04 जून 2012

हरि मोरे पिउ मैं राम की बहुरिया

श्री सदगुरु महाराज की जय ! मैं आपका आशय समझ गया महाराज । ये सब त्रुटियाँ अज्ञान के कारण ही हुईं । अन्यथा इनके पीछे का भाव प्रेम का ही था । और प्रेम का सम्बन्ध आत्मा से ही होता है । कल के लिए भी क्षमा चाहता हँ । और उन सबके लिए भी जो संज्ञान में है । और उनके लिए भी जो मेरे संज्ञान में नहीं है । अपनी त्रुटियों के लिए मुझ अज्ञानी के पास क्षमा याचना के अलावा कोई उत्तर नहीं है ।
श्री सदगुरु महाराज की जय । "क्षमा पार्थी"
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देखिये । एक सन्त को हमेशा पूर्ण निडरता से स्पष्ट बात कहनी चाहिये । चाहे वह जीव के मन को अच्छी लगे । या बुरी लगे । उसके द्वारा जीवों का अधिकाधिक हित ही होना चाहिये । सन्त । मंत्री । और वैध कृमशः शिष्य ( या साधक ) राजा और रोगी को उसके मन को अच्छा लगने के कारण कुपथ्य ( गलत सलाह ) की सलाह देते हैं । तो उनसे बढ कर दुश्मन कोई भी नहीं है । अशोक ( ऊपर विवरण के मेल प्रेषक ) अभी हमारे सिर्फ़ 1 महीना पुराने शिष्य हैं । और मैंने सैकङों शिष्यों को सतसंग द्वारा चेताया है । पर अशोक जैसे बहुत कम ही शिष्य होते हैं । जो औरों के लिये प्रेरणा स्वरूप होते हैं । यहाँ 1 गौर करने वाली बात है । अशोक राधास्वामी से 15 साल से अधिक से जुङे रहे । और खुद उनके अनुसार ही वे 5 वर्ष की आयु से ही धार्मिक 
पुस्तके पढने लगे थे । मतलब अशोक के अन्दर एक आम चलन के अनुसार अहंकार होना चाहिये कि - मैं भी कुछ हूँ । पर अशोक जी अभी भी बिलकुल नये बालक की तरह उसी उत्सुकता से ज्ञान को गृहण करते हैं ।
खैर ..क्षमा आदि की बात तो तब आती है । जब मैं ऐसी बातों को गलती मानता होऊँ । आप बिलकुल सही कह रहे हैं । वह भी विशुद्ध प्रेम का ही भाव था । जो वाणी से नहीं दिल से जाना जाता है । और उसी भाव के चलते तो मैंने आपको ज्ञान का पात्र समझा । इसलिये मुझे प्रेरणा हुयी कि मैं उच्चता के सूक्ष्म रहस्य आपको बताऊँ । और ये भी मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि किसी भी बात के लिये निमित्त कोई 1-2 या 4-6 लोग ही होते हैं । फ़िर उस बात से लाभ हजारों और फ़िर लाखों को होता है । इसलिये ऐसी भी बात नहीं कि वो लेख मैंने सिर्फ़ आपके हेतु लिखा । या आपके सम्बोधन से प्रभावित होकर लिखा । ऐसा कुछ नहीं है । मैं 2 उदाहरण देना चाहूँगा । अमित ( गाजियाबाद ) और संजय ( बनारस ) इन्हें मैंने ऐसा कभी कुछ नहीं सिखाया बताया । कोई घुमा फ़िरा कर सांकेतिक बात भी नहीं कही । अमित ( जो अभी हमारे शिष्य नहीं हैं )  फ़ोन पर हमेशा - प्रणाम महाराज जी कहते हैं । इनकी मैंने खासियत देखी । यदि 15 मिनट में ये 4 बार फ़ोन मिलायें । तो चारों बार ही उतने ही प्रेम और विनमृता से यही अभिवादन करते हैं । किसी कारण वश फ़ोन आधा मिनट में कट जाने पर दुबारा मिलाने पर यही अभिवादन करते हैं । जबकि अमित जहाँ तक मुझे ज्ञात है । ब्राह्मण परिवार से हैं । और इनके संस्कार काफ़ी उच्च है । ऐसा भी नहीं । अमित पोंगा पंथी टायप युवक हों । वह कम्प्यूटर जाब करते हैं । और उच्च शिक्षित हैं । और संजय ( शिष्य हैं ) हमेशा - गुरूजी प्रणाम कहते हैं ।
अब यहाँ परमात्मा का विलक्षण खेल और शब्द धातुओं का आंतरिक रहस्य समझें । ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे आप हु शीतल होय । महत्वपूर्ण ये नहीं है कि - जिससे आप प्रणाम कर रहे हैं । वह सच्चा है । झूठा है । सन्त है । असन्त है । यदि वो दुर्दांत डाकू भी है । तो भी आपका निश्छल आदर प्रेम भाव उसको झंकृत कर देगा । आप नमस्कार या नमस्ते करते हैं । तो वह भी प्रत्युत्तर में नमस्कार  नमस्ते करेगा । परन्तु आप भाव से प्रणाम या चरण स्पर्श करते हैं । तो कोई वजह नहीं । वह आपको आशीर्वाद देने पर विवश न हो । अब देखिये । होते सभी अभिवादन ही हैं । जो आप सिर्फ़ अवसर अनुसार ही ( 1-2 बार ) कर सकते हैं । लेकिन परिणाम में कितना बङा अन्तर हुआ । गौर से सोचिये । अमित संजय को मैं पूरे भाव से आशीर्वाद कहता हूँ । जो कि नमस्कार करने वालों को नहीं कहता । क्योंकि मैं ( या अन्य कोई ) खुद कुछ नहीं कहता । जो निकलता है । आपके भाव अनुसार अन्दर से खुद निकलता है ।
अब चलिये । बात छिङ ही गयी । तो इसी विषय पर आगे बात करते हैं । कबीर ने कहा है - हरि मोरे पिउ मैं राम की बहुरिया । सोचने वाली बात है । कबीर ( 1 पुरुष होकर ) ऐसा क्यों कह रहे हैं ? और भी कहते हैं - मैं तो कूता राम का मुतिया मेरा नाउं । गले राम की जेबरी जित खेंचों तित जाउं । अपने को निम्न मानने की समर्पण की मिसाल पराकाष्ठा । जबकि कबीर जैसा सन्त ।
हिन्दू । मुस्लिम । सिख । ईसाई । अंग्रेज । पारसी आदि आदि कोई भी 15 साल से लेकर 100 साल की स्त्री जो श्रीकृष्ण के बारे में स्थूल रूप से भी जानती हैं । यदि आप उसके अन्दर झांके । तो उसकी 1 ही तमन्ना होगी । श्रीकृष्ण उसे पति या प्रेमी रूप में प्राप्त हों । उसके भक्ति फ़ल की मुख्य इच्छा यही होगी । ये मैं अन्दाजन नहीं कह रहा । मुझसे बहुत स्त्रियों लङकियों ने स्पष्ट ऐसा कहा है । यही आगरा में श्वेता ( 26 ) नाम की लङकी मेरे पास ध्यान अभ्यास करने आती थी । कई दिन हो गये थे । सर्दियों के दिन थे । मैं धूप में बैठा था । मैंने उससे सतसंग शुरू किया । उसने कहा - इस भक्ति से क्या क्या संभव है ? मैंने कहा - जो तुम चाहो । और अच्छा है । यदि अपना लक्ष्य स्पष्ट बता दो । तो उसे प्राप्त कराने में सरलता होगी ।
वह 1 पल को झिझकी । फ़िर बोली - मैं श्रीकृष्ण के दर्शन करना चाहती हूँ । क्या हो सकते हैं ? वह सोच रही थी । कोई नई खास बात कह रही है । पर मुझे ऐसी ही बातें सुनने की आदत है । मैंने कहा - संभव है । पर राधा साथ होती है । वह प्रयास में रुकावट करती है । तुरन्त उसका चेहरा आभाहीन हो गया । जैसे कुछ छिन गया हो ? कुछ ? जो अभी प्राप्त ही नहीं हुआ था । दुर्लभ सा था । मैंने कहा - और भी स्पष्ट करो । सिर्फ़ दर्शन से क्या लाभ ? श्रीकृष्ण कुछ वर मांगने को कहें तब ? 1 पल को उसने उत्तर न देने को सोचा । पर जाने क्यों पूर्व अनुभव से ( ध्यान अभ्यास की सहायता से ) उसे लग रहा था । मैं उसके लक्ष्य प्राप्त में आखिर तक सहायता कर सकता हूँ । अतः मौका चूकना बेबकूफ़ी होगी । सो उसने शरमा कर दूसरी तरफ़ देखते हुये कहा - मैं उनसे शादी करना चाहती हूँ ।
और ये कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी । भारतीय समाज में भले ही बेहद गलतफ़हमी युक्त और भ्रांति युक्त उदाहरण मीरा जी का मौजूद है कि - उन्होंने पत्नी भाव ( श्रीकृष्ण को पति मान कर ) भक्ति द्वारा श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लिया था । तमाम गोपिकायें अपने अपने पतियों को छोङकर श्रीकृष्ण की दीवानी थी । उनके पीछे भागती थीं । यहाँ तक तो कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता मुझे । पर वन कन्दराओं पर्वतों में तपस्या करते ऋषि मुनि तपस्वी ( ध्यान रहे पुरुष ) भी गोपी ( या सखी ) भाव से भक्ति करते थे । और श्रीकृष्ण के गोलोक या रास मंडल में गोपी होना चाहते थे । अपनी ऐसी जङ बुद्धि के कारण ये बाद में मधु वन आदि निकुंजों में वृक्ष लतायें झाङियाँ आदि बने । और दिव्य रास को देखा ।
मैं दूसरों की क्या कहूँ । खुद मेरा पूरा भक्ति इतिहास ही लालच पर आधारित है । मैंने बचपन में किसी तंत्र किताब में अदृश्य होने का काजल बनाने की विधि पढी । और पूरे प्रयास से उसे बनाने में जुट गया । सोच यही थी कि मम्मी पापा चाटने ( पाकेट मनी ) को सिर्फ़ 10 पैसे देते हैं । अदृश्य होकर खूब सबके पैसे चुराऊँगा । फ़िर ख्याल आया । पैसे चुराने की भी क्या आवश्यकता । जब कोई दुकानदार मुझे देख ही नहीं पायेगा । तो जलेवी । चाट । आइसक्रीम । फ़ूटस आदि कुछ भी चुरा लूँगा । 1 और मजेदार आयडिया आया । अपने दुश्मनों ( बच्चों ) को खूब मारूँगा ।
इसी कृम में बढते हुये मैंने हस्तरेखा ज्ञान ( अब सीरियस हो चुका था ) पर कुछ प्राचीन ग्रन्थ पढे । और प्रयोग परीक्षण हेतु स्त्री पुरुषों के हाथ देख कर अपना ज्ञान आजमाता था । अब जाहिर है । मैं हमेशा बैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर चलता हूँ । तो परिणाम अच्छे ही आयेंगे । 60-70% फ़लित गणित अपरिपक्वता में भी सही जाने लगा । स्त्रियों में ऐसी बातें छूत की बीमारी की तरह फ़ैलती हैं । मुझे कोई चाव नहीं था । मैं तो जो भी सामने आ जाये । अपनी जिज्ञासा वश देखता था । कभी कभी बिना बताये फ़ैली हथेली चुपचाप देखता रहता । परिचित और उनके माध्यम से स्त्रियाँ मेरे पास आने लगी । मैंने थोङी झुँझलाहट प्रकट की
आगे और भी .....

कहन सुनन की बात नहीं देखा देखी बात । दुल्हा दुल्हन मिल गये फ़ीकी पङी बारात ।
सूली ऊपर सेज पिया की केहि विधि मिलना होय ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326