04 जून 2016

अकार - महिमा अपार

एक एक परमाणु मिलकर प्रथ्वी का निर्माण हुआ है । अतः प्रथ्वी में वही गुण हैं जो परमाणुओं में थे । भाषा रूप प्रथ्वी भी अक्षर रूप परमाणुओं से बनी है । मनुष्य की भाषा सार्थक है तो भाषा के बीज, कारण और उपादान रूप का भी अर्थ निश्चित है ।
यदि अक्षरों का कोई अर्थ न हो तो भाषा अभाव से भाव में आयी और मनुष्य रचित और कृतिम कहलायेगी ।
किन्तु ऐसा नहीं है । अक्षरों के ‘कारण रूप’ भाषा उत्पन्न होने से पूर्व ही आकाश में मौजूद थे । क्योंकि  आकाश ही अक्षरों (ध्वनियों) का स्थान है ।
अक्षरों के योग से धातु और धातु के योग से शब्द और शब्द के योग से वाक्य का निर्माण होता है । आकाश का गुण शब्द है । जो अकार रूप से नित्य व्याप्त रहता है । किन्तु ऊंच नीच भाव से उसके 7 भाग हैं । जिन्हें स्वर यानी सा रि ग म प ध नी कहते हैं ।
उसी शब्द के स्थान प्रयत्न भेद से 19 विभाग और हैं । जिन्हें अक्षर कहते हैं । इन्हीं 19 के संकर संयोग से 62-63-64 या अनेक अक्षर बन जाते हैं ।
यही 19 अपने विकृत रूप से संसार भर में व्याप्त हैं । मनुष्य, पशु, पक्षी की बोली, वाद्य यन्त्र, अन्य आहत ध्वनियां या प्राकृतिक आंधी, बिजली कङकना आदि शब्द स्थान प्रयत्न के कारण इन्हीं 19 के भेद हैं ।
वेद कहता है - ऋचायें परम अक्षर आकाश में ठहरी हैं । जिसमें सब देवता (निरुक्त के प्रमाण से, सब विषय) ठहरे हैं । जो इन अक्षरों को नहीं जानता वह वाक्य समूह से क्या लाभ उठायेगा ।

वाणी की सीमा कंठ, ओष्ठ और तालुगत नासाछिद्र हैं । कंठ से अकार का आरम्भ होता है । उसके परे वाणी की गति नही है । उसके परे हकार है । किन्तु बिना अकार के वह कुछ भी नही है । ओष्ठ से उ का उच्चारण होता है । इसके आगे भी कोई स्थान नही है । तालुगत नासाछिद्र जो सानुनासिक ञ ण न ड म का स्थान है । जहाँ से अन्तिम सानुनासिक मकार निकलता है ।
वैदिक वर्णमाला में मुख्यतः 19 अक्षर हैं । जो परस्पर मिश्रण से 63 हो जाते हैं । इन 19 में जितने अक्षर केवल प्रयत्न अर्थात मुख जिह्वा के इधर उधर हिलाने सिकोङने, फ़ैलाने से बोले जाते हैं और किसी विशेष स्थान से सम्बन्ध नहीं रखते । वह स्वर कहलाते हैं । 
और जिनके उच्चारण में स्थान और प्रयत्न दोनों होते हैं । वे व्यंजन कहलाते हैं । 
अ इ उ ऋ ऌ _.  . ये सात स्वर हैं ।
क ग च ज ट ड त द प ब श ळ - ये बारह व्यंजन हैं ।
इन्हीं दोनों के योग से 63 अक्षर इस प्रकार बनते हैं ।
आ ई ऊ आदि दीर्घ स्वरों को उपरोक्त अ इ उ आदि हस्व स्वरों में उन्हीं उन्हीं हस्व स्वरों की एक एक मात्रा बढाकर दीर्घ रूप दिया है । इसी प्रकार आ ई ऊ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ आदि 9 दीर्घ स्वरों में ऌ को छोङकर उन्हीं उन्हीं की एक हस्व मात्रा बढाने से प्लुत रूप होता है ।
और सभी स्वर इस प्रकार से अ आ आऽ, इ ई ईऽ, उ ऊ ऊऽ,  ऋ ऋ ऋऽ, ऌ ऌऽ,  ए एऽ, ऐ ऐऽ, ओ ओऽ, औ औऽ, अं अः 24 हो जाते हैं ।
इनमें अ अ मिलकर आ और आ अ मिलकर आऽ हुआ है । इसी तरह इ उ ऋ ऌ में समझना चाहिये । 
अ + इ = ए, आ + ई = ऐ, अ + उ = ओ, आ + ऊ = औ बना है ।
ञ ण न ड म और (  ) जिनको सानुनासिक कहते हैं । ं इसी अनुस्वार से बने हैं । और ः इस विसर्ग में अ जोङने से ह बना है । किन्तु यह अक्षर ः बहुत विलक्षण है । 
क च ज ट ड त द प ब के साथ ‘ह’ जोङने से ख घ छ झ ठ ढ थ ध फ़ म होते हैं और ये पाँचों वर्ग पाँच पाँच अक्षर के होकर 25 हो जाते हैं ।
ई + अ = य, ऋ + अ = र, ऌ + अ = ल, उ + अ = व,
ष और स उसी एक श के स्थान भेद से रूपान्तर हैं । क्ष (क + ष) त्र (त + र) ज्ञ (ज + ञ) भी
इस तरह से बने हैं । ळ प्रायः सब स्थानों और समस्त प्रयत्नों से बना है ।
इस प्रकार 24 स्वर 25 वर्ग और य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ ळ ( ) 13 स्फ़ुट अक्षर मिलकर 62 अक्षर बनते हैं । 
इन्हीं में एक अर्धचन्द्र, जो अनुस्वार का ही रूप है, जोङने से 63 अक्षर हो जाते हैं । किन्तु मूल में 19 अक्षर ही हैं । 19 अक्षर का भी मूल अकार ही है । यह अकार ही स्थान और प्रयत्न भेद से इतने प्रकार का हो गया ।
उदाहरण के लिये ओठ बन्द करके अकार बोलेंगे तो वह पकार हो जायेगा ।
समस्त अक्षर समस्त शब्द समूह और ध्वनि समूह उसी अकार का स्थान प्रयत्न भेद से कार्य यानी रूपान्तर है । मगर अकार सभी में है ।
इसीलिये अकार का अर्थ - सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, अव्यय, एक, अखण्ड आदि आदि अर्थी होता है । किन्तु यह अपने अस्तित्व से दूसरों का अभाव भी बतलाता है । क्योंकि दूसरे सब इसी से बने हैं । अतएव दूसरे अक्षरों का अभाव सूचक होने से इस अकार का अर्थ अभाव, नहीं, शून्य आदि भी होता है । इसका निज का अस्तित्व पहला अर्थ और दूसरों का नास्तित्व दूसरा अर्थ होता है ।  
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शब्द अर्थ ज्ञानों के संयोग विभाग में संयम करने से सब प्राणियों (पशु पक्षी आदि सभी) की भाषा ज्ञात होती है - पतंजलि, योगशास्त्र 
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हस्व, दीर्घ, प्लुत ! अंग्रेजी का good, better, best जो भाव वाला है और हिन्दी का अच्छा, बहुत अच्छा, बहुत ही अच्छा, जो भाववाचक है । वही भाव हस्व, दीर्घ और प्लुत में समझना चाहिये ।
उदाहरण के लिये हस्व ‘अ’ व्यापक अर्थात साधारण वस्तुस्थिति अर्थ में है । दीर्घ ‘आ’ सब कुल all अर्थ में है और प्लुत ‘आऽ’ सम्पूर्ण अर्थ whole में आयेगा । यही प्रथा 63-64 अक्षरों में जारी रहनी चाहिये । क्योंकि इतने ही अक्षर माने गये हैं ।
त्रिपष्टि श्रतुः - पष्टिर्वा वर्णा शम्भुमते मताः (पाणिनि शिक्षा)

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