स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्य भिधीयते ।
निज स्वरुप के अनुसंधान को भक्ति कहते हैं ।
प्रज्ञापराधो हि मूलं रोगाणाम ।
- बुद्धि का अनवधानता से होने वाली भूलें ही रोगों का मूल कारण है । मानसिक ( से फ़िर शारीरिक ) रोगों का हेतु तो निश्चित रुप से प्रज्ञा अपराध ही है ।
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः । ( वशिष्ठ स्मृति )
आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते ।
संविता त्वां सवानां सुवतामग्निर्गृहपंतीना सोमो वनस्पतींनाम ।
बृहस्पतिंर्वाचऽइन्द्रो ज्यैष्ठ्याय रुद्रः पशुभ्यों मित्रः सत्यो वरुंणो धर्मंपतीनाम ।
यजुर्वेद 9-39 ( 9-39 )
- जो अधर्म से लौटाकर धर्म अनुष्ठान में प्रेरणा करें । उन्हीं का संग सदा करो । औरों का नहीं ।
ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये । मनोविकाराऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजा ।
- जो भी मन के विकार हैं । वे सब प्रज्ञा अपराध से ही उत्पन्न होते हैं । मानसिक निरोगता प्राप्ति का सर्वोपरि उपाय यही है कि इच्छाओं में अधिक आसक्ति न रख कर जीवन की आवश्यकताओं को सीमित करें और साधन बहुलता एवं अति संग्रह से दूर रहें । निश्चय ही संतोष और संयम मानसिक प्रसन्नता के आवश्यक अंग हैं ।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला । मनसि च सन्तुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्रो ।
- मन के संतोष से करोड़पति और दरिद्र का भेद नही रहता । तृष्णा युक्त धनवान दरिद्र से बुरा और तृष्णा विरत निर्धन, धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ रहता है । संतोष का सम्बल बहुत बड़ी शक्ति है । मन संतोषी होगा तो उसमें विकार उत्पन्न होने का कारण ही नहीं ।
ध्यायतो विषयान पुसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
क्रोधाद भवति सम्मोहः सम्मोहात स्मृतिविभ्रमः । स्मृति भ्रशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति । भगवदगीता ।
- विषयों पर निरन्तर ध्यान रहने से वही मन में रम जाते हैं । मन और विषयों के इस संयोग से कामवासना उत्पन्न होती है । और उसमें किंचित भी व्यवधान होने से क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध से सम्मोह अर्थात कर्तव्य अकर्तव्य की अज्ञानता उत्पन्न होती है । उससे स्मृति का नाश हो जाता है । स्मृति नाश से बुद्धि नाश हो जाता है । और फिर सर्वनाश निश्चित है ।
रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।
- मनुष्य की बुद्धि राग द्वेष से विमुक्त होकर विषयों का सेवन करे । तो अन्तरात्मा में संतोष होता है । मनुष्य को स्वभाविक शान्ति सुलभ रहती है । मनः शान्ति और बुद्धि नियमन आहार विहार में नियमित होने से प्राप्त होते हैं ।
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलाभे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः । योगसुत्र ।
- आहार की शुद्धता अर्थात खानपान में नियमित रहने से सत्व ( मन ) शुद्धि होती है । सत्व शुद्धि से स्मृति अर्थात बुद्धि संतुलित होती है । स्मृति शुद्ध से आत्मज्ञान बढ़ता है । जिससे मानसिक ग्रन्थियों Complexes का पराभव होता है । आहार नियम के अतिरिक्त मानसिक आरोग्य के लिए मनोनिग्रह का अभ्यास सर्वोपरि है ।
निज स्वरुप के अनुसंधान को भक्ति कहते हैं ।
प्रज्ञापराधो हि मूलं रोगाणाम ।
- बुद्धि का अनवधानता से होने वाली भूलें ही रोगों का मूल कारण है । मानसिक ( से फ़िर शारीरिक ) रोगों का हेतु तो निश्चित रुप से प्रज्ञा अपराध ही है ।
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः । ( वशिष्ठ स्मृति )
आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते ।
संविता त्वां सवानां सुवतामग्निर्गृहपंतीना सोमो वनस्पतींनाम ।
बृहस्पतिंर्वाचऽइन्द्रो ज्यैष्ठ्याय रुद्रः पशुभ्यों मित्रः सत्यो वरुंणो धर्मंपतीनाम ।
यजुर्वेद 9-39 ( 9-39 )
- जो अधर्म से लौटाकर धर्म अनुष्ठान में प्रेरणा करें । उन्हीं का संग सदा करो । औरों का नहीं ।
ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये । मनोविकाराऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजा ।
- जो भी मन के विकार हैं । वे सब प्रज्ञा अपराध से ही उत्पन्न होते हैं । मानसिक निरोगता प्राप्ति का सर्वोपरि उपाय यही है कि इच्छाओं में अधिक आसक्ति न रख कर जीवन की आवश्यकताओं को सीमित करें और साधन बहुलता एवं अति संग्रह से दूर रहें । निश्चय ही संतोष और संयम मानसिक प्रसन्नता के आवश्यक अंग हैं ।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला । मनसि च सन्तुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्रो ।
- मन के संतोष से करोड़पति और दरिद्र का भेद नही रहता । तृष्णा युक्त धनवान दरिद्र से बुरा और तृष्णा विरत निर्धन, धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ रहता है । संतोष का सम्बल बहुत बड़ी शक्ति है । मन संतोषी होगा तो उसमें विकार उत्पन्न होने का कारण ही नहीं ।
ध्यायतो विषयान पुसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
क्रोधाद भवति सम्मोहः सम्मोहात स्मृतिविभ्रमः । स्मृति भ्रशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति । भगवदगीता ।
- विषयों पर निरन्तर ध्यान रहने से वही मन में रम जाते हैं । मन और विषयों के इस संयोग से कामवासना उत्पन्न होती है । और उसमें किंचित भी व्यवधान होने से क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध से सम्मोह अर्थात कर्तव्य अकर्तव्य की अज्ञानता उत्पन्न होती है । उससे स्मृति का नाश हो जाता है । स्मृति नाश से बुद्धि नाश हो जाता है । और फिर सर्वनाश निश्चित है ।
रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।
- मनुष्य की बुद्धि राग द्वेष से विमुक्त होकर विषयों का सेवन करे । तो अन्तरात्मा में संतोष होता है । मनुष्य को स्वभाविक शान्ति सुलभ रहती है । मनः शान्ति और बुद्धि नियमन आहार विहार में नियमित होने से प्राप्त होते हैं ।
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलाभे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः । योगसुत्र ।
- आहार की शुद्धता अर्थात खानपान में नियमित रहने से सत्व ( मन ) शुद्धि होती है । सत्व शुद्धि से स्मृति अर्थात बुद्धि संतुलित होती है । स्मृति शुद्ध से आत्मज्ञान बढ़ता है । जिससे मानसिक ग्रन्थियों Complexes का पराभव होता है । आहार नियम के अतिरिक्त मानसिक आरोग्य के लिए मनोनिग्रह का अभ्यास सर्वोपरि है ।
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