सामान्य जीवन में प्रथम तुरिया में हम स्थित हैं । लेकिन तुरिया जानते नहीं । ज्ञान में नींद, जागना, सोना इनको भी जाना जाता है । जैसे हम सो रहे हैं (और इस सोने को भी जान रहे हैं । एक साथ दो क्रियायें सोना भी और जानना भी । ऐसा ही दो अन्य के बारे में ।)
तुरियातीत - प्रारम्भ में एक बेहद साधारण अवस्था है । जिसमें तुरिया अवस्थाओं से परे का अनुभव है । लेकिन ज्यों ज्यों यह बढती जाती है । समस्त जीव मल कषाय (आवरण) हटा देती है । फ़िर जो शेष रहता है । वही विशेष या परमात्मा है ।
वैसे मेरे अनुभव से इस (परमात्मा) से भी भी आगे बहुत कुछ है ।
braham aur parbraham men bhi aisa hi kuch antar hai ?
कोई भी शब्द कहाँ किस भाव में प्रयुक्त है ? इस पर निर्भर करता है । वैसे मूलतः ब्रह्म ब्रह्माण्ड तक और पारब्रह्म ब्रह्माण्ड से भी परे है ।
Dhanyabad ji, jab bhi koi yogi kuchh anubhav karta hai. matlab chaitanyta ke star ko, to kya use pata rahta hai ki abhi kuchh bacha hai anubhav karne ko ya bas ab final anubhav hai. Ya use sirf guru hi batate hai ki abhi baki hai ? Main puch raha hu kyonki kai yogi apni sadhna beech me hi chhod dete hain. jaise ki prakriti yogi or videha ! Ye kyon hota hai ? matlab ye beech men kyon rah jate hai ? Nirdeshon ke abhav men ya uchit sanskaro ke abhav men ? Aisi avastha me Kya purusharth ki madad se aage nahi badha ja sakta ? Kya purusharth bhi purv ke sanskara hi nirdharit karte hain. ya sirf prerit karte purusharth ko ? To inhe ( prakriti yogi ) kabhi pata hi nhi chalta ki is se pare bhi koi tatva hai ?
सबसे महत्वपूर्ण है - गुरु, साधक को उस विषय का ज्ञान और स्वयं साधक । वह जो कुछ अनुभव करता है । वही उसका लक्ष्य है या नहीं । लक्ष्य सिद्ध हुआ या नहीं । सिद्ध होकर उससे क्या कार्य हो रहा है ? ये सब साधारणतः साधक के स्वयं अनुभव में आता है । अगर गुरु बताये । तो फ़िर किसी भी साधना या उस गुरु का लाभ ही क्या ?
सिर्फ़ अपने स्तर पर साधना करना, आगे बढना, बेहद कठिन ही नहीं असम्भव सा है । किसी भी योगी द्वारा साधना को बीच में छोङ देने के अनेक कारण बन जाते हैं । होते हैं ।
पात्रता, दृण संकल्प, उत्साह, गुरु और परस्थितियों तथा संस्कारों आदि का सहयोग ही निरन्तर आगे बढ़ाता है ।
अगर साधक में लगन और पात्रता है । तो आगे का गुरु और ज्ञान अवश्य होगा । जब पूर्णता आ जाती है । तो किसी को कहना नहीं पङता । सब कुछ स्वयं को स्वयं ही ज्ञात होता है ।
वैसे ज्ञान असीम और अनन्त है । अतः ये बात सामान्य तौर पर कहना हास्यास्प्रद है । कोई कोई बिरला ही असीम को जान पाता है और उसे कुछ कहने या पूछने की कभी कोई आवश्यकता नहीं होती ।
Ek aur doubt hai rajeev ji, jab kundalini purna roop se shahastrar chakra men shiv me vilin ho jati hai. tab ye turiyatit avastha ghatit hoti hai ? Kya ye avastha NIRVIKALPA SAMADHI se alag hai ? Kal aapke lekh me padha tha ki jab samadhi ka bhi ant ho jaye. tab ye turiyatit avastha ghatit hoti hai, to yahan pe kis samadhi ki bat ho rahi hai SAVIKAlPA YA NIRVIKALPA SAMADHI ? Dhanyabaad
(सभी प्रश्न - दीपक कुमार)
---------
- तुरिया, तुरियातीत और समाधि आदि को आधुनिक कबीरों और खास श्वेत वस्त्रधारक गुरुओं ने ऐसा हौआ बनाया है कि हमारी ही आत्मा और शरीर की ये नित्य क्रियायें, स्वाभाविक क्रियायें बेहद दूर की और जटिल बना दी हैं ।
आपको आश्चर्य होगा । बहुत से व्यक्ति तो इतनी अज्ञान नींद में हैं कि उन्हें हम सोना जागना स्वपन इन्हीं तीन अवस्थाओं में बरतते हैं । इसका भी उचित बोध नहीं रहता । लेकिन जब कभी ज्ञान चिंगारी सुलगती है । तब हमें ख्याल आता है कि हम इन्हीं तीन मुख्य अवस्थाओं में बरतते हैं । तुरिया की इसी अवस्था में सचेत होकर इसको महसूस भी करने लगा तुरिया को जानना कहा जाता है । यानी साक्षी की भांति - मैं सो रहा हूँ, मैं जाग रहा हूँ, मैं स्वपन देख रहा हूँ ।
ऐसा जब यह सब करते हुये और अलग से इसको देखता है । वही तुरिया को जानना है । लेकिन इसके लिये भी अभ्यास करना होता है ।
- सामान्य जीवन में जो बहुत गहरी नींद आती है । वह भी तुरियातीत अवस्था ही है और इसको प्रत्येक नित्य ही अनुभव करता है । अब फ़र्क सिर्फ़ इतना हो जाता है कि योगी इस चौथी अवस्था गहरी नींद या तुरियातीत को भी पूर्ण होश में महसूस करता है ।
- सहस्रार चक्र का मामला कुण्डलिनी और द्वैत का होता है । इसके अनुभव भिन्न होते हैं । जहाँ तक तुरियातीत का अनुभव है । यह उससे पहले भी संभव है । सब कुछ साधक उसके गुरु और गुरु की परम्परा पर निर्भर है ।
सुरति शब्द योग, सहज योग या आत्मज्ञान के उसी सेम स्थान पर अनुभव भिन्न और उच्च और अधिक शक्ति वाले होंगे ।
- अक्सर बैठे बैठे कभी शून्यता आ जाती है । ये भले ही क्षणिक सही, पर समाधि ही है और समाधि की तमाम स्थितियों के आधार पर उनके अनेक नामकरण कर दिये हैं । पर समाधि मूल एक ही है । अंतःकरण जब विचारों से भरा होगा । तब समाधि उसको साधक की समाधि स्थिति अनुसार साफ़ करेगी और अंतःकरण ज्यों ज्यों रिक्त होता जायेगा । समाधि में दिव्यता और शक्ति, संकल्प आदि उच्च स्तरीय हो जायेंगे । समाधि के बारे में बातें अधिक हैं । अभी तक मैं ऐसे किसी व्यक्ति से नहीं मिला । जो समाधि के बारे में कुछ सटीक बता पाया हो ।
गहरा ध्यान भी एक तरह समाधि ही है । फ़िर यह कितनी गहरी हो सकती है ? इसका बताना कठिन है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें