श्री सदगुरु महाराज की जय । प्रस्तुत है । श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी से ये वाणी ।
सुहि महला 1 घरु 7 । 1 ओन्कार सतगुर प्रसादी ।
जोग न खिंथा जोग न डंडे जोग न भस्म चढ़ाइए । जोग न मुंदी मूंड मुंडाइऐ जोग न सिंगी वाइए ।
अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए । गलीं जोग न होई ।
एक दृष्टी कर समसरि जाणे जोगी कहिये सोई । जोग न बाहर मणि मसानि जोग न ताड़ी लाइये ।
जोग न देस दिसंतरी भविये जोग न तीरथ नाइये । अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए ।
सतगुरु भेटे ता सहसा तूटे धावतु वरज़ि रहाइये । निझरू झरेई सहज धुनी लागे घर ही परचा पाइये ।
अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए । नानक जीवतिआ मरि रहिये ऐसा जोग कमाइये ।
वाजे बाझहु सिंगी वाजे तौ निरभौऊ पद पाइये । अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए ।
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अपने पिछले लेख में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब से जो वाणी ली गयी थी । उसमे एक पंक्ति जो मुझे भीतर तक झंझोड़ गयी । वो थी - नानक जीवतिया मरि रहिये ऐसा जोगु कमाइये । इस एक पंक्ति में महा सागर छिपा प्रतीत होता है । हो सकता है । मेरा भृम भी हो । परन्तु एक निहित शिक्षा भी है । जो - ऐसा जोगु कमाइये में छिपी हुई है । जोग कोई स्वतः प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है । दीक्षा के समय
गुरु हमारे अज्ञान के कचरे रूपी रॉकेट में नाम की अग्नि दिखा देते है । और फिर चढ़ाई का मार्ग शुरू हो जाता है । परन्तु चढ़ाई कई बातों पर निर्भर करती है । जैसे अज्ञान के कचरे रूपी हमारे संस्कारों का भार कितने है । संस्कार तीन प्रकार के होते हैं । 1 संचित 2 प्रारब्ध और 3 क्रियमान ।
संचित संस्कार वे है । जिन्हे हम मनुष्य जन्म से पूर्व की 84 यात्रा से एकत्रित करते हुए ला रहे है । जितना इनका वजन कम होगा । ऊँचाई उतनी शीघ्र छु लेगा ।
प्रारब्ध का सम्बन्ध वर्तमान के जन्म से होता है । जो पिछले अच्छे बुरे कर्मों के फल स्वरूप हमें इस जन्म में भोगने होते हैं । और इन्हें भोगने के बाद मृत्यु दरवाजे पर दस्तक देती है । ये दोनों ही हमारे नियंत्रण के परे होते है । संचित तो हजारों वर्षों से जमा होता आ रहा है । जिसके आधार पर अगला जन्म । और उस जन्म का परिवेश तयार होता है । जिसे वर्तमान का प्रारब्ध भी कहते है । प्रारब्ध भी नियंत्रण से बाहर है । परन्तु कुछ तो नियंत्रण में होगा ही । वर्ना मुक्ति तो असंभव ही समझो ।
हमारे हाथ में होता है - केवल क्रियमान । जोकि हमारी मृत्यु के पश्चात संचित में जमा हो जायेगा । और हमारे अंत समय के चलचित्रों में जो भी हमे अपनी और अधिक खीचेगा । वही अगला जन्म निर्धारित करेगा । और इस प्रकार ये क्रिया निरंतर चलती ही रहेगी । दीक्षा के समय सतगुरु हमारे संचित कर्मों का बोझ अपने उपर ले लेता है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम मुक्त हो जायेंगे ? यह कर्म भूमि है । और कर्म हर हाल में भोगने ही पड़ते हैं । जब साधक दीक्षा के बाद साधना मे बैठता है । तो सतगुरु योग्य साधक के सारे कर्म साधना के समय में भुगताना शुरू कर देते है । ध्यान की स्थिति में ही जितने संभव है । कर्म जला दिए जाते है । और साधक
स्वयं इन्हे अनुभव करता है । साधक के जीवन में भी इसका असर देखने को मिलता है । साधक का जीवन उस चलचित्र की भांति हो जाता है । जैसे हम फास्ट फॉरवर्ड का बटन दबा कर फिल्म देखते है । अब आप कहेंगे कि 3 घंटे की फिल्म 45 मिनट में ही ख़तम हो जाएगी । तो नहीं ऐसा नहीं । उस जीवन रुपी फिल्म का समय तो पूर्व निर्धारित ही होगा । परन्तु उसमे यथा संभव बाकी जन्मों के भोग भी भोगवा दिए जाते है । ताकि मुक्ति जितनी जल्दी संभव हो सके । साधक को प्राप्त हो । बस सुख दुःख तेजी से आते जाते रहते हैं । मानो किसी की दुर्घटना लिखी हो । और 6 माह का बिस्तर पर आराम लिखा हो । तो गुरु कृपा एवम साधक की योग्यता अनुसार वो खरोंच मात्र और 6 सेकंडस की पीड़ा तक में बदल जाते है । इसलिये जितना ज्यादा से ज्यादा समय संभव हो । साधना में देना चाहिए । और जो लोग नाम लेकर भी सुमिरन नहीं करते । वे अब जान गए होंगे कि - वे दया से वंचित रह जाते है ।
अब आते हैं क्रियमाण पर । जहाँ अक्सर अधिकतर साधक चूक जाते है । क्रियमाण का सम्बन्ध अभी इसी जन्म में । जो कर्म हम करते हैं । उससे है । और वे पूर्णतया हमारे नियंत्रण में होते हैं । इसीलिए भी मनुष्य योनि को श्रेष्ठ कहा गया है । क्योकि इसी जन्म में विवेक के द्वारा सही गलत का निर्णय स्वयं ही ह्रदय से उदित होता है । अब वो अलग बात है कि - हम बुरा करते समय ह्रदय की सुनते हैं । या नहीं । साधना के तुरंत बाद से कोई भी कार्य अहम भाव द्वारा नहीं होना चाहिए । अहम भाव से किये सभी कार्य वापिस उनका फल ला सामने खड़े हो जाते हैं । यहाँ पर - every action has equal and opposite reaction का सिद्धांत काम करता है ।
- नानक जीवतिया मरि रहिये । ऐसा जोगु कमाइये । जोग भी कमाई की वस्तु है । और जिस प्रकार हर कमाई के पीछे अथक परिश्रम । समय । दृढ
निश्चय । और कई मूल्य छिपे होते हैं । ठीक उसी प्रकार योग की कमाई का सबसे बड़ा मूल्य साधक को - जीवित ही मरना जैसी स्थिति से गुजर कर चुकाना होता है । जो पढने में जितनी आसान है । वास्तव में उतनी ही कठिन भी है । जब साधक किसी भी सांसारिक वस्तु का कोई लोभ । रिश्ते नातों का मोह । सुख दुःख में समानता । जैसा मूल्य चुकाने में सक्षम हो जाता है । तो सदगुरु की कृपा भी तत्क्षण ही प्राप्त हो जाती है ।
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जब लेख लिखने बैठा था । तो मन में केवल उपरोक्त पंक्ति ही थी । परन्तु सदगुरु कृपा से उंगलिया लैपटॉप पर स्वत ही चलने लगी । कानों में सीटियों का स्वर बहूत तेजी के साथ बजने लगा । एक समय तो मैं खुद का आपा भी खो चूका था । और जब ध्यान आया । तो सामने धुंधली धुंधली लैपटॉप की स्क्रीन । इसलिए यदि कोई टाइपिंग त्रुटि हो । तो क्षमा चाहूँगा । अशोक कुमार दिल्ली ।
सुहि महला 1 घरु 7 । 1 ओन्कार सतगुर प्रसादी ।
जोग न खिंथा जोग न डंडे जोग न भस्म चढ़ाइए । जोग न मुंदी मूंड मुंडाइऐ जोग न सिंगी वाइए ।
अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए । गलीं जोग न होई ।
एक दृष्टी कर समसरि जाणे जोगी कहिये सोई । जोग न बाहर मणि मसानि जोग न ताड़ी लाइये ।
जोग न देस दिसंतरी भविये जोग न तीरथ नाइये । अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए ।
सतगुरु भेटे ता सहसा तूटे धावतु वरज़ि रहाइये । निझरू झरेई सहज धुनी लागे घर ही परचा पाइये ।
अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए । नानक जीवतिआ मरि रहिये ऐसा जोग कमाइये ।
वाजे बाझहु सिंगी वाजे तौ निरभौऊ पद पाइये । अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए ।
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अपने पिछले लेख में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब से जो वाणी ली गयी थी । उसमे एक पंक्ति जो मुझे भीतर तक झंझोड़ गयी । वो थी - नानक जीवतिया मरि रहिये ऐसा जोगु कमाइये । इस एक पंक्ति में महा सागर छिपा प्रतीत होता है । हो सकता है । मेरा भृम भी हो । परन्तु एक निहित शिक्षा भी है । जो - ऐसा जोगु कमाइये में छिपी हुई है । जोग कोई स्वतः प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है । दीक्षा के समय
गुरु हमारे अज्ञान के कचरे रूपी रॉकेट में नाम की अग्नि दिखा देते है । और फिर चढ़ाई का मार्ग शुरू हो जाता है । परन्तु चढ़ाई कई बातों पर निर्भर करती है । जैसे अज्ञान के कचरे रूपी हमारे संस्कारों का भार कितने है । संस्कार तीन प्रकार के होते हैं । 1 संचित 2 प्रारब्ध और 3 क्रियमान ।
संचित संस्कार वे है । जिन्हे हम मनुष्य जन्म से पूर्व की 84 यात्रा से एकत्रित करते हुए ला रहे है । जितना इनका वजन कम होगा । ऊँचाई उतनी शीघ्र छु लेगा ।
प्रारब्ध का सम्बन्ध वर्तमान के जन्म से होता है । जो पिछले अच्छे बुरे कर्मों के फल स्वरूप हमें इस जन्म में भोगने होते हैं । और इन्हें भोगने के बाद मृत्यु दरवाजे पर दस्तक देती है । ये दोनों ही हमारे नियंत्रण के परे होते है । संचित तो हजारों वर्षों से जमा होता आ रहा है । जिसके आधार पर अगला जन्म । और उस जन्म का परिवेश तयार होता है । जिसे वर्तमान का प्रारब्ध भी कहते है । प्रारब्ध भी नियंत्रण से बाहर है । परन्तु कुछ तो नियंत्रण में होगा ही । वर्ना मुक्ति तो असंभव ही समझो ।
हमारे हाथ में होता है - केवल क्रियमान । जोकि हमारी मृत्यु के पश्चात संचित में जमा हो जायेगा । और हमारे अंत समय के चलचित्रों में जो भी हमे अपनी और अधिक खीचेगा । वही अगला जन्म निर्धारित करेगा । और इस प्रकार ये क्रिया निरंतर चलती ही रहेगी । दीक्षा के समय सतगुरु हमारे संचित कर्मों का बोझ अपने उपर ले लेता है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम मुक्त हो जायेंगे ? यह कर्म भूमि है । और कर्म हर हाल में भोगने ही पड़ते हैं । जब साधक दीक्षा के बाद साधना मे बैठता है । तो सतगुरु योग्य साधक के सारे कर्म साधना के समय में भुगताना शुरू कर देते है । ध्यान की स्थिति में ही जितने संभव है । कर्म जला दिए जाते है । और साधक
स्वयं इन्हे अनुभव करता है । साधक के जीवन में भी इसका असर देखने को मिलता है । साधक का जीवन उस चलचित्र की भांति हो जाता है । जैसे हम फास्ट फॉरवर्ड का बटन दबा कर फिल्म देखते है । अब आप कहेंगे कि 3 घंटे की फिल्म 45 मिनट में ही ख़तम हो जाएगी । तो नहीं ऐसा नहीं । उस जीवन रुपी फिल्म का समय तो पूर्व निर्धारित ही होगा । परन्तु उसमे यथा संभव बाकी जन्मों के भोग भी भोगवा दिए जाते है । ताकि मुक्ति जितनी जल्दी संभव हो सके । साधक को प्राप्त हो । बस सुख दुःख तेजी से आते जाते रहते हैं । मानो किसी की दुर्घटना लिखी हो । और 6 माह का बिस्तर पर आराम लिखा हो । तो गुरु कृपा एवम साधक की योग्यता अनुसार वो खरोंच मात्र और 6 सेकंडस की पीड़ा तक में बदल जाते है । इसलिये जितना ज्यादा से ज्यादा समय संभव हो । साधना में देना चाहिए । और जो लोग नाम लेकर भी सुमिरन नहीं करते । वे अब जान गए होंगे कि - वे दया से वंचित रह जाते है ।
अब आते हैं क्रियमाण पर । जहाँ अक्सर अधिकतर साधक चूक जाते है । क्रियमाण का सम्बन्ध अभी इसी जन्म में । जो कर्म हम करते हैं । उससे है । और वे पूर्णतया हमारे नियंत्रण में होते हैं । इसीलिए भी मनुष्य योनि को श्रेष्ठ कहा गया है । क्योकि इसी जन्म में विवेक के द्वारा सही गलत का निर्णय स्वयं ही ह्रदय से उदित होता है । अब वो अलग बात है कि - हम बुरा करते समय ह्रदय की सुनते हैं । या नहीं । साधना के तुरंत बाद से कोई भी कार्य अहम भाव द्वारा नहीं होना चाहिए । अहम भाव से किये सभी कार्य वापिस उनका फल ला सामने खड़े हो जाते हैं । यहाँ पर - every action has equal and opposite reaction का सिद्धांत काम करता है ।
- नानक जीवतिया मरि रहिये । ऐसा जोगु कमाइये । जोग भी कमाई की वस्तु है । और जिस प्रकार हर कमाई के पीछे अथक परिश्रम । समय । दृढ
निश्चय । और कई मूल्य छिपे होते हैं । ठीक उसी प्रकार योग की कमाई का सबसे बड़ा मूल्य साधक को - जीवित ही मरना जैसी स्थिति से गुजर कर चुकाना होता है । जो पढने में जितनी आसान है । वास्तव में उतनी ही कठिन भी है । जब साधक किसी भी सांसारिक वस्तु का कोई लोभ । रिश्ते नातों का मोह । सुख दुःख में समानता । जैसा मूल्य चुकाने में सक्षम हो जाता है । तो सदगुरु की कृपा भी तत्क्षण ही प्राप्त हो जाती है ।
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जब लेख लिखने बैठा था । तो मन में केवल उपरोक्त पंक्ति ही थी । परन्तु सदगुरु कृपा से उंगलिया लैपटॉप पर स्वत ही चलने लगी । कानों में सीटियों का स्वर बहूत तेजी के साथ बजने लगा । एक समय तो मैं खुद का आपा भी खो चूका था । और जब ध्यान आया । तो सामने धुंधली धुंधली लैपटॉप की स्क्रीन । इसलिए यदि कोई टाइपिंग त्रुटि हो । तो क्षमा चाहूँगा । अशोक कुमार दिल्ली ।
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