31 मई 2012

जो नहीं देखते वे देखें और जो देखते हैं वे अंधे हो जायें

प्रिय राजीव भाई ! नमस्कार । यदि आप अनुमति दें । तो मैं बाइबल में से भी कुछ आपके साथ बाँटना चाहूँगा । जो शायद इस कारण से भी है कि - मेरा सबसे छोटा भाई समृद्ध होते हुए भी ईसाई धर्म अपना चुका है । और इसी दौरान उसके पास्टर जी ने मेरा सभी धर्मो के प्रति उदारता और खुला मन देखते हुये एक प्रतिलिपि बाइबल ( नया नियम ) की मुझे भेंट की । उनकी पुरजोर कोशिशो के बाद भी मै उस धर्म को अपना नहीं सका । लेकिन बहुत सी अच्छी बातें जरूर बाइबल से ले ली । इसकी मेरे अनुसार वज़ह ये है कि - धर्म केवल बांधते हैं । और जहाँ बंधन है । वहाँ मुक्ति कैसे संभव है ? यदि मुक्ति चाहिये । तो बन्धनों से ऊपर उठना होगा । संकीर्णता छोड़कर उदार होना पड़ेगा । खैर वापिस उसी बात पर आता हूँ । यहाँ मैं एक बात खोलना चाहूँगा कि - 5 वर्ष की आयु से जो संत मत की पुस्तकों और सतसंगो को सुनता और अध्ययन करता आया हो । बाइबल को भी उसी दृष्टिकोण से पढ़ेगा । और आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि बाइबल भी संत मत पर ही आधारित है । ये और बात है कि इसकी वाणी दृष्टान्तों में लिखी है । और धर्म परायण लोगों को शायद ये बात कुछ कठिन गुजरे ( उसके लिए क्षमा चाहूँगा )
बाइबल का आत्मीय आधार है - पिता पुत्र और पवित्र आत्मा । मेरे अनुसार " परमात्मा पिता "  " परमात्मा में लीन गुरु पुत्र ", और " जो परमात्मा में लीन हो सकता हो पवित्र आत्मा "
युहन्ना 1:1 आदि में वचन था । और वचन परमेश्वर के साथ था । और वचन परमेश्वर था । 1:2 यही आदि में परमेश्वर के साथ था । 1:3 सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ । और जो कुछ उत्पन्न हुआ है । उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई । 1:4 उसमें जीवन था । और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था । 1:5 ज्योति अन्धकार में चमकती है । और अन्धकार ने उसे ग्रहण न किया ।
युहन्ना 3:2 उसने रात को यीशु के पास आकर उससे कहा - हे रब्बी ! हम जानते है कि तू परमेश्वर की और से गुरु होकर आया है । क्योकि कोई इन चिह्नों को । जो तू दिखाता है । यदि परमेश्वर के साथ न हो । तो नहीं दिखा सकता ।
युहन्ना 3:3 यीशु ने उसको उत्तर दिया - मैं तुमसे सच सच कहता हूँ । यदि कोई नये सिरे से न जन्मे । तो परमेश्वर का राज्य नहीं देख सकता ।
युहन्ना 3: 20 क्योंकि जो कोई बुराई करता है । वह ज्योति से बैर रखता है । और ज्योति के निकट नहीं आता । ऐसा न हो कि उसके कामों पर बैर लगाया जाये । 3:21 परन्तु जो सत्य पर चलता है । वह ज्योति के निकट आता है । ताकि उसके काम प्रगट हो कि वह परमेश्वर की और से किये गये हैं ।
युहन्ना 3:27 नाशवान भोजन के लिए परिश्रम न करो । परन्तु उस भोजन के लिये । जो अनंत जीवन तक ठहरता है । जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हे देगा । क्योंकि पिता अर्थात परमेश्वर ने उसी पर छाप लगाई है ।
युहन्ना 6:29 यीशु ने उन्हें उत्तर दिया - परमेश्वर का कार्य ये है कि तुम उस पर । जिसने उसे भेजा है । विश्वास करो ।
युहन्ना 6: 35 जीवन की रोटी मैं हूँ । जो मेरे पास आता है । वह कभी भूखा न होगा । और जो मुझ पर विश्वास करता है । वह कभी प्यासा न होगा ।
युहन्ना 6: 51 जीवन की रोटी जो स्वर्ग से उतरी है । मैं हूँ । यदि कोई इस रोटी में से खाय । तो सर्वदा जीवित रहेगा । और जो रोटी मैं जगत के जीवन के लिए दूंगा । वह मेरा मांस है ।
युहन्ना 7:36 यह क्या बात । जो उसने कही कि - तुम मुझे ढूंढोंगे । परन्तु न पाओगे । और जहाँ मैं हूँ । वहाँ तुम नहीं आ सकते ।
युहन्ना 8:12 यीशु ने फिर लोगों से कहा - जगत की ज्योति मैं हूँ । जो मेरे पीछे हो लेगा । वह अन्धकार में न चलेगा । परन्तु जीवन की ज्योति पायेगा ।
युहन्ना 8:23 उसने उनसे कहा - तुम नीचे के हो । मैं ऊपर का हूँ । तुम संसार के हो । मैं संसार का नहीं हूँ ।
युहन्ना 8:32 तुम सत्य को जानोगे । और सत्य तुम्हे स्वतन्त्र करेगा ।
युहन्ना 9:39 तब यीशु ने कहा - मैं इस जगत में न्याय के लिए आया हूँ । ताकि जो नहीं देखते । वे देखें । और जो देखते हैं । वे अंधे हो जायें ।
युहन्ना 10:16 मेरी और भी भेड़ें हैं । जो इस भेड़शाला की नहीं । मुझे उनको भी लाना अवश्य हैं । वो मेरा शब्द सुनेंगी । तब एक ही झुण्ड और एक ही चरवाहा होगा ।
युहन्ना 10:27 मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं । मैं उन्हें जानता हूँ । और वो मेरे पीछे पीछे चलती हैं । 10:28 और मैं उन्हें अनंत जीवन देता हूँ । वे कभी नाश न होंगी । और कोई उन्हें मेरे हाथ से छीन न लेगा । 10:29 मेरा पिता जिसने मुझको दिया है । सबसे बड़ा है । और कोई उन्हें पिता के हाथ से छीन नहीं सकता । 10: 30 मैं और पिता एक हैं ।
युहन्ना 12:25 जो अपने प्राण को प्रिय जानता है । वह इसे खो देता है । और जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता है । वह अनंत जीवन के लिए उसकी रक्षा करेगा ।
युहन्ना 12:35 यीशु ने कहा - ज्योति अब थोड़ी देर तक तुम्हारे बीच में है । जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है । तब तक चले चलो । ऐसा न हो कि अन्धकार तुम्हें आ घेरे । जो अन्धकार में चलता है । वह नहीं जानता कि किधर जाता है । 12: 36 जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है । ज्योति पर विश्वास करो । ताकि तुम ज्योति की संतान बनो ।
युहन्ना 15:7 यदि तुम मुझमें बने रहो । और मेरा वचन तुममें बना रहे । तो जो चाहे मांगो । और वह तुम्हारे लिए हो जायेगा ।
अभी केवल युहन्ना ( JOHN ) अध्याय से ही लिया है । और इसमें मैंने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं जोड़ा  है । अत: जो ज्ञानी और विवेकी और समझदार हैं । वे इन दृष्टान्तों को भली प्रकार समझ जायेंगे । और जो नहीं समझेंगे । इसमें उनका भी दोष नहीं है ।
क्योंकि कुरिन्थियों 1:7 परन्तु हम परमेश्वर का वह गुप्त ज्ञान । भेद की रीति पर बताते हैं । जिसे परमेश्वर ने सनातन से हमारी महिमा के लिए ठहराया है । 1:8  जिसे इस संसार के हाकिमो में से किसी ने नहीं जाना । क्योंकि यदि वे जानते । तो तेजोमय प्रभु को क्रूस पर न चढाते । 1:9 परन्तु जैसा लिखा है ।
- जो बातें आँख ने नहीं देखी । और कान ने नहीं सुनी । और जो बात मनुष्य के चित में नहीं चढ़ी । वे ही हैं । जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिए तैयार की है । निकृष्ट अनिक्रिष्ट ।
प्रस्तुतकर्ता - अशोक कुमार । दिल्ली से । आपका बहुत बहुत धन्यवाद अशोक जी ।
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मैं बहुत समय से यह बात कहता रहा कि - बाइबल और कुरान में संकेतों में आत्म ज्ञान और सुरति शब्द योग ही बताया गया है । पर समय के अभाव के कारण मैं उन खास वचनों आयतों का चयन कर टायपिंग कर आपके लिये उसकी व्याख्या कर पाने में असफ़ल रहा । प्रभु कृपा से हमारे शिष्य अशोक जी ने बाइबल  और इस्लाम धर्म । गुरु ग्रन्थ साहब आदि बहुत धर्म ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन किया है । तब वे उसमें से सार सार निकाल कर आपको बतायेंगे । और आवश्यकता अनुसार मैं उसकी व्याख्या भी करूँगा । उपरोक्त वचन वास्तव में ऐसे ही सार वचन हैं । इनका सही अर्थ कुछ ही समय में यहीं जुङेगा ।

28 मई 2012

अरे मैं उड़ कैसे रहा हूँ - स्वपनिल

जय जय श्री गुरुदेव । प्रणाम राजीव भईया ! मेरे मन में स्वपन से जुड़े कुछ प्रश्न हैं । मुझे वैसे तो बहुत ही कम स्वपन आते हैं । पर जब आते हैं । तब बड़े ही अजीब स्वपन होते हैं । पर मैं इन पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं देता । क्योंकि अधिकतर स्वपन ऐसे होते थे । जैसे कोई एक अजीब सी घटना बार बार दोहराई जा रही हो । जिसका मेरे आस पास से कोई लेना देना नहीं है । या कभी कभी स्वपन में उड़ना । फिर जैसे ही निर्धारित स्थान पर पहुँचने वाला रहता । वैसे ही ये लगता कि - अरे मैं कैसे उड़ रहा हूँ ? और नीचे आने लगता । पर फिर अचानक से लगता । अरे नहीं । अभी तक तो मैं उड़ रहा था । फिर अब कैसे नीचे आ रहा हूँ । और फिर से उड़ने लगता । ये सब बड़ा ही मूर्खता पूर्ण लगता था । इसलिए मैं इन सब पर ध्यान नहीं देता था । पर कुछ समय से कभी कभी ऐसे सपने आ रहे थे । जैसे अगर किसी स्वपन में कोई कार्य हो रहा हो । तो उसके अगले दिन स्वपन में उसके आगे का कार्य होता रहता । जैसे किसी चलचित्र को किसी ने थोड़े समय के लिए रोक कर फिर आगे बढ़ा दिया हो । कभी कभी ऐसे 
स्वपन दिखे । जिन्हें मैं अपने अनुसार नियंत्रित कर सकता था । कभी कभी स्वपन में ही सोते समय स्वपन दिखे इत्यादि । पर इन्हें भी मैं नकारता रहा । यह सोच कर कि - सब कल्पनाये हैं । अस्थिर मन की । ये सब स्वपन मुझे कभी याद नहीं रहते । क्योंकि मैं इन पर ज्यादा ध्यान नहीं देता । पर अगर थोड़ा सोचता कि - क्या स्वपन था ? तो याद आ जाते हैं । या फिर अगर उनसे मिलती जुलती कोई घटना घटे । या कुछ लेख पढ़ने को मिले । तब याद आते हैं । पर आज मैं आपका ब्लॉग रोज की तरह ही पढ़ रहा था कि - तभी मुझे कल रात का स्वपन याद आया । मैंने आपको पिछले मेल में बताया था कि - मैं जब ध्यान करता था । तब किसी जगह आँखों के मध्य में अंदर जाने का आभास होता था । और मैं भयभीत हो जाता था । ठीक वैसा ही आज स्वपन में हुआ । पर इस बार मैं अंदर जाता गया । और एक काला बिंदु मुझे दिखाई दिया । मैं जैसे ही उसके एकदम नजदीक पहुंचा । वैसे ही पीछे से या कही से आवाज आई - यही काल पुरुष है ?? और मैं बहुत ही ज्यादा भयभीत हो गया । और मेरी नींद खुल गयी 
। फिर मैंने सोचा - लगता है । मैं इस बारे में कुछ ज्यादा ही कल्पना कर रहा हूँ । और पुनः सो गया । मैं इस बारे में आपको बताते हुए मन ही मन अपने आप पर बहुत हँस रहा हूँ  कि - मेरा नाम लगता है । स्वपनिल ठीक ही रखा गया है । राजीव भईया ! ये बताईये । क्या ये व्यर्थ के स्वपन कुछ मतलब के हैं ?
असल में मुझे गुरूजी से दीक्षा लेनी हैं । और इस विषय को लेकर मैं बहुत चिंतित हूँ । मुझे पता नहीं है कि मुझे घर से अनुमति मिलेगी । या नहीं ? क्योंकि मैंने बहुत समय पहले अपने माता पिता से पुछा था । तो उन्होंने मुझे कहा था कि - किसी व्यर्थ के बाबा के चक्कर में न फँसना । राजीव भईया ! कृपया मुझे इस विषय में मार्गदर्शन दीजिये ।
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स्वपनिल मेरी पूरी जिन्दगी में वो लङका है । जिससे मिलकर मुझे सबसे ज्यादा खुशी हुयी । क्या खासियत है स्वपनिल में ? अन्दर बाहर लगभग खाली । कोई कचरा नहीं । स्वपनिल की और खूबियाँ आगे उत्तर में भी विस्तार से आयेगी । रूप कौर मेरी जिन्दगी में वो लङकी है । जिससे मिलकर मुझे सबसे ज्यादा खुशी हुयी । एकदम भोली भावुक । अन्दर बाहर एक । कोई छल कपट नहीं । स्वपनिल जैसे लोग अपनी स्पष्ट सोच और तीक्ष्ण बुद्धिमता से सार को शीघ्र गृहण करते हैं । और लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त होते हैं । रूप कौर जैसे लोग अपने भोलेपन से सबके प्रिय होते हैं । और खास प्रभु खुद इनका ध्यान रखते हैं । ऐसे लोगों में ज्ञान ध्यान के अभिमान के बजाय सेवा और प्रेम भाव की प्रमुखता होती है । जो भक्ति में ज्ञान से भी बढकर माना गया है  । कैसे ? समझें । ज्ञानी और चतुर की उनसे बङे इतनी चिन्ता इसलिये नहीं करते कि - वो समझदार है । परेशानी से निबट लेगा । लेकिन कोई बहुत भोला है । समर्पण है । प्रेम भाव वाला है । उसका अतिरिक्त ख्याल रखना ही होता है । और ये सब निज
स्वभाव के आधार पर होता ही है । इसको आप बनाबटी नहीं बना सकते । आईये । अब स्वपनिल के स्वपन रहस्यों पर बात करते हैं ।
वैसे तो बहुत ही कम स्वपन आते हैं - ऐसी स्थिति मुख्यतः 3 तरह के लोगों के साथ होती है । 1 जो सामान्य कर्म युक्त दिनचर्या के बाद नियमानुसार श्रेष्ठ 8 घण्टे ( 24 घण्टे में ) ही आराम करते और सोते हैं । 2 बेहद श्रम युक्त कार्य करके सोने वालों को भी पता नहीं चलता । कब सोये । कब जागे ? उन्हें भी सपने नहीं आते । 3 ये स्वपनिल आपकी क्वालिटी है । जैसा कि मैंने कहा - आप खाली टायप के हो । कोई वासना गृहण ही नहीं करते । अगर कुछ करते भी हो ।  तो बेकार को डिलीट करते रहने की जो आपकी खासियत है । वह वासना MATTER को नये कल्पना चित्र बनाने ही नहीं देती । और जिन्दगी ( कोई भी हो । एक तुच्छ जीव से लेकर बङे देवताओं तक । स्वपन वासना ही है । स्वपन - स्व पन = अपनी अवस्था ) एक वासना स्वपन ही है । अष्टावक्र ने जनक से कहा - तेरा वो सपना 15 मिनट का था । और ये जिन्दगी 100 साल का सपना ही तो है ।
पर जब आते हैं । तब बड़े ही अजीब स्वपन होते हैं -  YES आप बिलकुल सही कह रहे हो । क्योंकि आपकी आंतरिकता लगभग वासना रहित है । शाश्वत सत्य को जानने की ललक कहीं न कहीं आपको लगातार बैचेन करती रहती है । इसी को  योग स्थिति कहते हैं । 1 अच्छी योग स्थिति । वासना को हटाना । और सत्य को गृहण करना । सार सार को गहि रहे । थोथा देय उङाय ।  इस आटोमैटिक प्राप्त ( पूर्व जन्म यात्रा के फ़लस्वरूप ) योग स्थिति के कारण आप कारण शरीर या कारण जगत में भले ही स्थूलता के तौर पर अनजाने में ही अनाङी पने से जाते हो । पर जाते हो । इसलिये कभी आपको कारण जगत या अपने ही कारण संस्कारों के चित्र ( स्वपन ) नजर आते हैं । ऐसा नहीं कि - ये सिर्फ़ आपके ही साथ होता हो । दुनियाँ के हर देश में बहुत लोगों के साथ होता है । पर वे समझ नहीं पाते । और हरेक को पता भी नहीं है । हर प्रश्न का उत्तर देने वाले राजीव बाबा आगरा में रहते हैं । और इंटरनेट पर उनका सत्यकीखोज ब्लाग भी है । इसलिये आपकी तरह ही असमंजस स्थिति में रह जाते हैं । वो स्वपन आपको अजीव इसलिये लगते हैं कि - आपकी हालिया जिन्दगी से कोई मैच नहीं करते । और कारण जगत में बहुत कुछ अनोखा चलता रहता है ।
जैसे कोई एक अजीब सी घटना बार बार दोहराई जा रही हो । जिसका मेरे आस पास से कोई लेना देना नहीं है - इस बात के भी 2 प्रमुख कारण होते हैं । 1 सत्ता तंत्र द्वारा बार बार आपको याद दिलाना । यानी ये घटना आपसे सम्बन्धित है । और दूसरा आपके योग जीवन में आने के संकेत के तौर पर आपको प्रायोगिक तौर पर पूर्व अभ्यास कराना । समझने की कोशिश करें । आप न चाहते हुये भी बार बार इस सबको ध्यान करेंगे । और आपकी सुरति अन्दर को जायेगी । और यही तो योग है । बस कायदे के योग में स्थितियों पर आपकी पकङ होती है । और आप वैधानिक तौर पर उसके अधिकारी होते है । अपनी मेहनत और स्थिति परिवर्तन के साथ साथ विभिन्न पदों ( पीछे वालों को छोङते हुये ) पर प्रमोट होते हुये पदाधिकारी भी ।
अरे मैं कैसे उड़ रहा हूँ - ऐसे स्वपन आने के कई उदाहरण स्वपन मनोबिज्ञान के इतिहास में मिलते हैं । मैंने देखा है । अंतर ज्ञान से कतई अपरिचित अक्सर मनो बैज्ञानिक मनमाने तरीके से इसकी व्याख्या कर देते है । जिसके पीछे वे विभिन्न मानवीय कल्पनाओं इच्छाओं का ही जिक्र करते हैं । पर वास्तव में ये सत्य नहीं है । मानवीय स्तर पर लगभग सभी की इच्छायें समान होती हैं । 1 छोटा सा बच्चा भी बङिया घटिया का फ़र्क साफ़ जानता है । तब ऐसे स्वपन सबको आने चाहिये । फ़िर क्यों नहीं आते ?
इसका कारण है । आपका इससे पूर्व जन्मों में ( चाहे लाखों साल पहले क्यों न हो ) किया गया कुण्डलिनी की किसी भी छोटी बङी शाखा का योग अभ्यास । द्वैत के कुण्डलिनी योग में जितनी भी सूक्ष्म लोकों अंतर लोकों दूरस्थ अंतिरिक्षीय लोकों की जो यात्रायें अनुभव में आती हैं । उसमें ठीक ऐसा ही लगता है कि आप किसी पक्षी की भांति परवाज करते हुये उङे चले जा रहे हैं । जाहिर है । आपका योग से पूर्व में कोई जुङाव रहा है । इसी प्रश्न का विस्तार अगले उत्तरों में भी आयेगा । 
अरे नहीं । अभी तक तो मैं उड़ रहा था - फ़िर आपका ये पूर्व जन्म का योग अभ्यास किसी ज्ञान संस्कार बीज की तरह आपके कारण शरीर में जमा रहता है । जिस प्रकार विभिन्न पाप पुण्य के संस्कार बीज जमा रहते हैं । ये बीज प्रारब्ध आदि नियम अनुसार अनुकूल जमीन और मौसम पाकर अंकुरित होने लगते हैं । और सम्बन्धित घटनायें घटने लगती हैं । लेकिन जब आप किसी हल्की समाधि की भांति स्वपन में सूक्ष्म हो उठते हैं । और स्फ़ुरण करते कारण के सम्पर्क में आते हैं । तब उङने लगते हैं । पर क्योंकि आप अभी जीव भाव में है । तब जैसे ही आपको अपनी स्वपनिल स्थिति का बोध होता है । आप नीचे आने लगते हैं । या सूक्ष्मता भंग हो जाती है । योग में ऐसी ही स्थितियों को कहा गया है - जब मैं था तब हरि नहीं । अब हरि हैं मैं नाहि । सब अंधियारा मिट गया । जब दीपक देख्या माहिं । यानी जब आपको स्व के मैं का बोध होता है । तब हरि से जुङे अनुभव होना बन्द हो जाते हैं ।
जैसे अगर किसी स्वपन में कोई कार्य हो रहा हो । तो उसके अगले दिन स्वपन में उसके आगे का कार्य होता रहता । जैसे किसी चलचित्र को किसी ने थोड़े समय के लिए रोक कर फिर आगे बढ़ा दिया हो - अगर आप किसी योगी के सानिंध्य में योग के सिद्धांत जानते होते । तो ये पूर्ण जिज्ञासा योग की 1 छोटी क्रिया मात्र है । यही विभिन्न प्रकार के साधक योग में करते हैं । आज जितना योग कर लिया । अगले समय उससे आगे का योग करते हैं । क्योंकि आपका योग अभी बिना गुरु के सिर्फ़ प्रायोगिक स्थिति में है । इसलिये आप बहुत धीरे धीरे विभिन्न स्थितियों का अनुभव करते हैं । दरअसल आप समझ नहीं पाते । नीचे के लोकों और विभिन्न काल खण्डों की यात्रा भी आप अंधेरे अन्दाज और अज्ञानता स्थिति में करते हैं । जिनसे कभी आपका जुङाव था । इसको ठीक से जानने समझने के लिये योग आध्यात्म बिज्ञान को जानना होगा । और इसके लिये 1 समर्थ गुरु की आवश्यकता होगी ।
कभी कभी ऐसे स्वपन दिखे । जिन्हें मैं अपने अनुसार नियंत्रित कर सकता था - नाक सीधे सीधे पकङो । या घुमा के पकङो । पकङी नाक ही जाती है ना । इसलिये बात वही है । आपका पूर्व संस्कार वश स्वचालित बेहद धीमा योग है । इसलिये आप उसमें जिस समय जैसी भूमिका में आ जाते है । दृश्य और आपका प्रभाव वैसा ही फ़लित होता है ।
पर अगर थोड़ा सोचता कि - क्या स्वपन था ? तो याद आ जाते हैं । या फिर अगर उनसे मिलती जुलती कोई घटना घटे - हाँ ! 1 आम इंसान भी अभी शून्य 0 टायप स्थिति में था । और यकायक उसे ऐसी बात याद हो आयी । जिसको अभी अभी तो क्या 6 महीना या 1 साल या दूर दूर तक उसने ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था । फ़िर अचानक कैसे याद आ गयी ? उत्तर वही है । स्वतः बनी शून्य 0 स्थिति में यकायक हुआ स्वतः योग । और इसके लिये किसी ध्यान किसी ज्ञान किसी गुरु की कोई आवश्यकता नहीं । तो सोना या स्वपन की परिभाषा सिर्फ़ आपने तय कर रखी है । जरा सोचिये । उस वक्त आप सो रहे हैं । तो स्वपन कौन देख रहा है ? किसी भी चीज का अनुभव जागृत अवस्था में ही हो सकता है ना ? इसलिये आप इसे कोई रहस्य न मान कर सोना या स्वपन शब्द हटा दें । तो यही चीज जिन्दगी में भी घटती है । और लगभग सभी के साथ घटती है ।
मैं जब ध्यान करता था । तब किसी जगह आँखों के मध्य में अंदर जाने का आभास होता था । और मैं भयभीत हो जाता था । ठीक वैसा ही आज स्वपन में हुआ । पर इस बार मैं अंदर जाता गया । और एक काला बिंदु मुझे दिखाई दिया । मैं जैसे ही उसके एकदम नजदीक पहुंचा । वैसे ही पीछे से या कही से आवाज आई - यही काल पुरुष है - बस ! यही मेरे लिये आपके प्रति भयभीत करने वाली बात है । काल पुरुष से नहीं । उसकी साले की तो ऐसी की तैसी । आपकी योग क्रिया लगभग निरंतर हो रही है ।  और इसका अनोखा रोमांचक आकर्षण बार बार आपको उस तरफ़ ले जायेगा । लेकिन बिना कायदे के सच्ची दीक्षा और सच्चे गुरु के यदि आपकी सुरति ( यहाँ चेतना समझ लें ) अन्दर कहीं फ़ँस गयी । तो ठीक वही बात होगी । जो अभिमन्यु के साथ हुयी । उसे चक्र व्यूह में घुसना तो आता था । निकलना नहीं । मैं कई बार कह चुका हूँ । कोई भी कुण्डलिनी जागरण या अन्य योग गुरु की शरण और दीक्षा के बिना पूरी तरह अवैधानिक और गैर कानूनी ही है । अक्सर मैंने इसके 2 ही परिणाम होते देखें हैं । गम्भीर किस्म का पागल पन या फ़िर अकाल मौत । ध्यान रहे । आप परीक्षण करके देख लेना । अब ये रुकने वाला नहीं है । इसलिये आपको तुरन्त किसी समर्थ गुरु की शरण में जाना चाहिये । और कायदे में ( दीक्षा लेने पर ) आते ही आप इस धरती पर कीङे मकोङों की तरह व्यर्थ रेंगने वाले इन तुच्छ मनुष्यों से बहुत बहुत ऊपर हो जाओगे । क्योंकि बहुत कुछ आप पहले ही हो । अपनी पूर्व पढाई के चलते ।
राजीव भईया ! ये बताईये । क्या ये व्यर्थ के स्वपन कुछ मतलब के हैं - इस सृष्टि में कोई भी चीज व्यर्थ और बे मतलब नहीं है । अब आपको ये समझ में आ ही गया होगा ।

26 मई 2012

भव खंडना तेरी आरती

प्रिय राजीव जी ! नमस्कार । दिल में आया कि श्री गुरु नानक जी द्वारा जगन नाथ पूरी में परमात्मा की प्रकृति द्वारा आरती आपके साथ बाँटू । ताकि बाकी प्रेमी लोग भी आपके द्वारा इस अनमोल रचना के गूढ़ अर्थ को जानें - अशोक ।
रागु धनासरी महला 1 ॥
गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ।
धूपु मल आनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥1॥
कैसी आरती होइ ।
भव खंडना तेरी आरती ॥
अनहता सबद वाजंत भेरी ॥1॥ रहाउ ॥
सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ।
सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥2॥
सभ महि जोति जोति है सोइ ।
तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥
गुर साखी जोति परगटु होइ ।
जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥3॥
हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ।
क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नाइ वासा ॥4॥3॥
"मतिभृष्ट कुक्कुर" ( ये वाणी में नहीं है । अशोक जी ने भक्त भाव से अपने लिये लिखा है )
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धूपु मल आनलो ( मलय पर्वत से आती चंदन की सुगंध ही धूप ) पवणु चवरो करे ( वायु चंवर कर रही है ) सगल बनराइ फूलंत जोती ( वनों की सम्पूर्ण वनस्पति तुम्हारी आरती के निमित्त फूल बनी हुई है )
भव खंडना ( जनम मरन के नास करने वाले ) अनहता सबद वाजंत भेरी ( निर्वाणी नाम का उपदेश या दीक्षा
लेने के बाद झींगुर कीट जैसी आवाज का प्रकट हुआ अनहद ( लगातार । जिसकी कोई सीमा नहीं ) शब्द जो आकाश और अंतर आकाश ( मष्तिष्क के बीच ) में निरंतर गूँज रहा है ) तिस दै चानणि ( उसी का उजियाला ) सभ महि चानणु होइ ( सब में प्रकाशित है ) गुर साखी ( गुरु के द्वारा दिये निर्वाणी नाम उपदेश या गुरु दीक्षा से ) जोति परगटु होइ ( अन्दर का प्रकाश दिखता है ) जो तिसु भावै ( सिर्फ़ यही तुझे पसन्द है ) हरि चरण कवल ( भगवान के चरण कमल ) मकरंद लोभित मनो ( फ़ूलों के रस का लोभी मन रूपी भंवरा ) सारिंग ( हिरन । चातक । या प्यासा  )
विशेष - उपरोक्त आरती को सिर्फ़ प्रतीक रूप न समझें । कोई भी अच्छा साधक जब ध्यान अवस्था में अंतर आसमानों में पहुँचता है । तब ऐसे दृश्य उसे साक्षात दिखाई देते हैं । और ये कोई बहुत बङी स्थिति भी नहीं है । ध्यान की 1 बहुत छोटी सी स्थिति है । जिसको जगन्नाथ मन्दिर के पुजारियों द्वारा आरती के लिये कहने पर नानक ने बताया कि - असली आरती क्या है ? आप विवरण का सावधानी से मनन करके खुद समझ सकते हैं । नानक उदासीन पंथ के साधक थे । उन्होंने ही उदासीन पंथ चलाया था ।
आकाश रूपी थाल में सूर्य और चंद्र दीपक के समान हैं । मलय पर्वत से आती चंदन की सुगंध ही धूप है । वायु चंवर कर रही है । वनों की सम्पूर्ण वनस्पति तुम्हारी आरती के निमित्त फूल बनी हुई है । अनहद शब्द भेरी की तरह बज रहा है । हे भवखंडन ! तुम्हारी सीमित आरती किस तरह हो सकती है ?
गुरू नानक देव जगंनाथ गये । तहाँ आरती का समान हूआ । तब पंडतों ने कहा - हे साधू ! आपने भगवान की
आरती ना करी । अरु बैठा क्यों रहा ? तब गुरू नानक ने कहा कि - हम तो परमेसर के आगे ऐसी आरती करते हैं । जो सदैव काल ही हो रही है ।
गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती । 
धूपु मल आनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलत जोती ।
अब आरती का रूपु कहते हैं - हे भवखंडन ! अकास रूपु आपकी आरती का थालु है । चंद्रमा सूरजु 2 दीपक उसमें धरे हैं । औरु यावत तारा मंडल है । सो ( जनक ) जानो मोती धरे हैं । व हे जगत के पिता मोती ( जनक ) जड़े हूये हैं । मलागर चंदन औरु तिनमे जो अगनि देही धूप है । पवन देवता चौरु करता है । हे जोती प्रकास रूप ! जितनी बनस्पति फूल रही है । सो सभ ( सब ) फूल हैं ।
कैसी आरती होइ । भव खंडना तेरी आरती । 
हे ( भव खंडना ) जनम मरन के नास करनेहार औरु तेरी आरती कैसी होवै ? कैसे हो रही है । सो कहते हैं । भेरी आदि सबद कुछ काल तक वजते हैं । जिस तेरी आरती का जीवों की बांणी रूप ( अनहता ) एकु रस सबदु भेरी आदिक वाजे वज रहे हैं । औरु इस प्रकार हम तेरी स्तुति करते हैं ।
अनहता सबद वाजंत भेरी ।
सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही । 
विराट रूपु करके संहस्र 1000 तेरे नेत्र हैं । निरगुण रूपु में एक 1 भी ( नन ) नहीं है । विराट रूपु करके सहंस्र 1000 तेरी मूरति हैं । निरगुण करके एक 1 मूरति भी तेरी नहीं है । विराट रूपु करके - हे निरमल सुध सरूप तेरे हजारों चरन हैं । निरगुण सरूप में एक 1 भी चरण नहीं है ।
( बाबा कहते ) हे पिता परमेसर ! जगत के करते जिस घर अर्थात सतसंग में तेरा जसु हो रहा है । उस घर में अर्थात स्थान में मेल रखु ( प्राप्त कर ) मैं भी तेरी वडिआई करांगा । व इसमें तेरी वडिआई होवेगी । अर्थात गरीब निवाजी सिद्ध होवेगी ।
श्री अशोक जी का परिचय - चण्डीगढ के पास मोहाली के मूल निवासी अशोक कुमार पंजाबी है । लेकिन सिख नहीं है । अशोक अपने बचपन में ही माता पिता के साथ दिल्ली रहने आ गये थे । और तबसे लगातार दिल्ली ही रह रहे हैं । लगभग 15 साल से राधास्वामी पंथ से जुङे रहे अशोक जी को जब वहाँ से अथक कोशिशों के बाद ( यह सभी
विवरण इसी ब्लाग पर प्रकाशित है ) कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । तब एक दिन नेट सर्चिंग सर्फ़िंग के दौरान अशोक जी का मेरे ब्लाग से परिचय हुआ । फ़ोन पर बात हुयी । और अशोक अब हमारे मण्डल के शिष्य है । मैं खुद नहीं कहता - ये किस स्तर पर सन्तुष्ट हुये ।  ये आपको अशोक जी के ही लेखों में समय समय पर उनकी भावना में खुद दिखाई देगा ।
अशोक जी ने सन्त मत का बचपन से ही अच्छा अध्ययन किया है । और आम - बाबा पुजारियों पाठियों साधुओं के तुलनात्मक इनका ज्ञान स्तर काफ़ी ऊँचा है । ध्यान रहे । अशोक कोई साधु सन्त नहीं है । इनके पत्नी बच्चे तथा अन्य परिवार है । उसकी जिम्मेदारियाँ भी हैं । दिल्ली जैसे व्यस्त शहर में जीवन के सभी कर्तव्य निभाते हुये यह बेहद आसानी से सहज योग या सुरति शब्द योग करते हुये स्थायी सुख और अमरत्व की ओर निरंतर बढते हुये साधना रत हैं । साहेव ।

17 मई 2012

सदगुरू किसे कहते हैं?



गुरू गूंगे गुरू बाबरे, गुरू के रहिये दास।
गुरू जो भेजे नरक को, स्वर्ग की रखिये आस॥

गुरू गूंगा हो, बाबरा (पागल) हो। गुरू के हमेशा दास रहना चाहिए। गुरू यदि नर्क को भेजे तब भी शिष्य को इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग प्राप्त (अर्थात इसमें मेरा कल्याण ही) होगा। यदि शिष्य को गुरू पर पूर्ण विश्वास हो तो उसका बुरा स्वयं गुरू भी नहीं कर सकते।

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सदगुरू किसे कहते हैं?

अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया।
चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरूवै नमः॥

जो जन्म-मरण दु:ख को छुड़ा दे, वही सदगुरू है। सदगुरू के अन्दर ईश्वरीय ज्ञान की धारा प्रवाहित रहती है। जिनके दर्शन और सदज्ञान से अज्ञान-अंधकार दूर हो, वही सदगुरूदेव हैं।

नित्य अनादि सदगुरू, स्वयंसिद्ध गुरू, अभ्याससिद्ध गुरू तथा परम्परा गुरू - चार सदगुरू होते हैं।
लौकिक, वैदिक, पारमार्थिक, तीन प्रकार के गुरू होते हैं। जो ब्रह्मविद्या तत्वज्ञान को देकर, आभ्यन्तर विहंगम योग का साधन-अभ्यास के द्वारा मनभावनी-मुक्ति प्रदान करे, वही सदगुरू हैं।

सदगुरू के अन्दर दिव्यशक्ति, दिव्यज्ञान और दिव्यप्रभा होती है। नर से देव हो, अमरतत्व की प्राप्ति सदगुरू द्वारा होती है। वेदादि शास्त्र पारङ्गत होने पर भी ब्रह्मप्राप्ति के लिए सदगुरू की आवश्यकता है। सदगुरू द्वारा सर्व संशय की निवृति और पूर्ण बोध की प्राप्ति होती है।

सदगुरू के अन्दर ही विशेष ज्ञान, ईश्वरीय धारा प्रकट होती है। जिनसे अनेक ऋषि, मुनि, सन्त, विद्वान और जपी-तपी-कर्मकाण्डी या सारा संसार अध्यात्म-प्रकाश लेकर अपने उचित कर्त्तव्य का ज्ञान प्राप्त करता है। अनेक विद्याओं के अनेक गुरू होते हैं, किन्तु विश्व में ब्रह्मविद्या, अध्यात्म तत्वज्ञान का मार्तण्ड सदगुरू एक ही होता है।

सदगुरू की धारा क्रमशः परम्परा गुरूओं में प्रवाहित रहती है। जब धारा बन्द हो जाती है, तब विशेष पुरूष प्रकट होकर उस ज्ञानशक्ति को अपने आत्मा में प्रकट कर संसार-क्षेत्र में आ करके जगत का कल्याण करते हैं। अनेक विद्वान, सन्त, तपस्वी, योगियों में कोई एक विशेष सत्यपुरूष ईश्वरीय ज्ञान-प्रवाही सदगुरू होता है।

विद्या आत्मा में प्रकट होती है, जड़ बुद्धि में नहीं। योगाभ्यास द्वारा जब आत्मा की अज्ञान-ग्रन्थि खुल जाती है, तब योग की चौथी भूमि में आत्मा के अन्दर विशेष प्रकाश प्रकट दृष्टिगोचर होने लगता है। यही अन्तर-दृष्टि और अन्तरी दिव्यज्ञान है।

शब्दाधार पर ही सदगुरूदेव के सहज स्नेह से अज्ञान-कपाट खुल जाता है, और शब्दावलोकन से सम्पुट शक्तियाँ विकसित हो, ऊर्ध्व में ज्ञान प्रकाशपुञ्ज की प्राप्ति होती है। सदगुरू आत्मा के प्रकाश हैं, और आत्मा की शक्तियाँ को अपने सहज स्नेह से आकर्षित कर स्वःधाम की प्राप्ति कराते हैं।

वेद-उपनिषदों के रहस्यों को सदगुरू द्वारा जानकर साधन-अनुभव द्वारा उस तत्व की परख कर सकते हैं। केवल पुस्तक के पठन-पाठन से, बिना सदगुरू मिले, यथार्थज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है।
उपनिषद सदगुरू-शरण की आवश्यकता बतलाते हैं। सदगुरू द्वारा ही अधिकारी जिज्ञासु बोधशान्ति को प्राप्त होकर चिन्मय स्वरूप में स्थित होता है।

योगी की परख योगी करता है। सदगुरू की परख उनके हंस और विरही भक्त, सच्चे निष्कामी-जन करते हैं। अधिकारी को शान्ति सदगुरू-शरण में होती है। पुत्र अपनी माता को, बछड़ा अपनी माँ गौ को पहचान लेता है। अधिकारी को अपने सदगुरू की परख सहज में ही होती है।

उपनिषदों में कहा हुआ दहराकाश क्या हैं? जो कमल के भीतर अन्तरकाश है, वह क्या वस्तु है? इसे सदगुरू ही बतला सकते हैं, कोरे पुस्तकीय कागजी विद्वान नहीं।

सदगुरू अध्यात्म-क्षेत्र के सूर्य हैं, और उनकी तपोनिधि अक्षयकोष की प्राप्ति सदगुरू के हंस और अनुरागी करते हैं। सदगुरू का जीवन और मरण विशेष स्थिति और विशेष कारण पर अवलम्बित रहता है। सदगुरू की आत्मप्रभा सदैव कार्य करती है, क्योंकि वे शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वरूप हैं।

अग्नि में धोका हुआ लोहा अग्नि स्वरूप हो जाता है, इसी प्रकार ब्रह्माग्नि के प्रज्वलित जिह्वा से जिसका अंत:करण और ज्ञानशक्ति विशुद्ध और प्रदीप्त हो चुकी है, वह ब्रह्मानन्द स्वरूप सदगुरूदेव सदैव अपनी ज्ञान-प्रतिभा से सारे संसार को आलोकित करते हैं।

सबका गुरू ईश्वर है, इसीलिए उसको परमगुरू कहते हैं, जो सर्वगुरूओं का गुरू, परमगुरू और परम ईश्वर है।

पूर्वेषामपि गुरू: कलेनानवच्छेदात।
(योगदर्शन)

सदगुरू में दिव्य शब्द, दिव्य गन्ध और दिव्य आकर्षण होता है। जो त्रिकालदर्शी और अमरत्व की प्राप्त कर लिया है, वही परमगुरू निर्मित ईश्वरीय ज्ञान-प्रवाही, पूर्ण ज्ञानवान, महान आत्मा सदगुरू है। सर्व साधु, महात्मा, विद्वान, सन्त को सदगुरू मानना अबोध का सूचक है।

विहंगम योग के द्वारा जब आत्मा प्रकृति-मण्डल को पारंगत कर जाती है, तब मन-माया का त्याग और शब्दब्रह्म का परिचय होता है। बाहरी त्याग और वैराग से माया नहीं छूटती है।

माया से छूटने का सरल और वेदविहित सर्वोत्तम उपाय योग है। बाहरी साधन और कर्मभूमि में इसकी निवृत्ति का कोई साधन नहीं है। एक विशेष स्थिति और विशेष अवस्था है। जब वह प्राप्त होती है, तब माया की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। बाहरी त्याग और मन-माया के साधन से माया की निवृत्ति नहीं होती है।

परीक्षार्थी से परीक्षक विशेष विद्वान और ज्ञाता होता है, तब उसकी वह परीक्षा करता करता है। अतएव योगी की पहचान के लिए योगी बनो। अपने समय को उसी प्रकार उपयोग कर सारे तत्वों का अन्वेषण और अनुभव कर विशेष भूमि में पहुँच जाओ, तब योग और योगी की पहचान हो सकेगी।

कौड़ीपति करोड़पति के धन की परीक्षा नहीं कर सकता। मूर्ख विद्वान की परख नहीं कर सकता। असत्यवादी, मिथ्याभिमानी, विषयी, पामर-जीव, योगी-महात्मा या किसी सन्त की परख नहीं कर सकते। सदगुरू और ब्रह्मविद्या के आचार्य की परख, इससे भी इन निम्नकोटि के मनुष्यों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है।

सदगुरू की संज्ञा जीव नहीं है। जो सदगुरू को जीव समझते हैं, वह अध्यात्म तत्वज्ञान से वंचित हैं। पहले सदगुरू के स्मरण और पूजन से ही उन्हीं के प्रकाश में आत्मा के ज्ञानतन्तु स्थिर और दृढ़ हो चिन्मय शक्ति में सदैव केन्द्रित होते हैं। अतएव प्रथम अध्यात्म क्षेत्र में सदगुरू की उपासना श्रेष्ठ है।

सदगुरू ही भवतपित जीवों के शान्ति-प्रदायक और भवसागर के कर्णधार हैं। हम उन्हीं की शरण में अपनी आत्मा का उद्धार कर दुःख-बंधन से छूट सकेंगे। अतएव सदगुरू की शरण में अमृतमय जीवन सदैव तृप्त और मधुमय हो, यही भगवान से प्रार्थना है।

काया मध्ये श्वास है। श्वास मध्य सार।
सार-शब्द विचारि के। साहब कहो सुधार।

सतगुरू जीव प्रबोध के। नाम लखावै सार।
सार-शब्द जो कोई गहे। सोई उतरिहै पार।

अगला जन्म मनुष्य का प्राप्त करने का मार्ग

13 अगला जन्म भी मनुष्य जन्म प्राप्त करने के मार्ग क्या हैं ? कहते हैं कि - पशुपति नाथ के दर्शन करने से अगला जन्म पशु योनि में नहीं होता । तो क्या किसी अन्य योनि ( ऊश्मज । स्थावर आदि ) में संभव है ?    इसकी सत्यता क्या है ?
ANS - हम अपने जीवन में पिण्ड शरीर द्वारा 4 तत्वों के बरताव या व्यवहार में ही अधिक निपुण है । ये 4 तत्व है - प्रथ्वी । जल । अग्नि । वायु । इन चारों से ही हमें किसी न किसी रूप में काम रहता है । यहाँ तक कि एक दृष्टिकोण से पशुओं को भी इनकी प्रत्यक्ष आवश्यकता होती है । पशु सर्दी के समय धूप का ही सही । अग्नि तत्व का भी उपयोग करते हैं । गर्म स्थान की तलाश कर बैठते हैं । यह अप्रत्यक्ष अग्नि तत्व का ही उपयोग है । लेकिन 5 वां आकाश तत्व हमारे व्यवहार में नहीं आता । जबकि ये महज निरा अज्ञान ही है । आकाश ( खाली स्थान या स्थान ) के बिना तो हमारा शरीर व्यवहार 1 मिनट नहीं चल पायेगा । प्रथ्वी कहाँ है ? आकाश में ना । जल । अग्नि । वायु भी आकाश ( ये किसी स्थान में ही तो है ) में ही है । इस 
तरह ये 5 तत्व आपस में मिले हुये हैं । अग्नि में वायु मिली हुयी है । तभी तो वह ऊपर को गति करती है । प्रथ्वी में जल । अग्नि । वायु सभी है । इस तरह  सूक्ष्म बैज्ञानिक दृष्टि से परीक्षण करने पर सभी तत्व आपस में मिले हुये स्पष्ट नजर आयेंगे । लेकिन लाख टके की बात वही है । जिस चीज को हम तकनीकी तौर पर जान कर सिद्ध कर लेते हैं । उस पर हमारा अधिकार हो जाता है । अब हम जितना जान सके ? गौर करें । ये कोई तिलिस्मी बात नहीं है । जीवन के प्रत्येक क्षण में हरेक व्यवहार में भी यही बात लागू होती है । हरेक चीज को तकनीकी जानना । उसकी प्रकृति से जानना । इसी को चाहे कुण्डलिनी कह लो । सांख्य कह लो । दर्शन कह लो । आत्म ज्ञान कह लो । ये प्रकारों के आधार पर बस स्थितियों के नाम दे दिये गये हैं ।
अपनी पिछली ( पूर्व जन्म की ) योग यात्रा के चलते मैं बहुत बचपन से ही ऐसा महसूस करने लगा था कि मैं हमेशा खुले विस्त्रत आकाश में रहता हूँ । किसी भूमि से मेरा कुछ लेना देना ही नहीं है । यदि आप चन्द्रमा । मंगल । बुध आदि किसी भी ग्रह पर हों । तब क्या आपको ऐसा थोङे ही लगेगा कि आप किसी ऊँची छत पर आ गये । और किसी वायुयान की तरह रोमांचक तरीके से सब तरफ़ देख रहे हैं । वो देखो - नीचे प्रथ्वी । उधर - शुक्र । बल्कि आपको ठीक ऐसा ही लगेगा । जैसा प्रथ्वी पर लगता है । क्योंकि उसके आकार के अनुसार आप बहुत छोटे हैं । इसलिये छत की तरह नीचे झांक नहीं सकते । तब इसका मतलब आप आकाश में पहुँच गये । फ़िर भी फ़ीलिंग भूमि की ही रही । जबकि  थोङा नजरिये । थोङा मनोवृति में स्पष्टता बैज्ञानिकता लायें । तो आप इसी क्षण आकाश में ही हैं । और ये कोई बच्चे जैसा खुद को बहलाना भर नहीं होगा । ऐसा सोचते ही आपके अन्दर एक क्रांति घटित होने लगेगी । एक रासायनिक परिवर्तन शुरू हो जायेगा । आकाश आपके अन्दर आने लगेगा । जिसे होते हुये भी आपने सिर्फ़ मान कर रोक रखा है । तव आप खुद में एक व्यापकता महसूस करेंगे । अब बात वही है । जितना विस्तार आप कर सकें । यह आप पर निर्भर होगा । और मैं कोई खास नहीं हूँ । ये सब आपके अन्दर भी है । बस इसको गृहण करना भर होगा । अब क्योंकि आप पिण्ड ( आँखों से नीचे । शरीर ) ही खुद को मानने के बुरी तरह आदी हो गये हैं । इसलिये मृत्यु के समय आपके प्राण पखेरू यहीं रह जाते हैं । क्योंकि जितना जानते होंगे । वहीं तो जायेंगे । तब सबसे पहले दोनों कानों से प्राण निकलने पर - शब्द द्वारा जाने जाने वाले । प्रेत योनि । दोनों आँखों से प्राण निकलने पर - प्रकाश के प्रेमी । कीट पतंगे योनि । नाक के  दोनों छिद्रों से प्राण निकलने पर - वायु ( स्वांस रूपी हवा का आना जाना नाक से होता है ) में विचरने
वाले - पक्षी योनि । यहाँ विशेष ध्यान दें । दोनों का मतलब ये नहीं कि किसी भी मृतक के दोनों आँखों या दोनों कानों या दोनों नाक से निकलेंगे । सिर्फ़ 1 आँख या 1 कान या नाक से निकलेंगे । और इनमें दायें बायें की स्थिति अनुसार ही मृतक जीवात्मा की स्थिति में बहुत परिवर्तन हो जाता है । बायाँ अंग काल क्षेत्र है । दाँया अंग सिद्ध क्षेत्र है ।
मुँह से प्राण निकलने पर - सिर्फ़ भोजन के इच्छुक । पशुवत मनोवृति के कारण - पशु योनि । स्त्री योनि या पुरुष लिंग के मूत्र मार्ग से प्राण निकलने पर - जल प्रवाह अंग - जलचर जीव । और गुदा मार्ग से प्राण निकलने पर - घृणित मल । नारकीय स्थिति - नरक प्राप्त होगा । इस तरह आपके ये 9 द्वार - 2 कान । 2 आँख । 2 नाक छिद्र । 1 मुँह । 1 स्त्री योनि या पुरुष लिंग । 1 गुदा । हो गये । जाहिर है । आपका ये मनुष्य जन्म कहीं नहीं हुआ । पर - जब खुल जाये 10 दसवां द्वारा । तब मिल जाये सिरजन हारा । यानी इन 9 द्वारों पर आपको कोई मिलने वाला नही । सीधे सीधे प्राण निकला । सूक्ष्म शरीर ज्योति मैदान में निराधार अधर में जलती हुयी ज्योति के चारों ओर तेजी से घूमा । वहीं जीवात्मा के अन्तिम परिणाम अनुसार 3-4 शरीर नीचे भूमि पर होंगे । उसी में किसी 1 में वासना अनुसार समा जायेगी । ऐसा होते ही फ़ल अनुसार उस गर्भ में उसका स्थापन हो जायेगा । और ऐसे ही
84 लाख योनियों में साढे 12 लाख साल तक भटकने की यात्रा शुरू हो गयी । मनुष्य शरीर दशम 10 द्वार में हैं । ये झींगुर कीट जैसा निरंतर ध्वनि रूप है । जिसका दोनों भौंहों के मध्य से बृह्माण्डी क्षेत्र के लिये रास्ता जाता है । मगर समस्या ये है कि इस द्वार पर 1 कानून के तहत ताला डाल दिया गया है । क्योंकि फ़िर चालाक किस्म के लोग बिना किसी प्रयास के ही पशुवत जीवन जीने के बाद भी मनुष्य बनते रहते । तब फ़िर कर्म फ़ल का दण्ड निर्धारण बहुत मुश्किल हो जाता । दूसरे आँखों से ऊपर अलौकिक ज्ञान बिज्ञान का दुर्लभ क्षेत्र शुरू हो जाता है । तब कभी कभार या सोते में सुरति उधर चली जाती । और मनुष्य दिव्य राग रंग देखकर मनुष्य जीवन या कर्म से निष्क्रिय उदासीन हो जाता । ऐसे सृष्टि ही खत्म हो जाती । ऐसे कई कारण हैं । जिसके तहत ये व्यवस्था सिर्फ़ दुर्लभ मनुष्य शरीर में पहुँचे हुये गुरु द्वारा अलौकिक ज्ञान से ही प्राप्त होती है । जब कोई कुण्डलिनी का गुरु आपका बृह्माण्डी द्वार खोल देता है । तब की गयी साधना अनुसार आपको देवत्व या समकक्ष स्वर्ग अपवर्ग में अनगिनत छोटी बङी  स्थितियाँ प्राप्त होती हैं । लेकिन जब कोई आत्म ज्ञान का सतगुरु आपको निर्वाणी नाम देकर आपका बृह्माण्डी द्वार और तीसरी आँख 3rd eye खोल देता है । तो अपनी साधना नाम कमाई अनुसार - आपको ज्ञान प्राप्त होने तक निरंतर मनुष्य जन्म । या 1 ही जन्म में मुक्त होकर सचखण्ड के सबसे
छोटे हँस से लेकर बहुत ऊपर परमात्मा में लीन होने तक का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो सकता है ।
अब पशुपति नाथ के संदर्भ में - देखिये काल पुरुष या काल क्षेत्र का जितना भी ज्ञान या प्राप्ति है । यह कर्म फ़ल पर आधारित है । काल का मतलब है । समय भूमि । जैसा आपने बोया । वैसा काटा । आपके पुण्य प्रयास से भूमि जितनी हासिल थी । और सदकर्म से फ़सल जितनी हुयी । उतने ही लम्बे समय तक आप उसका आराम से भोग करेंगे । पर अर्जित कमाई में कोई बढोत्तरी नहीं हो सकती । जैसे ही धन खत्म हुआ  । आपको सीधा 84 में फ़ेंक दिया जायेगा । अभी बरसात के मौसम में देखना । गिजाई । सुन्दर गुलाबी रंग की राम गुजरिया । अनेक बरसाती कीङे । जो आपको वर्ष भर नहीं दिखाई देते । कुछ समय के लिये देखने को मिलेंगे । ये वही लोग हैं । जो दिव्य लोकों । सिद्ध लोकों आदि से समय पूरा होने के बाद फ़ेंक ( पानी के द्वारा उतरे ) दिये गये हैं । ये कुछ दिन जीवित रहकर 84 में 
चले जाते हैं । बाकी कुटिल काल ने अपना खेल बङा चालाकी से फ़ैलाया है । उसने - मन्दिरों । तीर्थों । नदियों । जलाशयों । जङ वृक्षों । पत्थरों । किताबों । भूत प्रेतों तक को बेहद चालाकी से पुजबा दिया । जबकि हासिल कुछ नहीं । बहुराष्ट्रीय फ़ोन आदि कंपनियों जैसा शब्दों का आडम्बर उसके ? धर्म शास्त्रों में भी है । आप पशुपति नाथ उर्फ़ शंकर की बङी से बङी भक्ति क्यों न करो । परिणाम स्वरूप आप - भूत । प्रेत । वैताल । मसान ( महिला हो तो - गौरी शंकर की करने पर ) डाकिनी । शाकिनी । चामुण्डा । कर्ण पिशाचिनी । पंचागुली आदि गण ही बनेगें । लेकिन कुण्डलिनी के द्वैत का अच्छा गुरु मिलने पर आप सीधा शंकर भी बन सकते हैं । और भी विभिन्न कोर्सेज हैं । जो और जैसा आप कर सकें । अतः जन्म पशु योनि में तो नहीं होता । वो भी कब ? जब आप अंतर में किसी तरीके से गहन भक्ति द्वारा शंकर का पशुपति रूप दर्शन कर सकें । लेकिन आपको शंकर के लोक में गण रूप में चाकरी प्राप्त हो जाती है । कुण्डलिनी के द्वैत योग को छोङकर बाकी आप मंत्र योग द्वारा बृह्मा विष्णु शंकर या किसी भी देवी की साधना करें । परिणाम यही होगा । उसी के लोक में छोटे मोटे नौकर टायप हो जाना । हालांकि बेहद कष्टदायक 84 को देखते हुये ये भी काफ़ी अच्छी प्राप्ति हो जाती है । पर जब आप इससे भी कम मेहनत में सिर्फ़ ज्ञान को सही समझने से हमेशा के लिये स्थायी सुख शान्ति और मुक्त ( मुक्ति नहीं ) होना प्राप्त कर सकते हैं । तब कोई पागल ही होगा । जो बिना आँख या नाक या कान या अजीव सी शक्ल वाला भूत प्रेत छाप गण बनना पसन्द करेगा । क्यों सही कह रहा हूँ ना ?
14 मनुष्य शरीर पिंडज खंड से है । जिसमे पिंडज के 4 तत्वों के साथ आकाश तत्व भी है । कहते हैं कि - इसकी संरचना परमात्मा के शरीर जैसी ही है । याने काल पुरुष के शरीर जैसी ? अगर मोक्ष मात्र मनुष्य शरीर में ही संभव है । और काल पुरुष ने सभी योनियाँ जीव को फँसाकर भटकाने के लिए ही बनायीं । तो उसने मनुष्य शरीर को बनाया ही क्यों ?
ANS - आपने कभी डायनासोर देखे हैं ? मूवी में देखे हैं । बैज्ञानिक मानते हैं कि कुछ डायनासोर और अन्य पक्षी पूर्वकाल में ऐसे थे । जो हाथी को भी पंजो में दबाकर उङ जाते थे । कल्पना करिये । ये जीव कैसे होते होंगे ? कुछ लोगों ने इन्हें पौराणिक कथाओं जैसा भेष बदले राक्षस आदि कह दिया है । पर सत्य क्या है ? आखिर ऐसा क्या हो गया । इतनी शक्तिशाली जीव प्रजाति लुप्त हो गयी । और चींटे । कीङे मकौङे जैसे जीव अब भी प्रथ्वी पर मौजूद
हैं । जबकि इनको नष्ट होना चाहिये । उनको बचना चाहिये । दरअसल इसका उत्तर कहीं बाहर नहीं । हमारे अन्दर छिपा है । हमें कोई बनाता बिगाङता नहीं । हम अपने विभिन्न भावों से अपने अन्दर के रसायनों का केमिकल रियेक्शन द्वारा जो नया पदार्थ सृजित करते हैं । अन्तिम परिणाम स्वरूप वही हो जाते हैं । दूध आदि चीजों से देखिये । थोङा बदलाब क्रिया होते ही क्या क्या बन जाता है - दही । छाछ । घी । मक्खन । मलाई । रबङी । छैना । पनीर । खोया । चाय । आइसक्रीम । मेरी गारंटी है । आप सिर्फ़ दूध से ही क्या क्या हो सकता है । इसी को नहीं जान सकते । गौर करिये । जानते हैं क्या ? इसलिये जैसा कि मैंने कल के लेख में बताया । ( द्वैत को मानने और आत्मा को न जानने पर ) ये सब ? हैं भी । फ़िर कोई नहीं है । लेकिन आप हो । और शाश्वत हो । बाकी काल पुरुष । स्वर्ग । नरक । देवी । देवता । भूत प्रेत आदि सब आपकी ही बनाई स्थितियाँ हैं । एक मनुष्य को देखिये । वह क्या क्या नहीं है ? कभी गिन सकते हो । शराबी । जुआरी । चोर । निर्धन आदि तमाम नीच स्थितियाँ । शिक्षक । क्लर्क । बैज्ञानिक । दार्शनिक । धनिक आदि तमाम उच्च स्थितियाँ । लेकिन इनमें ढांचागत मनुष्य 1 जैसा ही है । अंतर है । तो सिर्फ़ आंतरिक इच्छाओं भावों रसायनों का । और फ़िर उनसे हुयी बाह्य क्रिया का । इसलिये वास्तव में ये आत्मा 1 पूर्ण स्वतंत्र इकाई के रूप में विभिन्न खेल खेल रही है । अब जैसे कि 1 कंपनी की कोई छोटी यूनिट अच्छी स्थितियों में अच्छे परिणाम देने पर मध्यम या वृहद इकाई का रूप ले सकती है । जिस कंपनी ने उसको कभी स्थापित किया था । उससे भी बङा रूप होकर सर्वे सर्वा बन सकती है । मुख्य बन सकती है । किसी भी % पर स्तर जा सकता है । और खराब परिणाम में दुर्गति से लेकर अत्यन्त दुर्गति को भी प्राप्त हो सकती हैं । देखिये 1 
इंसान अपनी मेहनत से देश राष्ट्रों का सर्वोच्च व्यक्ति हो जाता है । वही सर्वोच्च व्यक्ति गलती होने पर भयानक जेल या फ़ाँसी के फ़ंदे पर पहुँच जाता है । तो स्थिरता या निरंतर बदलाब कैसा किधर हो रहा है । सब कुछ इसी पर निर्भर है ।
आप देखिये । एक सामान्य आदमी पूरा जीवन जीकर अन्त में मर जाता है । लेकिन उनमें से बहुत से ये नहीं जान पाते कि - वे एक देश सत्ता के । तमाम कानूनी धाराओं के अधीन होकर जिये थे । उन्होंने भी तमाम धनिकों की तरह ही अपनी हैसियत अनुसार ? टेक्स दिये थे । जबकि परोक्ष रूप में कोई सरकारी आदमी कभी उनके सम्पर्क में नहीं आता । और न ही सीधे सीधे उन्हें कोई टेक्स भी देना होता है । जबकि सङक पर चलने का । हवा में सांस लेने तक का टेक्स उसे देना होता है । लेकिन दूसरी स्थितियों में यही आदमी जब कोई पुलिस । मजिस्ट्रेट । न्यायाधीश । मंत्री । महा मंत्री आदि बन जाता है । तब उसके अधीन पद अनुसार व्यवस्था आ जाती है । और वह अपने ऊपर के लोगों के अधीनस्थ होता है । ठीक इसी तरह सही मुक्त होने की कुछ स्थितियों को छोङकर सभी स्थितियों में 1 अटल नियम के अंतर्गत कार्य होता है । और ये नियम सर्व शक्तिमान आत्मा का है । यही आत्मा एक विलक्षण खेल के तरह स्वतंत्र इकाई के रूप में खेलती हुयी अपने ही नियम से संचालित है । और ये सब कुछ वास्तव में ज्ञान स्थिति में ? स्वचालित ढंग से हो रहा है । तो ऊपर के आदमी की तरह ये एकदम स्वतंत्र भी है । और फ़िर पूरी तरह नियम परवश भी । परवश जीव स्ववश भगवंता । जीव अनेक एक श्रीकंता । इसलिये कल के लेख में मैं बता ही चुका हूँ । ये जीव आत्मा यदि जीव भाव से हटकर मन से परे हो जाये । तो यही चेतन पुरुष है । यदि रंरंकार पर रुक जाये । तो यही काल पुरुष है । सत गुण का पूर्ण अधिकारी हो जाये । तो यही विष्णु है ।
प्राचीन समय का मनुष्य बहुत मामलों में शक्तिशाली था । राक्षस आदि शक्तियों से भी उसका वास्ता था । वह मायावी शक्तियों के बारे में सोचा करता था । ऐसी स्थिति अदभुत शक्तिशाली डायनासोर जैसे जीवों का सृजन करती हैं । घूमते काल चक्र के साथ वो समय फ़िर फ़िर आता रहता है । जल्द ही फ़िर सब कुछ नया नये तरह से होने वाला है । तो परमात्मा ( को छोङकर ) से लेकर तुच्छ से तुच्छ जीव तक ये सिस्टम और विराट सृष्टि 1 बार बन चुकी है । अब बस इसी में चढना उतरना स्थिर रहना लगातार होता रहता है । वास्तव में काल पुरुष कोई अत्याचार भी नहीं करता । आप वासनाओं में ना फ़ँसो । और परमात्मा से लौ लगाओ । तो आपको केन्द्रीय नागरिकता हासिल हो जायेगी । आप शरीरी भोगों के इच्छुक हैं । वासनाओं का आकर्षण आपको खींचता है । तो आप काल सत्ता के नागरिक होंगे । लेकिन  योगस्थ पुरुष दोनों जगह समान रूप से रहता है । और उस पर कोई कर्जा नहीं चढता । जैसा कि सामान्य जीव भोग वासना के कर्जे से काल माया का कैदी है ।

15 मई 2012

चेतन तत्व सिर्फ़ 1 ही है

10 क्या सिर्फ सत पुरुष ही चेतन तत्व को प्रकट करते हैं ? क्या उनके द्वारा प्रकट करे गए चेतन तत्व । अगर कोई वस्तु प्रकट करते है । तो वह क्या जड़ होती है ?
ANS - चेतन तत्व सिर्फ़ 1 ही है । इसको ( 1 रूप में ) बिना किसी योग । बिना किसी ज्ञान ध्यान के । बिना किसी दीक्षा के । खुली आँखों से आराम से देखा जा सकता है । चिलचिलाती धूप में उसी के एकदम पास किसी छायादार स्थान में खङे हो जायें । और 7-8 फ़ुट की ऊँचाई में धूप युक्त खाली जगह को कुछ देर अपलक देखें । आपको बिना किसी खास प्रयास के चटक सफ़ेद चमकती चाँदी जैसी एक कीङा जैसी (  ~ ये लेटा हुआ है । वो खङी अवस्था में होगा । ) आकृति निरंतर हिलती लप लप लप लप पी टी सी करती नजर आयेगी । यही चेतन तत्व है । इसकी खासियत है । इसको किसी चीज में मिलाया नहीं जा सकता । इसको पकङा भी नहीं जा सकता । बैज्ञानिकों में ताकत हो । तो मैंने निरन्तर स्वतः ऊर्जा की खोज में लगे बैज्ञानिकों को बहुत
ही बङा रहस्य बता दिया । इसको पकङ कर दिखायें । इसका कोई उपयोग करके दिखायें । ये  हरेक..हरेक चीज से उसी तरह निर्लेप रहता है । जैसे अत्यन्त कीचङ में कमल के पेङ को वह गन्दगी छू भी नहीं सकती । चेतन तत्व कोई वस्तु आदि प्रकट नहीं करता । ये सभी तंत्र बहुत विराट रूप में 1 बार बन चुका है । बस उसी के परस्पर मिलने से अनेक खेल संरचनाये बनती रहती है । जैसे - काला । सफ़ेद । और 3 रंग - लाल । नीला । पीला । इनसे मिलकर लाखों करोङों shades बनते रहते हैं । पर मुख्य ये ही हैं । जैसे 3 कांच के 4 इंच लम्बे टुकङों को त्रिभुज या प्रिज्म के आकार में जोङकर उनके एक सिरे पर टार्च के 2 गोल शीशों के बीच रंगीन चूङियों के टुकङे डालकर जो खिलौना कैलायिडोस्कोप बनाया जाता है । उसको जिन्दगी भर घुमा के देखते रहो । हर बार नई अलंकारिक डिजायन बनती रहेगी । जबकि 3 कांच की आयताकार पट्टिका । 2 गोल कांच । और कुछ रंगीन ( सत । रज । तम ) कांच के टुकङे ही तो हैं । ऐसी ही ये पूरी पागल बनाऊ रामलीला बना दी है । सबको उलझा कर रख दिया है । वो भी खामखाम में । कैसा अदभुत खेल बनाया । मोह माया में जीव फ़ँसाया । और चालाक इतना है । खुद आराम करता रहता है । हमें डयूटी पर लगा दिया है । जब कोई कंपनी खोली । तो ग्राहकों की समस्या के लिये कस्टमर केयर जैसी सुविधा भी चलानी चाहिये । मुझसे फ़ोकट में काम करवाता रहता है । सच कह रहा हूँ । तनखाह के नाम पर 1 पैसा भी नहीं देता । OH MY GOD ! WHERE ARE YOU ?ं
11 अष्टांगी कन्या को परम पुरुष ने ही प्रकट किया है । पर सांख्य में अष्टांगी कन्या को प्रकृति के रूप में जड़ 
कहा गया है । इसका वास्तविक तत्व क्या है ?
ANS - आपका मन ही काल पुरुष है । ये सोहम से बना है । और सोहम जाप की निरंतर रगङ से नष्ट हो जाता है । चेतन में पहला विचार शब्द " हुँ " उठा । फ़िर इसने - सोहम..कहा । यानी जो तू है । सो हम - वही मैं हूँ । ऐसा सोचते ही इसमें - मन । बुद्धि । चित्त । अहम । इन 4 अंगों का बेर की गुठली (  - मन । बुद्धि । चित्त । अहम । 4 गोल छिद्रों के रूप में ) जैसी आकृति का अंतःकरण बन गया । यही 1 स्थूल के बाद 2 सूक्ष्म शरीर है । इंसान की मृत्यु होने के बाद यही आता जाता है । पूरा खेल इसी से होता है । ये मन - 1 काम । 2 क्रोध । 3 लोभ । 4 मोह । 5 मद ( घमण्ड ) । 6 मत्सर ( जलन ) । 7 ज्ञान । 8 वैराग । सिर्फ़ इन 8 भावों द्वारा पूरा खेल खेल रहा है । आप गौर करें । आप कोई भी कार्य करें । इन 8 भावों से बाहर नहीं जायेगा । इन 8 भावों के अतिरिक्त सृष्टि में 9 वां भाव प्रेम का है । यही शाश्वत चेतन धारा है । यह 9 वां भाव सिर्फ़ हँस ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है । अब गौर करें । तो मन - 1 काम । 2 क्रोध । 3 लोभ । 4 मोह । 5 मद ( घमण्ड ) । 6 मत्सर ( जलन ) । 7 ज्ञान । 8 वैराग इन्हीं के द्वारा निरंतर आदिकाल से ( जब तक मुक्त न हो ) भोग विलास में लगा है । यही अष्टांगी कन्या है । अब मुख्य सूत्र बना । चेतन - सोहम मन - 8 भाव अष्टांगी कन्या..? यहाँ तक कहानी बन गयी । अब इसने 3 पुत्र या 3 गुण -  सत ( विष्णु ) रज ( बृह्मा ) तम ( शंकर )  इनको उत्पन्न किया । सृष्टि इन्हीं 3 गुण से क्रियान्वित है । अब फ़िर सूत्र पूरा करते हैं । चेतन - सोहम मन - 8 भाव
ये - मन । बुद्धि । चित्त । अहम के 4 गोल छिद्र जब 1 हो जाते हैं । यही सुरति है ।
अष्टांगी कन्या - 3 गुण -  सत ( विष्णु ) रज ( बृह्मा ) तम ( शंकर ) ये इनका परिवार हो गया । अब इन सबने मिलकर अपने अपने गुण क्षमताओं को मिश्रित कर कल्पना सृष्टि को आकार देना शुरू कर दिया । कहानी बहुत बङी है । और मुख्य मुख्य अंगों को लेकर समझायी गयी हैं । इसलिये फ़िलहाल इतना ही समझें । या समझ लें । तो भी बहुत है ।
अब और समझें । अपने शरीर पर ही गौर करें । ये आपको चेतन लगता है । पर वास्तव में ये पूर्ण रूप से जङ है । इसमें मन भी जङ है । 8 भाव भी जङ हैं । 3 गुण भी जङ हैं । सिर्फ़ 9 वां भाव चेतनधारा । प्रेम । या स्वांस । सिर्फ़ ये जङ नहीं है । यह बिना किसी प्रयत्न के निरंतर आ जा रहा है । यही ( या इसी में ) आप हो । उदाहरण - यदि आप न चाहें । तो शरीर । मन । 8 भाव । 3 गुण । इन सबकी क्या मजाल । जो टस 
से मस भी हो जायें । ये सब मिलकर 1 उंगली तक नहीं हिला सकते । जब तक आपकी ऐसी इच्छा न हो । पर इस मन ( कालपुरुष ) और 8 भाव ( अष्टांगी ) की चालाकी ये है कि इसने आपको धोखे में डाल रखा है कि - आप यही हो । अतः जैसे ही ( मगर अज्ञानवश ) आप इनसे जुङ जाते हो । अब यही जीव है । इन सबसे पहला - जो चेतन है । वही परमात्मा या आत्मा है । यदि आप ( खुद को अलग जान कर ) ठान लो । मैं कुछ भी नहीं करता । देखें । कैसे करवा लेगा ।  तो ये साले सब भीख मांग जायेंगे । मगर मजाल है । जो आपकी पलक भी हिला पाये । ये अनुभूति वास्तविक रूप में तब होगी । जब आप हँस होकर इन सबसे परे 9 वां भाव चेतन धारा । प्रेम । या स्वांस में स्थित हो जायेंगे । इसलिये सांख्य में अष्टांगी कन्या को प्रकृति के रूप में जङ ठीक कहा गया है । ये अति सुन्दर स्त्री रूप भी है । और प्रकृति रूप भी । ये चेतन की चेतना से गतिशील है । तुलसी रामायण में कहा है - सुन रावन बृह्माण्ड निकाया । पाय जासु बल विचरत माया । गंगा । यमुना । तुलसी । प्रथ्वी आदि ये सुन्दर स्त्री रूप में देवी भी हैं । जल । वृक्ष । आकार आदि स्थूल रूप भी हैं । और तत्व रूप भी है । विशेष ध्यान रहे । ये सब मैंने मोटे अन्दाज में समझाने का प्रयत्न किया है । स्टेप बाय स्टेप और बिज्ञान कृम में बात और भी पेचीदा है । बीच में कुछ बातें छूटी हुयी हैं । क्योंकि फ़िर बात बहुत बङी और जटिल हो जायेगी ।
12 काल पुरुष को इस देश का राज्य 17असंख्य चतुर्युगों का मिला है । इसमें से कितना समय निकल गया है ? इसके बाद क्या सभी जीव वापस हंस होकर लौट जायेंगे ?
ANS - किसी महा विद्वान ? ने कहा है - न कोई राम । न कोई रावन्ना । तुलसीदास लिख दियो पोथन्ना । बाबा कबीर ने कहा है - काल काल सब कोय कहे । काल न जाने कोय । जेती मन की कल्पना काल कहावे सोय । माया की सही परिभाषा है - जहाँ मन फ़ँस जाये । वहीं माया है । वास्तव में ये - सृष्टि । प्रलय । महाप्रलय । काल । महाकाल । राम । श्रीकृष्ण । अवतार । राक्षस आदि आदि । ये चेतन की विभिन्न मगर पूर्ण इकाईयों unit ( जीवात्माओं ) में उत्थान पतन up down का निरंतर जारी रहने वाला खेल है । कोई आदमी पैदा हुआ । या गर्भ में आया । ( उसकी ) सृष्टि शुरू हो गयी । ज्यों ज्यों वह विकास करता गया । सृष्टि विकास होता गया । आदि मानव की तरह बच्चा भी नंगा पैदा होता है कि नहीं । कितना भी कहो । कपङे नहीं पहनेगा । ये हुआ आदि मानव । खाना खाते में मुँह बिगाङ लेगा । कपङे सनायेगा । धूल मिट्टी में खेलेगा । है आदि मानव । और भी उसकी  क्रियाओं पर गौर करें । अभी भी सब काम आदि मानव वाले ही करता है ।  फ़िर फ़िर धीरे धीरे उसने सीखना शुरू किया । और फ़िर यहाँ तक के विकास में जितना सफ़र कर ले । जितना सीख ले ? क्योंकि कोई आवश्यक नहीं । आपकों अंगूठा छाप आज भी मिल जायेंगे । इस तरह मृत्यु तक वह सृष्टि सृष्टि खेलता रहता है । तब तक उसके शरीर ( रूपी प्रकृति ) में 33 करोङ देवता उसके आश्रित हुये पोषण पाते हैं । फ़िर मृत्यु हुयी  । प्रलय या महा प्रलय हो गयी । देवता उसी में लीन हो गये । अब गहराई से सोचें । तो प्रत्येक मनुष्य ( जीवात्मा ) के अन्दर ये सृष्टि प्रलय का खेल 1 ही समय में अनगिनत स्तर पर चल रहा है । कोई आज भी आदि मानव युग में है । तो कोई अति विकसित सभ्यता में । कोई बीच में अटका हुआ है ।
तो कोई अधर में लटका हुआ है । जबकि समय 1 ही है । और सभी सामान आँखों के सामने मौजूद है । फ़िर भी जीवन में बहुत अन्तर है । आप जो कल्पनाओं से नित नये चित्र आकार बनाते हो । यही सृष्टि है । उन्हें नष्ट कर देते हो । यही प्रलय है । देखने की इच्छा होते ही संसार प्रकट ( सिनेमा ) मूँद हु आँख कित हू क्छु नाहीं ( खाली परदा ) इसलिये ये विभिन्न कथायें सत्य आभासित होते हुये भी रूपक मात्र है । और द्वैत में सत्य भी हैं । अविनाशी जीव ( आत्मा ) कभी कौआ हुआ ही नहीं । जो हँस होगा । सिर्फ़ मानने से ऐसा लग रहा है । इसलिये ज्ञान स्थिति में संसार भृम भी है । और अज्ञान स्थिति में पूर्ण सत्य भी है । ( ज्ञान होने पर ) जीव अविनाशी भी है । और अज्ञान स्थिति में जन्म मरण 
धर्मा भी । जो शाश्वत सत्य हो । वो सिर्फ़ तुम हो - तेरी अजर बनी अवनौती । इसमें बिगङा बनी न होती । इसलिये अगले 1000 साल छोङो । सिर्फ़ 150 साल आगे की बात करूँ । तो उस वक्त वो बच्चा भी जीवित नहीं बचेगा । जो अब से 20 साल बाद पैदा होगा । काल ( समय ) है भी । और फ़िर कुछ नहीं है । ये बङा विलक्षण खेल है । जो योग की सूक्ष्मता हासिल करके जाना जा सकता है । सिर्फ़ बातों का कोई लाभ नहीं होना ।
इसके साथ साथ इस गहन सूत्र को अति गहराई से बार बार समझें ।
ॐ पुर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।
ॐ - सच्चिदानन्द घन । अद: - वह पर बृह्म । पूर्णम - पूर्ण है । इदम - यह ( जगत ) पूर्णम - पूर्ण ( ही ) है । पूर्णात - उस पूर्ण से ( पर बृह्म ) से ही । पूर्णम - यह पूर्ण । उदच्चते - उत्पन्न हुआ है । पूर्णस्य - पूर्ण के । पूर्णम - पूर्ण कोरा । आदाय - निकालने पर ( भी ) पूर्णम - पूर्ण । एव - ही । अवशिष्यते - शेष ( बच ) रहता है ।
वह सच्चिदानन्द घन पर बृह्म पुरुषोत्तम सब प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है । यह जगत उस पर बृह्म से ही पूर्ण है । क्योकि यह पूर्ण । उस पूर्ण से ही उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार पर बृह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण ह । उसी पूर्ण पर बृह्म में जगत समाहित हो जाने पर भी । वह पू्र्ण ही रहता है ।
और शास्त्रों से कुछ बातें -
आत्मानि प्रतिकुलानि....न समाचरेत - जो वर्ताव । बात । विचार । व्यवहार अपने लिए उचित या हितकारी या रुचिकर नही है । वह दूसरों के साथ कदापि नही करने से । सतसंग होता है । जो सर्वांगीण विकास में हेतु है । जिससे शान्ति और सदभाव उत्पन्न होगा । शान्ति से योग । योग से सामर्थता । और सदभाव से प्रसन्नता । जिससे निष्कामता होकर नि:संकल्पता स्वत: आयेगी । और स्वरूप में स्थिति हो जायेगी । स्वरुप मे अविचल स्थित रहने पर अमरत्व का बोध होगा । जो कि जीवन मुक्ति है । अर्थात वास्तविक जीवन है । जिसकी प्राप्ति ही सभी मनुष्यों का लक्ष्य है । जो कि संभव है । साधन करने पर । अर्थात आचरण ही सच्चा साधन है । 


सत्संग्त्वे निहसंग्त्वं । निहसंगत्वे निर्मोहत्वं । निर्मोहत्वे निश्चल तत्वं । निश्चल्तत्वे जीवन मुक्ति: ।
जो ( शरीर संसार )अपना नही है । उसे अपना स्वीकार न करना सतसंग है । और जो ( प्रभु ) अपना है । उसे अपना स्वीकार करना भी सतसंग है ।
सतसंग से व्यक्ति । वस्तु । अवस्था । परिस्थिति में आकर्षण न रहना - यह असंगता ( नि:संगता ) है । इससे कृमश: निर्मोहत्व ( निर्ममता ) और निश्चलता 
की प्राप्ति होती है । जो जीवन मुक्ति ( अमरत्व ) का बोध है । सतसंग का फ़ल युगपत होता है । अर्थात वर्तमान में ही होता है । इसलिये स्वयं साधन काल मे परखते रहना चाहिए कि - शरीर और संसार से असंगता का अनुभव हो रहा है । या नही ?
-  " है " का संग ही वास्तविक सतसंग है । " करने " में सावधान । " होने " मे प्रसन्न रहने पर । " है " की प्रीति स्वत: प्राप्त होती है । तभी नव जीवन की सफ़लता पुर्ण होती है । यही वास्तविक " जीवन " है । जो सभी जीव मात्र की मांग है ।

क्या राम और कृष्ण ने भी गुरु दीक्षा ली थी

1 सतगुरु । परमात्मा ( काल पुरुष ) और परम पुरुष । इनकी प्राप्ति में पुरुषार्थ की क्या भूमिका है ?
ANS - पहले तो ये बात एकदम उलटी या विपरीत सी हो जाती है । आप इनको प्राप्त नहीं करते । बल्कि खुद इनको प्राप्त होते हो । क्योंकि सूक्ष्मता के स्तर पर बात कही जाये । तो इनको प्राप्त करने वाला इनका स्वामी हुआ । फ़िर अगर कई लोगों ने इनको प्राप्त किया । तो परमात्मा या अन्य बङी शक्तियाँ कई हो गयीं ना । फ़िर किसी 1 को प्राप्त हुआ । तो वो किसी दूसरे को क्यों देने लगा । ऐसे बङा झगङा खङा हो जायेगा । दरअसल 1 अति तुच्छ जीव से लेकर सर्व शक्तिमान परमात्मा तक सभी । चेतन की अनगिनत स्थितियाँ उपाधियाँ हैं । केवल अन्तिम यानी आत्मा या परमात्मा ही सब स्थितियों और उपाधियों से रहित है । क्योंकि वो कोई स्थिति नहीं । वो तो सदा से - है । है । आप जिस स्थिति को योग द्वारा जानने लगते हो । उस पर नियंत्रण करना जान जाते हो । वही हो जाते हो । ये सिर्फ़ योग में ही नहीं । चेतन या जीवन की हर गतिविधि में यही बात लागू होती है । जैसे तैरना या ड्राइविंग । तैरना आ जाने पर आपको तैराक । और ड्राइंविंग आ जाने पर ड्राइवर की उपाधि स्वतः मिल जाती है । पर ये सिद्धांत द्वैत योग में लागू होता है । आत्म ज्ञान वास्तव में लय योग है । इसमें आत्मा का सभी ज्ञान और स्थितियाँ उपाधियाँ स्वतः समायी  हुयी हैं । इसमें एक तरह से योग के बजाय वियोग करना होता है । यानी सब तरफ़ के जुङाव से ध्यान हटाकर आत्म स्थिति में अधिकाधिक केन्द्रित होना 
। इस वियोग में कभी उत्पन्न हुआ द्वैत जितना % आपके अन्दर से खत्म होता जाता है । उतना ही आप परमात्मा के निकट । या सीधे सीधे कहिये । स्वयं परमात्मा होते जाते हैं । बाकी संक्षेप में एक अन्य कोण से पुरुषार्थ को मान कर भी चला जा सकता है । जब ये जीव आत्मा ( हँस दीक्षा मिलने के बाद ) हँस हो जाती हैं । अभी ये ( बिना दीक्षा के ) काग ( कौआ वृति ) है । क्योंकि विषय वासना रूपी ट्टटी खाती है । इस आत्मा रूपी हँस के 1 भक्ति ( या समर्पण ) । 2 ज्ञान । 3  वैराग । ये 3 पंख है । ये तीनों पंख स्वस्थ होने पर ही ऊर्ध्व ( ऊपर ) की ठीक यात्रा संभव हो पाती हैं । बाकी आप कोई पुरुषार्थ करते रहिये । कुछ काम न आयेगा । दरअसल इन 3 अंगों में ही बहुत कुछ समाया हुआ है ।
2 संत मत में श्रीमद भगवद गीता का महत्व क्या है ?
ANS - सन्त मत हो । या कोई अन्य पंथ । एक दृष्टिकोण से हर चीज का अपना महत्व है । क्योंकि कब किसको कहाँ से क्या प्राप्त हो जाय । कुछ कहा नहीं जा सकता । लेकिन गीता ज्ञान के आधार पर बात कही जाये । तो गीता धर्म शास्त्रों का निचोङ है । कहानियों के रूप में वर्णित धर्म शास्त्र सामान्य बुद्धि के लोगों की धर्म में जिज्ञासा बनाये रखने का काम करते हैं । जैसे छोटे बच्चे को रोचक चित्र या कहानी कविता के माध्यम से बात समझायी जाती है । लेकिन उस पाठ का सार 1 वाक्य के उपदेश या सूत्र के रूप में हो सकता है । इसलिये तमाम कथा वात्रा से उकता 
कर इंसान जब परिपक्व  होकर 1 स्थान पर सार को जानना चाहता  है । वह गीता है । लेकिन दरअसल गीता का जहाँ पूरा ज्ञान अपने शिखर पर खत्म होता है । सन्त मत की A B C D ही वहाँ से शुरू होती है । अपनी बात खत्म करके गीता ( उस ) समय के किसी तत्व वेत्ता या सदगुरु के पास जाने की सलाह देकर हाथ जोङ लेती है । इससे यही संकेत निकलता है । ज्ञान प्राप्ति या आत्म प्रयोग तत्व वेत्ता के बिना संभव ही नहीं ।
3 राम और कृष्ण ने काल पुरुष अवतार होने पर भी गुरु बनाये । ऐसा क्यों ? ( यहाँ कबीर का नाम मैंने अपनी तरफ़ से जोङा - जिसके द्वारा उत्तर दिये गये )
ANS - सम्पूर्ण या कहिये अखिल सृष्टि परमात्मा के नियम ( आदेश ) द्वारा संचालित है । इसका उलंघन करने की शक्ति किसी में नहीं है । विराट में राम श्रीकृष्ण या काल पुरुष की हैसियत 1 तिनका से अधिक नहीं है । ये हैसियत भी उसी परमात्मा की ही दात है । इसीलिये उसी आदेश परम्परा का निर्वहन करने के लिये राम ( के बृह्मा पुत्र - वशिष्ठ ) कृष्ण ( के 
आध्यात्मिक गुरु - दुर्वासा ) ने गुरु बनाये । राम कृष्ण से कौन बढ ( त्रिलोकी में ) तिन हू ने गुरु कीन । तीन लोक के ये धनी । गुरु आज्ञा आधीन । गुरु गृह पढन गये ( राम ) रघुराई । अल्प काल विध्या सब पायी । कबीर ने भी इसी नियम का सम्मान करते हुये रामानन्द को गुरु बनाया । अन्यथा वास्तविक कहानी कुछ अलग ही है । श्रीकृष्ण भी कहते हैं - लोग मेरा अनुसरण करते हैं । इसलिये मैं कर्म करता हूँ । वरना मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है ।
4 राम का वशिष्ठ जी को गुरु बनाना ( जिन्हें त्रेता युग में कबीर जी के द्वारा नामदान मिला था ) क्या वशिष्ठ जी ने राम को भी नाम दान दिया था ?
ANS - आप ( आम इंसान या विद्वान आदि ) जिस आध्यात्म से परिचित हैं । वह स्थूल ज्ञान है । मन आदि इन्द्रियों द्वारा जाना गया । गो गोचर जहाँ लगि मन जाई । सो सब माया जानो भाई । जबकि - आंतरिक । सूक्ष्म । अति सूक्ष्म । ज्ञान बहुत अलग है । बल्कि एकदम अलग कहो । तो ज्यादा ठीक है । अवतार आधा और अंश रूप में होता हैं । अतः राम सिर्फ़ 1 पुतला मात्र है । जिसे काल पुरुष । विष्णु । शंकर आदि अपने अपने चेतना अंश देकर सक्रिय करते हैं । दरअसल यहाँ बहुत ही जटिल और सूक्ष्म बिज्ञान आ जाता है । जिसको सिर्फ़ इसी स्तर के उच्च योगी ही ठीक समझ सकते हैं । खैर..फ़िर भी राम के इस कृतिम शरीर ? को  नाम शक्ति से हँस दीक्षा द्वारा ( गुरु दीक्षा ) जोङा गया । अतः स्थूल रूप से राम हँस योगी थे । 1 पत्नी वृत । 12 कलाओं का ज्ञान । मर्यादा पुरुष । वचन पर दृढ रहना आदि इनकी खास विशेषतायें थी । रघुकुल रीत सदा चलि आयी । प्राण जाये पर वचन न जायी । इसी प्रश्न का विस्तार
अगले उत्तर में भी...
5 क्या कृष्ण अवतार में भी काल पुरुष ने गुरु से नाम दान या कोई अन्य संत मत की दीक्षा ली थी ?
ANS - जबकि श्रीकृष्ण परमहँस ज्ञानी ( मगर गुरु अनुसार - 7 चक्रों के ) थे । इनके गुरु दुर्वासा थे । इनकी परमहँस दीक्षा हुयी थी । भले ही ये राम की ही आगे की कङी थे । पर यहाँ मामला बहुत अलग और विपरीत था । इनके लिये अपने ही वचन का कोई महत्व नहीं था । जबकि वास्तविक सत्य ये था कि - ये कभी झूठ नहीं बोलते थे । इनकी 8 प्रमुख पत्नियाँ । और 16100 अन्य थी । जबकि वास्तविक सत्य ये था कि - ये पूर्ण बृह्मचारी थे । इनका 16 कलाओं का ज्ञान था । और ये योगेश्वर हैं । किसी भी मर्यादा का इनके लिये कोई मतलब ही न था । जबकि वास्तविक सत्य ये था कि - इनकी तुलना में राम की मर्यादा मामूली ही थी । अब बताईये । उपरोक्त विवरण एकदम 100% सत्य है । पर कैसे ? ये समझाना बेहद कठिन है ।
6 आपके ही ब्लॉग पर शायद कहीं पर पढ़ा था - काल पुरुष बुरा भी है । और अच्छा भी है । यह बात क्या आत्माओं के वापस सतलोक जाने के सन्दर्भ में भी सत्य है ?
ANS - हँस दीक्षा मिलने के बाद मन की मलिन वासनायें धीरे धीरे नाम जप अभ्यास अनुसार शुद्ध होने लगती हैं । एक अच्छी स्थिति या उच्चता आ जाने पर इसके सभी अवगुण ठीक विपरीत शुभ गुणों में परिवर्तित हो जाते हैं । ये पिंडी मन से बृह्माण्डी मन होता हुआ कृमशः शुद्धता पवित्रता को प्राप्त होता जाता है । और फ़िर सहायक भी हो जाता है । लेकिन ध्यान रहे । इसकी सभी चाल 
साधक के विवेक पर निर्भर है । क्योंकि वास्तव में ये जङ है । और चेतन ( यहाँ जीव ) के बिना इसकी कोई औकात नहीं । अतः सतलोक जाने में सहायता भी  करता है ।  और आपका रुख थोङा भी बदलने पर बहुत ऊँचाई से गिरा भी सकता है ।
7 जब सत पुरुष ने आद्यशक्ति के द्वारा काल पुरुष की सृष्टि में जीव भेजे । तो असल में उन्होंने क्या भेजा ? क्या तब जीव हंस थे ? या मात्र उनकी सुरती को ही काल पुरुष की सृष्टि से जोड़ा ?
ANS - ये प्रश्न एक अत्यन्त जटिल अलौकिक सूक्ष्म बिज्ञान के क्षेत्र में चला जाता है । जो समझाने के बाबजूद ठीक समझ में आ जाये । मुझे बहुत मुश्किल लगता है । सत पुरुष ने "  सोहंग " जीव वीज भेजा । तब ये बीज था । जीव नहीं । ये " हुँ " से चेतना लेकर र्र्र्र्र्र्र्र रंकार से रमता ( गति या एक्टिव । चेतना का रूपान्तरण ) हुआ सो-हं द्वारा अंकुरित होने लगता है । ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ये  उलटकर हं-सो हो जाता है । दरअसल द्वैत के अनुसार उत्तर देना । और अद्वैत के अनुसार उत्तर देना । दोनों में बहुत फ़र्क और विरोधाभास सा लगेगा । जबकि प्रश्न 1 ही होगा । और उत्तर भी 1 ही होगा । द्वैत में इन सब काल पुरुष अष्टांगी आदि की सत्ता है । अद्वैत में कोई है ही नहीं । वही एक परमात्मा लगातार सृष्टि खेल खेल रहा है । और एकदम
शान्त खेल से निर्लिप्त अलग भी है । अपनी मढी में आप में खेलूँ । खेलूँ खेल स्वेच्छा ।
8 परम पुरुष ने कितने जीव भेजे ? सभी ( अर्थात कोई सीमित संख्या ) ? अनन्त ? या ऐसा लगातार हो रहा है ?
ANS - ये प्रश्न और भी अधिक जटिलता लिये है । जैसे किसी 1 पेङ का बीज हो । कुछ ही समय में वो हजारों लाखों बीजों को पैदा कर देता है । फ़िर वे हजारों लाखों पेङ होने पर कितने बीज उत्पन्न करेंगे । कल्पना भी मुश्किल है । और वे सभी स्थूल रूप से नष्ट होते भी नजर आते हैं । लेकिन सूक्ष्म स्तर पर नष्ट नहीं होते । जैसे 1 सही सलामत बीज है । अभी कारगर है । लेकिन इसको पीस दो । अब ये उग नहीं सकता । जबकि पदार्थ तो वही है । सरंचना बदल गयी । लेकिन क्या ये नष्ट हो गया ? नहीं । बिखर गया । कभी फ़िर घनीभूत हो जाने पर ये उगने की स्थिति में आ जायेगा । इसी प्रकार समुद्र के पानी का गर्मी द्वारा भाप आदि में रूपांतरित होकर बूंद । बादल । बर्फ़ । और बूँदों के कई स्तर पर संयुक्त होने से गढ्ढों में भरा जल । तालाब । झील । नदी ।
नहरें आदि का रूप ले लेता है । ये सब समुद्र के ही रूपांतरित रूप हैं । जो समय स्थिति अनुसार बार बार बनते बिगङते रहते हैं । यही " मैं " के अज्ञान रूप में जीव है । और " तू " के ज्ञान रूप में आत्मा होने लगता है । बूँद से सागर तक । अब इसी पर निर्भर है । क्या होने तक जा सके ।
9 सतपुरुष के द्वारा प्रकट किये गये प्रत्येक तत्व चेतन हैं ? अगर ऐसा है । तो जड़ क्या है ? क्या जड़ तत्व भृम मात्र है ?
ANS - अखिल सृष्टि में सिर्फ़ आत्मा में ही चेतन गुण है । ध्यान रहे । आत्मा अचल है । चेतनता या गति सिर्फ़ आत्मा से है । मगर स्वयं आत्मा में नहीं । इसके अलावा सभी तत्व । प्रकृति । सृष्टि आदि सब कुछ । जो भी है । जहाँ भी है । जङ है । जैसे अग्नि वायु जल आदि ये सभी तत्व जङ हैं ।  इनकी सक्रियता या 
गुण । जैसे आग में दाहकता । चेतन गुण से ही है । द्वैत में हर चीज सत्य है । अद्वैत ( की पूर्ण स्थिति ) में हर चीज भृम है । सिर्फ़ उसी 1 के अतिरिक्त । और वो स्वयं सत्य - है । है ॥ है ॥
शेष उत्तर अगले लेखों में । साहेब ।
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क्या आप जानते हैं - प्रापर्टी डीलिंग या किसी भी प्रकार की जमीन की खरीद फ़रोख्त व्यवसाय के रूप में करना महा पाप है । और इसके परिणाम सुनकर आप थर थर कांप जाओगे । इस पर विस्तार से बात फ़िर कभी ।
क्या आप जानते हैं - बृह्म ज्ञान बेचना महा पाप है । वशिष्ठ ने राम से कहा - प्रभो ! पुरोहिती अत्यन्त नीच कर्म है । लेकिन मेरे पिता बृह्मा ने कहा । त्रेता में सूर्य कुल में स्वयं बृह्म का अवतार होगा । इसलिये तुम्हारे लिये सूर्य वंश की पुरोहिती लाभदायक होगी । पर वह वशिष्ठ और अन्य स्थिति की बात थी । ध्यान रहे । वशिष्ठ इसका उपयोग व्यवसाय की तरह नहीं करते थे । फ़िर भी उन्होंने इसको नीच कहा । सभी शास्त्र इस बात पर एकमत है कि - वेद ज्ञान आदि बेचना महा पाप है । इसका अर्थ है । व्यवसायिक रूप से इस बृह्म ज्ञान का किसी भी रूप में उपयोग करना । जबकि आज सभी मर्यादायें लांघ कर तमाम - पुरोहित । कथा वाचक । भागवताचार्य आदि लगभग बेशर्मी से यही कर रहे हैं । बङिया मेकअप । महंगे वस्त्र । महंगी साज सज्जा का सैट । उसके टेलीकास्ट आदि बङिया तामझाम और अति महंगी फ़ीस में अलग अलग बहुरूप धरे ये ऐसा लगता है । साक्षात अभी अभी भगवान से सीधा मिलकर आ रहे हों - मेरा कन्हैया । मेरा बांके बिहारी ।
 मेरे राम । मेरे भोले आदि आदि ये इस प्रकार भाव विभोर होकर कहते हैं । जैसे भक्ति में बेहद उच्चता को प्राप्त हो चुके हों । और मात्र इनकी कथा सुनने से आपका मोक्ष हो जायेगा । पर जिस शास्त्र से ये बात कह रहे हैं । वही शास्त्र स्पष्ट कह रहा है । मरने के बाद - कन्हैया और स्वर्ग छोङों । खुद ये दीर्घकाल के लिये महा नरक रूपी दण्ड के भागी होंगे । और अपराध बस इतना ही कि - इन्होने अलौकिक दिव्य ज्ञान को व्यवसाय बनाया । उसमें सादगी के बजाय बहुरूपिया पन दिखाया । और जीवों को सफ़ेद झूठ बोलकर भरमाया ।  सोचिये  जब इन्हीं की ये हालत होगी । तो इनके पीछे चलने वालों की क्या होगी ?
हाँ ! यही व्यवसाय के बजाय । ये परमार्थ भावना से हरि गुण गान करते । तो ये अच्छा पुण्य । और अच्छे पुण्य फ़ल देता । इनको धन तब भी लोग देते । पर वह जरूरत के अनुसार लिया जाता । और इनका जीवन और शिक्षा और व्यवहार आचरण आडम्बर रहित होता ।
Guru ji pranam ! mein jaldi se jaldi apni kundlini jaagran karna chahta hun. Aap mujhe batayen anulom vilom karne ki sahi vidhi kya hai ? Or kundlini jaagran ke liye kya karna chahiye ? एक जिज्ञासु । मेल से ।
आप अपने स्तर पर कुण्डलिनी कभी जागृत नहीं कर सकते
। ये समर्थ गुरु के सानिंध्य में ही संभव है । हठ योग करने पर मृत्यु या गम्भीर पागलपन की स्थिति भी बन सकती है । इसके कई तरीके हैं । कई मंत्र हैं । कई स्तर के गुरु हो सकते हैं ।
आप फ़िरोजाबाद ( उ. प्र. ) के पास कौरारी स्थित हमारे आश्रम पर आ जाईये । 2 दिन में कुण्डलिनी सहजता से जागृत हो जायेगी । फ़िर बस आपको साधना ही करनी शेष होगी । लेकिन आने से पहले श्री महाराज जी से 0 96398 92934 नम्बर पर बात अवश्य कर लें । अन्य शंका समाधान भी फ़ोन पर जानें । व्यक्तिगत रूप से उत्तर देना संभव नहीं ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326