ANS - चेतन तत्व सिर्फ़ 1 ही है । इसको ( 1 रूप में ) बिना किसी योग । बिना किसी ज्ञान ध्यान के । बिना किसी दीक्षा के । खुली आँखों से आराम से देखा जा सकता है । चिलचिलाती धूप में उसी के एकदम पास किसी छायादार स्थान में खङे हो जायें । और 7-8 फ़ुट की ऊँचाई में धूप युक्त खाली जगह को कुछ देर अपलक देखें । आपको बिना किसी खास प्रयास के चटक सफ़ेद चमकती चाँदी जैसी एक कीङा जैसी ( ~ ये लेटा हुआ है । वो खङी अवस्था में होगा । ) आकृति निरंतर हिलती लप लप लप लप पी टी सी करती नजर आयेगी । यही चेतन तत्व है । इसकी खासियत है । इसको किसी चीज में मिलाया नहीं जा सकता । इसको पकङा भी नहीं जा सकता । बैज्ञानिकों में ताकत हो । तो मैंने निरन्तर स्वतः ऊर्जा की खोज में लगे बैज्ञानिकों को बहुत
11 अष्टांगी कन्या को परम पुरुष ने ही प्रकट किया है । पर सांख्य में अष्टांगी कन्या को प्रकृति के रूप में जड़
ANS - आपका मन ही काल पुरुष है । ये सोहम से बना है । और सोहम जाप की निरंतर रगङ से नष्ट हो जाता है । चेतन में पहला विचार शब्द " हुँ " उठा । फ़िर इसने - सोहम..कहा । यानी जो तू है । सो हम - वही मैं हूँ । ऐसा सोचते ही इसमें - मन । बुद्धि । चित्त । अहम । इन 4 अंगों का बेर की गुठली ( - मन । बुद्धि । चित्त । अहम । 4 गोल छिद्रों के रूप में ) जैसी आकृति का अंतःकरण बन गया । यही 1 स्थूल के बाद 2 सूक्ष्म शरीर है । इंसान की मृत्यु होने के बाद यही आता जाता है । पूरा खेल इसी से होता है । ये मन - 1 काम । 2 क्रोध । 3 लोभ । 4 मोह । 5 मद ( घमण्ड ) । 6 मत्सर ( जलन ) । 7 ज्ञान । 8 वैराग । सिर्फ़ इन 8 भावों द्वारा पूरा खेल खेल रहा है । आप गौर करें । आप कोई भी कार्य करें । इन 8 भावों से बाहर नहीं जायेगा । इन 8 भावों के अतिरिक्त सृष्टि में 9 वां भाव प्रेम का है । यही शाश्वत चेतन धारा है । यह 9 वां भाव सिर्फ़ हँस ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है । अब गौर करें । तो मन - 1 काम । 2 क्रोध । 3 लोभ । 4 मोह । 5 मद ( घमण्ड ) । 6 मत्सर ( जलन ) । 7 ज्ञान । 8 वैराग इन्हीं के द्वारा निरंतर आदिकाल से ( जब तक मुक्त न हो ) भोग विलास में लगा है । यही अष्टांगी कन्या है । अब मुख्य सूत्र बना । चेतन - सोहम मन - 8 भाव अष्टांगी कन्या..? यहाँ तक कहानी बन गयी । अब इसने 3 पुत्र या 3 गुण - सत ( विष्णु ) रज ( बृह्मा ) तम ( शंकर ) इनको उत्पन्न किया । सृष्टि इन्हीं 3 गुण से क्रियान्वित है । अब फ़िर सूत्र पूरा करते हैं । चेतन - सोहम मन - 8 भाव
ये - मन । बुद्धि । चित्त । अहम के 4 गोल छिद्र जब 1 हो जाते हैं । यही सुरति है ।
अब और समझें । अपने शरीर पर ही गौर करें । ये आपको चेतन लगता है । पर वास्तव में ये पूर्ण रूप से जङ है । इसमें मन भी जङ है । 8 भाव भी जङ हैं । 3 गुण भी जङ हैं । सिर्फ़ 9 वां भाव चेतनधारा । प्रेम । या स्वांस । सिर्फ़ ये जङ नहीं है । यह बिना किसी प्रयत्न के निरंतर आ जा रहा है । यही ( या इसी में ) आप हो । उदाहरण - यदि आप न चाहें । तो शरीर । मन । 8 भाव । 3 गुण । इन सबकी क्या मजाल । जो टस
12 काल पुरुष को इस देश का राज्य 17असंख्य चतुर्युगों का मिला है । इसमें से कितना समय निकल गया है ? इसके बाद क्या सभी जीव वापस हंस होकर लौट जायेंगे ?
ANS - किसी महा विद्वान ? ने कहा है - न कोई राम । न कोई रावन्ना । तुलसीदास लिख दियो पोथन्ना । बाबा कबीर ने कहा है - काल काल सब कोय कहे । काल न जाने कोय । जेती मन की कल्पना काल कहावे सोय । माया की सही परिभाषा है - जहाँ मन फ़ँस जाये । वहीं माया है । वास्तव में ये - सृष्टि । प्रलय । महाप्रलय । काल । महाकाल । राम । श्रीकृष्ण । अवतार । राक्षस आदि आदि । ये चेतन की विभिन्न मगर पूर्ण इकाईयों unit ( जीवात्माओं ) में उत्थान पतन up down का निरंतर जारी रहने वाला खेल है । कोई आदमी पैदा हुआ । या गर्भ में आया । ( उसकी ) सृष्टि शुरू हो गयी । ज्यों ज्यों वह विकास करता गया । सृष्टि विकास होता गया । आदि मानव की तरह बच्चा भी नंगा पैदा होता है कि नहीं । कितना भी कहो । कपङे नहीं पहनेगा । ये हुआ आदि मानव । खाना खाते में मुँह बिगाङ लेगा । कपङे सनायेगा । धूल मिट्टी में खेलेगा । है आदि मानव । और भी उसकी क्रियाओं पर गौर करें । अभी भी सब काम आदि मानव वाले ही करता है । फ़िर फ़िर धीरे धीरे उसने सीखना शुरू किया । और फ़िर यहाँ तक के विकास में जितना सफ़र कर ले । जितना सीख ले ? क्योंकि कोई आवश्यक नहीं । आपकों अंगूठा छाप आज भी मिल जायेंगे । इस तरह मृत्यु तक वह सृष्टि सृष्टि खेलता रहता है । तब तक उसके शरीर ( रूपी प्रकृति ) में 33 करोङ देवता उसके आश्रित हुये पोषण पाते हैं । फ़िर मृत्यु हुयी । प्रलय या महा प्रलय हो गयी । देवता उसी में लीन हो गये । अब गहराई से सोचें । तो प्रत्येक मनुष्य ( जीवात्मा ) के अन्दर ये सृष्टि प्रलय का खेल 1 ही समय में अनगिनत स्तर पर चल रहा है । कोई आज भी आदि मानव युग में है । तो कोई अति विकसित सभ्यता में । कोई बीच में अटका हुआ है ।
तो कोई अधर में लटका हुआ है । जबकि समय 1 ही है । और सभी सामान आँखों के सामने मौजूद है । फ़िर भी जीवन में बहुत अन्तर है । आप जो कल्पनाओं से नित नये चित्र आकार बनाते हो । यही सृष्टि है । उन्हें नष्ट कर देते हो । यही प्रलय है । देखने की इच्छा होते ही संसार प्रकट ( सिनेमा ) मूँद हु आँख कित हू क्छु नाहीं ( खाली परदा ) इसलिये ये विभिन्न कथायें सत्य आभासित होते हुये भी रूपक मात्र है । और द्वैत में सत्य भी हैं । अविनाशी जीव ( आत्मा ) कभी कौआ हुआ ही नहीं । जो हँस होगा । सिर्फ़ मानने से ऐसा लग रहा है । इसलिये ज्ञान स्थिति में संसार भृम भी है । और अज्ञान स्थिति में पूर्ण सत्य भी है । ( ज्ञान होने पर ) जीव अविनाशी भी है । और अज्ञान स्थिति में जन्म मरण
इसके साथ साथ इस गहन सूत्र को अति गहराई से बार बार समझें ।
ॐ पुर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।
ॐ - सच्चिदानन्द घन । अद: - वह पर बृह्म । पूर्णम - पूर्ण है । इदम - यह ( जगत ) पूर्णम - पूर्ण ( ही ) है । पूर्णात - उस पूर्ण से ( पर बृह्म ) से ही । पूर्णम - यह पूर्ण । उदच्चते - उत्पन्न हुआ है । पूर्णस्य - पूर्ण के । पूर्णम - पूर्ण कोरा । आदाय - निकालने पर ( भी ) पूर्णम - पूर्ण । एव - ही । अवशिष्यते - शेष ( बच ) रहता है ।
वह सच्चिदानन्द घन पर बृह्म पुरुषोत्तम सब प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है । यह जगत उस पर बृह्म से ही पूर्ण है । क्योकि यह पूर्ण । उस पूर्ण से ही उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार पर बृह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण ह । उसी पूर्ण पर बृह्म में जगत समाहित हो जाने पर भी । वह पू्र्ण ही रहता है ।
आत्मानि प्रतिकुलानि....न समाचरेत - जो वर्ताव । बात । विचार । व्यवहार अपने लिए उचित या हितकारी या रुचिकर नही है । वह दूसरों के साथ कदापि नही करने से । सतसंग होता है । जो सर्वांगीण विकास में हेतु है । जिससे शान्ति और सदभाव उत्पन्न होगा । शान्ति से योग । योग से सामर्थता । और सदभाव से प्रसन्नता । जिससे निष्कामता होकर नि:संकल्पता स्वत: आयेगी । और स्वरूप में स्थिति हो जायेगी । स्वरुप मे अविचल स्थित रहने पर अमरत्व का बोध होगा । जो कि जीवन मुक्ति है । अर्थात वास्तविक जीवन है । जिसकी प्राप्ति ही सभी मनुष्यों का लक्ष्य है । जो कि संभव है । साधन करने पर । अर्थात आचरण ही सच्चा साधन है ।
सत्संग्त्वे निहसंग्त्वं । निहसंगत्वे निर्मोहत्वं । निर्मोहत्वे निश्चल तत्वं । निश्चल्तत्वे जीवन मुक्ति: ।
जो ( शरीर संसार )अपना नही है । उसे अपना स्वीकार न करना सतसंग है । और जो ( प्रभु ) अपना है । उसे अपना स्वीकार करना भी सतसंग है ।
सतसंग से व्यक्ति । वस्तु । अवस्था । परिस्थिति में आकर्षण न रहना - यह असंगता ( नि:संगता ) है । इससे कृमश: निर्मोहत्व ( निर्ममता ) और निश्चलता
- " है " का संग ही वास्तविक सतसंग है । " करने " में सावधान । " होने " मे प्रसन्न रहने पर । " है " की प्रीति स्वत: प्राप्त होती है । तभी नव जीवन की सफ़लता पुर्ण होती है । यही वास्तविक " जीवन " है । जो सभी जीव मात्र की मांग है ।
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