सो सब बाग विलास है, भ्रम करि जांनहु ताहि ।
जो कुछ तुम सुनते हो । या बुद्धि से जो तर्क वितर्क करते हो । वह एक तरह का वाग (वाणी द्वारा) विलास मात्र है । वस्तु तथ्य में वह भ्रम ही है ।
यह अत्यन्ताभाव है, यह ई तुरियातीत ।
यह अनुभव साक्षात है, यह निश्चय अद्वीत ।
इसी को अत्यन्ता भाव ? कहते हैं । (यह अत्यन्ता भाव का सही उदाहरण है) यह तुर्यावस्थातीत है । साक्षात्कार के बाद इसी का अनुभव होता है । यही अद्वैत मत का अन्तिम सिद्धान्त है ।
(अत्यन्ता भाव, शब्द पर गौर करें । सत्य साक्षात में यह बेहद महत्वपूर्ण शब्द है ।)
नाहीं नाहीं करि कह्यौ, है है कह्यौ बखांनि ।
नांहीं है कै मध्य है, सो अनुभव करि जांनि ।
शास्त्रों में जिसका वर्णन ‘नेति नेति’ करके भी किया है, ‘अस्ति अस्ति’ करके भी किया है । तुम्हें इस अस्ति, नास्ति’ के मध्य की स्थिति का अनुभव (साक्षात्कार) करना चाहिये ।
ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ - पंचम उल्लास
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
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नांहीं है कै मध्य है - असली सत्य बस इतना ही है । सत्य की कोई भी स्थिति, घटना प्रकट होती है । कहीं ध्यान आदि या आंतरिक अनुभव में जो अनुभव होता है । वह सत्य नहीं है । शेष सभी अनुभव काल माया के जाल है । तुरियातीत (स्वपन, जाग्रत, सुषुप्ति) के अतिरिक्त स्थिति में जो अनुभव होता है । वही सत्य है ।
इसका कुछ कुछ आभास कोहरे में धूप या सूर्य चमकने जैसा है । जैसे कोहरा फ़टना !
लेकिन यह स्थिति सहज नहीं आती । बल्कि एक हिसाब से समाधि से भी नहीं आती । जब समाधि की भी मृत्यु हो जाती है । तब इन स्थितियों (स्थिति शब्द का प्रयोग मजबूरी है, क्योंकि यह स्थिति नहीं होती । लेकिन एक बार घटित हो जाने के बाद साधक को ‘उतना’ स्थित अवश्य कर देती है ।) कहना चाहिये अनुभवों से साक्षात्कार होता है ।
लेकिन तमाम शिष्य/साधक ध्यान अनुभवों में भटक कर रह जाते हैं । क्योंकि एक तो उनमें नये नये अनुभव होने से मजा आता है । दूसरे यह सब घटित होना बङा कठिन है - सो ही जाने जाहि देयु जनाही । अर्थात अपना दम लगाकर यह नहीं हो सकता ।
होय बुद्धि जो परम सयानी ।
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गो गोचर जहाँ लगि मन जाई, सो सब माया जानो भाई ।
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