24 जून 2012

गुरु अपने शिष्य को सब कुछ दे देता है

राजीव जी ! नमस्कार । सबसे पहले मैं आपका धन्यवाद करना चाहुँगा कि आपने मेरी जिज्ञासा का समाधान करने की कृपा की । मैं आपकी सभी बातों से सहमत हूँ । किन्तु क्षमा करें कि मैं अपने प्रश्न को आपके सामने सही शब्दों में कह नहीं पाया । मैं बिना कुछ करे ही आपसे सीधे कुछ नहीं माँग रहा था । अपितु मेरे द्वारा आपसे सहायता माँगने का तात्पर्य मुझे साधना में आपके मार्ग दर्शन से था । क्योंकि मेरी नजर में ऐसा कोई नहीं है । जो इतने उच्च स्तर का हो ।
और जो किसी भी साधना में मेरा सही तरीके से मार्ग दर्शन कर सके । क्योंकि हर किसी को प्रत्येक प्रकार की साधना की सही जानकारी नहीं होती है । और आप उस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं । जहाँ प्रत्येक साधना का व हर प्रकार का ज्ञान आपसे ही निकलता है । और इस बात का मतलब आप अच्छी तरह जानते हैं ।
मैं भी थोडा सा स्वाभिमानी टाइप का इंसान हूँ । मैं उनमें से नहीं हुँ । जो बिना कुछ करे । सब कुछ पाना चाहता हो । आम धारणा है कि भक्ति साधना आदि उन लोगों के लिये है । जो मेहनती न हों । काम चोर हों । किन्तु कोई भी साधना करना कितना मुश्किल होता है । व उसमें कितना जोखिम होता है । यह आप भली भांति जानते हैं । कभी -2 पागलपन व मृत्यु तक के हालात बन जाते हैं । एक बात और । ऐसा नहीं है कि मुझे अपने गुरु पर भरोसा नहीं है ।

एक कहावत है - बिन माँगे मोती मिले । माँगे मिले ना भीख  ये कहावत गुरु - शिष्य परम्परा पर लागू होती है । जहाँ गुरु अपने शिष्य को अपने आप सब कुछ दे देता है । किन्तु शिष्य की इच्छा भी जायज होनी चाहिये । और मैं मानता हूँ कि मेरी ये इच्छायें ( साधना आदि ) जायज नहीं हैं । किन्तु मैं भी एक आम व साधारण मनुष्य हूँ ।
जो पूरी तरह से मन ( काल ) के वश में है । जो मान सम्मान इज्जत धन दौलत रुतबे को पाना चाहता है ।
और मैं नहीं जानता कि किस अदृश्य शक्ति के वशीभूत होकर मैंने आपसे मार्ग दर्शन माँगा था । शायद ये भी मेरे भले के लिये ही था । आप जो भी कहेंगे । मेरा मार्ग दर्शन करेंगे । मेरे भले के लिये ही करेंगे । ऐसा मेरा विश्वास है । आप का एक बार फ़िर से धन्यवाद है ।
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दीपक ! पूर्ण साफ़गोई से अपनी बात कहने के लिये आपका धन्यवाद । कुछ आवश्यक सूचनाओं के बाद आपसे बात करते हैं ।
- इस बार गुरु पूर्णिमा 3 july को पङ रही है । आध्यात्मिक दृष्टि से यह बहुत महान दिन होता है । कोई भी शिष्य अपनी बेहद मजबूरियों के चलते यदि पूरे साल गुरु के दर्शन नहीं कर पाता ।  तो कम से कम इस दिन उसे जरूर करना चाहिये । जिनका कोई गुरु अभी नहीं हैं । निगुरा हैं । उनको भी किसी आश्रम में जाकर इस पर्व में शामिल होना चाहिये । जो गुरु उपदेश लेने की इच्छा रखते हैं । वे भी बिना गुरु के ही किसी आश्रम में जाकर कोई सतसंग सुनें । ऐसा मेरा सुझाव है । इससे आपको सभी तीर्थों के बराबर पुण्य अनायास ही मिलता है । लेकिन जिनको कोई गुरु.. आश्रम समझ में नहीं आ रहा हो । वे सभी । और और भी जाने अनजाने अन्य सभी हमारे आश्रम पर 3 दिवसीय सतसंग में सादर आमंत्रित हैं । इसकी सूचना अलग से पूरे लेख के साथ भी प्रकाशित होगी । पर ये अभी से आपके संकल्प प्रोत्साहन और मन में उठे प्रश्नों के लिये अग्रिम जानकारी हेतु है । ताकि आप ऐसी भावना होने पर आने की पहले से तैयारी कर सकें । अन्य कोई भी जिज्ञासा होने पर आप मुझे निसंकोच फ़ोन कर सकते हैं ।
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मेरा लक्ष्य 10 लाख जीवों ( स्त्री पुरुषों ) को आत्म ज्ञान मार्ग में चेताने का है । और 7 अरब की वैश्विक जनसंख्या में यह गिनती कोई बहुत बङी नहीं है । और ऐसा मैं अकेले नहीं कर रहा । या करूँगा । आप में से बहुत लोग मेरे साथ है । खुद को मतिभृष्ट और निकृष्ट मानने वाले उत्कृष्ट और बुद्धिमान अशोक जी अपनी बेहद व्यस्तता के बाबजूद अपनी सामर्थ्य से ज्यादा तन मन धन से इस पुण्य कार्य में मेरा भरपूर सहयोग कर रहे हैं । पर इसके लिये प्रथ्वी के नियम कानून अनुसार हमें एक सोसायटी का  गठन करना होगा । खास अशोक जी का नाम मैंने इसलिये लिया । क्योंकि सोसायटी के गठन से सम्बंधित सभी कार्यभार वही संभाल रहे हैं । यह सोसायटी अभी राष्ट्रीय स्तर पर गठित होगी । इसकी प्राथमिक जरूरतों में 5 राज्यों से अलग अलग 1-1 सदस्य बनेगा । जो लगभग तय हो  चुके हैं । इस सोसायटी के अभी तय 2 मुख्य उद्देश्यों में से एक अधिकाधिक लोगों को आत्म ज्ञान या सरल सहज.. सहज योग का ज्ञान देना है । जिससे प्रत्येक अपनी दैहिक दैविक भौतिक बाधाओं से छुटकारा पा सकेगा । और निसंदेह एक सुखी खुशहाल विश्व का निर्माण होगा । सोसायटी का अभी तय दूसरा मुख्य उद्देश्य निर्धन कन्याओं का सनातन रीति से आर्य ( श्रेष्ठ ) परम्परा से विवाह कराना होगा ।


इसमें भारत या विश्व का कोई भी नागरिक अपनी सामर्थ्य अनुसार सहयोग कर सकता है । उम्मीद है । अगले 2 महीने में सोसायटी का गठन हो जायेगा । तब इसके बारे में विस्त्रत जानकारी प्रकाशित होगी । लेकिन इस अग्रिम जानकारी से आप हमारे साथ जुङ सकते हैं । और पात्रता होने पर तन मन धन आत्मा का चहुमुखी नहीं बहुमुखी लाभ पा सकते हैं । ये राजीव बाबा का वादा नहीं दावा है । अगर आप इस महान पुण्य कार्य में सहयोगी होना चाहते हैं । तो तैयार हो जाईये । और अपना विवरण प्रार्थना पत्र आदि भेज दीजिये ।
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अब दीपक जी से चर्चा करते हैं । जैसा कि मैंने बहुत बार स्पष्ट किया है । आपका कोई भी प्रश्न नितांत व्यक्तिगत हो सकता है । उसमें प्रेषित प्रश्न भाव सिर्फ़ 1 ही हो सकता है । पर मेरा उत्तर उस भाव के आधार पर बहु आयामी और सार्वजनकि भावना के साथ होता है । जिससे अधिकाधिक लोगों की 1 ही बार में जिज्ञासा शान्त हो सके । अतः मैं प्रश्न की मूल भावना में निहित सभी पक्षों पर खुलकर बताने की कोशिश करता हूँ । इसलिये मैंने आपका प्रश्न बखूबी समझ लिया । और उन सभी बिन्दुओं पर उत्तर देने की कोशिश की । जो भले ही आपके भावों में नहीं थे । पर दूसरे बहुत से लोगों के हो सकते हैं । होते हैं ।
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सबसे पहले तो मैं आप सभी से यही कहना चाहूँगा कि - मनुष्य का प्रथम लक्ष्य और कर्तव्य यही होना चाहिये

कि आत्म ज्ञान की हँस दीक्षा द्वारा वह अपना अगला मनुष्य जन्म निश्चित कर ले । ताकि मृत्यु के बाद 84 लाख योनियों में गधा घोङा कुत्ता बिल्ली आदि बनने से बच सके । लेकिन यह दीक्षा असली और सच्ची हो । तभी यह संभव है । इसका प्रमाण तुरन्त से लेकर अधिकतम 3 महीने में अंतर प्रकाश द्वारा मनुष्य को स्वयं ही मिल जाता है । यदि आपको ये हँस दीक्षा मिलने में कठिनाई आ रही हो । तो आप हमारे यहाँ से ले सकते हैं । ये पूरी तरह से निशुल्क है । बस आपको विश्व के किसी भी स्थान से फ़िरोजाबाद ( से 25 किमी दूर ) हमारे आश्रम पर सिर्फ़ 1 दिन को आना होगा ।

देखिये क्या है - ये नाम उपदेश । नाम लिया तिन सब लिया चार वेद का भेद -  ये 9 शब्द कितनी बङी बात कह रहे हैं । ये नाम ( हँस दीक्षा ) जिसने लिया । उसने 4 वेदों का भेद जान लिया । जबकि हर इंसान जानता है । सिर्फ़ वेदों के रहस्य ही जानना कितना मुश्किल है । सिर्फ़ वेदों पर ही सदियों से शोध हो रहा है । और कोई नतीजा नहीं निकला । जबकि नाम के आगे वेदों की तुच्छता भी अगले 8 शब्द पूर्ण बेबाकी से कह रहे हैं - बिना नाम नरकै पङा पढ पढ चारों वेद । इसलिये आपके इसी नाशवान शरीर की आती जाती स्वांसों में गूँजता ये उल्टा नाम अपने असीमित सदा लाभदायी प्रभावों के चलते अवर्णनीय है ।
आपसे सहायता माँगने का तात्पर्य मुझे साधना में आपके मार्ग दर्शन से था - हाँ ! ये बहुत सही है । जब आप मुझ पर पूरा विश्वास करते हैं । तो मैं भी आपको अधिकाधिक लाभ पहुँचाऊँ । वास्तव में सबसे उचित सरल सहज सलाह यही है कि - आपको सार शब्द ज्ञान भक्ति का सर्वोच्च मंत्र सतनाम उपदेश प्रथम लेना चाहिये । इससे आप एकदम सेफ़ जोन में पहुँच जाते हैं । और इस ज्ञान का दूसरा नाम या भाव - लय योग है । यानी इसमें सभी द्वैत मंत्र तंत्र कुण्डलिनी आदि विधाओं का स्वतः समावेश हो जाता है । इसके बाद बङे सरल सहज ढंग से बिना किसी आडम्बर ( पूजा पाठ के बाहय टोटके ) के आपको सिर्फ़  सुमरन करना होता है । फ़िर यदि आपके कोई संस्कार बेहद जटिल और विपरीत नहीं है । तब यह नाम ? आपकी सभी मनोकामनाओं को इच्छा लता की भांति कृमशः फ़ल देने लगता है । जैसी कि आपने किसी दिव्य कन्या से विवाह की इच्छा की । तो ये आपकी मानुषी पत्नी में ही दिव्य गुण उत्पन्न कर देगा । इसके बाद नाम के प्रभावों से अभिभूत होकर आप स्वयं ही लगन से नाम जप करने लगेंगे ।  तब यह आपको विभिन्न दिव्य अनुभव कराने लगेगा । और कृमशः अगले जन्मों में आपकी दिव्य सुन्दरी से विवाह ( क्योंकि ये आपका संस्कार बन चुका होगा ) की मनोकामना भी पूरी करायेगा । ये इच्छा पूरी होने से आप और भी लगन से भक्ति करेंगे । तब यह आपको हर तरह से धनी बनाता जायेगा । और जन्म मरण के आवागमन चक्र से मुक्त कर देगा । 

क्योंकि हर किसी को प्रत्येक प्रकार की साधना की सही जानकारी नहीं होती है - ये सही है । लेकिन इससे भी अधिक सही ये है कि आज साधना सिद्ध के नाम पर झूठे लोगों का बोलबाला अधिक है । इसलिये जन सामान्य इस दुर्लभ ज्ञान को संदेह की दृष्टि से देखने लगा है ।  और जो सच्चे लोग हैं । वे प्रायः आसानी से शिष्य नहीं बनाते । और आम आदमी से दूर ही रहना पसन्द करते हैं ।
भक्ति साधना आदि उन लोगों के लिये है । जो मेहनती न हों । काम चोर हों - इसे भक्ति साधना नहीं । भीख माँगना कहते हैं । अगर कोई साधु और भिखारी में फ़र्क नहीं कर पाता । तो मैं गलती उसी इंसान की अधिक मानता हूँ ।
किन्तु कोई भी साधना करना कितना मुश्किल होता है । व उसमें कितना जोखिम होता है - प्रायः ऐसी जोखिम भरी साधनायें निकृष्ट और तामसिक मार्ग वाली ही होती हैं । जो मायावी शक्तियाँ हासिल करने हेतु की जाती हैं । भक्ति श्रेणी के अंतर्गत आने वाली द्वैत अद्वैत कुण्डलिनी आदि सभी साधनायें हर तरह से जोखिम रहित होती हैं । एक डरपोक किस्म की औरत भी आसानी से कर सकती है । लेकिन ये सत्य है । कई साधनाओं में धैर्य । और नियम । संयम आचरण आदि के द्वारा कठिन तप स्थिति से गुजरना होता है । लेकिन किसी भी साधना की पहली कक्षा भक्ति से शुरू होती है । फ़िर हम अभ्यास द्वारा साधना के पात्र बन ही जाते हैं ।
कभी -2 पागलपन व मृत्यु तक के हालात बन जाते हैं - ऐसा सिर्फ़ किताबों को पढकर किये गये हठ योग या शिष्य की अति मूढता के चलते की गयी मनमुखता से ही संभव है । चालाकी । कपट और मनमुखता शिष्य को किसी प्रकार का लाभ पहुँचाने के बजाय घोर गम्भीर नरकों में ले जाती है । पर ऐसे केस बहुत कम ही होते हैं । गुरु मुख शिष्य सदैव निरंतर उत्थान करता है । और कृमशः स्थायी सुख शान्ति की ओर अग्रसर होता रहता है । मैंने कभी कोई कपट चालाकी या गुरु से मनमुखता तो नहीं की । पर हठ योग का मुझे बहुत अनुभव है । जिसके चलते मैं कई बार मृत्यु के मुँह में पहुँच गया ।
जहाँ गुरु अपने शिष्य को अपने आप सब कुछ दे देता है - अपने शिष्य को उन्नति करते देख कर गुरु को सर्वाधिक खुशी होती है । वास्तव में कोई भी सच्चा गुरु अपना पूरा ज्ञान मेधावी शिष्य पर उङेल देना चाहता है । बस शिष्य गुरु की कसौटी पर खरा उतरना चाहिये । परमात्मा के नियम अनुसार सच्चा गुरु शिष्य को अपने समान बनाकर ही छोङता है । इसी को गुरु से एका होना कहा जाता है । बहुत सी अन्य स्थितियों में यदि गुरु वृद्ध हैं । और उनके शरीर त्यागने का समय आ गया । तो वो अपना ज्ञान और शक्तियाँ अपने सबसे प्रिय शिष्य में ट्रांसफ़र कर जाते हैं । क्योंकि ऊपर इसकी आवश्यकता नहीं होती ।
शिष्य की इच्छा भी जायज होनी चाहिये । और मैं मानता हूँ कि मेरी ये इच्छायें ( साधना आदि ) जायज नहीं हैं - ये आपकी गलतफ़हमी है । अभी अज्ञान ( जीव की सीमित ज्ञान क्षमता ) स्थिति में आप बहुत छोटी कल्पनायें ही प्राप्ति हेतु कर ( सोच ) सकते हैं । जबकि महत्वपूर्ण प्राप्तियों के लिये बङी इच्छायें बङे लक्ष्य ( 1 लालच की हद तक ) बेहद आवश्यक होते हैं । मैं जब द्वैत ज्ञान में था । एक साधु से मेरी बात हुयी । उसने मेरे मोक्ष क्या ? प्रश्न के उत्तर में बताया - परमात्मा में लीन  हो जाना । जैसे जल की बूँद समुद्र में मिल जाये । मैंने अपनी बेहद चालाक बुद्धि से इसका मतलब ये निकाला कि इससे तो जो मैं हूँ । वो भी गया । बूँद भी गायव हो गयी । मैंने तुरन्त निर्णय लिया - भाङ में जाये मोक्ष । ऐसा मोक्ष ? मुझे नहीं चाहिये । ऐसे ही एक दूसरे प्रसंग में द्वैत जीवन में ही एक साधु ने मुझे बरगदिया ( वट ) यक्षिणी सिद्ध करने का सुझाव दिया । जो भारी धन सम्पत्ति और अकल्पनीय काम भोग देती है । जैसी लङकी स्त्री ( जितनी आयु वाली ) की आप कल्पना करो । वह तुरन्त वैसी ही हो जाती है । मैंने और मेरे साधक दोस्त ने निगाह बचाकर एक दूसरे को आँख मारी । और इशारों इशारों में ही कहा - बस हो गयी बल्ले बल्ले । और क्या चाहिये ? भाङ में गयी भक्ति अक्ति । और वट यक्षिणी के जागते हुये ही सपने देखने लगे ।

आप अन्दाजा लगाईये । मेरे जैसे 100% चालू मार्का भक्त पर भी जब प्रभु कृपा करते हुये कृमशः अद्वैत की सर्वोच्च भक्ति देते हैं । फ़िर आपकी इच्छायें तो बहुत सीमित और स्वाभाविक हैं । मैं तो अब भी कमाई ( नाम भक्ति ) कम करता हूँ । एकाउंट ज्यादा देखता हूँ । कितना माल पानी जमा हो गया ? आप मेरा यकीन करिये । मैं अब भी बहुत मामलों में 100% चालू हूँ ।
जो मान सम्मान इज्जत धन दौलत रुतबे को पाना चाहता है - सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिमि हरि शरण न एक हू बाधा । नाम लेय और नाम न होय । सभी सयाने लेय । मीरा सुत जायो नहीं शिष्य न मुँङया कोय । अर्थात जिस तरह मछली अथाह पानी वाले स्थान पर सदा सुखी रहती है । उसी प्रकार हरि ( शरीर को हरा भरा रखने वाली एकमात्र स्वांस को ही गूढ रूप में हरि कहा जाता है ) की शरण या भक्ति ( जुङा हुआ मनुष्य ) करने वाले  को कोई परेशानी कभी नहीं होती । वैसे तो ये नाम इतना देता है कि फ़िर कुछ भी पाने की अभिलाषा शेष नहीं रहती ।  फ़िर भी ये मान सम्मान इज्जत धन दौलत रुतबा सिर्फ़ इसी मृत्यु लोक में ही नहीं । अलौकिक जगत में भी  इसकी थोङी सी कमाई के बाद दिलाना शुरू कर देता है । नाम लेय और नाम न होय । इसका प्रमाण मीरा जी ( गुरु - रैदास ) हैं । जो स्वयं परमात्मा स्वरूप ही हो गयीं । उनके न कोई पुत्र हुआ । और न उन्होंने कोई शिष्य बनाया । फ़िर भी उनका नाम आदर के साथ चमक रहा है ।

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