ञा ।
परित्राणाय साधूनाँ विनाशाय च दुष्कृताम.. का उनका वादा कब पूरा होगा ?
प्रायः सभी जनों के मन में ढेर सारे सवालों को सीताराम ने अकेले पूछ लिया ।
इसी पूछताछ में शाम हो गयी । रही बची नाव की सवारियों के साथ सूर स्वामी पंडित सीताराम का हाथ पकड़े वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर जा पहुँचे ।
भावों की एकाग्रता मंदिर में सिद्ध की गयी । उन्हें लगा कि उनके अंदर रंगों का झरना बह रहा है । इसी मध्य उन्होंने देखा कि श्याम सुन्दर उनके सामने खड़े मुस्करा रहे है । उनकी साँसों में भारत भूमि की विकलता ध्वनित हो उठी । उनकी अनुभूतियों के आगे पहले प्रकाश का अणु अणु उनकी जिज्ञासाओं की गूँज से निनादित हो रहा है । 
ज्योति चारों ओर से सिमट कर फिर बिंदु बन रही है । बिंदु उनकी नाभि, हृदय और कंठ को छूता हुआ ऊपर बढ़ रहा है । इस अलौकिक स्पर्श ने इसे जाग्रत कर दिया और जिज्ञासाओं के समाधान प्रत्यक्ष होने लगे ।
सुल्तान का अवसान । मुगलों का उदय । मुगलों का अवसान । अंग्रेजों का आगमन और प्रस्थान । स्वतंत्र भारत । बाद में उसकी करुण दशा और अंत में भारत का भाग्योदय ।
सब एक एक कर साकार हो उठे ।  

21 जून 2016

संवत्सर गणना

संवत्सर ‘वर्ष’ के लिए प्रयुक्त होने वाला संस्कृत उदभूत हिन्दी शब्द है । कुल 60 संवत्सर होते हैं । जिनके पृथक पृथक नाम हैं । जब 60 संवत्सरों का चक्र पूरा होता है । तब पुनः पहले संवत्सर से आरंभ होता है । चूँकि ये संवत्सर बृहस्पति की सूर्य की परिधि में गति के आधार पर बने हैं । अतः कभी कभी चक्र में से 1 संवत्सर कम भी हो जाया करता है । क्योंकि बृहस्पति का परिधि काल 12 महीनों से जरा कम है । ये 60 संवत्सर 20-20 के 3 समूहों में बंटे हैं । पहले 20 ‘प्रभव से अव्यय तक’ ब्रह्मा के अधीन हैं । अगले बीस 20 ‘सर्वजीत से से पराभव तक’ विष्णु के अधीन हैं । और अन्तिम 20 ‘प्ल्वंग से क्षय तक’ शिव के अधीन हैं । 

Samvatsara ( संवत्सर ) is a Sanskrit term for ‘year’ In the Hindu calendar, there are 60 Samvatsaras, each of which has a name Once all 60 samvatsaras are over, the cycle starts over again On occasion, one will be skipped, as the count is based on the zodiac position of Jupiter, whose period around the Sun is slightly less than 12 years
( the full cycle of 60 covers five Jovian years )
The sixty Samvatsaras are divided into 3 groups of 20 Samvatsaras each The first 20 from Prabhava to Vyaya are assigned to Brahma The next 20 from Sarvajit to Parabhava to Vishnu and the last 20 to Shiva


                                       ये 1 से 20 तक ‘प्रभव से अव्यय तक’ ब्रह्मा के अधीन हैं । 


                                   ये 21 से 40 तक ‘सर्वजीत से से पराभव तक’ विष्णु के अधीन हैं । 
                                         ये 41 से 60 तक ‘प्ल्वंग से क्षय तक’ शिव के अधीन हैं । 

20 जून 2016

फ़िर उस गुरु का लाभ ही क्या ?

Rajeev ji, vaise to turiya aur turiyatit dono man se pare ki avasthayen hain. lekin hum agar shabd use karte hai to in men fundamental difference kya hai ? kya turiyaitit se pare bhi koi avastha hai ?

सामान्य जीवन में प्रथम तुरिया में हम स्थित हैं । लेकिन तुरिया जानते नहीं । ज्ञान में नींद, जागना, सोना इनको भी जाना जाता है । जैसे हम सो रहे हैं (और इस सोने को भी जान रहे हैं । एक साथ दो क्रियायें सोना भी और जानना भी । ऐसा ही दो अन्य के बारे में ।)
तुरियातीत - प्रारम्भ में एक बेहद साधारण अवस्था है । जिसमें तुरिया अवस्थाओं से परे का अनुभव है । लेकिन ज्यों ज्यों यह बढती जाती है । समस्त जीव मल कषाय (आवरण) हटा देती है । फ़िर जो शेष रहता है । वही विशेष या परमात्मा है ।
वैसे मेरे अनुभव से इस (परमात्मा) से भी भी आगे बहुत कुछ है ।

braham aur parbraham men bhi aisa hi kuch antar hai ?

कोई भी शब्द कहाँ किस भाव में प्रयुक्त है ? इस पर निर्भर करता है । वैसे मूलतः ब्रह्म ब्रह्माण्ड तक और पारब्रह्म ब्रह्माण्ड से भी परे है ।

Dhanyabad ji, jab bhi koi yogi kuchh anubhav karta hai. matlab chaitanyta ke star ko, to kya use pata rahta hai ki abhi kuchh bacha hai anubhav karne ko ya bas ab final anubhav hai. Ya use sirf guru hi batate hai ki abhi baki hai  ? Main puch raha hu kyonki kai yogi apni sadhna beech me hi chhod dete hain. jaise ki prakriti yogi or videha ! Ye kyon hota hai ? matlab ye beech men kyon rah jate hai ? Nirdeshon ke abhav men ya uchit sanskaro ke abhav men ? Aisi avastha me Kya purusharth ki madad se aage nahi  badha ja sakta ? Kya purusharth bhi purv ke sanskara hi nirdharit karte hain. ya sirf prerit karte purusharth ko ? To inhe ( prakriti yogi ) kabhi pata hi nhi chalta ki is se pare bhi koi tatva hai  ?

सबसे महत्वपूर्ण है - गुरु, साधक को उस विषय का ज्ञान और स्वयं साधक । वह जो कुछ अनुभव करता है । वही उसका लक्ष्य है या नहीं । लक्ष्य सिद्ध हुआ या नहीं  । सिद्ध होकर उससे क्या कार्य हो रहा है ? ये सब साधारणतः साधक के स्वयं अनुभव में आता है । अगर गुरु बताये । तो फ़िर किसी भी साधना या उस गुरु का लाभ ही क्या ?
सिर्फ़ अपने स्तर पर साधना करना, आगे बढना, बेहद कठिन ही नहीं असम्भव सा है । किसी भी योगी द्वारा साधना को बीच में छोङ देने के अनेक कारण बन जाते हैं । होते हैं ।
पात्रता, दृण संकल्प, उत्साह, गुरु और परस्थितियों तथा संस्कारों आदि का सहयोग ही निरन्तर आगे बढ़ाता है ।
अगर साधक में लगन और पात्रता है । तो आगे का गुरु और ज्ञान अवश्य होगा । जब पूर्णता आ जाती है । तो किसी को कहना नहीं पङता । सब कुछ स्वयं को स्वयं ही ज्ञात होता है ।
वैसे ज्ञान असीम और अनन्त है । अतः ये बात सामान्य तौर पर कहना हास्यास्प्रद है । कोई कोई बिरला ही असीम को जान पाता है और उसे कुछ कहने या पूछने की कभी कोई आवश्यकता नहीं होती ।

Ek aur doubt hai rajeev ji, jab kundalini purna roop se shahastrar chakra men shiv me vilin ho jati hai. tab ye turiyatit avastha ghatit hoti hai ? Kya ye avastha NIRVIKALPA SAMADHI se alag hai ? Kal aapke lekh me padha tha ki jab samadhi ka bhi ant ho jaye. tab ye turiyatit avastha ghatit hoti hai, to yahan pe kis samadhi ki bat ho rahi hai SAVIKAlPA YA NIRVIKALPA SAMADHI ? Dhanyabaad 
(सभी प्रश्न - दीपक कुमार)
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- तुरिया, तुरियातीत और समाधि आदि को आधुनिक कबीरों और खास श्वेत वस्त्रधारक गुरुओं ने ऐसा हौआ बनाया है कि हमारी ही आत्मा और शरीर की ये नित्य क्रियायें, स्वाभाविक क्रियायें बेहद दूर की और जटिल बना दी हैं ।
आपको आश्चर्य होगा । बहुत से व्यक्ति तो इतनी अज्ञान नींद में हैं कि उन्हें हम सोना जागना स्वपन इन्हीं तीन अवस्थाओं में बरतते हैं । इसका भी उचित बोध नहीं रहता । लेकिन जब कभी ज्ञान चिंगारी सुलगती है । तब हमें ख्याल आता है कि हम इन्हीं तीन मुख्य अवस्थाओं में बरतते हैं । तुरिया की इसी अवस्था में सचेत होकर इसको महसूस भी करने लगा तुरिया को जानना कहा जाता है । यानी साक्षी की भांति - मैं सो रहा हूँ, मैं जाग रहा हूँ, मैं स्वपन देख रहा हूँ ।
ऐसा जब यह सब करते हुये और अलग से इसको देखता है । वही तुरिया को जानना है । लेकिन इसके लिये भी अभ्यास करना होता है ।
- सामान्य जीवन में जो बहुत गहरी नींद आती है । वह भी तुरियातीत अवस्था ही है और इसको प्रत्येक नित्य ही अनुभव करता है । अब फ़र्क सिर्फ़ इतना हो जाता है कि योगी इस चौथी अवस्था गहरी नींद या तुरियातीत को भी पूर्ण होश में महसूस करता है ।
- सहस्रार चक्र का मामला कुण्डलिनी और द्वैत का होता है । इसके अनुभव भिन्न होते हैं । जहाँ तक तुरियातीत का अनुभव है । यह उससे पहले भी संभव है । सब कुछ साधक उसके गुरु और गुरु की परम्परा पर निर्भर है ।
सुरति शब्द योग, सहज योग या आत्मज्ञान के उसी सेम स्थान पर अनुभव भिन्न और उच्च और अधिक शक्ति वाले होंगे ।
- अक्सर बैठे बैठे कभी शून्यता आ जाती है । ये भले ही क्षणिक सही, पर समाधि ही है और समाधि की तमाम स्थितियों के आधार पर उनके अनेक नामकरण कर दिये हैं । पर समाधि मूल एक ही है । अंतःकरण जब विचारों से भरा होगा । तब समाधि उसको साधक की समाधि स्थिति अनुसार साफ़ करेगी और अंतःकरण ज्यों ज्यों रिक्त होता जायेगा । समाधि में दिव्यता और शक्ति, संकल्प आदि उच्च स्तरीय हो जायेंगे । समाधि के बारे में बातें अधिक हैं । अभी तक मैं ऐसे किसी व्यक्ति से नहीं मिला । जो समाधि के बारे में कुछ सटीक बता पाया हो ।
गहरा ध्यान भी एक तरह समाधि ही है । फ़िर यह कितनी गहरी हो सकती है ? इसका बताना कठिन है ।

19 जून 2016

चमत्कारी बाबा

महाभारत का समय ‘सिर्फ़’ 5-6 हजार वर्ष पुराना है । इसमें इसी के अनुसार एक घटना घटती है । महर्षि व्यास द्वारा बांझ गांधारी को उसकी सेवा और पतिव्रत भाव से प्रसन्न होकर 100 पुत्रों का आशीर्वाद देना । 
बांझ मैंने इसलिये लिखा, क्योंकि धृतराष्ट्र और सुघङा दासी के संयोग से युयुत्स का जन्म हुआ । अतः धृतराष्ट्र निर्बीज था । ऐसा नहीं कह सकते ।
फ़िर महाभारत के ही अनुसार धृतराष्ट्र और गांधारी के संयोग से जो गर्भ ठहरा । वह 9-10-11-12 महीने तक पैदा ही नहीं हुआ ।
तब गांधारी बोली - यह क्या हो रहा है । यह बच्चा जीवित भी है या नहीं ? यह इंसान है या कोई पशु ?
फ़िर हताशा में उसने अपने पेट पर मुक्के मारे । कुछ नहीं हुआ । तब उसने अपने सेवक को छड़ी से पेट पर प्रहार करने को कहा । इससे उसका गर्भपात हो गया और मांस का काला सा लोथड़ा बाहर आया । लेकिन वह इंसानी मांस के टुकड़े जैसा नहीं था । वह कोई बुरी और अशुभ जैसी चीज थी । लोग उसे देखते ही डर गए ।
व्यास को बुलाया गया । उन्होंने मांस के 101 टुकङे करके घङों में तेल और जङी बूटी के साथ तहखाने में एक साल के लिये रख दिया ।
इसीलिए कहा जाता है, गांधारी दो सालों तक गर्भवती रही थी । एक साल गर्भ उसकी कोख में और दूसरे साल तहखाने में रहा था ।
एक साल बाद घङे एक एक कर फ़ूटे । और उनमें 100 पुत्र और 1 पुत्री निकले ।
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अब ध्यान दें, व्यास सिर्फ़ महर्षि थे । और ये समय भी सिर्फ़ 5-6 हजार वर्ष पहले का है । यदि ज्ञान की उच्चता, निम्नता आदि शक्तियों पर बात की जाये । तो महर्षि कोई ज्यादा उच्च स्थिति नही है । ध्यान रहे । व्यास पुत्र शुकदेव ही उनसे अधिक ज्ञान युक्त माने गये ।
यानी कुण्डलिनी का गुरु और सुरति शब्द योग का सदगुरु इनसे कितना उच्च है ? ये सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है ।
- ये सिर्फ़ मैंने एक ही उदाहरण दिया है । वरना महाभारत में दौने से द्रोणाचार्य, गंगा से 8 वसु ( ये अलग है, बस नदी का स्त्री बनने से यहाँ उल्लेख है ) और कई अन्य चरित्र हैं । जो टेस्ट टयूब बेबी की भांति अर्थात बिना गर्भ के हुये ।
गोरखनाथ अवश्य मछन्दरनाथ की भभूति से घूरे में 12 वर्ष के पैदा हुये थे । क्योंकि भभूति 12 वर्ष तक घूरे में पङी रही ।
महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा तो अलौकिक विज्ञान का ऐसा प्रदर्शन तो चमत्कार की हद तक है ।
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अब मेरा प्रश्न है ( फ़िर से ध्यान दें - सिर्फ़ 5-6 हजार वर्ष पहले यह सब हुआ ) निकटतम समय में ( 500 वर्ष पहले ) कबीर से बङा कोई स्वयंसिद्ध प्रत्यक्ष में अब तक नहीं हुआ । और कबीर के द्वारा भी सिर्फ़ मुर्दे जिलाने की ही बात आती है । जो कितनी प्रमाणिक और सत्य है ? ऐसा कोई दावा नहीं हो सकता ।
जबकि आजकल के श्री श्री 1008 कैडर के कम से कम 10 000 सतगुरु ? सीधे हाटलाइन पर परमात्मा यानी सुप्रीमो से वार्ता और सम्बन्ध का दावा करते हैं । शिष्य की स्थिति अनुसार सतलोक में प्लाट या फ़्लैट दिलाते हैं । 
और परमात्मा से ऊपर तो कोई है ही नहीं ।
या है ?
बाजी झूंठ बाजीगर सांचा, साधुन की मति ऐसी ।
कहहिं कबीर जिन जैसी समझी, तिन की मति भयी तैसी । 
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तो ऐसा कोई विज्ञान या उसकी झलक भी इन गुरुज या सदगुरुज ने कभी दिखाई ? मेरा ये कथन भक्क सफ़ेद वस्त्रधारी लाइक बगुला गुरु, सदगुरुओं के लिये है । क्योंकि गेरुआ वालों से ये ज्यादा लम्बी लम्बी डींगे हांकते हैं । और सीधे भले ही नहीं कहते । पर जम्हाई, डकार भी परमात्मा जैसी स्टायल में सोच सोचकर मारते हैं ।

जब समाधि की भी मृत्यु हो जाये

जो कछु सुनिये देखिये, बुद्धि विचारै जाहि । 
सो सब बाग विलास है, भ्रम करि जांनहु ताहि ।
जो कुछ तुम सुनते हो । या बुद्धि से जो तर्क वितर्क करते हो । वह एक तरह का वाग (वाणी द्वारा) विलास मात्र है । वस्तु तथ्य में वह भ्रम ही है ।

यह अत्यन्ताभाव है, यह ई तुरियातीत । 
यह अनुभव साक्षात है, यह निश्‍चय अद्वीत ।
इसी को अत्यन्ता भाव ? कहते हैं । (यह अत्यन्ता भाव का सही उदाहरण है) यह तुर्यावस्थातीत है । साक्षात्कार के बाद इसी का अनुभव होता है । यही अद्वैत मत का अन्तिम सिद्धान्त है ।
(अत्यन्ता भाव, शब्द पर गौर करें । सत्य साक्षात में यह बेहद महत्वपूर्ण शब्द है ।) 
नाहीं नाहीं करि कह्यौ, है है कह्यौ बखांनि । 
नांहीं है कै मध्य है, सो अनुभव करि जांनि ।
शास्त्रों में जिसका वर्णन ‘नेति नेति’ करके भी किया है, ‘अस्ति अस्ति’ करके भी किया है । तुम्हें इस अस्ति, नास्ति’ के मध्य की स्थिति का अनुभव (साक्षात्कार) करना चाहिये ।
ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ - पंचम उल्लास 
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
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नांहीं है कै मध्य है - असली सत्य बस इतना ही है । सत्य की कोई भी स्थिति, घटना प्रकट होती है । कहीं ध्यान आदि या आंतरिक अनुभव में जो अनुभव होता है । वह सत्य नहीं है । शेष सभी अनुभव काल माया के जाल है । तुरियातीत (स्वपन, जाग्रत, सुषुप्ति) के अतिरिक्त स्थिति में जो अनुभव होता है । वही सत्य है ।
इसका कुछ कुछ आभास कोहरे में धूप या सूर्य चमकने जैसा है । जैसे कोहरा फ़टना !
लेकिन यह स्थिति सहज नहीं आती । बल्कि एक हिसाब से समाधि से भी नहीं आती । जब समाधि की भी मृत्यु हो जाती है । तब इन स्थितियों (स्थिति शब्द का प्रयोग मजबूरी है, क्योंकि यह स्थिति नहीं होती । लेकिन एक बार घटित हो जाने के बाद साधक को ‘उतना’ स्थित अवश्य कर देती है ।) कहना चाहिये अनुभवों से साक्षात्कार होता है ।
लेकिन तमाम शिष्य/साधक ध्यान अनुभवों में भटक कर रह जाते हैं । क्योंकि एक तो उनमें नये नये अनुभव होने से मजा आता है । दूसरे यह सब घटित होना बङा कठिन है - सो ही जाने जाहि देयु जनाही । अर्थात अपना दम लगाकर यह नहीं हो सकता ।
होय बुद्धि जो परम सयानी ।
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गो गोचर जहाँ लगि मन जाई, सो सब माया जानो भाई ।

14 जून 2016

आइडिया..जो जिंदगी बदल दें

1  जब लोग आपको Copy करने लगें । तो समझ लेना जिंदगी में Success हो रहे हो ।
2  कमाओ..कमाते रहो । और तब तक कमाओ । जब तक महंगी चीज सस्ती न लगने लगें ।
3  जिसका लालच खत्म - उसकी तरक्की खत्म ।
4  यदि Plan A काम नही कर रहा । तो कोई बात नही 25 और letters बचे हैं । उन पर Try करो ।
5  जिस व्यक्ति ने कभी गलती नहीं की । उसने कभी कुछ नया करने की कोशिश नहीं की ।
6  भीड़ हौसला तो देती है । लेकिन पहचान छीन लेती है ।
7  अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो । तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है ।
8  कोई भी महान व्यक्ति अवसरों की कमी के बारे में शिकायत नहीं करता ।
9  महानता कभी न गिरने में नहीं है । बल्कि हर बार गिरकर उठ जाने में है ।
10  जिस चीज में आपका interest है । उसे करने का कोई टाइम फिक्स नही होता । चाहे रात के 1 ही क्यों न बजे हों ।
11  अगर आप चाहते हैं कि कोई चीज अच्छे से हो । तो उसे खुद कीजिये ।
12  सिर्फ खड़े होकर पानी देखने से आप नदी नहीं पार कर सकते ।
13  जीतने वाले अलग चीजें नहीं करते । वो चीजों को अलग तरह से करते हैं ।
14  जितना कठिन संघर्ष होगा । उतनी ही शानदार जीत होगी ।
15  यदि लोग आपके लक्ष्य पर हंस नहीं रहे हैं । तो समझो लक्ष्य बहुत छोटा हैं ।
16  विफलता के बारे में चिंता मत करो । आपको बस एक बार ही सही होना है ।
17  सब कुछ, कुछ नहीं से शुरू हुआ था ।
18  हुनर तो सब में होता है । फर्क बस इतना होता हैं - किसी का छिप जाता है । तो किसी का छप जाता है ।
19  दूसरों को सुनाने के लिऐ अपनी आवाज ऊँची मत करिये । बल्कि अपना व्यक्तित्व इतना ऊँचा बनाऐं कि आपको सुनने की लोग मिन्नत करें ।
20  अच्छे काम करते रहिये । चाहे लोग तारीफ करें या न करें । आधी से ज्यादा दुनिया सोती रहती है - सूरज फिर भी उगता है ।
21  पहचान से मिला काम थोडे बहुत समय के लिए रहता है । लेकिन काम से मिली पहचान उम्र भर रहती है ।
22  जिंदगी अगर अपने हिसाब से जीनी है । तो कभी किसी के फैन मत बनो ।
23  जब गलती अपनी हो । तो हमसे बडा कोई वकील नही । जब गलती दूसरों की हो । तो हमसे बङा कोई जज नही ।
24  आपका खुश रहना ही आपका बुरा चाहने वालों के लिए सबसे बडी सजा है ।
25  कोशिश करना न छोड़ें । गुच्छे की आखिरी चाबी भी ताला खोल सकती है ।
26  इंतजार करना बंद करो । क्योंकि सही समय कभी नही आता ।
27  जिस दिन आपके Sign ‪#‎Autograph‬ में बदल जायेंगे । उस दिन आप बड़े आदमी बन जाओगे ।
28  काम इतनी शांति से करो कि सफलता शोर मचा दे ।
29  तब तक पैसे कमाओ । जब तक तुम्हारा बैंक बैलेंस तुम्हारे फोन नंबर की तरह न दिखने लगे ।
30  अगर एक हारा हुआ इंसान हारने के बाद भी मुस्करा दे । तो जीतने वाला भी जीत की खुशी खो देता है - ये है मुस्कान की ताकत ।

13 जून 2016

नस पर नस चढ़ना

अक्सर और अधिकांश लोगों को यह समस्या हो जाती है । अतः आजमाया हुआ उपाय बता रहा हूँ । जिसमें पहले से ही शीघ्र आराम आ जाता है ।
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नस पर नस चढ़ना एक बहुत साधारण सी प्रक्रिया है । लेकिन शरीर में कहीं भी नस पर नस चढ़ जाए, जान ही निकाल देती है । अगर रात को सोते समय पैर की नस पर नस चढ़ जाए तो व्यक्ति चकरघिन्नी की तरह घूम कर उठ बैठता है । नस पर नस चढ़ना सूजन और दर्द अलग । तो यदि आपके साथ हो जाये तो तुरंत ये उपाय करें
नस पर नस चढ़ना, उपचार -
1 अगर नस पर नस चढ़ जाती है । तो जिस पैर की नस चढ़ी है । उसी तरफ के हाथ की बीच की ऊँगली के नाखून के नीचे के भाग को दबाए । और छोड़ें । ऐसा तब तक करें । जब तक ठीक न हो जाए ।
2 लंबाई में अपने शरीर को आधा आधा दो भागों में चिन्हित करें । अब जिस भाग में नस चढ़ी है । उसके विपरीत भाग के ( चित्र अनुसार ) कान के निचले जोड़ पर उंगली से दबाते हुए उंगली को हल्का सा ऊपर और हल्का सा नीचे की तरफ बारबार 10 सेकेंड तक करते रहें । नस उतर जाएगी ।

नारी तू नारायणी - किंजल द ग्रेट

फ़ेसबुक पर निम्न दो अपडेट देखकर इस साहसिक, प्रेरणास्प्रद जीवन चरित और परमार्थिक भावों से ओतप्रोत घटना को ब्लाग पर प्रकाशित किये बिना न रह सका ।  
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फैजाबाद ! गर्दिश में दो चार फुटपाथ पर सब्जी बेचकर जीवन के तल्ख दौर से गुजर रही बेवा मोना की जिन्दगी में जिलाधिकारी किंजल सिंह उजास बनकर देवदूत की तरह शामिल हुईं ।
सराय पोख्ता मस्जिद की व्यवस्था देखने के लिए अचानक सब्जी मण्डी चौक में पहुँची किंजल सिंह की नजर वृद्धा मोना की जर्जर हालत पर पड़ी । जो सब्जी बेच रही थी ।
किंजल सिंह मोना के पास पहुँची और करेले का भाव पूछा । एक किलो करेला लिया । जिसकी कीमत 50 रूपये थी । परन्तु उसके एवज में उन्होंने मोना को 1550 रूपये दिया और घर का अता-पता हालचाल पूछकर चली गयीं ।
यह वाकया सोमवार संध्याकाल करीब 7 से 8 के मध्य का है ।
जिलाधिकारी करेला खरीदकर चली गयीं और 1550 रुपये पाकर बेवा मोना सुनहरे ख्वाब बुनते हुए ककरही बाजार स्थित अपने टीनशेड के घर जा पहुँचीं । और अपनी 17 वर्षीय नातिन रीतू पुत्री रामसुरेश मूल निवासिनी कन्हई का पुरवा हांसपुर, जो अपनी नानी की देखरेख के अलावा परमहंस डिग्री कालेज अयोध्या में बीए प्रथम वर्ष में अध्ययन कर रही है को सारा वाकया बताया । खाना पकाकर पंखा झलते हुए नानी नातिन सोने की तैयारी करने लगीं ।
रात्रि के लगभग 11 बजे थे । तभी कई गाड़ियां बेवा मोना के घर के सामने आ रूकीं । इन गाड़ियों में चिकित्सकों की भी एक टीम थी । जिलाधिकारी किंजल सिंह व सरकारी अमला मोना के घर पहुँचा । वहाँ की दशा देख उनका दिल पसीज गया ।

जिलाधिकारी किंजल सिंह ने मौके पर मौजूद जिलापूर्ति अधिकारी दीपक शरण वार्ष्णेय को निर्देशित किया कि तत्काल मोना को 5 किलो अरहर की दाल, 20 किलो आटा, 50 किलो गेंहू और 40 किलो चावल उपलब्ध कराओ । जब तक राशन आ नहीं जाता, मैं यहीं रहूंगी । 
किंजल सिंह का फरमान सुन डीएफओ के तोते उड़ गये । कोटेदारों की दूकाने रात में बन्द हो चुकी थीं । डीएसओ के एक शुभचिन्तक ने सलाह दी कि कंधारी बाजार का कोटेदार राकेश गुप्ता की बहुत बड़ी राशन की दूकान है । उसी से सारे सामान मंगवा लें । डीएसओ साहब गाड़ी पर सवार होकर कोटेदार राकेश की दूकान पर पहुँचे । इतना सामान राकेश देने में जब असमर्थता जताने लगे । तो पड़ोस के कोटदार आनन्द गुप्ता को भी तलब कर लिया गया । दोनों कोटेदारों ने डीएम की मंशा के अनुरूप राशन डीएसओ की गाड़ी में भरवाया । और डीएमओ ने उसे ले जाकर मोना के हवाले कर दिया । तब तक रात्रि के 12 बज चुके थे । और डीएम साहिबा मौके पर थीं ।
डीएम किंजल सिंह की उदारता यहीं थमी नहीं । उन्होंने एसडीएम दीपा अग्रवाल को निर्देशित किया कि सुबह होते ही मोना को एक टेबल फैन, उज्जवला योजना के तहत एलपीजी सिलेंडर मय चूल्हा, तख्त, दो साड़ी और चप्पल उपलब्ध करा दिया जाय । 
एडीएम व एसडीएम ने मिलकर यह मांग मंगलवार की सुबह ही पूरा कर दिया । जाते जाते 75 वर्षीय मोना से वादा कर गयीं कि खाना पकाने का बर्तन, पानी पीने के लिए एक हैण्डपम्प और रहने के लिए आवास का निर्माण सरकारी खर्चे से कराया जायेगा ।
डीएम की इस उदारता से जहाँ बेवा मोना व नातिन रीतू फूली नहीं समा रही हैं । वहीं शहर के नुक्कड़ चौराहों के टी स्टालों पर डीएम की उदारता की चर्चाएं आम हो गयी हैं ।
लोग यहाँ तक कह रहे हैं कि काश डीएम साहिबा मेरे घर आ जातीं । तो कम से कम उज्जवला के तहत हमें भी एलपीजी सिलेंडर व चूल्हा ही मिल जाता ।
वाह ....! काश समस्त प्रशासन ऐसा ही संवेदनशील हो जाए । और हम खुलकर उनका साथ दें ।
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फ़ैज़ाबाद की डीएम किंजल सिंह और उनके परिवार की कहानी बहुत ही भावुक और दर्दनाक है । किंजल सिंह 2008 में आईएएस में चयनित हुईं थी । आज उनकी पहचान एक तेज़ तर्रार अफ़सर के रूप में होती है । उनके काम करने के तरीके से जिले में अपराध करने वालों के पसीने छूटते हैं । लेकिन उनके लिए इस मुकाम तक पहुंचना बिलकुल भी आसान नही था ।
किंजल सिंह मात्र 6 महीने की थी । जब उनके पुलिस अफ़सर पिता की हत्या पुलिस वालों ने ही कर दी थी ।
आज देश में बहुत सी महिला आईएएस हैं । लेकिन वो किंजल सिंह नहीं है । उनमें बचपन से ही हर परिस्थितियों से लड़ने की ताक़त थी । 1982 में पिता केपी सिंह की एक फ़र्ज़ी एनकाउंटर में हत्या कर दी गयी थी । तब केपी सिंह, गोंडा के डीएसपी थे । अकेली विधवा माँ विभा सिंह ने ही किंजल और बहन प्रांजल सिंह की परवरिश की । उन्हे पढ़ाया लिखाया और आइएएस बनाया । यही नही करीब 31 साल बाद आख़िर किंजल अपने पिता को इंसाफ़ दिलाने में सफल हुई । उनके पिता के हत्यारे आज सलाखों के पीछे हैं । लेकिन क्या एक विधवा माँ और दो मासूम बहनों के लिए यह आसान था ।
मुझे मत मारो, मेरी दो बेटियां हैं -
किंजल के पिता के आख़िरी शब्द थे कि ‘मुझे मत मारो मेरी छोटी बेटी है’ । वो ज़रूर उस वक़्त अपनी चिंता छोड़ कर अपनी जान से प्यारी नन्ही परी का ख्याल कर रहे होंगे । किंजल की छोटी बहन प्रांजल उस समय गर्भ में थी । शायद अगर आज वह ज़िंदा होते । तो उन्हे ज़रूर गर्व होता कि उनके घर बेटियों ने नहीं बल्कि दो शेरनियों ने जन्म लिया है ।
बचपन जहाँ बच्चों के लिए सपने संजोने का पड़ाव होता है । वहीं इतनी छोटी उम्र में ही किंजल अपनी माँ के साथ पिता के क़ातिलों को सज़ा दिलाने के लिए कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने लगी । हालाँकि उस नन्ही बच्ची को यह अंदाज़ा नही था कि आख़िर वो वहाँ क्यों आती हैं । लेकिन वक़्त ने धीरे धीरे उन्हे यह एहसास करा दिया कि उनके सिर से पिता का साया उठ चुका है ।
इंसाफ़ दिलाने के संघर्ष में जब माँ हार गयी कैंसर से जंग -
प्रारंभिक शिक्षा बनारस से पूरी करने के बाद, माँ के सपने को पूरा करने के लिए किंजल ने दिल्ली का रुख किया तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लिया । बच्ची का साहस भी ऐसा था कि छोटे से जनपद से दिल्ली जैसी नगरी में आकर पूरी दिल्ली यूनिवर्सिटी में टॉप किया । वो भी एक बार नहीं बल्कि दो बार । किंजल ने 60 कॉलेजेस को टॉप करके गोल्ड मैडल जीता ।
कहते हैं ना - वक़्त की मार सबसे बुरी होती है । जब ऐसा महसूस हो रहा था कि सब कुछ सुधरने वाला है । तो जैसे उनके जीवन में दुखो का पहाड़ टूट पड़ा । माँ को कैंसर हो गया था । एक तरफ सुबह माँ की देखरेख तथा उसके बाद कॉलेज । लेकिन किंजल कभी टूटी नहीं । परन्तु ऊपर वाला भी किंजल का इम्तहान लेने से पीछे नहीं रहा । परीक्षा से कुछ दिन पहले ही माताजी का देहांत हो गया ।
शायद ऊपर वाले को भी नहीं मालूम होगा कि ये बच्ची कितनी बहादुर है । तभी तो दिन में माँ का अंतिम संस्कार करके, शाम में हॉस्टल पहुंचकर रात में पढाई करके सुबह परीक्षा देना शायद ही किसी इंसान के बस की बात हो । पर जब परिणाम सामने आया तो करिश्मा हुआ । इस बच्ची ने यूनिवर्सिटी टॉप किया और स्वर्ण पदक जीता ।
माँ का आइएएस बनने का सपना पूरा किया बेटियों ने -
किंजल बताती हैं कि कॉलेज में जब त्योहारों के समय सारा हॉस्टल खाली हो जाता था । तो हम दोनों बहने एक दूसरे की शक्ति बनकर पढ़ने के लिए प्रेरित करती थी । फिर जो हुआ । उसका गवाह सारा देश बना । 2008 में जब परिणाम घोषित हुआ । तो संघर्ष की जीत हुई और दो सगी बहनों ने आइएएस की परीक्षा अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण कर अपनी माँ का सपना साकार किया ।
किंजल जहाँ आईएएस की मेरिट सूची में 25 वें स्थान पर रही । तो प्रांजल ने 252वें रैंक लाकर यह उपलब्धि हासिल की । पर अफ़सोस उस वक़्त उनके पास खुशियाँ बांटने के लिए कोई नही था । किंजल कहती हैं - बहुत से ऐसे लम्हे आए । जिन्हें हम अपने पिता के साथ बांटना चाहते थे । जब हम दोनों बहनों का एक साथ आईएएस में चयन हुआ । तो उस खुशी को बांटने के लिए न तो हमारे पिता थे और न ही हमारी मां ।
किंजल अपनी माँ को अपनी प्रेरणा बताती हैं । दरअसल उनके पिता केपी सिंह का जिस समय कत्ल हुआ था । उस समय उन्होने आइएएस की परीक्षा पास कर ली थी । और वे इंटरव्यू की तैयारी कर रहे थे । पर उनकी मौत के साथ उनका यह सपना अधूरा रह गया । और इसी सपने को विधवा माँ ने अपनी दोनो बेटियों में देखा । दोनो बेटियों ने खूब मेहनत की । और इस सपने को पूरा करके दिखाया ।
एक कहावत है कि - जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड..यानि देर से मिला न्याय न मिलने के बराबर है । जाहिर है हर किसी में किंजल जैसा जुझारूपन नहीं होता । और न ही उतनी सघन प्रेरणा होती है ।

12 जून 2016

The 3 types of sin & virtue

Punya and Paapa are of three types based on whether the Karma is performed mentaly, verbaly or bodily Consequently, the results of the sins too are experienced through the agencies of the mind, the organ of speech and the body respectively What constitutes mental sin has been defined as folows:
परद्रव्येष्वाभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम ॥ 
Mental sins are of three kinds: the arising of the thought that another’s possessions must be usurped, the thought that another must be harmed, and harbouring of thoughts that are contrary to the Shastras For instance, the Shastras state the existence of Ishwara who creates,sustains and dissolves the Cosmos, and also ensures that everyone gets the fruits of their own Karma There are some who deny the existence of Ishwara; this denial is a mental sin There are others who deny rebirth This too is a mental sin When people commit such mental sins, they lose peace of mind in their folowing births It is a matter of experience that one first thinks, expresses the thought and then puts the thought into action Even if the thought has not fructified into action, a mental thought as mentioned above stil constitutes a sin Similarly, when one commits a verbal sin, one has to experience those results as wel through the organ of speech The Shastras classify the verbal sins as folows:
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असम्बद्धप्रलापश्च वाङ्ममयं स्याच्चतुर्विधम ॥ 
Hurting others by speaking harshly is the first verbal sin Teling lies is the second Speaking unnecessarily without paying attention to the context of where we are( for instance gossiping while sitting in a temple ) When people indulge in these sins, they end up being dumb, or develop a stammer, or speak incoherently
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम ॥ 
Stealing, causing physical harm, and lusting after women constitute bodily sin The reactions to these sins have to be experienced by the body It is important for everyone to refrain from these 10 sins in this lifetime, thus avoiding experiencing the fruits of these sins in future The Dharma Shastras advise us thus for our welfare We have to realize this and adhere to these instructions Just as sins fal into three categories and are enumerated under each category, the good deeds or Punya also fal into these categories and are enumerated as the exact antithetical act of the sins For instance, the thought of usurping another’s wealth is a mental sin The corresponding Punya Karma constitutes the thought of engaging in charity  the thought of giving away one’s wealth for the welfare of the other The thought of harming other is a mental sin The corresponding Punya is to have the thought of bringing about the welfare of another Thoughts harboured in opposition to the Shastras constitute mental sin, whereas the corresponding Punya is to live with thoughts that conform with the Shastras We see even today that some children have the tendency to engage in worship If the child’s father sits in worship,the child would do the same If the father applies Bhasma, the child too folows The child is not instructed to do so This inclination comes to the child naturaly Such is the Samskara of the child, that it develops a devotion to God Such Punyas result in peace of mind in the future lifetimes Some people say, I have no worries I am peaceful happy and contented This is the result of the Punya performed by the mind in the past Speaking sweetly, adherence to the truth, refraining, and speaking in accordance to the context and time constitute verbal Punya Such people are blessed with a great power of speech Engaging in charity, helping others and looking upon every woman as one’s mother constitute bodily Punya In future lives, they are blessed with good physical health as a result  Jagadguru Sri Bharati Tirtha Mahaswamiji
Swami Mrigendra Saraswati 

( Folowing is a summary of the speech delivered by the Shankaracharya of Sringeri in Gajwel on Dec 12, 2012 )

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326