31 मई 2011

तो आज बच्चा बच्चा ग्यानी होता ।

अगर मैं आपको आत्मा की आवाज और दिल का दर्द बताऊँ । तो वो वही है कि अधिक से अधिक जीवों को काल के पंजे से छुङाना । क्योंकि किसी भी सन्त का यही खास काम और कर्तव्य होता है । और इसका तरीका भी वही होता है कि जन्म जन्म से काल के पंजे में फ़ँसा और अग्यानता में उसी को अपना हितैषी मानता और पूजता जीव सिर्फ़ आत्मा और सतनाम की बात पर चौंकता है । उसे कुछ याद सा आता है । जो असली है । और उसका अपना है । यह सत्यपुरुष का प्रताप है कि उनके बारे में बात करते ही जीव को काल और माया की सारी चालाकी समझ में आ जाती है । और वह नींद में झिंझोङा गया सा उठकर बैठ जाता है ।
जब से मैंने ब्लाग शुरू किया । तबसे यहाँ भी तमाम लोग ऐसे हैं । बल्कि हजारों लोग ! और विश्व में करोङों लोग इस अनबूझ सृष्टि और प्रकृति तथा परमात्मा के बारे में जानने की जबर्दस्त इच्छा रखते हैं ।
पर जाने कैसी इच्छा है ? और कैसी तलाश है कि वे कहते हैं । हम अभी तक खोज रहे हैं ?
अभी एक पाठक  सुभाष जी ने लिखा कि - आप ( मैं ) स्वयँ सत्यकीखोज कर रहे हैं ? आप लोग क्या ब्लाग पढते हो ? हैरानी है । ध्यान..समाधि..नाम ( सार शब्द या परमात्मा का वास्तविक नाम ) और उसके बाद नाम से पार होने पर.. परमात्मा से साक्षात्कार ! बस यही शाश्वत सत्य है । जब परमात्मा को जान लिया । या वह मार्ग मिल गया । तो अब खोजना क्या रह गया ?
संभवतः ये बात ब्लाग के नाम " सत्यकीखोज " से सुभाष जी के जेहन में आयी हो । लेकिन भाई इसी सत्यकीखोज ( के आगे ) - आत्मग्यान लिखा हो । तो उसको पूरा अर्थ ही बदल जाता है । क्या आपको ब्लाग के किसी लेख से ऐसा लगा कि मैं सत्य खोज रहा हूँ ? या मेरे सामने कोई प्रश्न शेष है ? किन्ही कारणों से - रजत जी की भाषा में - कभी कभी बात की जलेबी अवश्य बना देता हूँ । सुबह सुबह गरम गरम मीठी मीठी जलेबी देखकर किसका खाने को मन नहीं करता ?

दूसरे ये मेरी या अन्य किसी की खोज नहीं है । बल्कि ये ग्यान आदिकाल से ही प्रकट है । और सुरक्षित है ।
खैर..जैसा कि पिछले दिनों आये ई मेल के विषयों के निचोङ में मैं यह बात लिख रहा हूँ । अगर आप सत्य को पूरी तरह जानना चाहते हो । बल्कि अनुभूत.. महसूस करना चाहते हो । आप समाज में । देश में । विश्व में - एक नयी क्रान्ति - नया बदलाव लाना चाहते हो । और आप खुद को पूर्ण ओजस्वी शक्तिमान होने की चाहत रखते हो । तो इसकी कीमत है सिर्फ़ 800 रुपये । 800 रुपये । 800 रुपये ( 1000 भी हो सकती है । ) अब इतना सस्ता तो अच्छा मोबायल भी नहीं आता ।
ये तीन किताबें - 1 अनुराग सागर 2 बीजक ( कबीर )  3 बाबन अक्षरी ।
अनुराग सागर - के बारे में पहले ही लिख चुका हूँ कि काल और उसकी पत्नी माया और उसके तीनों पुत्र बृह्मा विष्णु महेश किस तरह जीवों को सत्यग्यान से वंचित कर स्वर्ग नरक में उलझाये हुये हैं । दुनियाँ में फ़ैली ऊल जूलूल धार्मिक मान्यताओं के पीछे क्या रहस्य है ? लोग कैसे भक्षक काल को रक्षक समझ कर पूज रहे हैं । उस पर विश्वास कर रहे हैं । और उसका आहार बन रहे हैं आदि । और भी ढेरों प्रश्नों की चौंकाने वाली जानकारी इस पुस्तक से प्राप्त होती है । आपके बहुत से सवाल हमेशा के लिये समाप्त हो जाते हैं । दिमाग में भरा धार्मिक कचरा साफ़ हो जाता है ।
बीजक - पढ के तो आप मुझे ही फ़ोन करके कहोगे । अच्छा राजीव बाबा ! अब बहुत ग्यान बाँट लिये हो । अब आप पूछो । हम बतायी । यहाँ से नकल मार मार के ग्यान का रुतबा दिखाते थे ।
..कहने का मतलब बीजक में आपको सब कुछ मिल जाता है । ये देवी देवताओं का क्या चक्कर है ? कौन सी महाशक्ति क्या है ? उसकी स्थिति क्या है ? बृह्माण्ड आदि की स्थितियाँ । और जीव.. जीवन के आंतरिक पहलू । जीवन में भी । और मृत्यु के बाद भी । रहस्य के दायरे में आने वाली कोई भी बात शायद ही बचे । जो आपको जानना शेष रह जाय ।

बाबन अक्षरी - बहुत कम लोग जानते हैं कि विश्व विजेता सिकन्दर कबीर का शिष्य था । अपने पहले मुस्लिम धार्मिक गुरु द्वारा मुस्लिम समुदाय के कानून की धमकी देने पर सिकन्दर ने 52 बार कबीर को मौत की सजा दी । सजा तो बेचारा क्या देता ? 52 बार मौत के मुँह में धकेलने के समान परीक्षणों से गुजारा ।
पर कबीर का एक बाल भी नहीं टेङा हुआ । इस किताब की सबसे बङी खासियत यह है कि आज से 500 साल पहले कबीर ने पूरे विश्व में किस तरह न सिर्फ़ सतनाम का डंका बजा दिया । बल्कि हिन्दू मुस्लिम ( को तो छोङिये ) सिख ईसाई आदि तमाम जातिगत भेदभाव.. धार्मिक भेदभाव ही मिटा दिया । सारी दुनियाँ ही कबीर के पीछे पीछे चलने लगी । मेरा मुसलमान भाईयों से अनुरोध है । ये पुस्तक अवश्य पढें ।
*** मेरे अनुभव में आया है । टीकाकारों को आंतरिक ग्यान न होने के कारण वे कबीर की कही असल बात को उतना तो नहीं समझा पाये । पर किताब में कबीर के मूल दोहों और मेरे ब्लागों को पढने के बाद आप असल बात को काफ़ी हद तक समझ सकते हैं । अब रही बात । प्रयोगात्मक अनुभवों के लिये । जब कोई ना मिले । फ़िर मैं तो हूँ ही ।
*** मुझे बङा अफ़सोस है कि तमाम प्रकाशक । धार्मिक संस्थायें । किताब पढने के शौकीन । शिक्षक । हमारे बुजुर्गों आदि ने यदि इन तीन किताबों के बारे में ही जागरूकता बनाये रखी होती । इनका सही प्रचार किया होता । तो दुनियाँ का दृश्य ही बदला होता । तो आज बच्चा बच्चा ग्यानी होता ।
अब ज्यादा क्या लिखूँ । इस लेख को पढकर यदि हजार लोग भी इन किताबों को खरीदकर पढ लेते हैं । और लोगों को वह ग्यान बताते हैं । तो पूरा भारत ही बदल जायेगा । धर्मगुरु बन जायेगा । केवल एक लाख लोग पूरे विश्व को सिर्फ़ 5 साल में बदल देंगे । और अनुमानित कीमत वही 800 रुपये ।
विशेष - इन किताबों को पढने से सिर्फ़ मौखिक जानकारी या बौद्धिक विकास ही नहीं होता । बल्कि प्रयोगात्मक स्तर पर कुछ कुछ आत्मिक अनुभूतियाँ भी स्वतः शुरू हो जाती हैं ।
अन्त में - हाँ तो भाईयो ! आपकी बस अब जाने ही वाली है । जिस भाई को भी चाहिये । अपनी सीट से आवाज दें । एक के साथ.. एक नहीं.. बल्कि दो फ़्री हैं । सिर्फ़ 800 रुपये में तीन ।
- वैसे ये मत सोच लेना कि मैं अपने प्रकाशन की सेल बङा रहा हूँ । बाबा रामदेव की तरह मेरा कोई प्रकाशन नहीं हैं । न मैंने इनमें से किसी किताब की टीका लिखी है । जो मुझे आर्थिक फ़ायदा होगा ।
*** कल एक गुमनाम भाई जो मेरे सहयोगी हैं - का 10 तस्वीर अटैच्ड ई मेल आया । जो मेरे लेखों के विषय अनुसार तस्वीरें भेजा करेंगे । वाकई उन्होंने कमाल की तस्वीरें भेजी । जो मैंने अनुराग सागर के लेखों में जोङ भी दीं । उनको बेहद धन्यवाद ।
- अभी कई ई मेल के जबाब भी देने हैं । पर लाइट और गर्मी का व्यवधान है । प्रेत कहानी की भी यही दिक्कत है ।
- आप सभी लोग हिन्दी टायप में उस्ताद हो गये हो । यदि कोई सहयोग करना चाहे । तो ऊपर लिखी तीन किताबों तथा ऐसी ही अन्य किताबों का मैटर दो दो तीन पेज का एक बार में भेजो । उसे संशोधित करके लेख रूप में प्रकाशित मैं कर दूँगा । नव जागरण में आप सभी का सहयोग भी आवश्यक है ।

इस जगत में दुःख अनंत हैं

क्या आपके संघ के साथ भी माल्थस का जनसंख्या सिद्धांत लागू होता है ? ओशो - नहीं, मेरा संघ इतना बुद्धिमान है कि प्रकृति को संतुलित करने की जरूरत नहीं है । इन 4 सालों में यहाँ 1 भी बच्चा पैदा नहीं हुआ । 4 संन्यासियों की मृत्यु हुई । मैं इस पृथ्वी को अधिक भार नहीं देना चाहता । वह प्रकृति का सहज संतुलन का ढंग है । यह पूरी तरह से सत्य है कि गरीबों की सेवा करने का विचार गरीबी का मूल कारण है । तुम अपनी जूठन फेंके जाते हो । और गरीब लोग अधिक आशा से भर जाते हैं । और तुम्हारे पंडित पुरोहित उन्हें कहे चले जाते हैं - बस थोड़ा सा इंतजार करो । मौत के बाद तुम स्वर्ग जाने वाले हो । और स्वर्ग में, ऊँट सुई के छेद से निकल सकता है । परंतु कोई अमीर आदमी स्वर्ग के दरवाजे में प्रवेश नहीं कर सकता । वे गरीबों को गरीब रहने के लिए सांत्वना दिए चले जाते हैं । वे उन्हें प्रसन्न करते हैं । क्योंकि अमीर नर्क में सड़ेंगे । वे अमीरों को प्रसन्न करते हैं । क्योंकि वे उनकी सांत्वना के द्वारा गरीबों को क्रांति करने से रोकते हैं । खुश अमीर बड़े बड़े मंदिर और धर्मशालाएँ बनाए चले जाते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि यदि वे यहाँ काम चला सकते हैं । तो वहाँ भी कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे । और तो और ऊँट तक जुगाड़ लाता है । तो क्या तुम सोचते हो कि टाटा, बिड़ला, डालमिया ये कोई राह नहीं ढूँढ लेंगे ? निश्चित ही वे ऊँट से अधिक दिमाग रखते हैं । निश्चित ही मैं गरीबी के खिलाफ हूँ । और मैं इसे पूरी तरह से 

समाप्त करना चाहता हूँ । परंतु इसको पूरी तरह से समाप्त करने के लिए 1 बात अच्छी तरह से समझनी होगी कि गरीबी को बचाने के सभी तरीके खत्म करने होंगे । जो लोग बच्चे पैदा नहीं कर रहे हैं । उन्हें पुरस्कार देना चाहिए । जो लोग बच्चे पैदा कर रहे हैं । उनको अधिक से अधिक आयकर लगाना चाहिए । लोग ठीक इसका उल्टा कर रहे हैं । यदि तुम्हारे अधिक बच्चे हैं । तो तुम्हें कम आयकर लगता है । यह आश्चर्यजनक है । सरकार की योजना परिवार नियोजन की है । और दूसरी तरफ यदि तुम्हारा परिवार बड़ा है । तो उसे सहायता दी जा रही है । तुम उसे मदद नहीं करते । जिसके कोई परिवार नहीं है । ये पंडित पुरोहित और राजनेता गरीबी को जिंदा रखने के लिए जिम्मेदार हैं । और वे अब भी यह सब किए चले जा रहे हैं । इथोपिया को मदद भेजो । भारत को मदद भेजो । यह धनी देशों का अहंकार तृप्त करता है । और यह उन गरीब देशों को 1 तरह की सूक्ष्म गुलामी देते हैं । मानसिक गुलामी । वे सदा तुम्हारे ऊपर निर्भर रहते हैं । यदि मुझे सुना जाए । तो यह बहुत आसान मामला है । हमें 1 विश्व सरकार की जरूरत है । हमें किसी तरह के देशों की जरूरत नहीं है । हमें 1 सरकार, और 1 विश्व की जरूरत है । भारत जैसे गरीब देश भी, जहाँ लोग भूखे मर रहे हैं । अपना गेहूँ निर्यात कर रहे हैं । ऐसा लगता है कि हम 1 पागलखाने में जी रहे हैं । भारतीय मर रहे हैं । भूखे मर रहे हैं । और वे गेहूँ निर्यात कर रहे हैं । परंतु उन्हें निर्यात करना होगा । क्योंकि वे आणविक अस्त्र शस्त्र बनाना चाहते हैं । वे कहाँ से आणविक विज्ञान लेंगे ? उन्हें अधिक धन की जरूरत है । सभी देशों की 75% आमदनी युद्ध पर खर्च होती है । या तो लड़ाई । या लड़ाई की तैयारी । यदि दुनिया 1 हो । तो दुनिया की 75% आमदनी पूरी तरह से मुक्त हो जाएगी । जैसे सुबह की पहली किरण के साथ ही ओस की बूँदें समाप्त हो जाती हैं । ओशो ।
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फ्रैंकल ने महत्वपूर्ण काम किया है कि मनोविज्ञान में उसने " अहा " अनुभव की बात शुरू की । लेकिन फ्रैंकल कोई रहस्यवादी संत नहीं । उसे संबोधि का या ध्यान का कोई पता नहीं । इसलिए वह अहा तक ही जा पाया । अहो - की बात नहीं कर पाया है । और उसकी अहा भी बहुत कुछ " आह " से मिलती जुलती है । क्योंकि उसके स्वयं के कोई अनुभव नहीं हैं । यह तर्क सरणी से, विचार की प्रक्रिया से उसने सोचा है कि ऐसा भी अनुभव होता है । इकहार्ट हैं । तरतूलियन हैं । कबीर हैं । मीरा हैं । इनके संबंध में सोचा है । सोच सोच कर उसने यह सिद्धांत निर्धारित किया । लेकिन फिर भी सिद्धांत मूल्यवान है । कम से कम किसी ने तर्क से भरे हुए खोपड़ियों में, कुछ तो डाला कि इसके पार भी कुछ हो सकता है । लेकिन फ्रैंकल की बात प्राथमिक है । उसे खींचकर - अहो, तक ले जाने की जरूरत है । तभी उसमें दिव्य आयाम प्रविष्ट होता है ।
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रामकृष्ण से विवेकानंद ने पूछा कि - मुझे परमात्मा को दिखाएंगे ? मुझे परमात्मा को सिद्ध करके बताएंगे ? मैं परमात्मा की खोज में हूं । मैं तर्क करने को तैयार हूं । रामकृष्ण सुनते रहे । और रामकृष्ण ने कहा - तू अभी देखने को राजी है कि थोड़ी देर ठहरेगा ? अभी चाहिए ?
थोड़े विवेकानंद चौंके । क्योंकि औरों से भी पूछा था । वे पूछते ही फिरते थे । बंगाल में जो भी मनीषी थे । उनके पास जाते थे कि - ईश्वर है ? तो कोई सिद्ध करता था । प्रमाण देता था - वेद से । उपनिषद से । और यहां 1 आदमी है अपढ़ । वह कह रहा है - अभी या थोड़ी देर रुकेगा ? जैसे कि घर में रखा हो । जैसे कि खीसे में पड़ा हो - परमात्मा ।
अभी यह सोचा ही नहीं था विवेकानंद ने कि कोई ऐसा भी पूछने वाला कभी मिलेगा कि अभी । और इसके पहले कि वह कुछ कहें । रामकृष्ण खड़े हो गए । इसके पहले कि विवेकानंद उत्तर देते । उन्होंने अपना पैर विवेकानंद की छाती :से लगा दिया । और विवेकानंद के मुंह से जोर की चीख निकली - आह ! और वे गिर पड़े । और कोई घंटे भर बेहोश रहे ।
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वास्तविक परमात्मा तो प्रसाद रूप मिलता है । वहां तुम्हारा कृत्य होता ही नहीं । न तुम्हारा पुण्य होता है । न तुम्हारा ध्यान ।  न तुम्हारा तप । वहाँ कुछ भी नहीं होता । वहां तुम भी नहीं होते । जब तुम मिटते हो । तब वह प्रसाद बरसता है । जब तुम सिंहासन खाली कर देते हो । तब वह राजा आता है ।
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अस्तित्व ने तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है । इससे उऋण होने का कोई मार्ग नहीं है । लेकिन हम कुछ कर सकते हैं । जो अस्तित्व ने हमारे लिए किया है । उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं है । किंतु यह हमारा अहोभाव होगा । सवाल छोटे और बड़े का नहीं है । सवाल है हमारी प्रार्थना का । हमारे धन्यभाव का । और हमारी समग्रता का । हां, ऐसा होगा । जितना तुम स्वयं जैसे होओगे । उतना ही तुम जिम्मेवारी महसूस करोगे । जो पहले कभी नहीं की थी ।
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यह जो श्वास का भीतर लौटना है । यह बड़ा नया अनुभव है । क्योंकि तुम तो मिट गए - आह में । अब श्वास भीतर लौटती है । एक शून्य गृह में । मंदिर में । और अब यह श्वास लौटती है । वह जो बाहर खड़ा है - परमात्मा । उसकी सुगंध से भरी हुई । उसकी गंध से आंदोलित । उसकी शीतलता । उसके प्रकाश की किरणों में नहाई हुई । उसके प्रेम में पगी । जैसे ही यह श्वास भीतर जाती है । तो अहा ! पहले तुम चौंक कर रह गए थे । श्वास बाहर की बाहर रह गई थी । अब श्वास भीतर आती है । तो श्वास के बहाने परमात्मा भीतर आता है । तुम्हारा रोआं रोआं खिल जाता है । कली कली फूल बन जाती है । हजार हजार कमल खिल जाते हैं - तुम्हारे चैतन्य की झील पर । अहा !
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अहा - शब्द बड़ा प्यारा है । यह किसी भाषा का शब्द नहीं है । हिंदी में कहो तो - अहा है । अंग्रेजी में कहो । तो अहा है । चीनी में कहो । तो अहा है । जर्मन में कहो । तो अहा है । यह किसी भाषा का शब्द नहीं है । यह भाषाओं से पार है । जिसको भी होगा । इकहार्ट को हो । तो उसको भी निकलता है - अहा । और रिंझाई को हो । तो उसको भी निकलता है - अहा । और कबीर को हो । तो उसको भी । सारी दुनिया में जहां भी किसी ने परमात्मा का अनुभव किया है । वहीं अहा का उदघोष हुआ है । लेकिन यह भी दूसरी सीढ़ी है । पहले तुम अपने पर चौंकते हो कि - मुझे हुआ । फिर तुम इस पर चौंकते हो कि परमात्मा हुआ । फिर इन दोनों के पार । एक तीसरा बोध है । जिसे हम कहें - अहो ! वही जनक को हो रहा है । तीसरा बोध है । फिर न तो यह सवाल है कि मुझे हुआ । न यह सवाल है कि परमात्मा हुआ । फिर सब्जेक्ट और आब्जेक्ट । मैं और तू के पार हो गई बात । हुआ । यही आश्चर्य है । होता है । यही आश्चर्य है ।
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अहा - अनुभव कहा है । वह " अहा " तो है । अनुभव बिलकुल नहीं ।
अनुभव का तो अर्थ होता है - अहा मर गई । अहा का अर्थ ही होता है कि तुम उसका अनुभव नहीं बना पा रहे । कुछ ऐसा घटा है । जो तुम्हारे अतीत ज्ञान से समझा नहीं जा सकता । इसीलिए तो अहा का भाव पैदा होता है । कुछ ऐसा घटा है । जो तुम्हारी अतीत श्रृंखला से जुड़ता नहीं । श्रृंखला टूट गई । अनहोना घटा है । अपरिचित घटा है । असंभव घटा है । जिसे न तुमने कभी सोचा था । न विचारा था । न सपना देखा था । ऐसा घटा है ।
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अहा का अर्थ होता है । ऐसी चौंक कि जैसे बिजली कौंध गई । और एक क्षण में जो अतीत था । वह मिट गया । उससे तुम्हारा कोई संबंध न रहा । कुछ ऐसा घटा । जिसकी तुम्हें सपने में भी भनक न थी । असंभव घटा । अज्ञेय द्वार पर खड़ा हो गया । न जिसके लिए कोई धारणा थी । न विचार था । न सिद्धात था । जिसे समझने में तुम असमर्थ हो गए बिलकुल । जिस पर तुम्हारी समझ का ढांचा न बैठ सका । जो तुम्हारी समझ के सारे ढांचे तोड़ गया । उसी अवस्था में ही अहा का भाव पैदा होता है ।
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निर्मल सांस आ रही है । मतलब ईश्वर है । हे ईश्वर - ऐसे मित्रो से मिलाना । जो गंभीर काम के बाद भी हास्य और मजाक से जीवन में ताजगी देते है । उन साथियो को मुझसे दूर रखना । जो हमेशा अपने आसपास निराशा का घेरा रखते हैं ।
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29 नवम्बर 1989 ओशो आश्रम । बुद्धा सभागार । पुणे । भारत ।
राइओजी कीकूची संबुद्ध रहस्यदर्शिनी थीं । जिन्हें जापान में झेन समुदाय बहुत आदर और श्रद्धा देता था । वे 82 वर्ष की थीं । जब जापान में उन्होंने किसी के पास ओशो का चित्र देखा । तो उसे देखते ही बोल पड़ीं - मानवता के भविष्य के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण बुद्ध पुरुष हैं । मैं उनके दर्शनों के लिये भारत अवश्य जाऊँगी ।
बाद में जब किसी ओशो के संन्यासी ने उन्हें बताया कि इन्हें अमरीकी जेलों में रेडियोधर्मी थेलियम विष दिया गया है । और ओशो गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं । तो वह तुरंत बोल उठीं - फिर तो मैं भारत तुरन्त जाऊँगी । मैं उनकी देह को आरोग्य उर्जा दूंगी । क्योंकि यह मानवता के भविष्य हैं । नष्ट होती पृथ्वी को यही बचा सकते हैं ।
वे 28 नवम्बर को पूना कम्यून में पधारीं । वे पूरे आश्रम में घूमती हुई सन्यासियों को प्रेम बांटती रहीं । वह 1 छोटी बच्ची की प्रकार सहज और सरल थीं ।
29 नवम्बर को " व्हाहिट स्वान ब्रदर हुड " में वह बुद्धा सभागार में पधारीं । वहां के ऊर्जामय वातावरण और संगीत लहरी में वह बेसुध खोई हुईं थीं । तभी नित्य की भांति ठीक समय पर ओशो मंच पर अवतरित हुये । सन्यान्सियो ने नाचते गाते । ओशो का घोष करते हुये उनका प्रेम पूर्ण स्वागत किया । ओशो दोनों हाथ जोड़े हुये आगे बढ़े । उनकी द्रष्टि पूरे सभागार को देखते हुये कीकूची पर आकर रुक गई । तभी उनके संकेत से संगीत थम गया । संगीत के रुकते ही पूरा बुद्धा हाल सभागार मौन में डूब गया । उनके संकेत और स्वागत पूर्ण मुस्कान के प्रत्युत्तर में प्रणाम करते हुये उनकी ओर बढीं । ओशो ने उन पर बहुत प्रेम से गुलाब की पंखड़ियो की वर्षा की ।
तभी ओशो ने उन्हें " दि झेन मेनिफेस्टो " पुस्तक भेंट की । जिसमें उन्होंने स्वयं लिखा था - मैं ओशो, जो स्वयं के अनुभव से 1 बुद्ध पुरुष हूँ । आपके बुद्धत्व को पहचानता हूं । और उसमें आनंदित होता हूं । मैं जानता हूं । और आप भी जानती होंगी कि परम सिद्धि के लिये 1 चरण और शेष है - बुद्धत्व के भी पार जाना । और न कुछ हो जाना ।
कीकूची ने पुस्तक स्वीकार कर धन्यवाद दिया । और चुपचाप अपने आसन पर आकर बैठ गईं । उधर ओशो अपनी कुर्सी पर बैठ गये । संगीत की लहरी फिर नई धुन के साथ बहने लगी । संगीत के स्वर ऐसे थे । जैसे सभी पर ध्वनि प्रपात की तरह बरस रही हो । संध्या सत्संग नित्य की भांति ही चलता रहा । आज 2 बुद्धों के सानिध्य का मौन । सभी को ध्यान की अनंत गहराइयों में ले गया । सभी लोग बरसती उर्जा और आनंद से अनुप्राणित हो उठे ।
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तुम अपना साथ छोड़कर उस पदचिह्न पर चल पड़े । जहाँ आगे पदचिह्न ठहर गये । और तुम भी वही आकर रुक गये । वो झुक रहा है । तो तुम भी झक गये । जैसे जैसे अपना चेतन से दूर होते गये । और अंहकार । अंधकार में फंस गया । तुम पूजा में फंस गये । तुम थोथी बातों को सुनकर । उसको ज्ञान की पोटली बना ली । और मंदिर मस्जिदो में भटकते रहे । मोक्ष को पाने के लिए । और अपनी राहों से चूक गये । समय बहुत ही कम रहा है । यमराज तैयार ही समझो ।
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कचिद वीणावाद्यं कचिदपि हाहेति रुदितम ।
कचिद रम्या रामा कचिदपि जराजर्जरतनुः ।
कचिद विद्व्द्रोष्ठी कचिदपि सुरामत्तकलहः ।
न जाने संसारः किममृतमयः किं विषमयः ।
- कोई जगह पर वीणावादन सुनाई देता है । तो कोई जगह पर " हाय हाय " ऐसा रुदन । कहीं सुंदर स्त्री दिखाई देती है । तो कहीं वृद्धावस्था से जर्जरित शरीर । कोई जगह पर विद्वान चर्चा करते हैं । तो कहीं मद्यपान की वजह से कलह होते हैं । दुनिया में जीवन अमृतमय सुखमय है । या विषमय दुःखमय ? यही समझ में नहीं आता ।
अनन्तानीह दुःखानि सुखं तृणलवोपमम ।
नातः सुखेषु बध्नीयात दृष्टिं दुःखानुबन्धिषु ।
- इस जगत में दुःख अनंत हैं । और सुख तो तृण की तरह अल्प । इसलिए जिसमें सुख के पीछे दुःख आता है । वैसे सुख में इंसान ने  आसक्ति नहीं रखनी चाहिए ।
सुखं हि दुःखान्यमुभूय शोभते । धनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम ।
सुखात्तु यो याति नरो दरिद्रताम । धृतः शरीरेण मृतः स जीवति ।
- दुःख के अनुभव बाद सुख आता है । तो घोर अंधकार के बाद आने वाले दीये की तरह शोभा देता है । पर जिसे सुख भुगतने के बाद दारिद्रय ( दुःख ) आता है । वह जिंदा होने के बावजूद मरा हुआ है ।

30 मई 2011

समय बहुत ही कम रहा है

मैं तुममें कुछ बीज बो रहा हूँ । तुम्हें कोई शब्द या सिद्धांत नहीं दे रहा । जब मैं चला जाऊँ । तो कृपया मुझे एक कवि की तरह याद करना । एक दार्शनिक की तरह नहीं । कविता को तुम्हें एक अलग ढंग से समझना पड़ता है । कविता को तुम्हें प्रेम करना होता है । उसकी व्याख्या नहीं करनी होती । कविता को तुम्हें कई बार गुनना पड़ता है । ताकि वह तुम्हारे खून के साथ, हड्डी मांस मज्जा के साथ घुलमिल जाए । कविता के साथ तो तुम बस मौन बैठ जाओ । ताकि वह तुम्हारे भीतर एक जीवंत शक्ति बन जाए । मुझे एक कवि की तरह याद रखना । और हाँ, मैं कोई शब्दों में कविता नहीं लिख रहा हूँ । मैं उसके लिए एक जीवंत माध्यम का उपयोग कर रहा हूँ - ओशो ।
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किसी भी मित्र में अंगुलिमाल को या उसके अतीत को मत देखना । अन्यथा उनके भीतर हम बीज रूप में उदय होते बोधिसत्व अंगुलिमाल को कभी न देख सकेंगे । और एक व्यक्ति को जो धर्म के मार्ग पर चल पड़ा है । उसे भारी हानि पहुंचा सकते हैं - अस्तित्व के प्रति । लाखों जन्मों की श्रंखला में ये असंभव है कि हम कभी न कभी गहन अन्धकार से न घिर गये हों । या घिरे हों । वही छटपटाहट ही तो प्रकाश की यात्रा को प्रेरित करती हैं । तो जो थोड़ा आगे निकल गये हों । या आगे आगे चल रहे हों । हम सभी का मार्गदर्शन करें । हमारी मूर्छा में की गयी भूलों को मूर्तिकार की तरह गढ़ें ।
प्रार्थना - यहाँ कोई जुदा नहीं एक दूजे से ।
बहते है प्राणों के रथ पर । एक दूजे में लम्हा लम्हा से ।
ये जो अभी अभी पिया था तुमने ।
अब वो जाम..हमारे अधरों पर है ।
करके तृप्त हमें कुछ पल ।
फिर चला..पवन के रथ पर है ।
मिटटी की तुम बात न करना । कुछ पल का धोखा है ।
जिसने सदियों से इस राही के रथ को रोका है ।
संतो की करुणा ही एक मात्र सरोपा ( प्रसाद ) है ।
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प्रेम तब निर्दोष होता है । जब उसमें कोई वजह नहीं होती । प्रेम निर्दोष होता है । जब यह और कुछ नहीं । बस ऊर्जा का बांटना होता है । तुम्हारे पास बहुत अधिक है । इसलिए तुम बांटते हो । तुम बांटना चाहते हो । और जिसके साथ भी तुम बांटते हो । तुम उसके प्रति अनुग्रह महसूस करते हो । क्योंकि तुम बादल की तरह थे । बरसात के पानी से बहुत भरे हुए । और किसी ने तुम्हें हल्का होने में मदद की । या तुम फूल जैसे थे । खुशबू से भरे हुए । और हवा आकर तुम्हें हल्का कर देती है । या तुम्हारे पास गाने के लिए गीत है । और किसी ने ध्यान पूर्वक सुना । इतना ध्यान पूर्वक कि तुम्हें गाने का अवसर दिया । इसलिए जो कोई भी तुम्हें प्रेम में बहने में मदद करता है । उसके प्रति अनुग्रह आता है । आत्मसात करने की वह भावना । अपनी जीवन शैली बन जाने दो । बिना कुछ लेने की बात सोचे देने की काबिलियत । बेशर्त देने की क्षमता । तुम बस देते हो । क्योंकि तुम्हारे पास अधिकता है ।
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8 सितम्बर 1968 बड़ौदा । भारत । - क्या आप राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना चाहते हैं ?
आचार्य श्री ने कहा - मेरा कैसा भी, कभी भी, कोई इरादा राजनीति में भाग लेने का नहीं है । लेकिन मुल्क की जिन्दगी में भाग लेने का है । और उसमें राजनीति भी है । शिक्षा भी है । धर्म भी है । अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र भी है । राजनीति में भाग लेने की मेरी कोई रूचि नहीं है । लेकिन मुल्क की जिन्दगी को जहां जहां राजनीति छूती है । वहां उससे भागकर और डरने वाला मेरा मन नहीं है । जो उसमें भी जरूरी लगे । हमें उसकी फिक्र करनी है । पूरे देश में सामाजिक क्रांति की भूमिका बनाने के लिये मैं एक यूथ फोर्स खड़ा करना चाहता हूँ । जो इस क्रांति की मशाल को गांव गांव, शहर शहर में ले जाये । दूसरा मैं प्रत्येक नगर, गांव गांव में छोटे मोटे आश्रम या ध्यान केंद्र खड़ा करना चाहता हूं । जो ध्यान के सतत प्रयोग करें । इसके लिए कुछ सन्यासियों का एक नया आर्डर खड़ा करने का ख़याल है । जो किसी धर्म का न होगा । न हिन्दू होगा । न मुसलमान होगा । न इसाई । न जैन होगा । वह केवल धार्मिक होगा । धर्म क्या हैं ? वह बस इसी की खबर भर देगा । और मेरी दृष्टि में धर्म का अर्थ है । जो सारे जीवन को छू ले । उसमें शिक्षा भी है । राजनीति भी है । दाम्पत्य भी है । सेक्स भी है । धर्म पूरे जीवन की फिलासफी है । मैं चाहता हूँ । संन्यासी पूरे मुल्क के गांव गांव में, एक हवा पैदा करें । जिससे एक मूवमेंट खड़ा किया जाये ।
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भगवान श्री कहते है - ध्यान है । तो सब कुछ है । ध्यान नहीं । तो कुछ भी नहीं । उपासना बहुमूल्य है - ओशो ।
इसलिये उपासना कि तू कहीं न भूल जाय ।
ज्ञान कर्म से विरक्त । व्यर्थ ज्ञान कर्म त्यक्त ।
ज्ञान कर्म बंध में । उपासना सबल सशक्त ।
जीवन संग्राम में । पैर कहीं डगमगाय ।
इसलिये उपासना कि, तू न कहीं भूल जाय
लक्ष्य ज्ञान का सुदूर । प्रगतिशील पुरुष शूर ।
बढ़ता है, किन्तु ह्रदय । होता जब चूर चूर ।
मात्र एक स्मरण शेष । मुक्ति का चरम उपाय ।
इसलिये उपासना कि तू न कहीं भूल जाय
ज्ञान हो न कर्म हीन । कर्म न हो खिन्न दीन ।
हो न जाय ज्ञान का । प्रकाश कहीं मलिन क्षीण ।
नित्य चिर नवीन रहे । अमर ज्योति जगमगाय ।
इसलिये उपासना कि तू न कहीं भूल जाय ।
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हम भयभीत हैं । क्योकि हम मूर्च्छा में हैं । सारी मूर्च्छा शरीर से पैदा होती है । मूर्च्छा ही भय का मूल कारण हैं । मूर्च्छा है । तो भय है । यदि मूर्च्छा नही । तो भय नही है । सोया हुआ डरता है । जागने वाला नहीं डरता । शरीर दर्शन के कारण ही हम माने बैठे है कि शरीर छूट गया । तो सब कुछ छूट गया । शरीर के प्रति इतनी प्रगाढ़ आस्था के कारण ही मृत्यु का भय इतना डराता हैं । भय ही होता है । उसे निकाल दो ।
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मेरे प्यारे आत्मन ! तुम अपना साथ छोड़कर उस पदचिन्ह पर चल पड़े । जहाँ आगे पदचिन्ह ठहर गये । और तुम भी वही आकर रुक गये । वो झुक रहा है । तो तुम भी झुक गये । जैसे जैसे अपने चेतन से दूर होते गये । और अंहकार । अन्धकार में फंस गये । तुम पूजा में फंस गये । तुमने थोथी बातो को सुनकर । उसको ज्ञान की पोटली बना ली । और मंदिर मस्जिदो में भटकते रहे । मोक्ष को पाने के लिए । और अपनी राहों से चूक गये । समय बहुत ही कम रहा है । यमराज तैयार ही समझो ।
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कहीं पर गलतफहमी हो गई । तो कहीं गलतफहमी के शिकार हो गये । लेकिन सबकी अपनी अपनी सोच है । कुल मिलाकर इतना ही जाना कि तुम्हारे भीतर जो साक्षी है । वही तुम्हारा सच्चा मित्र है । बाकी सब पराये हैं ।
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17 अक्टूबर, 1985 उत्तरी कैरोलीना । शार्लोट एअरपोर्ट । जैसे ही लियर जेट 40 उत्तरी कैरोलीना हवाई अड्डे पर ईधन के लिये रुका । वैसे ही लगभग 20-30 रायफलें और पिस्तौलें ताने हुये ला इन्फोर्समेंट अधिकारियों और जवानों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया । उसमें मां चेतना, मां निरूपा और मां मुक्ति थीं । उन सभी को बिना कारण बताये हिरासत में ले लिया गया । हवाई अड्डे पर स्वागत के लिये आई हास्या और प्रसाद यह सब देखकर अवाक एवं दंग थे । वे लोग भारी भरकम काऊ ब्वाय जूतों को चरमराते हुये वायुयान पर इस प्रकार टूट पड़े थे । जैसे कोई माफिया गिरोह अपने दुश्मनों पर आक्रमण करता है । उनके बर्बर आदेशानुसार उन सभी को अपने दोनों हांथो को ऊपर उठाना पड़ा । वायुयान से सभी यात्रियों को नीचे उतरने का आदेश दिया गया । सभी लोंगों को पायलट सहित गिरफ्तार कर लिया गया । उन सभी को वे लोग क्रूरता पूर्वक धकेलते हुये गाड़ियों के पार्किंग स्थल तक ले आये । सभी की तलाशी लेकर उन्हें हथकड़ियां लगा दी गईं । न उन लोगों ने अपना परिचय दिया । और न गिरफ्तार करने का कारण बतलाया । किसी ने कुछ पूछने का प्रयास भी किया । तो उन्होंने गाली देकर डांटते हुये खामोश रहने को कहा । और गोली से उड़ाने की धमकी दी । ऐसा लग रहा था कि ये लोग तो आतंकवादी हैं । या दुर्दांत लुटेरे । सभी लोगों को एक उजाड़ इमारत में रखा गया । और पहरे पर बंदूकें लिये सभी के सर पर सवार एक काउ ब्वाय टाइप गुंडा खड़ा रहा । और अगले वायुयान की आवाज़ सुनकर वे हथियार लिये फिर हवाई अड्डे के अन्दर चले गये । लिपर 35 विमान से उतरकर जब भगवान श्री, विवेक, देवराज और जयेश ने टर्मिनल इमारत में प्रवेश किया । तो उन्हें चारों ओर से घेरे हथियारबंद लोगों ने सभी के हाथ पीछे कर उन्हें भी हथकड़ियां पहना दीं । हाथ पीछे कर हथकडियां लगाया जाना बहुत पीड़ा युक्त था । पर भगवान श्री अविचलित, मुस्कुराते हुये पूरी अमानवीय कार्यवाही साक्षी भाव से देख रहे थे । 
फिर अगले दिन ओरेगान, कैलिफोर्निया, फ़्रांस और नीदरलैंड के पत्रकार भगवान श्री से जेल में उनका साक्षात्कार लेने के लिये आये । अटलांटा से पूरी टेलिविज़न टीम भगवान श्री से साक्षात्कार लेकर उसे टी.वी. पर प्रसारित करना चाहती थी । पर शेरिफ किड ने उनके डायरेक्टर से कहा - मुझे अफ़सोस है कि किसी को भगवान श्री का साक्षात्कार लेने की इजाजत नहीं हैं । मैं सरकारी आदेश के कारण विवश हूं । आखिर कई बार वाशिंगटन फोन खटखटाने के बाद शाम वह साक्षात्कार की आज्ञा लेकर ही लौटे । जब भगवान श्री ने कैदियों वाली हरी वर्दी पहने साक्षात्कार कक्ष में प्रवेश किया । तो सभी ने खड़े होकर उनका स्वागत किया । भगवान श्री के कुर्सी पर बैठते ही एक दो औपचारिक प्रश्नों के बाद उन्होंने पूंछा - भगवान श्री ! आपके साथ इस जेल में किस प्रकार का व्यवहार किया जा रहा है ? 
भगवान श्री ने कहा - इस जेल ( मैक्लेंबर्ग कंट्री ) में शेरिफ किड और नर्स सैंडी कार्टर का व्यवहार बहुत आदर और प्रेम पूर्ण है । पर अमरीकी सरकार के मार्शलों द्वारा मेरे और मेरे साथियों के साथ न केवल दुर्व्यवहार किया गया । वरन उन लोगों ने हवाई जहाज से मुझसे उतरते ही बंदूको की नोंक के बल पर अपशब्द कहते हुये इस तरह घेरकर बंदी बनाया । जैसे हम लोग हत्यारे और डकैत हों । पूछने पर भी न तो उन्होंने अपना परिचय दिया । न ही अपना आईडेंटिटी कार्ड दिखलाया । और न गिरफ्तार करने की कोई वजह बतलाई । पहिले तो समझा कि शायद आतंकवादियों ने हम लोगों को किडनैप किया है । पर जब वे लोग मुझे हथकड़ी और वेड़ी के साथ मेरी कमर में जंजीर बांधने लगे । तो मैंने उनसे कहा - यदि आप लोग मुझे गिरफ्तार कर रहें हैं । तो पहले गिरफ्तारी का वारंट दिखाईये । पर वह लोग कुछ भी नहीं सुन रहे थे । वह लोग केवल आतंकित करने वाले अपशब्द सुना रहे थे । डा. देवराज मेरा पर्सनल डाक्टर है । उसने उन्हें बताया भी कि मैं पीठ दर्द डिस्क डिस्लोकेशन का मरीज़ हूँ । और मेरी कमर में जंजीर बांधना बहुत पीड़ायुक्त है । पर मार्शल लोगों ने कुछ सुना ही नहीं । हम सभी को रात भर लाकअप की गंदी होल्डिंग सेल में रखा गया । मुझे लोहे की ठंडी बेंच पर सोने के लिये कहा गया । जिससे मेरा पीठ दर्द भयंकर रूप से बढ़ गया । अमरीका जैसे सभ्य देश की पुलिस का यह फासिस्ट, हिटलर और मुसोलिनी के एजेंटो के व्यवहार से भी बर्बर व्यवहार था । और बढ़कर क्यों न हो ? तब से सभ्यता ने बहुत उन्नति की है । पहले हमले में सिर्फ हज़ारों लोग ही मारे जाते थे । अमरीकी प्रेसीडेंट ने तो कुछ सेकिंड में ही एक एटम बम द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी में लाखो लोगो को मौत के घाट उतार दिया था । और उस रात वह बहुत गहरी नींद सोया था । अमरीकी मार्शल, अपने उसी प्रेसीडेंट का ही अनुगमन कर रहे हैं । 
भगवान श्री ने कहा - मैं अमरीका के लोगों से प्यार करता हूँ । अमरीकी प्रेस और मीडिया का मैं बहुत आदर करता हूं । जो व्यक्ति स्वतंत्रता और विचारों की स्वतंत्रता की पक्षधर है । मेरा विरोध तो अमेरिका की राजनीतिक व्यवस्था से है । जो एक ओर अपने को धर्म निरपेक्ष कहती है । और दूसरी ओर उसके कट्टर कैथोलिक प्रेसीडेंट चर्च के कुछ पादरियों के भड़काने पर बिना किसी अपराध के मुझे और मेरे साथियों को बर्वर तरीकों से गिरफ्तार करते हैं । और आप देखेंगें कि मैं कुछ ही दिनों में केस जीत कर फिर कम्यून लौटूंगा । 

वास्‍तव में मृत्‍यु और कुछ नहीं बल्‍कि 1 गहरी नींद है

सहस्‍त्रार को छोड़कर प्रत्‍येक चक्र की अपनी नींद है । सातवें चक्र में बोध समग्र होता है । यह विशुद्ध जागरण की अवस्‍था है । हर चक्र की अपनी नींद - ओशो ।
इसीलिए कृष्‍ण गीता में कहते है कि - योगी सोता नहीं । योगी का अर्थ है । जो अपने अंतिम केंद्र पर पहुंच गया । अपनी परम खिलावट पर जो कमल की भांति खिल गया । वह कभी नहीं सोता । उसका शरीर सोता है । मन सोता है । वह कभी नहीं सोता । बुद्ध जब सो भी रहे होते हैं । तो अंतस में कहीं गहरे में प्रकाश आलोकित रहता है । सातवें चक्र में निद्रा का कोई स्‍थान नहीं होता । बाकी 6 चक्रों में यिन और यैंग, शिव और शक्‍ति, दोनों है । कभी वे जाग्रत होते है । और कभी सुषुप्‍ति में । उनके दोनों पहलू हैं ।
जब तुम्‍हें भूख लगती है । तो भूख का चक्र जाग्रत हो जाता है । यदि आपने कभी उपवास किया । तो आप चकित हुए होंगे । शुरू में पहले 2 या 3 दिन भूख लगती है । और फिर अचानक भूख खो जाती है । यह फिर लगेगी । और फिर समाप्‍त हो जाएगी । फिर लगेगी । ओर तुम कुछ भी नहीं खा रहे हो । इसलिए तुम यह भी नहीं कह सकते हो कि - भूख मिट गई । क्‍योंकि मैंने कुछ खा लिया है । तुम उपवास किए हो । कभी कभी तो भूख जोरों से लगती है । तुम तड़प जाते हो । लेकिन यदि तुम बेचैन नहीं होते हो । तो यह समाप्‍त हो जायेगी । चक्र सो गया है । दिन में फिर 1 समय आएगा । जब यह जगेगा । और फिर सो जायेगा ।
काम केंद्र में भी ऐसा ही होता है । कामवासना जगती है । तुम उसमें उतरते हो । और संपूर्ण वासना तिरोहित हो जाती है । चक्र सो गया है । यदि तुम बिना दमन किए ब्रह्मचर्य का पालन करो । तो तुम हैरान रह जाओगे । यदि तुम कामवासना का दमन न करो । और केवल साक्षी रहो । 3 महीने के लिए यह प्रयोग करो - बस साक्षी रहो । जब काम वासना उठे । शांत बैठ जाओ । इसे उठने दो । इसे द्वार खटखटाने दो । आवाज सुनो । ध्‍यान में सुनो । लेकिन इसके साथ बह मत जाओ । इसे उठने दो । इसे दबाओ मत । इसमें लिप्‍त मत होओ । साक्षी बने रहो । और तुम जानकर चकित रह जाओगे । कभी कभी वासना इतनी तीव्रता से उठती है कि लगता है पागल हो जाओगे । और फिर स्‍वय: ही तिरोहित हो जाएगी । जैसे कभी थी ही नहीं । वह फिर लौटेगी । फिर चली जाएगी ।
चक्र चलता रहता है । कभी  कभी दिन में वासना जगेगी । और फिर रात में सो जाएगी । और सातवें चक्र के नीचे सब 6  चक्रों में ऐसा ही होता है ।
अपना अगल चक्र नहीं है । लेकिन सहस्‍त्रार के अतिरिक्‍त प्रत्‍येक चक्र में इसका अपना स्‍थान है । तो 1 बात और समझ लेने जैसी है । जैसे जैसे तुम ऊपर के चक्रों में प्रवेश करते जाओगे । तुम्‍हारी नींद की गुणवता बेहतर होती जाएगी । क्‍योंकि प्रत्‍येक चक्र में गहरी विश्रांति का गुण है । जो व्‍यक्‍ति मूलाधार चक्र पर केंद्रित है । उसकी नींद गहरी न होगी । उसकी नींद उथली होगी । क्‍योंकि यह दैहिक तल पर जीता है । भौतिक स्‍तर पर जीता है । मैं इन चक्रों कि व्‍याख्‍या इस प्रकार भी कर सकता हूं ।
1 भौतिक - मूलाधार । 2  प्राणाधार - स्‍वाधिष्‍ठान ।
3 काम या विद्युत केंद्र - मणिपूर ।  4 नैतिक अथवा सौंदयपरक - अनाहत ।
5 धार्मिक - विशुद्ध । 6 आध्‍यात्‍मिक - आज्ञा ।  7 दिव्‍य - सहस्‍त्रार ।
जैसे जैसे ऊपर जाओगे । तुम्‍हारी नींद गहरी हो जाएगी । और इसका गुणवता बदल जायेगी । जो व्‍यक्‍ति भोजन ग्रसित है । और केवल खाने के लिए जीता है । उसकी नींद बेचैन रहेगी । उसकी नींद शांत न होगी । उसमें संगीत न होगा । उसकी नींद 1 दु:ख स्वप्न होगी । जिस व्‍यक्‍ति का रस भोजन में कम होगा । और जो वस्‍तुओं की बजाए व्‍यक्‍तियों में अधिक उत्‍सुक होगा । लोगों के साथ जुड़ना चाहता है । उसकी नींद गहरी होगी । लेकिन बहुत गहरी नहीं । निम्‍नतर क्षेत्र में कामुक व्‍यक्‍ति की नींद सर्वाधिक गहरी होगी । यही कारण है कि सेक्‍स का लगभग ट्रैक्‍युलाइजर, नशे की तरह उपयोग किया जाता है । यदि तुम सो नहीं पार रहे हो । तो और तुम संभोग में उतरते हो । तो शीघ्र ही तुम्‍हें नींद आ जायेगी । संभोग तुम्‍हें तनाव मुक्‍त करता है । पश्‍चिम में चिकित्‍सक उन सबको सेक्‍स की सलाह देते हैं । जिन्‍हें नींद नहीं आ रहा है । अब तो वे उन्‍हें भी सेक्‍स की सलाह देते हैं । जिन्‍हें दिल का दौरा पड़ने का खतरा है । क्‍योंकि सेक्‍स तुम्‍हें विश्रांत करता है । तुम्‍हें गहरी नींद प्रदान करता है । निम्‍न तल पर सेक्‍स तुम्‍हें सर्वाधिक गहरी नींद देता है ।
जब तुम और ऊपर की और जाते हो । चौथे अनाहत चक्र पर । तो नींद अत्‍यंत निष्‍कंप, शांत, पावन व परिष्‍कृत हो जाती है । जब तुम किसी से प्रेम करते हो । तो तुम अत्‍यंत अनूठी विश्रांति का अनुभव करते हो । मात्र विचार कि कोई तुम्‍हें प्रेम करता है । और तुम किसी से प्रेम करते हो । तुम्‍हें विश्रांत कर देता है । सब तनाव मिट जाते है । एक प्रेमी व्‍यक्‍ति गहरी निद्रा जानता है । घृणा करो । तो तुम सो न पाओगे । क्रोध करो । तो तुम सो न पाओगे । तुम नीचे गिर जाओगे । प्रेम करो । करूणा करो । और तुम गहरी नींद आएगी ।
पांचवें चक्र के साथ नींद लगभग प्रार्थना पूर्ण बन जाती है । इसीलिए सब धर्म लगभग आग्रह करते है कि सोने से पहले तुम प्रार्थना करो । प्रार्थना को निद्रा के साथ जोड़ दो । प्रार्थना के बिना कभी मत सोओ । ताकि निद्रा में भी तुम्‍हें उसके संगीत का स्‍पंदन हो । प्रार्थना की प्रतिध्‍वनि तुम्‍हारी नींद को रूपांतरित कर देती है ।
पांचवां चक्र प्रार्थना है - और यदि तुम प्रार्थना कर सकते हो । तो और अगली सुबह तुम चकित होओगे । तुम उठोगे ही प्रार्थना करते हुए । तुम्‍हारा जागना ही 1 तरह की प्रार्थना होगी । पांचवें चक्र में नींद प्रार्थना बन जाती है । यह साधारण नींद नहीं रहती ।
तुम निद्रा में नहीं जा रहे । बल्‍कि 1 सूक्ष्‍म रूप से परमात्‍मा में प्रवेश कर रहे हो । निद्रा 1 द्वार है । जहां तुम अपना अहंकार भूल जाते हो । और परमात्‍मा में खो जाना आसान होता है । जो कि जाग्रत अवस्‍था में नहीं हो पाता । क्‍योंकि जब तुम जागे हुए होते हो । तो अहंकार बहुत शक्‍तिशाली होता है ।
जब तुम गहरी निद्रावस्‍था में प्रवेश कर जाते हो । तुम्‍हारी आरोग्‍यता प्रदान करने वाली शक्‍तियों की क्षमता सर्वाधिक होती है । इसीलिए चिकित्‍सक का कहना है कि यदि कोई व्‍यक्‍ति बीमार है । और सो नहीं पाता । तो उसके ठीक होने की संभावना कम हो जाती है । क्‍योंकि आरोग्‍यता भीतर से आती है । आरोग्‍यता तब आती है । जब अहंकार का आस्‍तित्‍व बिलकुल नहीं बचता । जो व्‍यक्‍ति पांचवें चक्र - प्रार्थना के चक्र तक पहुंच गया है । उसका जीवन 1 प्रसाद बन जाता है । जब वह चलता है । तो उसकी भाव भंगिमाओं में आप 1 विश्रांति का गुण पाओगे ।  आज्ञा चक्र - अंतिम चक्र है । जहां नींद श्रेष्‍ठतम हो जाती है । इसके पार नींद की आवश्‍यकता नहीं रहती । कार्य समाप्‍त हुआ । छटे चक्र तक निद्रा की आवश्‍यकता है । छठे चक्र में निद्रा ध्‍यान में रूपांतरित हो जाती है । प्रार्थना पूर्ण ही नहीं - ध्‍यान पूर्ण ।
क्‍योंकि प्रार्थना में द्वैत है । मैं और तुम । भक्‍त और भगवान । छठवें में द्वैत समाप्‍त हो जाता है । निद्रा गहन हो जाती है । इतनी जितनी की मृत्‍यु । वास्‍तव में मृत्‍यु और कुछ नहीं । बल्‍कि 1 गहरी नींद है । और कुछ नहीं । बल्‍कि 1 छोटी सी मृत्‍यु है । छठे चक्र के साथ नींद अंतस की गहराई तक प्रवेश हो जाती है । और कार्य समाप्‍त हो जाता है । जब तुम छठे से सातवें तक पहुंचते हो । तो निद्रा की आवश्‍यकता नहीं रहती । तुम द्वैत के पार चले गए हो । तब तुम कभी थकते ही नहीं । इसलिए निद्रा की आवश्‍यकता नहीं रहती है । यह सातवीं अवस्‍था विशुद्ध जागरण की अवस्‍था है - ओशो ।

29 मई 2011

जो दूसरों की गलतियों से सीख लेता है

झेन का गौरीशंकर शिखर । सदगुरु हयाकुजो । और उसका विलक्षण शिष्य ईसान । ईसान रियु 23 वर्ष की आयु में सदगुरु की तलाश में भटकता हुआ पर्वत की चोटी पर बने हुये च्यांग्सी मठ में हयाकुजो के पास आया था । इससे पूर्व वह 8 वर्षों तक जिसके पास गया । उनके पास केवल पांडित्य और शास्त्रों का झूठा ज्ञान मिला । लेकिन वह सत्य का ऐसा खोजी था । जो दूसरों की गलतियों से सीख लेता था । हयाकुजो के पास आकर उसे लगा कि वह जिसकी तलाश में था । वह खोज पूरी हो गई । एक सर्द रात जब ईसान पर्वत की चोटी पर बने मठ के आंगन में बैठा सितारों को देख रहा था । तभी हयाकुजो ने उसके निकट आकर उससे कहा - आज सर्दी बहुत है । अलाव में दबी आग को कुरेद ।
ईसान स्वयं सर्दी से कांप रहा था । उसने अलाव को काफी कुरेदा । पर उसे सिवाय राख के कोई अंगारा न मिला । उसने निराश होकर उत्तर दिया - मुझे तो इसमें 1 चिंगारी तक नहीं दिखाई देती । आग पूरी तरह बुझ चुकी है ।
हयाकुजो ने चिमटे से अलाव को काफी गहराई तक कुरेदा । और 2 छोटे छोटे अंगारे निकाल कर ईसान को दिखाते हुये कहा - तू देख रहा है, यह आग ? तू काफी गहराई तक गया ही नहीं ।
कहते है हयाकुजो के यह वचन सुनते ही ईसान बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया । हयाकुजो ने जो अस्तित्वगत बात 

कही थी । उसने तीर का काम किया । हयाकुजो हमेशा कहा करता था - गहरे जाओ । अपने अंदर और गहरे । खुदाई करते ही जाओ ।
ईसान को अपनी गलती समझ आ गई । वह ध्यान तो कर रहा था । पर गहरे नहीं उतर पा रहा था । और इसीलिये जीवन की आग को अर्थात सत्य को पाने से वंचित था । वह अपनी समग्र चेतना एकत्रित कर त्वरा और समग्रता से अपने ही अंदर की अतल गहराई तक पहुँच गया । हयाकुजो का यही इशारा था । केंद्र पर पहुँचते ही उसे जीवन की सारहीनता और शून्यता का अनुभव हुआ । वहाँ उसने अपने को निपट अकेला पाया । वहाँ अदभुत शांति और आनंद था । गहरी अनन्त शून्यता । और आनंद ने उसे चारो ओर से आच्छादित कर दिया । उसे लगा । जैसे उसे पंख मिल गये हैं । और वह मुक्ताकाश में पक्षी की तरह उड़ सकता है । वह उड़ने लगा । और उड़ता गया । उड़ता गया ।
तभी कहीं दूर से उसे अपने सदगुरु की आवाज़ सुनाई दी - तूने जो बुद्धत्व का फूल खिलते देखा है । तू अभी जड़ों तक नहीं पहुंचा । अभी तुझे यहीं रुकना नहीं है । अभी तुझे गहरे । और गहरे उतरना है । इतने गहरे कि तू मात्र गहराई ही बनकर रह जा । यह तूने जो पहली झलक देखी है । यह तुझे भटका भी सकती है । अभी तू उस चौराहे पर खड़ा है । जहाँ से भटक कर फिर मन के जाल में भटक सकता है ।
सावधान और सजग होकर । और गहरे उतर । अभी जो तूने पाया है । यह तुझे पहले ही से मिला हुआ था । तू उसे भूल गया था । यह अनुभव जब तक तेरी हर सांस और धड़कन में न बस जाये । जब तक उठते बैठते, चलते फिरते, भोजन या बात करते, जागते सोते तुझे इसका निरंतर स्मरण न रहे । तब तक गहराई में उतरते ही जाना है । याद रख । तेरे आसपास सैकड़ो चीज़े घटेंगी । पर तू न तो कर्ता है । और न भोक्ता । केवल साक्षी बने रहना है । जब बसंत आयेगा । तू अपने आप सुरभित और पुष्पित हो उठेगा । और हयाकुजो, अंतिम सीख देकर अपने कक्ष में चला गया ।
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जे जुग चारे आरजा होर दसुनी होए । 
नवां खंडा विच जानिये नाल चले सब कोई । 
चंगा नाउ रखाये के जस किरत जग लेई । 
जे तिस नदर ना आवई तां वात ना पूछे केई । 
4 युग से 10 गुणा आयु भी हो जाए । पूरी 9 खंड पृथ्वी पर तेरा नाम और शोहरत हो जाए । परन्तु अगर उस परमात्मा की शरण में नही आया । या उसकी कृपा नही हुई । तो तेरी कोई कीमत नही है ।
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धार्मिक व्यक्ति - दूसरा मेरी तरफ देखे । इसकी फ़िक्र नही करता । मैं अपनी तरफ देखूं । क्योंकि अंतत: वही मेरे साथ जाएगा । यह तो बच्चों की बात हुई । बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें । सर्टिफिकेट घर लेकर आते हैं । तो नाचते कूदते आते हैं । लेकिन बुढ़ापे में भी तुम सर्टिफिकेट मान रहे हो ? तब तुमने जिंदगी गंवा दी । सिद्धि की आकांक्षा दूसरो को प्रभावित करने में है । धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नही है । वही तो सांसारिक का स्वभाव है । मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती है । लेकिन आत्मज्ञान नही होता । दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो । अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जाएगा । तब तुम योग भी साधोगे । वह राजनीति होगी । धर्म नही । और राजनीति 1 जाल है । फिर येन केन प्रकारेण आदमी दूसरे को प्रभावित करना चाहता है । फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो कि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो । ओशो 
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हिंदी टाइपिंग का सबसे सरल तरीका - गूगल पर जाओ । और उसमें लिखो - गूगल ट्रांसलेशन, टाइप इन हिंदी । जब वो खुल जाये । तो उसके ऊपर की तरफ राइट हैण्ड साइड में डाउनलोड गूगल ट्रांसलेशन IME लिखा होगा । उस पर क्लिक करें । इसके बाद विंडो 7 वाले 64 बिट हिंदी चुनें । और विंडो XP  वाले 32 बिट हिंदी चुनें । और डाउनलोड पर क्लिक करें । साफ्टवेयर डाउनलोड हो जायेगा । इसका सेटअप चलाकर इसको अपने पी. सी. में इंस्टाल कर लें । जब यह साफ्टवेयर इंस्टाल हो जाए । तो सबसे नीचे टास्क बार में क्लाक की तरफ एक EN लिखा आएगा । उस पर क्लिक करें । और उसमें से हिंदी को चुनें । उसके बाद आप चाहे फेसबुक में टाइप करो । या वर्ड में । या एक्सल में । या किसी साफ्टवेयर में । सब हिंदी में टाइप होगा । लिखोगे इंगलिश में । लेकिन कनवर्ट हो जायेगा हिंदी में । जब आप हिंदी की जगह इंगलिश चुन लोगे । तो इंगलिश में टाइप होगा । अगर फिर भी ना आये । तो पिक्चर के अनुसार सेटिंग कर लें । आओ । हिंदी भाषा का अधिक से अधिक उपयोग करके हम हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करें । क्योंकि हिंदी हमारे लिए मात्र 1 भाषा नहीं है । बल्कि वो हमारी राष्ट्र भाषा है । 

28 मई 2011

आदि सृष्टि की रचना 1

धर्मदास बोले - हे साहिब ! अब आप मुझे कृपा करके बतायें । मुक्त होकर अमर हुये लोग कहाँ रहते हैं ? आप मुझे अमरलोक और अन्य दीपों का वर्णन सुनाओ । कौन से दीप में सदगुरु के हँस जीवों का वास है ? और कौन से दीप में सतपुरुष का निवास है ? वहाँ पर हँस जीव कौन सा तथा कैसा भोजन करते हैं ? और वे कौन सी वाणी बोलते हैं ? आदि पुरुष ने लोक कैसे रच रखा है ? तथा उन्हें दीप रचने की इच्छा कैसे हुयी ? तीनों लोकों की उत्पत्ति कैसे हुयी । हे साहिब ! मुझे वह सब भी बताओ । जो गुप्त है ।
काल निरंजन किस विधि से पैदा हुआ ? और 16 सुतों का निर्माण कैसे हुआ ? स्थावर । अण्डज । पिण्डज । ऊष्मज इन चार प्रकार की चार खानों वाली सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ । और जीव को कैसे काल के वश में डाल दिया गया । कूर्म और शेषनाग उपराजा कैसे उत्पन्न हुये ? और कैसे मत्स्य तथा वराह जैसे अवतार हुये ? तीन प्रमुख देव बृह्मा विष्णु महेश किस प्रकार हुये ? तथा प्रथ्वी आकाश का निर्माण कैसे हुआ ।  चन्द्रमा और सूर्य कैसे हुये ? कैसे तारों का समूह प्रकट होकर आकाश में ठहर गया ? और कैसे चार खानों के जीव शरीर की रचना हुयी । इन सबकी उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट बतायें ।
तब कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! मैंने तुम्हें सत्यग्यान और मोक्ष पाने का सच्चा अधिकारी पाया है । इसलिये मैंने सत्यग्यान का जो अनुभव मैंने किया । उसके सार शब्द का रहस्य कहकर सुनाया । अब तुम मुझसे आदि सृष्टि की उत्पत्ति सुनो । मैं तुम्हें सबकी उत्पत्ति और प्रलय की बात सुनाता हूँ ।
हे धर्मदास ! यह तत्व की बात सुनो । जब धरती और आकाश और पाताल भी नहीं था । जब कूर्म वराह शेषनाग सरस्वती और गणेश भी नहीं थे । जब सबका राजा निरंजन राय भी नहीं था । जिन्होंने सबके जीवन को मोह माया के बंधन में झुलाकर रखा है । 33 करोङ देवता भी नहीं थे । और मैं तुम्हें अनेक क्या बताऊँ ?
तब बृह्मा विष्णु महेश भी नहीं थे । और न ही शास्त्र वेद पुराण थे । तब ये सब आदि पुरुष में समाये हुये थे । जैसे बरगद के पेङ के बीच में छाया रहती है ।


हे धर्मदास ! तुम प्रारम्भ की आदि उत्पत्ति सुनो । जिसे प्रत्यक्ष रूप से कोई नहीं जानता । जिसके पीछे सारी सृष्टि का विस्तार हुआ है । उसके लिये मैं तुम्हें क्या प्रमाण दूँ कि जिसने उसे देखा हो । चारों वेद परम पिता की वास्तविक कहानी नहीं जानते । क्योंकि तब वेद का मूल ही ( आरम्भ होने का आधार ) नहीं था । इसीलिये वेद सत्य पुरुष को अकथनीय अर्थात जिसके बारे में कहा न जा सके ..ऐसा कहकर पुकारते हैं । चारों वेद निराकार निरंजन से उत्पन्न हुये हैं । जो कि सृष्टि के उत्पत्ति आदि रहस्य को जानते ही नहीं । इसी कारण पंडित लोग उसका खंडन करते हैं । और असल रहस्य से अंजान वेद मत पर यह सारा संसार चलता है ।
हे धर्मदास ! सृष्टि के पूर्व जब सत्यपुरुष गुप्त रहते थे । उनसे जिनसे कर्म होता है । वे निमित्त कारण और उपादान कारण और करण यानी साधन उत्पन्न नहीं किये थे । उस समय गुप्त रूप से कारण और करण सम्पुट कमल में थे । उसका सम्बन्ध सत्यपुरुष से था । विदेह सत्यपुरुष उस कमल में थे ।
तब सत्यपुरुष ने स्वयँ इच्छा कर अपने अंशों को उत्पन्न किया । और अपने अंशो को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुये । सबसे पहले सत्यपुरुष ने शब्द का प्रकाश किया । और उससे लोक दीप रचकर उसमें वास किया । फ़िर सत्यपुरुष ने चार पायों वाले एक सिंहासन की रचना की । और उसके ऊपर पुण्य दीप का निर्माण किया । तब सत्यपुरुष अपनी समस्त कलाओं को धारण करके उस पर बैठे । और उनसे " अगर वासना " यानी एक सुगन्ध प्रकट हुयी । सत्यपुरुष ने अपनी इच्छा से सब कामना की । और 88  000 दीपों की रचना की । उन सभी दीपों में वह चन्दन जैसी सुगन्ध समा गयी । जो बहुत अच्छी लगी ।
इसके बाद सत्यपुरुष ने दूसरा शब्द उच्चारित किया । उससे कूर्म नाम का सुत ( अंश ) प्रकट हुआ । और उन्होंने सत्यपुरुष के चरणों में प्रणाम किया ।
तब उन्होंने तीसरे शब्द का उच्चारण किया । तो उससे ग्यान नाम के सुत हुये । जो सब सुतों में श्रेष्ठ थे । वे सत्यपुरुष के चरणों में शीश नवाकर खङे रहे । तब सत्यपुरुष ने उनको एक दीप में रहने की आग्या दी ।
चौथे शब्द के उच्चारण से विवेक नामक सुत हुये ।
और पाँचवे शब्द से काल निरंजन प्रकट हुआ । काल निरंजन अत्यन्त तेज अंग और भीषण प्रकृति वाला होकर आया । इसी ने अपने उग्र स्वभाव से सब जीवों को कष्ट दिया है । वैसे ये जीव सत्यपुरुष का अंश है । जीव के आदि अंत को कोई नहीं जानता है ।


छठवें शब्द से सहजनाम सुत उत्पन्न हुये । सातवें शब्द से संतोष नाम के सुत हुये । जिनको सत्यपुरुष ने उपहार में दीप देकर संतुष्ट किया । आठवें शब्द से सुरति सुभाव नाम के सुत उत्पन्न हुये । उन्हें भी एक दीप दिया गया । नवें शब्द से आनन्द अपार नाम के सुत उत्पन्न हुये । दसवें शब्द से क्षमा नाम के सुत उत्पन्न हुये । ग्यारहवें से निष्काम नाम और बारहवें से जलरंगी नाम के सुत हुये । तेरहवें से अंचित और चौदहवें से प्रेम नाम के सुत हुये । पन्द्रहवें से दीनदयाल और सोलहवें से धीरज नाम के विशाल सुत उत्पन्न हुये । सत्रहवें शब्द के उच्चारण से योग संतायन हुये ।
इस तरह एक ही नाल से सत्यपुरुष के शब्द उच्चारण से 16 सुतों की उत्पत्ति हुयी ।
सत्यपुरुष के शब्द से ही उन सुतों का आकार का विकास हुआ । और शब्द से ही सभी दीपों का विस्तार हुआ । सत्यपुरुष ने अपने प्रत्येक दिव्य अंग यानी अंश को अमृत का आहार दिया । और प्रत्येक को अलग अलग दीप का अधिकारी बनाकर बैठा दिया । सत्यपुरुष के इन अंशों की शोभा और कला अनन्त है । उनके दीपों में मायारहित अलौकिक सुख रहता है । सत्यपुरुष के दिव्य प्रकाश से सभी दीप प्रकाशित हो रहे है । सत्यपुरुष के एक ही रोम का प्रकाश करोंङो सूर्य चन्द्रमा के समान है ।
सत्यलोक आनन्द धाम है । वहाँ पर शोक मोह आदि दुख नहीं है । वहाँ सदैव मुक्त हँसों का विश्राम होता है । सतपुरुष का दर्शन तथा अमृत का पान होता है ।

आदि सृष्टि की रचना 2

आदि सृष्टि की रचना के बाद जब बहुत दिन ऐसे ही बीत गये । तब धर्मराज काल निरंजन ने क्या तमाशा किया । हे धर्मदास ! तुम उस चरित्र को ध्यान से सुनो ।
निरंजन ने सत्यपुरुष में ध्यान लगाकर । एक पैर पर खङे होकर 70  युग तक कठिन तपस्या की । इससे आदि पुरुष बहुत प्रसन्न हुये । तब निरंजन के लिये सत्यपुरुष की आवाज वाणी के रूप में हुयी - हे धर्मराय ! किस हेतु से तुमने यह तप सेवा की ?
इस पर निरंजन सिर झुकाकर बोला - हे प्रभु ! आप मुझे वह स्थान दें । जहाँ जाकर मैं निवास करूँ ।
तब सत्यपुरुष ने कहा - पुत्र ! तुम मानसरोवर दीप में जाओ ।
सत्यपुरुष की आग्या से प्रसन्न होकर धर्मराज मानसरोवर दीप की ओर चला गया । और उसे देखकर आनन्द से भर गया । मानसरोवर पर निरंजन ने फ़िर से एक पैर पर खङे होकर 70 युग तपस्या की । तब दयालु सत्यपुरुष के ह्रदय में दया भर गयी । निरंजन की कठिन सेवा तपस्या से पुष्प दीप के पुष्प विकसित हो गये । और फ़िर सत्यपुरुष की वाणी प्रकट हुयी । उनके बोलते ही वहां सुगन्ध फ़ैल गयी ।
सत्यपुरुष ने अपने सहज सुत से कहा - हे सहज ! तुम निरंजन के पास जाओ । और उससे तप का कारण पूछो । निरंजन की सेवा तपस्या से पहले ही मैंने उसको मानसरोवर दीप दिया है । अब वह क्या चाहता है । यह ग्यात कर तुम मुझे बताओ ?
तब सहज निरंजन के पास पहुँचे ।और प्रेमभाव से कहा - हे भाई ! अब तुम क्या चाहते हो ?
यह सुनकर निरंजन प्रसन्न होकर बोला - हे सहज ! तुम मेरे बङे भाई हो । इतना सा स्थान ..ये मानसरोवर मुझे अच्छा नहीं लगता । अतः मैं किसी बङे स्थान का स्वामी बनना चाहता हूँ । मुझे ऐसी इच्छा है कि या तो मुझे देवलोक दें । या मुझे एक अलग देश दें ।
सहज ने निरंजन की ये अभिलाषा सत्यपुरुष को जाकर बतायी । ये सुनकर सत्यपुरुष ने स्पष्ट शब्दों में कहा - हम निरंजन की सेवा तपस्या से संतुष्टि होकर उसको तीन लोक देते हैं । वह उसमें अपनी इच्छा से शून्य 0  देश बसाये । और वहाँ जाकर सृष्टि की रचना करे । हे सहज ! तुम निरंजन से ऐसा जाकर कहो ।
जब निरंजन ने सहज द्वारा ये बात सुनी । तो वह बहुत प्रसन्न और आश्चर्यचकित हुआ ।
तब निरंजन बोला - हे सहज सुनो । मैं किस प्रकार सृष्टि  की रचना करके उसका विस्तार करूँ ? सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया है । परन्तु मैं सृष्टि की रचना का भेद नहीं जानता । फ़िर यह कार्य कैसे करूँ । जो सृष्टि मन बुद्धि की पहुँच से परे अत्यन्त कठिन और जटिल है । वह मुझे रचनी नहीं आती । अतः दया करके मुझे उसकी युक्ति बतायी जाये । हे भाई ! तुम मेरी तरफ़ से सत्यपुरुष से यह विनती करो कि मैं किस प्रकार नवखण्ड बनाऊँ ? अतः मुझे वह साज सामान दो । जिससे जगत की रचना हो सके ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सहज ने यह सब बात जब जाकर सत्यपुरुष से कही । तब उन्होंने आग्या दी । हे सहज ! कूर्म के पेट के अन्दर सृष्टि रचना का सब साज सामान है । उसे लेकर निरंजन अपना कार्य करे । इसके लिये निरंजन कूर्म से विनती करे । और उससे दण्ड प्रणाम करके विनयपूर्वक सिर झुकाकर माँगे ।
सहज ने सत्यपुरु्ष की आग्या निरंजन को बता दी ।
यह बात सुनते ही निरंजन बहुत हर्षित हुआ । और उसके अन्दर बहुत अभिमान हुआ । वह कूर्म के पास जाकर खङा हो गया । और बताये अनुसार दण्ड प्रणाम भी नहीं किया ।
अमृत स्वरूप कूर्म जो सबको सुख देने वाले हैं । और उनमें क्रोध एवं अभिमान का भाव जरा भी नहीं है । और वे अत्यन्त शीतल स्वभाव के हैं । अतः जब काल निरंजन ने अभिमान करके देखा । तो पता चला कि कूर्म जी अत्यन्त धैर्यवान और बलशाली हैं ।


12  पालंग कूर्म जी का विशाल शरीर है । और 6 पालंग बलबान निरंजन का शरीर है । निरंजन क्रोध करता हुआ कूर्म के चारों ओर दौङता रहा । और ये सोचता रहा कि किस उपाय से इससे उत्पत्ति का सामान लूँ ?
तब निरंजन बेहद रोष से कूर्म से भिङ गया । और अपने तीखे नाखूनों से कूर्म के शीश पर आघात करने लगा । प्रहार करने से कूर्म के उदर से पवन निकले । उसके शीश के तीन अंश सत रज तम गुण निकले । आगे जिनके वंश बृह्मा विष्णु महेश हुये । 5 तत्व धरती आकाश आदि तथा चन्द्रमा सूर्य आदि तारों का समूह उसके उदर में थे । उसके आघात से पानी अग्नि चन्द्रमा और सूर्य निकले । और प्रथ्वी जगत को ढकने के लिये आकाश निकला । फ़िर उसके उदर से प्रथ्वी को उठाने वाले वाराह शेषनाग और मत्स्य निकले ।
तब प्रथ्वी सृष्टि का आरम्भ हुआ ।
जब काल निरंजन ने कूर्म का शीश काटा । तब उस स्थान से रक्त जल के स्रोत बहने लगे । जब उनके रक्त में स्वेद यानी पसीना और जल मिला । उससे समुद्र का निर्माण तथा 49 कोटि प्रथ्वी का निर्माण हुआ । जैसे दूध पर मलाई ठहर जाती है । वैसे ही जल पर प्रथ्वी ठहर गयी ।
वाराह के दाँत प्रथ्वी के मूल में रहे । पवन प्रचण्ड था । और प्रथ्वी स्थूल थी । आकाश को अंडास्वरूप समझो । और उसके बीच में प्रथ्वी स्थिति है ।
कूर्म के उदर से कूर्म सुत उत्पन्न हुये । उस पर शेषनाग और वराह का स्थान है । शेषनाग के सिर पर प्रथ्वी है । निरंजन के चोट करने से कूर्म बरियाया । सृष्टि रचना का सब साजो सामान कूर्म उदर के अंडे में थी । परन्तु वह कूर्म के अंश से अलग थी । आदि कूर्म सत्यलोक के बीच रहता था ।
निरंजन के आघात से पीङित होकर उसने सत्यपुरुष का ध्यान किया । और शिकायत करते हुये कहा - काल निरंजन ने मेरे साथ दुष्टता की है । उसने मेरे ऊपर बल प्रयोग करते हुये मेरे पेट को फ़ाङ डाला है । आपकी आग्या का उसने पालन नहीं किया ।
सत्यपुरुष स्नेह से बोले - कूर्म ! वह तुम्हारा छोटा भाई है । और यह रीत है कि छोटे के अवगुणों को भुलाकर उससे स्नेह किया जाय । सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर कूर्म आनन्दित हो गये ।
इधर काल निरंजन ने फ़िर से सत्यपुरुष का ध्यान किया । और अनेक युगों तक उनकी सेवा तपस्या की । निरंजन ने अपने स्वार्थ से तप किया था । अतः सृष्टि रचना को लेकर वह पछताया । तब धर्मराय निरंजन ने विचार किया कि तीनों लोकों का विस्तार कैसे और कहाँ तक किया जाय ?
उसने स्वर्गलोक । मृत्युलोक और पाताललोक की रचना तो कर दी । परन्तु बिना बीज और जीव के सृष्टि का विस्तार कैसे संभव हो । किस प्रकार और क्या उपाय किया जाय । जो जीवों के धारण करने का शरीर बनाकर सजीव सृष्टि रचना हो सके । यह सब तरीका विधि सत्यपुरुष की सेवा तपस्या से ही होगा । ऐसा विचार करके हठपूर्वक एक पैर पर खङा होकर उसने 64 युगों तक तपस्या की ।
तब दयालु सत्यपुरुष ने सहज से कहा - अब ये तपस्वी निरंजन क्या चाहता है । वह तुम उससे पूछो । और दे दो । उससे कहो । वह हमारे वचन अनुसार सृष्टि का निर्माण करे । और छल मत का त्याग करे ।
सहज ने निरंजन से जाकर यह सब बात कही । तब निरंजन बोला - मुझे वह स्थान दो । जहाँ जाकर मैं बैठ जाऊँ ।
 यह सुनकर सहज बोले - सत्यपुरुष ने पहले ही सब कुछ दे दिया है । कूर्म के उदर से निकले सामान से तुम सृष्टि रचना करो ।
निरंजन बोला - मैं कैसे क्या बनाकर रचना करूँ । सत्यपुरुष से मेरी तरफ़ से विनती कर कहो । अपना सारा खेत बीज मुझे दे दें ।
सहज ने यह हाल सत्यपुरुष को कह सुनाया । सत्यपुरुष ने आग्या दी । तो सहज अपने सुखासन दीप चले गये ।
निरंजन की इच्छा जानकर सत्यपुरुष ने इच्छा व्यक्त की । उनकी इस इच्छा से अष्टांगी नाम की कन्या उत्पन्न हुयी । वह कन्या आठ भुजाओं की होकर आयी थी । वह सत्यपुरुष के वायें अंग जाकर खङी हो गयी । और प्रणाम करते हुये बोली - हे सत्यपुरुष ! मुझे क्या आग्या है ?
सत्यपुरुष बोले - हे पुत्री ! तुम निरंजन के पास जाओ ।  मैं तुम्हें जो वस्तु देता हूँ । उसे संभाल लो । उससे तुम निरंजन के साथ मिलकर सृष्टि रूपी फ़ुलवारी की रचना करो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सत्यपुरुष ने अष्टांगी नामक कन्या को जो जीव बीज दिया । उसका नाम " सोहंग " है । इस तरह जीव का नाम सोहंग है । जीव ही सोहंगम है । दूसरा नहीं है । और वह जीव सत्यपुरुष का अंश है । फ़िर सत्यपुरुष ने तीन शक्तियों को उत्पन्न किया । उनके नाम चेतन । उलंघिन और अभय थे । सत्यपुरुष ने अष्टांगी कन्या से कहा कि निरंजन के पास जाकर उसे पहचान कर यह 84 लाख जीवों का मूल बीज .. जीव बीज दे दो ।
अष्टांगी कन्या यह जीव बीज लेकर मानसरोवर चली गयी । तब सत्यपुरुष ने सहज को बुलाया ।
सत्यपुरुष ने सहज से कहा । तुम निरंजन के पास जाकर यह कहो । जो वस्तु तुम चाहते थे । वह तुम्हें दे दी गयी है । जीब बीज सोहंग तुम्हें मिल गया है । अब जैसी चाहो सृष्टि रचना करो । और मानसरोवर में जाकर रहो । वहीं से सृष्टि का आरम्भ होना है ।
सहज ने निरंजन से जाकर ऐसा ही कहा । 

27 मई 2011

काल निरंजन और कबीर का समझौता ।

धर्मदास ने विनीत होकर कबीर साहब से कहा -हे प्रभो ! अब आप मुझे आप वह वृतांत कहो । जब आप पहली बार इस संसार में आये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जो तुमने पूछा है । वह युग युग की कथा है । जो मैं तुमसे कहता हूँ । जब सत्यपुरुष ने मुझे आग्या की । तब मैंने जीवों की भलाई के लिये प्रथ्वी की और पाँव बङाया । सतपुरुष को प्रणाम कर मैंने पांव आगे बङाया । और विकराल काल निरंजन के क्षेत्र में आ गया । उस युग में मेरा नाम अंचित था । तब जाते हुये मुझे अन्यायी काल निरंजन मिला । वह मेरे पास आया । और झगङते हुये महाक्रोध से बोला - हे योगजीत ! आप यहाँ कैसे आये हो ? क्या आप मुझे मारने आये हो । हे पुरुष !अपने आने का कारण मुझे बताओ ?
तब मैंने उससे कहा - हे निरंजन सुनो । मैं जीवों का उद्धार करने के लिये सतपुरुष द्वारा भेजा गया हूँ । हे अन्यायी निरंजन ! सुन तुमने बहुत कपट चतुराई की । भोले भाले जीवों को तुमने बहुत भृम में डाला है । और बार बार सताया । सतपुरुष की महिमा को तो तुमने गुप्त रखा । और अपनी महिमा का बङा चङाकर बखान किया । तुम तप्त शिला पर जीव को जलाते हो । और उसे जला पकाकर खाते हुये अपना स्वाद पूरा  करते हो । तुमने ऐसा कष्ट जीवों को दिया । तब ही सतपुरुष ने मुझे आग्या दी कि मैं तेरे जाल में फ़ँसे जीव को सावधान करके सतलोक ले जाऊँ । और काल निरंजन के कष्ट से जीव को मुक्ति दिलाऊं । इसलिये मैं संसार में जा रहा हूं । जिससे जीव को सत्यग्यान देकर जीव को सतलोक भेजूं ।
यह बात सुनते ही काल निरंजन भयंकर रूप हो गया । और मुझे भय दिखाने लगा । फ़िर वह क्रोध से बोला - मैंने 70 युगों तक सतपुरुष की सेवा तपस्या की । तब सतपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य और उसकी मान बङाई दी । फ़िर दोबारा मैंने 64  युग तक सेवा तपस्या की । तब सतपुरुष ने सृष्टि रचने हेतु मुझे अष्टांगी कन्या ( आद्याशक्ति ) को दिया ।
तब तुमने मुझे मारकर मानसरोवर दीप से निकाल दिया था । हे योगजीत ! अब मैं तुम्हें नहीं छोङूँगा । तुम्हें मारकर अपना बदला लूँगा । अब मैं तुम्हें अच्छी तरह समझ गया ।
तब मैंने उससे कहा - हे धर्मराय निरंजन सुनो । मैं तुमसे नहीं डरता । मुझे सतपुरुष का बल और तेज प्राप्त है । अरे काल ! तेरा मुझे कोई डर नहीं । तुम मेरा कुछ नहीं बिगाङ सकते ।
यह कहकर मैंने उसी समय सत्यपुरुष के प्रताप का सुमरन करके दिव्य शब्द अंग से काल को मारा । मैंने उस पर दृष्टि डाली । तो उसी समय उसका माथा काला पङ गया । जैसे किसी पक्षी के पंख चोटिल होने पर वह जमीन पर पङा वेवश होकर देखता है । पर उङ नहीं पाता । ठीक यही हाल काल निरंजन का था । वह क्रोध कर रहा था । पर कर कुछ नहीं पा रहा था । तब फ़िर आकर वह मेरे चरणों में गिर पङा ।
तब निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! सुनो । मैं आपसे विनती करता हूँ कि मैंने आपको भाई समझकर विरोध किया । यह मुझसे बङी गलती हुयी । अब मैं आपको सत्यपुरुष के समान समझता हूँ ।  आप बङे हो । शक्ति सम्पन्न हो । आप गलती करने वाले अपराधी को भी क्षमा देते हो ।
जैसे सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया । वैसे ही आप भी मुझे कुछ पुरस्कार दो । सोलह सुतों में आप ईश्वर हो । हे ग्यानी जी आप और सत्यपुरुष दोनों एक समान हो ।
तब मैंने कहा - हे निरंजन राव सुन । तुम तो सत्यपुरुष के वंश में ( सोलह सुतों में ) कालिख के समान कलंकित हुये हो । मैं जीवों को सत्य शब्द का उपदेश करके सत्यनाम मजबूत करा के बचाने आया हूँ । भवसागर से जीवों को मुक्त कराने को आया हूँ । यदि तुम इसमें विघ्न डालते हो । तो मैं इसी समय तुमको यहाँ से निकाल दूँगा ।
तब निरंजन विनती करते हुये बोला - मैं आपका एवं सत्यपुरुष दोनों का सेवक हूँ । इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं जानता । ग्यानी जी आपसे मेरी विनती है कि ऐसा कुछ मत करो । जिससे मेरा बिगाङ हो । जैसे सत्यपुरुष ने मुझे राज्य दिया । वैसे आप भी दो । तो मैं आपका वचन मानूँगा । फ़िर आप मुक्ति के लिये हँस जीव मुझसे ले लीजिये ।
हे तात ! मैं आपसे विनती करता हूँ । आप मेरी बात को मानो । आपका कहना ये भृमित जीव नहीं मानेंगे । और उल्टे मेरा पक्ष लेकर आपसे वाद विवाद करेंगे । मैंने मोह रूपी फ़ँदा इतना मजबूत बनाया है कि समस्त जीव उसमें उलझ कर रह गये हैं । वेद शास्त्र पुराण स्मृति में विभिन्न प्रकार के गुण धर्म का वर्णन है । और उसमें मेरे तीन पुत्र बृह्मा विष्णु महेश देवताओं में मुख्य हैं ।
उनमें भी मैंने बहुत चतुराई का खेल रचा है कि मेरे मत पँथ का ग्यान प्रमुख रूप से वर्णन किया गया है । जिससे सब मेरी बात ही मानते हैं । मैं जीवों से मन्दिर देव और पत्थर पुजवाता हूँ । और तीर्थ वृत जप और तप में सबका मन फ़ँसा रहता है ।
संसार में लोग देवी देवों और भूत भैरव आदि की पूजा आराधना करेंगे । और जीवों को मार काटकर बलि देंगे । इन ऐसे अनेक मत सिद्धांतो से मैंने जीवों को बाँध रखा है कि धर्म के नाम पर यग्य होम नेम और इसके अलावा भी अनेक जाल मैंने डाल रखे हैं । अतः हे ग्यानी जी ..आप संसार में जायेंगे । तो जीव आपका कहा नहीं मानेंगे । वे मेरे मत फ़ँदे में फ़ँसे रहेंगे ।
तब मैंने कहा - अन्याय करने वाले.. हे निरंजन ! सुनो मैं तुम्हारे जाल फ़ँदे को काटकर जीव को सत्यलोक ले जाऊँगा । जितने भी मायाजाल जीव को फ़ँसाने के लिये तुमने रच रखे हैं । सत शब्द से उन सबको नष्ट कर दूँगा । जो जीव मेरा सार शब्द मजबूती से गृहण करेगा । तुम्हारे सब जालों से मुक्त हो जायेगा । जब जीव मेरे शब्द उपदेश को समझेगा । तेरे फ़ैलाये हुये सब भृम अग्यान को त्याग देगा । मैं जीवों को सतनाम समझाऊँगा । साधना कराऊँगा । और उन हँस जीवों का उद्धार कर सतलोक ले जाऊँगा ।
सत्य शब्द दृणता से देकर मैं उन हँस जीवों को दया । शील । क्षमा । काम आदि विषयों से रहित । सहजता  । सम्पूर्ण संतोष और आत्मपूजा आदि अनेक सदगुणों का धनी बना दूँगा । सतपुरुष के सुमरन का जो सार उपाय है । उसमें सतपुरुष का अविचल नाम हँस जीव पुकारेंगे । तब तुम्हारे सिर पर पांव रखकर मैं उन हँस जीवों को सतलोक भेज दूँगा । अविनाशी अमृत नाम का प्रचार प्रसार करके मैं हँस जीवों को चेताकर भृम मुक्त कर दूँगा ।
इसलिये हे धर्मराय निरंजन ! मेरी बात मन लगाकर सुन । इस प्रकार मैं तुम्हारा मान मर्दन करूँगा । जो मनुष्य विधिपूर्वक सदगुरु से दीक्षा लेकर नाम को प्राप्त करेगा । उसके पास काल नहीं आता । सत्यपुरुष के नामग्यान से हँस जीव को संधि हुआ देखकर काल निरंजन भी उसको सिर झुकाता है ।
मेरी इतनी बात सुनते ही काल निरंजन भयभीत हो गया । उसने हाथ जोङकर विनती की - हे तात ! आप दया करने वाले साहब दाता हो । इसलिये आप मुझ पर इतनी कृपा करो । सतपुरुष ने मुझे ऐसा शाप दिया है कि  मैं नित्य लाखों जीव खाऊँ । यदि संसार के सभी जीव सत्यलोक चले गये । तो मेरी भूख कैसे मिटेगी ? फ़िर सतपुरुष ने मुझ पर दया की । और भवसागर का राज्य मुझे दिया । आप भी मुझ पर कृपा करो । और जो मैं माँगता हूँ । वह वर मुझे दीजिये ।
सतयुग त्रेता और द्वापर इन तीनों में से थोङे जीव सत्यलोक में जायँ । लेकिन जब कलियुग आये । तो आपकी शरण में बहुत जीव जायँ । ऐसा पक्का वचन मुझे देकर ही आप संसार में जायें ।
तब मैंने कहा - अरे काल निरंजन ! तुमने ये छल मिथ्या का जो प्रपंच फ़ैलाया है । और तीनों युगों में जीव को दुख में डाल दिया । मैंने तुम्हारी विनती जान ली । अरे अभिमानी काल ! तुम मुझे ठगते हो ।
जैसी विनती तुमने मुझसे की । वह मैंने तुम्हें बख्श दी । लेकिन चौथा युग यानी कलियुग जब आयेगा ।  तब मैं जीवों के उद्धार के लिये अपने वंश यानी सन्तों को भेजूँगा ।
आठ अंश सुरति संसार में जाकर प्रकट होंगे । उसके पीछे फ़िर नये और उत्तम स्वरूप सुरति । नौतम । धर्मदास के घर जाकर प्रकट होंगे । सतपुरुष के वे 42 अंश जीव उद्धार के लिये संसार में आयेंगे । वे कलियुग में व्यापक रूप से पंथ प्रकट कर चलायेंगे । और जीव को ग्यान प्रदान कर सतलोक भेजेंगे । वे 42 अंश जिस जीव को सत्य शब्द का उपदेश देंगे । मैं सदा उनके साथ रहूँगा । तब वह जीव यमलोक नहीं जायेगा । और काल जाल से मुक्त रहेगा ।
तब निरंजन बोला - हे साहिब ! आप पँथ चलाओ । और भवसागर से उद्धार कर जीव को सतलोक ले जाओ । जिस जीव के हाथ में मैं अंश वंश की छाप ( नाम मोहर ) देखूँगा । उसे मैं सिर झुकाकर प्रणाम करूँगा । सतपुरुष की बात को मैंने मान लिया । परन्तु हे ग्यानी जी ..मेरी भी एक विनती है ।
आप एक पँथ चलाओगे । और जीवों को नाम देकर सत्यलोक भिजवाओगे । तब मैं 12 पँथ ( नकली ) बनाऊँगा । जो आपकी ही बात करते हुये ( मतलब आपके जैसे ही ग्यान की बात.. मगर फ़र्जी ) ग्यान देंगे । और अपने आपको कबीरपँथी ही कहेंगे । मैं 12 यम संसार में भेजूँगा । और आपके नाम से पँथ चलाऊँगा । मृतु अंधा नाम का मेरा एक दूत सुकृत धर्मदास के घर जन्म लेगा । पहले मेरा दूत धर्मदास के घर जन्म लेगा । इसके बाद आपका अंश वहाँ आयेगा । इस प्रकार मेरा वह दूत जन्म लेकर जीवों को भरमायेगा । और जीवों को सत्यपुरुष का नाम उपदेश ( मगर नकली प्रभावहीन ) देकर समझायेगा ।
उन 12 पँथ के अंतर्गत जो जीव आयेंगे । वे मेरे मुख में आकर मेरा ग्रास बनेंगे । मेरी इतनी विनती मानकर मेरी बात बनाओ । और मुझ पर कृपा करके मुझे क्षमा कर दो ।
द्वापर युग का अंत और कलियुग की शुरूआत जब होगी । तब मैं बौद्ध शरीर धारण करूँगा । इसके बाद मैं उङीसा के राजा इंद्रमन के पास जाऊँगा । और अपना नाम जगन्नाथ धराऊँगा । राजा इन्द्रमन जब मेरा अर्थात जगन्नाथ मंदिर समुद्र के किनारे बनवायेगा । तब उसे समुद्र का पानी ही गिरा देगा । उससे टकराकर बहा देगा । इसका विशेष कारण यह होगा कि त्रेता युग में मेरे विष्णु का अवतार राम वहाँ आयेगा । और वह समुद्र से पार जाने के लिये समुद्र पर पुल बाँधेगा । इसी शत्रुता के कारण समुद्र उस मंदिर को डुबा देगा ।
अतः हे ग्यानी जी ! आप ऐसा विचार बनाकर पहले वहाँ समुद्र के किनारे जाओ । आपको देखकर समुद्र रुक जायेगा । आपको लाँघकर समुद्र आगे नहीं जायेगा । इस प्रकार मेरा वहाँ मंदिर स्थापित करो । उसके बाद अपना अंश भेजना ।
आप भवसागर में अपना मत पँथ चलाओ । और सत्यपुरुष के सतनाम से जीवों का उद्धार करो । और अपने मत पँथ का चिह्न छाप मुझे बता दो । तथा सत्यपुरुष का नाम भी सुझा समझा दो । बिना इस छाप के जो जीव भवसागर के घाट से उतरना चाहेगा । वह हँस के मुक्ति घाट का मार्ग नहीं पायेगा ।
तब मैंने कहा - हे निरंजन ! जैसा तुम मुझसे चाहते हो । वैसा तुम्हारे चरित्र को मैंने अच्छी तरह समझ लिया है । तुमने 12 पँथ चलाने की जो बात कही है । वह मानों तुमने अमृत में विष डाल दिया है । तुम्हारे इस चरित्र को देखकर तुम्हें मिटा ही डालूँ । और अब पलटकर अपनी कला दिखाऊँ । तथा यम से जीव का बँधन छुङाकर अमरलोक ले जाऊँ ।
गर सतपुरुष का आदेश ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैंने निश्चय किया है कि अमरलोक उस जीव को ले जाकर पहुँचाऊँगा । जो मेरे सत्य शब्द को मजबूती से ग्रुहण करेगा ।
हे अन्यायी निरंजन ! तुमने जो 12 पँथ चलाने की माँग कही है । वह मैंने तुमको दी । पहले तुम्हारा दूत धर्मदास के यहाँ प्रकट होगा । पीछे से मेरा अंश आयेगा । समुद्र के किनारे में चला जाऊँगा । और जगन्नाथ मंदिर भी बनवाऊँगा । उसके बाद अपना सत्य पँथ चलाऊँगा । और जीवों को सत्यलोक भेजूँगा ।
तब निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! आप मुझे सत्यपुरुष से अपने मेल का छाप निशान दीजिये । जैसी पहचान आप अपने हंस जीवों को दोगे । जो जीव मुझको उसी प्रकार की निशान पहचान बतायेगा । उसके पास काल नहीं आयेगा । अतः हे साहिब दया करके सतपुरुष की नाम निशानी मुझे दें ।
तब मैंने कहा - हे धर्मराय निरंजन ! जो मैं तुम्हें सत्यपुरुष के मेल की निशानी समझा दूँ । तो तुम जीवों के उद्धार कार्य में विघ्न पैदा करोगे । तुम्हारी इस चाल को मैंने समझ लिया । हे काल ! तुम्हारा ऐसा कोई दाव मुझ पर नहीं चलने वाला । हे धर्मराय ! मैंने तुम्हें साफ़ शब्दों में बता दिया कि अपना अक्षर नाम मैंने गुप्त रखा है । जो कोई हमारा नाम लेगा । तुम उसे छोङकर अलग हो जाना । जो तुम हँस जीवों को रोकोगे । तो काल तुम रहने नहीं पाओगे ।
तब धर्मराय निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! आप संसार में जाईये । और सत्यपुरुष के नाम द्वारा जीवों को उद्धार करके ले जाईये । जो हँस जीव आपके गुण गायेगा । मैं उसके पास कभी नहीं आऊँगा । जो जीव आपकी शरण में आयेगा । वह मेरे सिर पर पाँव रखकर भवसागर से पार होगा । मैंने तो व्यर्थ आपके सामने मूर्खता की । तथा आपको पिता समान समझकर लङकपन किया । बालक करोंङो अवगुण वाला होता है । परन्तु पिता उनको ह्रदय में नहीं रखता । यदि अवगुणों के कारण पिता बालक को घर से निकाल दे । फ़िर उसकी रक्षा कौन करेगा । इसी प्रकार मेरी मूर्खता पर यदि आप मुझे निकाल देंगे । तो फ़िर मेरी रक्षा कौन करेगा ? ऐसा कहकर निरंजन ने उठकर शीश नवाया । और मैंने संसार की और प्रस्थान किया ।
तब कबीर साहब ने धर्मदास से कहा - जब मैंने निरंजन को व्याकुल देखा । तब मैंने वहाँ से प्रस्थान किया । और भवसागर की ओर चला आया ।

26 मई 2011

वाको गुरु गोरख नाथ भी का करे

यह स्वाभाविक है । जब कभी तुम आतंकित महसूस करो । बस विश्रांत हो जाओ । इस सत्य को स्वीकार लो कि भय यहां है । लेकिन उसके बारे में कुछ भी मत करो । उसकी उपेक्षा करो । उसे किसी प्रकार का ध्यान मत दो । शरीर को देखो । वहां किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए । यदि शरीर में तनाव नहीं रहता । तो भय स्वतः समाप्त हो जाता है । भय जड़ें जमाने के लिए शरीर में एक तरह की तनाव दशा बना देता है । यदि शरीर विश्रांत है । भय निश्चित ही समाप्त हो जाएगा । विश्रांत व्यक्ति भयभीत नहीं हो सकता है । तुम एक विश्रांत व्यक्ति को भयभीत नहीं कर सकते । यदि भय आता भी है । वह लहर की तरह आता है । वह जड़ें नहीं जमाएगा । भय लहरों की तरह आता है । और जाता है । और तुम उससे अछूते बनते रहते हो । यह सुंदर है । जब वह तुम्हारे भीतर जड़ें जमा लेता है । और तुम्हारे भीतर विकसित होने लगता है । तब यह फोड़ा बन जाता है । कैंसर का फोड़ा । तब वह तुम्हारे अंतस की बनावट को अपाहिज कर देता है । तो जब कभी तुम आतंकित महसूस करो । एक चीज देखने की होती है कि शरीर तनावग्रस्त नहीं होना चाहिए । जमीन पर लेट जाओ । और विश्रांत होओ । विश्रांत होना भय की विनाशक औषधि है । और वह आएगा । और चला जाएगा । तुम बस देखते हो । देखने में पसंद या नापंसद नहीं होनी चाहिए । तुम बस स्वीकारते हो कि यह ठीक है । दिन गरम है । तुम क्या कर सकते हो ? शरीर से पसीना छूट रहा है । तुम्हें इससे गुजरना है । शाम करीब आ रही है । और शीतल हवाएं बहनी शुरू हो जाएंगी । इसलिए बस देखो । और विश्रांत होओ । एक बार तुम्हें इसकी कला आ जाती है । और यह तुम्हारे पास बहुत शीघ्र ही होगी कि यदि तुम विश्रांत होते हो । भय तुम्हें पकड़ नहीं सकता कि यह आता है । और जाता है । और तुम्हें बगैर भयभीत किए छोड़ देता है । तब तुम्हारे पास कुंजी आ जाती है । और यह आएगी । यह आएगी । क्योंकि जितने हम बदलते हैं । उतना ही अधिक भय आएगा । हर बदलाव भय पैदा करता है । क्योंकि हर बदलाव तुम्हें अपरिचित में डाल देता है । अजनबी संसार में डाल देता है । यदि कुछ भी नहीं बदलता है । और हर चीज स्थिर रहती है । तुम्हारे को कभी भी भय नहीं पकड़ेगा । इसका अर्थ होता है । यदि हर चीज मृत हो । तुम डरोगे नहीं । उदाहरण के लिए तुम नीचे बैठे हो । और वहां नीचे चट्टान है । तो कोई समस्या नहीं है । तुम चट्टान की तरफ देखोगे । और हर चीज ठीक है । अचानक चट्टान चलने लगे । तो तुम भयभीत हो जाते हो । जीवंतता ! गति भय पैदा करती है । और यदि हर चीज अडोल है । वहां कोई भय नहीं है । इसी कारण लोग डरते हैं । भय पूर्ण स्थितियों में जाते डरते हैं । जीवन को ऐसा जीते हैं कि बदलाव ना आए । हर चीज वैसी की वैसी बने रहे । और लोग मृत ढर्रों का पालन करते हैं । इस बात से पूरी तरह बेखबर कि जीवन प्रवाह है । वह अपने ही बनाए एकांत टापू पर बना रहता है । जहां कुछ भी नहीं बदलता । वही कमरा, वही फोटो, वही फर्नीचर, वही घर, वही आदतें, वही चप्पलें । सब कुछ वही का वही । एक ही ब्रांड की सिगरेट । दूसरी ब्रांड तुम पसंद नहीं करोगे । इसके बीच, इस एकरसता के बीच तुम सहज महसूस करते हो । लोग लगभग अपनी कब्रों में जीते हैं । जिसे तुम सुविधाजनक और आरामदायक जीवन कहते हो । वह और कुछ नहीं । बस सूक्ष्म कब्र है । इसलिए जब तुम बदलना शुरू करते हो । जब तुम अपने भीतर की यात्रा शुरू करते हो । जब तुम अपने अंतस के जगत के अंतरिक्ष यात्री बनते हो । और हर चीज इतनी तेज बदल रही है कि हर क्षण भय के साथ कंप रहा है । तो अधिक से अधिक भय देखना होगा । उसे वहां बने रहने दो । धीरे धीरे तुम बदलाव का मजा लेने लगोगे । इतना कि तुम किसी भी कीमत पर इसके लिए तैयार होओगे । बदलाव तुम्हें जीवन शक्ति देगा । अधिक जीवंतता, जोश, ऊर्जा देगा । तब तुम कुंड की तरह नहीं होओगे । सब तरफ से बंद । कोई हलन चलन नहीं । तुम नदी की तरह बन जाओगे । अज्ञात की तरफ प्रवाहित । समुद्र की तरफ जहां नदी विशाल हो जाती है - ओशो ।
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सभी को यह बुनियादी अधिकार दिया जाना चाहिए कि एक नियत उम्र के बाद, जब उसने पर्याप्त जीवन जी लिया । और नाहक ही घसीटना नहीं चाहता । क्योंकि आने वाला कल फिर एक दोहराव ही होगा । उसने आने वाले कल के लिए सब तरह की उत्सुकता खो दी । उसे अपना शरीर छोड़ने का पूरा पूरा अधिकार है । यह उसका मौलिक अधिकार है । यह उसका जीवन है । यदि वह इसे जारी नहीं रखना चाहता । किसी को उसे नहीं रोकना चाहिए । सच तो यह है कि हर अस्पताल में ऐसा विशेष वार्ड होना चाहिए । जहां जो लोग मरना चाहते हैं । वे एक महीने पहले प्रवेश कर सकते हैं । विश्रांत हो सकते हैं । हर उस चीज का आनंद लें । जो जीवन भर वे करना चाहते थे । लेकिन कर नहीं पाए -संगीत, साहित्य । यदि वे चित्र बनाना चाहें । या मूर्ति बनाना चाहें । और डाक्टर उन्हें सिखाएं कि कैसे विश्रांत हुआ जाए । अब तक, मृत्यु लगभग भद्दी बात रही है । मनुष्य उसका शिकार हुआ है । लेकिन यह गलती है । मृत्यु को उत्सव बनाया जा सकता है । तुम्हें बस इतना सीखना है कि कैसे इसका स्वागत किया जाए । विश्रांत, शांति पूर्ण । और एक महीने में, लोग, मित्र उन्हें देखने और मिलने आ सकते हैं । और एक साथ रह सकते हैं । प्रत्येक अस्पताल में विशेष सुविधाएं होनी चाहिए । जो लोग जीने वाले हैं । उनसे अधिक सुविधाएं उनके लिए होनी चाहिए । जो मरने वाले हैं । कम से कम एक महीना उन्हें राजा की तरह जीने दो । ताकि वे जीवन को बिना किसी दुश्मनी के छोड़ सकें । बिना किसी शिकायत के बल्कि गहन कृतज्ञता के साथ । धन्यवाद के साथ ।
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मेरी दृष्टि में, आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है । उसका नाम शरीर है । और आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ के बाहर रह जाता है । उसका नाम आत्मा है । अदृश्य शरीर का नाम आत्मा है । दृश्य आत्मा का नाम शरीर है । ये दो चीजें नहीं हैं । ये दो अस्तित्व नहीं हैं । ये एक ही अस्तित्व की दो विभिन्न तरंग-अवस्थाएं हैं - ओशो ।
ऊपर से भरे नीचे से झरे । वाको गुरु गोरख नाथ भी का करे ।
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परमात्मा के द्वार पर अगर तुम कुछ भी होकर गए । कुछ भी - पुण्यात्मा । त्यागी । संन्यासी । ज्ञानी । पंडित । कुछ भी होकर तुम गये कि तुम चूक जाओगे । वह द्वार उन्हीँ के लिये खुलता है । जो न कुछ होकर जाते हैँ - ओशो ।
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मेरे संन्यास मेँ सिर्फ एक शर्त है । और वह है - ध्यान । बाकी कोई नियम ऊपर से थोपने के लिए मैँ राजी नहीँ हूँ । जो व्रत नियम थोपे जाते हैँ । वे पाखंड का निर्माण कर देते हैँ - ओशो ।

25 मई 2011

यह मतलब है आंखों में बसने का

बसो मेरे नैनन में नंदलाल । मीरा कहती है - मेरी आंखों में बस जाओ नंदलाल । मेरी आंखों में तुम ही रहो । मेरी आंखें तुम्हारा घर बन जाएं । जागूं तो तुम्हें देखूं । सोऊं तो तुम्हें देखूं । आंख खोलूं तो तुम्हें देखूं । रात सपना देखूं तो तुम्हारा देखूं । यह मतलब है आंखों में बसने का । तुम्हें छोडूं ही न । तुम मेरे भीतर रहने लगो । बसौ मेरे नैनन में नंदलाल । मोहनी मूरत सांवरी सूरत । ध्यान करना । भक्त की खोज सौंदर्य के माध्यम से परमात्मा की खोज है । मोहनी मूरत सांवरी सूरत । यह भी ध्यान रखना कि इस देश में हमने कृष्ण को, राम को सांवरा कहा है । कभी  कभी पश्चिम के लोगों को हैरानी होती है कि हमने सुंदरतम व्यक्तियों को सांवरा क्यों कहा है ? गोरा क्यों नहीं कहा ? कारण हैं । सांवरेपन में एक गहराई होती है । जो गोरेपन में नहीं होती । गोरापन थोड़ा सा उथला उथला होता है । गोरापन ऐसा ही होता है । जैसे कि नदी बहुत छिछली  छिछली । तो पानी सफेद मालूम पड़ता है । जब नदी गहरी हो जाती है । तो पानी नीला हो जाता है । सांवरा हो जाता है । कृष्ण सांवरे थे । ऐसा नहीं है । हमने इतना ही कहा है सांवरा कहकर कि कृष्ण के सौंदर्य में बड़ी गहराई थी । जैसे गहरी नदी में होती है । जहां जल सांवरा हो जाता है । यह सौंदर्य देह का ही सौंदर्य नहीं था । यह हमारा मतलब है । खयाल मत लेना कि कृष्ण सांवले थे । रहे हों । न रहे हों । यह बात बड़ी बात नहीं है । लेकिन सांवरा हमारा प्रतीक है इस बात का कि यह सौंदर्य शरीर का ही नहीं था । यह सौंदर्य मन का था । मन का ही नहीं था । यह सौंदर्य आत्मा का था । यह सौंदर्य इतना गहरा था । उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवरापन था । छिछला नहीं था सौंदर्य । अनंत गहराई लिए था । 
मोहनी मूरत सांवरी सूरत, नैना बने बिसाल । ये तुम्हारी बड़ी बड़ी आंखें सदा मेरा पीछा करती रहें । ये सदा मुझे देखती रहें । मुझमें झांकती रहें । मोर मुकुट मकराकृति कुंडल । यह तुम्हारा मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट । यह तुम्हारा सुंदर मुकुट । जिसमें सारे रंग समाएं हैं । वही प्रतीक है । मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट प्रतीक है इस बात का कि कृष्ण में सारे रंग समाए हैं । महावीर में एक रंग है । बुद्ध में एक रंग है । राम में एक रंग है । कृष्ण में सब रंग हैं । इसलिए कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा है । सब रंग हैं । इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है । सभी को आत्मसात कर लिया है । कृष्ण इंद्रधनुष हैं । जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं । कृष्ण त्यागी नहीं हैं । कृष्ण भोगी नहीं हैं । कृष्ण ऐसे त्यागी हैं । जो भोगी हैं । कृष्ण ऐसे भोगी हैं । जो त्यागी हैं । कृष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं । बाजार में हैं । युद्ध के मैदान पर हैं । और फिर भी कृष्ण के हृदय में हिमालय है । वही एकांत ! वही शांति ! अपूर्व सन्नाटा ! कृष्ण अदभुत अद्वैत हैं । चुना नहीं है कृष्ण ने कुछ । सभी रंगों को स्वीकार किया है । क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं । मोर मुकुट मकराकृति कुंडल । अरुण तिलक दिए भाल । यह तुम्हारा लाल तिलक ! ये तुम्हारे मछली के आकार के कुंडल ! ये तुम्हारे मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट ! ये तुम्हारी बड़ी बड़ी आंखें ! बसो मेरे नैनन में नंदलाल । अधर सुधारस मुरली राजति । यह तुम्हारे नीचे ओंठ पर रखी हुई मुरली । इसे इससे और कोई सुंदर जगह तो बैठने को मिल भी नहीं सकती । अधर सुधारस मुरली राजति । और यह मुरली कोई साधारण नहीं है । इससे तुम जब गाते हो । तो सुधा बरसा देते हो । अमृत बहा देते हो । कृष्ण रंग हैं । राग हैं । महावीर में कोई राग नहीं है । महावीर संगीत  शून्य हैं । कृष्ण जीवन के संगीत से भरे हैं । तो महावीर में वीतरागता की स्पष्टता है । स्वभावतः क्योंकि एक ही रंग है । एक स्पष्ट दिशा है । कृष्ण में मेला है । सभी रंगों का । स्वभावतः महावीर के वक्तव्य बहुत तर्क युक्त होंगे । क्योंकि एक ही रंग हैं । दूसरे रंग की बात ही नहीं है । कृष्ण के वक्तव्य विरोधाभासी होंगे । क्योंकि सभी रंग है । अनंत रंगों का मेला है । महावीर का स्वर बिलकुल स्पष्ट है । कृष्ण के स्वर बेबूझ हैं । अटपटे हैं । अधर सुधारस मुरली राजति - कृष्ण सेतु हैं संसार में । और परमात्मा में । कृष्ण ने दोनों को जोड़ा है । इसलिए कृष्ण के संगीत में अपूर्वता है । संगीत में बांसुरी है । जो संसार की है । और संगीत है । जो परमात्मा का है । ओंठों पर बांसुरी रखी है । ओंठ तो देह के हैं । लेकिन जो स्वर आ रहे हैं । वे आत्मा से आ रहे हैं । यह अपूर्व सम्मिलन है । अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंती माल । वह वैजंती माला पहने हुए हो । वैजंती माला पांच रंगों की बनती है । पांचों इंद्रियों ने जो दिया है । कृष्ण ने सभी को समाहित कर लिया है । समाविष्ट कर लिया है । कृष्ण ने आंख नहीं फोड़ीं । कान नहीं रौंदे । हाथ नहीं काटे । कृष्ण ने इंद्रियों को नष्ट नहीं किया । कृष्ण इंद्रियों की सारी संवेदनशीलता को पचा गए । कृष्ण इंद्रियों के शत्रु नहीं हैं । कृष्ण में जीवन का निषेध नहीं है । जीवन का परिपूर्ण स्वीकार है । अहोभाव से स्वीकार है । कृष्ण जैसा व्यक्ति पूरे मनुष्य  जाति के इतिहास में खोजना कठिन है । क्योंकि कहीं न कहीं । कोई न कोई चीज कम मालूम पड़ेगी ।
ईसाई कहते हैं - जीसस कभी हंसे नहीं । क्यों ? क्योंकि जीसस गंभीर हैं । कैसे हंस सकते हैं ? तो जीसस बड़े संगत हैं । कृष्ण खिलखिला कर हंस सकते हैं । और इससे उनकी गंभीरता में बाधा नहीं पड़ती । यह हंसना उनकी गंभीरता का खंडन नहीं होता । उनमें विरोध एक दूसरे को सम्हालते हैं । समृद्ध करते हैं । ध्यान रखना । दुनिया का कोई भी संत कृष्ण जैसा रस से सराबोर नहीं है । कुछ है । और बड़ी मात्रा में है । लेकिन कुछ बिलकुल नहीं है । इसलिए हिंदुओं ने ठीक ही किया कि किसी और अवतार को पूर्णावतार नहीं कहा । बुद्ध को भी पूर्णावतार नहीं कहा । राम को भी पूर्णावतार नहीं कहा । अवतार कहा । परमात्मा आंशिक रूप में उतरा है । एक ढंग से उतरा है । बुद्ध में ध्यान की तरह उतरा है कि महावीर में त्याग की तरह उतरा है । तो महावीर का जो त्याग है । वह चरम है । मगर बस त्याग है । एकांगी है व्यक्तित्व । बुद्ध का जो ध्यान है । वह चरम है । लेकिन एकांगी है । कृष्ण में संतुलन है । तराजू के सब पलड़े एक तल पर आ गए हैं । कृष्ण में कुछ कमी नहीं है । निश्चित ही खतरा भी है । क्योंकि कुछ कमी न होने की वजह से सब कुछ है । तुम जो चाहो । चुन लो । इसलिए कृष्ण के भक्तों ने जो चाहा चुन लिया । किसी ने एक बात चुन ली । किसी ने दूसरी बात चुन ली । किसी ने गीता चुन ली । तो वह भागवत नहीं पढ़ता । क्योंकि भागवत में मुश्किल हो जाती है उसे । उसे कृष्ण गीता के जंचते हैं । किसी ने भागवत चुन ली । तो गीता की बहुत फिकर नहीं करता ।
सूरदास कृष्ण के बचपन के गीत गाते हैं । तुमने पढ़ा न कि सूरदास की कहानी है - एक सुंदर स्त्री को देखकर उन्होंने अपनी आंखें फोड़ लीं । ऐसे सूरदास कृष्ण के भक्त हैं । यह करना नहीं चाहिए । कृष्ण का भक्त और ऐसा करे । तो फिर राम के भक्त को तो फांसी लगा लेनी पड़ेगी । फिर तो जीना ही मुश्किल हो जाएगा । यह बात ठीक नहीं है । लेकिन उन्होंने चुन लिया है । अब यह बात कहां जमती है कृष्ण के साथ ? जो कि नदी के तट पर नहाती हुई स्त्रियों के कपड़े लेकर वृक्ष पर बैठ जा सकता है । उसके साथ यह सूरदास की दोस्ती कैसे जमेगी ? एक स्त्री को देखकर इन्होंने आंखें फोड़ लीं कि कहीं इससे कामवासना न जग जाए । और इनके जो गुरु हैं । वे नहाती अपरिचित स्त्रियों के कपड़े उठाकर और झाड़ पर बैठ गए हैं । नहीं । यह बात जमती नहीं । तो इसलिए सूरदास ने कृष्ण के बचपन को चुन लिया है । वे उनके बचपन की बातें करते हैं । वे बचपन में जो पांव में पैजनियां बजती है । बस उसी की बात करते हैं । उसके बाद जो बांसुरी बजी है । और ऐसी बजी है कि दूसरे की स्त्रियां अपने पतियों को छोड़कर कृष्ण की हो गईं । उसकी बात करने में डरते हैं कि यह जरा खतरा है ।
उसकी बात करने वाले लोग भी हैं । जैसे गीत गोविंद में, जयदेव ने उसी की बात की है । मध्ययुग में रीतिकालीन कवियों ने बस कृष्ण के उसी श्रंगारिक रूप की चर्चा की है । उसी भोग  विलास को खूब बढ़ाकर बताया है । ये दोनों बातें गलत हैं । कृष्ण को समझना हो । तो पूरा ही समझना चाहिए । अंग नहीं चुनने चाहिए । पूरा ही समझोगे । तो ही कृष्ण के साथ ज्यादती करने से बचोगे । नहीं तो ज्यादती हो जाएगी । फिर मैं समझता हूं कि पूरा समझने में तुम्हें बहुत दिक्कत है । क्योंकि तब बहुत सी असंगतियां दिखाई पड़ेंगी । एक अंग चुनने में संगति मालूम पड़ती है । बहुत से अंग चुनने में असंगति हो जाती है । क्योंकि फिर तुम तालमेल नहीं बिठा पाते । तुम बिठा भी न पाओगे । जब तक कृष्णमय न हो जाओ । कृष्ण की चेतना ही तुम्हारे भीतर जन्मे । तो ही तुम तालमेल बिठा पाओगे । तभी तुम जान पाओगे कि ये सब अंग एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं । बल्कि एक दूसरे को समृद्ध करते हैं । रात दिन के खिलाफ नहीं है । रात से ही दिन पैदा होता है । और दिन रात का दुश्मन नहीं है । क्योंकि दिन से ही रात पैदा होती है । जीवन और मृत्यु सब जुड़े हैं । संयुक्त हैं । मोर मुकुट मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक दिए भाल । अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंती माल । छुद्र घंटिका कटितट सोभित । कमर में करधनी बांधे हुए हैं । जिसमें छोटे छोटे घुंघरू बंधे हैं । छुद्र घंटिका कटितट सोभित, नूपुर सबद रसाल । जैसे मीठा मीठा स्वर हो रहा है - ओशो ।
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व्यवहार में मधुरता हो । और वाणी में शहद जैसी मिठास हो । तो किए गये हर काम में खुशबु होती है । यदि व्यवहार और वाणी में कड़वाट हो । तो किया गया हर काम बेकार होता है ।
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रेत के महल -  मृण्मय घरों को ही ही बनाने में जीवन को व्यय मत करो । उस चिन्मय घर का भी स्मरण करो । जिसे कि पीछे छोड़ आये हो ? और जहां कि आगे भी जाना है । उसका स्मरण आते ही ये घर फिर घर नहीं रह जाते हैं । नदी की रेत में कुछ बच्चे खेल रहे थे । उन्होंने रेत के मकान बनाये थे । और प्रत्येक कह रहा था - यह मेरा है । और सबसे श्रेष्ठ है । इसे कोई दूसरा नहीं पा सकता है । ऐसे वे खेलते रहे । और जब किसी ने किसी के महल को तोड़ दिया । तो लड़े झगड़े भी । फिर सांझ का अंधेरा घिर आया । उन्हें घर लौटने का स्मरण हुआ । महल जहां थे । वहीं पड़े रह गये । और फिर उनमें उनका मेरा और तेरा भी न रहा । यह प्रबोध प्रसंग कहीं पढ़ा था । मैंने कहा - यह छोटा सा प्रसंग कितना सत्य है । और क्या हम सब भी रेत पर महल बनाते बच्चों की भांति नहीं हैं ? और कितने कम ऐसे लोग हैं । जिन्हें सूर्य के डूबते देखकर घर लौटने का स्मरण आता हो । और क्या अधिक लोग रेत के घरों में मेरा तेरा का भाव लिये ही जगत से विदा नहीं हो जाते हैं ?  स्मरण रखना कि प्रौढ़ता का उम्र से कोई संबंध नहीं । मिट्टी के घरों में जिसकी आस्था न रही । उसे ही मैं प्रौढ़ कहता हूं । शेष सब तो रेत के घरों में खेलते बच्चे ही हैं ।

24 मई 2011

धर्म का क्या अर्थ है ?

एक प्रश्न के उत्तर में - समाधि या सहज समाधि का हमारे यहाँ जो नियम और तरीका है । वह मैं आपको बता सकता हूँ । चाहे कोई भी मनुष्य कितनी ही बङी साधना से आया हो । हमारे यहाँ नियमानुसार पहले हँस दीक्षा देते हैं । और यदि वो ध्यान का अच्छा अभ्यासी है । ध्यान में प्रविष्ट है । तो भले ही अगले दिन परमहँस दीक्षा कर देते हैं । यदि ध्यान का अच्छा अभ्यास नहीं है । तो छह महीने या एक वर्ष कम से कम अभ्यास कराया जाता है । जब ध्यान दसवें द्वार तक पहुँचने लगता है । या दूसरे शब्दों में साधक शरीर से अलग होना सीख जाता है । तब परमहँस दीक्षा करते हैं । इसके बाद इस दीक्षा की क्रियायें जब कुछ हद तक प्रकट होने लगती हैं । तब समाधि दी जाती है ।
सामान्यतः ये सब लगन, मेहनत और जीवन से अनुकूल परिस्थिति वाले के साथ ही हो पाता है । या फ़िर साधक की परिस्थितियां इस बात की इजाजत देती हों कि वह आश्रम में बीच बीच में दस पन्द्रह दिन रुक सके । इससे पूर्व यदि किसी को वैचारिक रूप से सैद्धांतिक अङचन से ध्यान वाधा होती है । तव उसकी जटिल धारणाओं को सतसंग द्वारा निर्मूल किया जाता है । जिससे वह वैचारिक सूक्ष्म होकर उत्तम ध्यान को पाता है । इस तरह सब कुछ साधक की स्वयं की स्थिति परिस्थिति पर अधिक निर्भर होता है ।

अष्टावक्र गीता में राजा जनक का दूसरा प्रश्न ( जिसके उत्तर देने पर इनाम में पूरा राज्य या न देने पर मृत्यु की सजा थी ) था - मैंने सुना और पढा है कि परमात्मा की प्राप्ति इतनी देर में संभव है कि घोङे की एक रकाब से दूसरे रकाब में पैर डालो । क्या ये सही है ? अष्टावक्र ने उत्तर दिया । बिलकुल सही है । जनक बोले - फ़िर साबित करो । और अष्टावक्र ने किया । आत्मज्ञान तत्क्षण भी संभव है । और इसको तत्क्षण ही बताया भी है । लोग सालों लगा लेते हैं सिर्फ़ आदत से मजबूर होने के कारण ।
अहम बृह्मास्मि ! यानी जब जीव रूपी अहम या मैं मेरा का पूर्ण नाश हो जाता है । अंतःकरण नहीं बचता । तब की यह स्थिति है । जब वह साक्षात हो जाता है । इसी को कबीर ने कहा है - अपनी मढी में आप मैं खेलूँ । खेलूँ खेल स्वेच्छा । इसको पतंजलि की भाषा में निर्विकल्प समाधि का पूर्ण होना भी कह सकते हैं । यह एक भाव से बहुत उच्च स्थिति है । जो सिर्फ़ उच्च और पूर्ण योग समर्पित साधकों को ही प्राप्त होती है । बाकी कोई इसके बारे में कुछ और कहता है । तो उसे स्वयं जानकारी नहीं । और दूसरों को भी भृमित ही कर रहा है ।
सन्त मिलन को चालिये तज माया अभिमान ।
ज्यों ज्यों पग आगे धरो कोटिन यज्ञ समान ।
जहाँ तक आर्थिक या अन्य परेशानियों की बात है । हम किसी चमत्कार की बात नहीं कहते । यह व्यक्ति के पूर्व जन्मों के संचित संस्कार अनुसार प्रारब्ध वश उसके शुभ अशुभ कर्मों की फ़ल श्रंखला के कारण हो रहा होता है । यदि शुभ संस्कार हों । तो भक्ति से प्रभाव में बढोत्तरी हो जाती है । और अशुभ होने पर भक्ति दवा की भांति राहत का काम करती है । हाँ यदि कोई वाकई बहुत गिरी हालत में है । तो उसका लाभ गुरु कृपा द्वारा मैंने होते देखा है । इस तरह हजारों लोगों के अलग अलग अनुभवों से यही कहा जा सकता है । जब तक कोई उपचार में नहीं आता । तब तक अंतिम तौर पर कुछ कहना मुश्किल ही है ।
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गुरु ग्रह पढन गये रघुराई । अल्प काल विद्या सब पाई ।
टालस्टॉय ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि - मैं एक दिन जा रहा था एक राह के किनारे से । एक भिखमंगे ने हाथ फैला दिया । सुबह थी । अभी सूरज ऊगा था । और टालस्टॉय बड़ी प्रसन्न मुद्रा में था । इंकार न कर सका । अभी अभी चर्च से प्रार्थना करके भी लौट रहा था । तो वह हाथ उसे परमात्मा का ही हाथ मालूम पड़ा । उसने अपने खीसे टटोले । कुछ भी नहीं था । दूसरे खीसे में देखा । वहाँ भी कुछ नहीं था । वह जरा बेचैन होने लगा । उस भिखारी ने कहा कि - नहीं । बेचैन न हों । आपने देना चाहा । इतना ही क्या कम है । टालस्टॉय ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया । और टालस्टॉय कहता है - मेरी आंखें आंसुओं से भर गईं । मैंने उसे कुछ भी न दिया । उसने मुझे इतना दे दिया । उसने कहा कि - आप बेचैन न हों । आपने टटोला । देना चाहा । इतना क्या कम है ? बहुत दे दिया । न देकर भी देना हो सकता है । और कभी कभी देकर भी देना नहीं होता । अगर बेमन से दिया । तो देना नहीं हो पाता । अगर मन से देना चाहा । न भी दे पाए । तो भी देना घट जाता है । ऐसा जीवन का रहस्य है । बांटते चलो । धीरे धीरे तुम पाओगे । जैसे जैसे तुम बांटने लगे - ऊर्जा । वैसे वैसे तुम्हारे भीतर से कहीं परमात्मा का सागर तुम्हें भरता जाता । नई नई ऊर्जा आती । नई तरंगें आतीं । और एक दफा यह तुम्हें गणित समझ में आ जाए । यह जीवन का अर्थशास्त्र नहीं है । यह परमात्मा का अर्थशास्त्र है । यह बिलकुल अलग है । जीवन का अर्थशास्त्र तो यह है कि जो है । अगर नहीं बचाया । तो लुटे । इसको तो बचाना । नहीं तो भीख मांगोगे - ओशो ।
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धर्म का क्या अर्थ है ? कीचड़ से कमल की ओर जाना । कीचड़ भी वही है । कमल भी वही है । पर कितना भेद है ।
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लोकतंत्र - लोकतंत्र की परिभाषा की जाती है कि लोगों की । लोगों के द्वारा । लोगों के लिए सरकार । लोकतंत्र है । इसमें से कोई भी बात सच नहीं है । न तो यह लोगों के द्वारा है । न ही लोगों की है । न ही लोगों के लिए है । सदियों से जो लोग सत्ता में रहते हैं । वे हमेशा लोगों को बहलाते रहते हैं कि जो कुछ भी किया जा रहा है । वह उनके हित के लिए किया जा रहा है । और लोग इस बात का भरोसा करते हैं । क्योंकि उन्हें भरोसा करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है । मानवता के शोषण के लिए यह धर्म और सत्ता के बीच की सांठगांठ है । धर्म विश्वास का पाठ सिखाए चले जाते हैं । और लोगों की बुद्धिमत्ता को । उनके प्रश्न पैदा करने की क्षमता को नष्ट किए चले जाते हैं । उन्हें अपाहिज बना दिया जाता है । और सत्ता हर संभव आयाम से उनका शोषण किए चली जाती है । और तब भी लोग उनको सहारा देते हैं । क्योंकि लोगों को विश्वास करना सिखाया गया है । प्रश्न करना नहीं सिखाया गया । किसी भी तरह की सरकार, वह भले ही राजशाही हो । वह उच्च वर्ग की हो । वह लोकतंत्र हो । वह किसी भी तरह की सरकार हो । सिर्फ नाम बदलते हैं । पर गहरे में असलियत वही बनी रहती है - ओशो ।

लेकिन मौन उसकी अनिवार्य शर्त है

जो वचन  उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग भाव से आत्मा का ध्यान करता है । उसको परम समाधि या सामायिक होती है । यह सूत्र बहुत महत्वपूर्ण है - जो वचन उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके ।   महावीर ने मौन पर बहुत जोर दिया है । ऐसा किसी ने इतना जोर नहीं दिया मौन पर । जोर सभी ने दिया है । मौन इतना महत्वपूर्ण है कि कोई भी उसे छोड़ तो नहीं सकता । लेकिन जैसा जोर महावीर ने दिया है । वैसा किसी ने नहीं दिया । महावीर ने मौन को साधना का केंद्र बनाया । इसलिए अपने संन्यासी को मुनि कहा । बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु कहा । हिंदुओं ने अपने संन्यासी को स्वामी कहा । अलग अलग जोर है । हिंदुओं ने स्वामी कहा । क्योंकि उन्होंने कहा कि जो आत्मा को जानने लगा । वही अपना मालिक है - स्वामी । बुद्ध ने भिक्षु कहा । उन्होंने कहा - जिसने अहंकार को पूरा गिरा दिया । इतना गिरा दिया कि कहा कि मैं भिक्षु हूं । कैसा स्वामी ? जिसने अस्मिता जरा भी न रखी । अहंकार जरा भी न रखा । भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो गया । जिसने सम्राट होने की घोषणा न की । जिसने सब घोषणाएं वापिस ले लीं । जिसने कहा - मैं कुछ भी नहीं हूं । यही अर्थ है - भिक्षु का ।
महावीर ने अपने संन्यासी को मुनि कहा । मुनि का अर्थ है । जो मौन हो गया । जिसने वचन उच्चारण की क्रिया का परित्याग किया । क्यों महावीर ने इतना जोर दिया मौन पर ? इसे खयाल में लें । मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात बातचीत है । भाषा है । बोलने की क्षमता है । पशु हैं । पक्षी हैं । पौधे हैं । हैं तो । पर भाषा नहीं है । बोल नहीं सकते । इसलिए पशु पक्षी पौधे अकेले अकेले हैं । उनका कोई समाज नहीं है । समाज के लिए भाषा जरूरी है । आदमी का समाज है । आदमी सामाजिक प्राणी है । क्योंकि आदमी बोल सकता है । बोले बिना जुड़ोगे कैसे किसी से ? जब बोलते हो । तभी सेतु फैलते हैं । और जोड़ होता है । तो भाषा का अर्थ हुआ । व्यक्ति व्यक्ति के बीच जोड़ने वाले सेतु । भाषा मनुष्य को समाज बनाती है । समाज देती है । समुदाय देती है ।
महावीर ने कहा - मौन हो जाओ । अर्थ हुआ । टूट जाओ । सारे सेतु तोड़ दो दूसरों से । बोलने के ही तो सेतु हैं । बोलने के द्वारा जुड़े हो । तोड़ दो बोलने के सेतु । अकेले हो जाओ । बोलना छोड़ते ही आदमी अकेला हो जाता है । 

चाहे बाजार में खड़ा हो । अगर बोलना जारी रहे । तो पहाड़ पर बैठा भी अकेला नहीं है । वहां भी किसी से, कल्पना के मित्र से, शत्रु से बात करता रहेगा । वहां भी समाज बना रहेगा । कल्पना का ही सही । लेकिन समाज रहेगा । आदमी अकेला न होगा । बीच बाजार में आदमी मौन हो जाए । अचानक उसी क्षण मौन होते ही समाज खो गया । भीड़ के कारण समाज नहीं है । भाषा के कारण समाज है । तो महावीर ने कहा - जंगल में भागने से क्या सार होगा ? अपने में भाग जाओ । छोड़ दो दूसरे तक जाना । भाषा से ही हम दूसरे तक जाते हैं । तोड़ दो भाषा । अपने में लीन हो जाओ । महावीर 12 वर्ष मौन रहे । उन 12 वर्षों में उन्होंने क्या किया ? उन्होंने सब भांति अपने को समाज से मुक्त किया । वे परम विद्रोही थे । समाज से सब भांति उन्होंने सब तरह के संबंध । सब धागे तोड़ डाले । उन्होंने सब तरह से अपने को समाज से अलग किया । क्योंकि उन्होंने पाया कि जितने तुम समाज से जुड़े हो । उतने ही अपने से टूट जाते हो ।
स्वाभाविक गणित था । समाज से टूट जाओ । अपने से जुड़ जाओगे । फिर महावीर लौटे । समाज में लौटे । समझाने आये । बोले - लेकिन 12 वर्ष के मौन के बाद बोले । अब समाज से जुड़ने का कोई उपाय न था । अब उन्होंने सब भांति अपनी निपटता, एकांत को उपलब्ध कर लिया था । सब भांति कैवल्य को जान लिया था । स्वयं के अकेलेपन को पहचान लिया था । फिर आये । अब कोई डर न था । अब बोले । अब भाषा केवल उपयोग की बात रह गयी । 1 साधन मात्र । तुम्हारे लिए भाषा केवल साधन नहीं है । भाषा तुम्हारी व्यस्तता है । बिना बोले तुम घबड़ाने लगते हो । अगर कोई बात करने को न मिले । तो बेचैन होने लगते हो ।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि - अगर 3 सप्ताह किसी आदमी को एकांत में बंद कर दिया जाए । तो पहले सप्ताह तो वह भीतर भीतर बात करता है । दूसरे सप्ताह बोल बोलकर बात करने लगता है - अकेले में । और तीसरे सप्ताह तो वह बिलकुल खयाल ही भूल जाता है कि - अकेला है । वह अपनी प्रतिमाएं कल्पना की खड़ी कर लेता है । उनसे बातचीत में संलग्न हो जाता है ।

कम्युनिस्ट मुल्कों में जिन कैदियों से उन्हें बात उगलवानी होती है । उनको वे सताते नहीं । उनको वे सिर्फ एकांत में डाल देते हैं । अंधेरी कोठरियों में डाल देते हैं । उनको पड़े रहने देते हैं अकेले में । टेप लगे रहते हैं उनके आसपास । वे कुछ भी बोलें । तो वह टेप में संगृहीत हो जाता है ।
3-4 सप्ताह के बाद जो वह उगलवाना चाहते थे । वह खुद ही उगलने लगते हैं । 1 सीमा है ।
तुमने कभी खयाल किया ? कोई तुमसे गुप्त बात कह दे । कहे किसी को कहना मत । बस तुम मुश्किल में पड़े । उसका यह कहना कि किसी को कहना मत । कहने के लिए बड़ा उकसावा बन जाएगा । बड़ी उत्तेजना पैदा हो जाएगी । आदमी लेता है । देता है । भाषा में । भीतर छिपाकर रखना बहुत कठिन है ।
मैंने सुना है । 1 सूफी फकीर के पास 1 युवक आया । और उस युवक ने कहा कि - मैंने सुना है कि आपको जीवन का परम रहस्य मिल गया । आपके गुरु ने आपको कुंजी दे दी है । उस गुप्त कुंजी को मुझे भी दे दें । उस सूफी फकीर ने कहा - ठीक ! लेकिन तुम इसे गुप्त रख सकोगे ? किसी को बताना मत । उसने कहा - कसम खाता हूं आपकी । पैर छुए । कभी किसी को न बताऊंगा । वह सूफी बोला - फिर ठीक । मैंने भी ऐसी ही कसम खायी है । अपने गुरु के सामने । अब बोलो । मैं क्या करूं ? अगर तुम गुप्त रख सकते हो जीवन भर । तो मैं भी रख सकता हूं । और अगर तुम सच पूछते हो । तो मेरे गुरु ने भी मुझे बतायी नहीं । क्योंकि उसने भी अपने गुरु के सामने ऐसी ही कसम खायी थी । सिर्फ अफवाह है । परेशान मत होओ । गुप्त बात गुप्त रखी नहीं जा सकती । आदमी बोझिल अनुभव करने लगता है । जो बाहर से आया है । वह बाहर लौटाना पड़ता है । जब तुम बोलते हो । तुमने खयाल किया । तुम वही बोलते हो । जो बाहर से तुम्हारे भीतर आ गया है । वह भारी होने लगता है । सुबह अखबार पढ़ लिया । फिर वही अखबार । तुम दूसरों से बोलने लगे । जब तक तुम किसी को बता न दो । तुमने अखबार में क्या पढ़ा है । तब तक तुम्हें चैन नहीं । यह विजातीय तत्व है । जो बाहर से आ जाता है । इसे बाहर निकालना पड़ता है । यह तुम्हारी प्रकृति को विकृत करता है । बाहर निकलते ही से तुम हलके हो जाते हो । इसीलिए तो किसी से अपनी बातें कहकर आदमी हलकापन अनुभव करता है । रो लिया दुखड़ा । हो गये हलके । 
पश्चिम में तो अब कोई किसी की सुनने को राजी नहीं । किसके पास फुर्सत है । तो व्यावसायिक सुनने वाले पैदा हो गये हैं । उन्हीं का नाम मनोवैज्ञानिक है । वे व्यावसायिक हैं । उनका कोई और काम नहीं है । उनका काम यह है कि वे ध्यान पूर्वक तुम्हारी बात सुनते हैं । सुनते भी हैं । या नहीं ? यह भी कुछ पक्का नहीं है । लेकिन ध्यान पूर्वक जतलाते हैं कि सुन रहे हैं । आदमी घंटा भर अपनी बकवास उन्हें सुनाकर हलका अनुभव करता है । और इसके लिए पैसे भी देता है । महंगा धंधा है । काफी पैसे देने पड़ते हैं । लोग वर्षों तक मनो चिकित्सा में रहते हैं । 1 चिकित्सक को छोड़ फिर दूसरे को पकड़ लेते हैं । क्योंकि 1 बार वह जो राहत मिलती है किसी को । ध्यान पूर्वक कोई तुम्हारी सुन ले । तो बड़ा आनंद आता है । तुम हलके हो जाते हो ।
महावीर ने कहा - भाषा इस तरह अगर व्यस्तता का आधार बन गयी हो । तो रोग है । तो तुम चुप हो जाना ।
जो वचन उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग भाव से आत्मा का ध्यान करता है । उसको परम समाधि या सामायिक होती है ।
यह बात खयाल में रखने जैसी है ।
कम से कम दिन में 2-4  घंटे तो मौन में बिताओ । नियम ही बना लो कि 24 घंटे में कम से कम 4 घंटे तुम अपने लिए दे दोगे । बाकी दे दो 20 घंटे संसार के लिए । 4 घंटे अपने लिए बचा लो । चलो 4 घंटे बहुत लगें । घंटे से शुरू करो । लेकिन 1 घंटा अपने लिए बचा लो । उस 1 घंटे में फिर तुम बिलकुल चुप हो जाओ । पहले पहले कठिन होगा । ओंठ बंद कर लेना तो आसान है । भीतर की तरंगें बंद करना मुश्किल होगा । लेकिन साक्षी भाव से उन तरंगों को देखते रहो । देखते रहो । देखते रहो । धीरे धीरे तुम पाओगे । गति विचारों की कम हो गयी । धीरे धीरे तुम पाओगे । कभी कभी बीच बीच में 2 विचार के अंतराल आने लगा । खाली जगह आने लगी । उसी खाली जगह में से रस बहेगा । उसी खाली जगह में से तुम्हें आत्मा की झलक पहली दफे मिलेगी । यह झलक ऐसे ही होगी । जैसे वर्षा में बादल घिरे हों । और कभी कभी सूरज की झलक मिल जाए क्षण भर को । किरणों की छटा छा जाए । फिर सूरज ढक जाए । लेकिन 1 बार झलक आने लगे । 1 दफे वहां भीतर की मुरली का स्वर तुम्हें सुनायी पड़ने लगे । तो जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । वह घट गया ।
साज शृंगार ?
छोड़ दौड़ो सब साज सिंगार । रास की मुरली रही पुकार ।
गयी सहसा किस रस से भींग । वकुल वन में कोकिल की तान ?
चांदनी में उमड़ी सब ओर । कहां के मद की मधुर उफान ?
गिरा चाहती भूमि पर इंदु । शिथिल वसना रजनी के संग ।
सिहरते पग सकता न संभाल । कुसुम कलियों पर स्वयं अनंग ।
ठगी सी रूठी नयन के पास । लिये अंजन उंगली सुकुमार ।
अचानक लगे नाचने मर्म । रास की मुरली उठी पुकार ।
साज शृंगार ?
छोड़ दौड़ो सब साज सिंगार । रास की मुरली रही पुकार ।
खोल बांहें आलिंगन हेतु । खड़ा संगम पर प्राणाधार ।
तुम्हें कंकन कुंकुम का मोह । और यह मुरली रही पुकार ।
सनातन महानंद में आज । बांसुरी कंकन एकाकार ।
बहा जा रहा अचेतन विश्व । रास की मुरली रही पुकार ।
साज शृंगार ?
छोड़ दौड़ो सब साज सिंगार । रास की मुरली रही पुकार ।
1 बार भी तुम्हें भीतर की किरणों का बोध हो जाए । सुन पड़ी मुरली । रास का निमंत्रण मिल गया । उस परम प्यारे की सुध आ गयी । वह तुम्हारे भीतर ही बैठा है । वह तुम्हें सदा से ही पुकारता रहा है । लेकिन तुम इतने व्यस्त हो । दूसरों के साथ भाषा में । बोलने में । झगड़ने में । मित्रता शत्रुता बनाने में । तुम इतने व्यस्त हो बाहर कि तुम्हारे भीतर अंतर्तम से उठी मुरली की पुकार तुम्हें सुनायी नहीं पड़ती ।
महावीर ने कहा - मौन हो जाओ । तो तुम्हें अपने संगीत का पहली दफा अनुभव हो । चुप हो जाओ । उस चुप्पी में ही । उस अनाहत का नाद शुरू होगा । वह ध्वनिहीन ध्वनि । वह स्वरहीन स्वर । तुम्हारे भीतर से उठने लगेगा । तुम्हारी अतल गहराइयों से । तुम्हारी चेतना की परम गहराइयों से तुम्हारे पास तक पहुंचने लगेगा । लेकिन मौन उसकी अनिवार्य शर्त है । और मौन का अर्थ है - ओंठ से मौन । कंठ से मौन । भीतर विचार से मौन । धीरे धीरे सब तलों पर । सब पर्तों पर मौन । तब तुम मुनि हुए । मुनि का कोई संबंध बाह्य आचरण से नहीं है । मुनि का संबंध उस अंतस दशा से है । मौन की दशा से है । और जो मौन को उपलब्ध हुआ । वही बोलने का हकदार है । जो अभी मौन को ही नहीं जाना । वह तो बाहर के ही कचरे को भीतर लेता है । और बाहर फेंक देता है । उसका बोलना तो वमन जैसा है । जो मौन को उपलब्ध हुआ । उसके पास कुछ देने को है । उसके पास कुछ भरा है । जो बहना चाहता है । बंटना चाहता है । उसके पास कुछ आनंद की संपदा है । जो वह तुम्हारी झोली में डाल दे सकता है ।
महावीर 12 वर्ष मौन रहे । जीसस जब भी बोलते । तो बोलने के बाद कुछ दिनों के लिए पहाड़ पर चले जाते । वहां चुप हो जाते । जब भी कोई महत्वपूर्ण बात बोलते । तब तत्क्षण वे पहाड़ चले जाते । अपने मित्र, संग साथियों को भी छोड़ देते । कहते - अभी कोई मत आना । अभी मुझे जाने दो अकेले में । उस अकेले में जीसस क्या करते ? मुहम्मद पर जब पहली दफा कुरान की आयत - पहली आयत उतरी । तो वे 40 दिन से मौन थे । उसी मौन में पहली दफे कुरान उतरा ।
जो भी मौन में उतरा है । वही शास्त्र है । मौन में जो नहीं उतरा । वह शास्त्र नहीं । किताब होगी । जो मौन में कहा गया है । मौन से कहा गया है । वही उपदेश है । जो शब्द मौन में डूबे हुए नहीं आये । मौन में पगे हुए नहीं आये । वे सब शब्द रुग्ण हैं । स्वस्थ तो वे ही शब्द हैं । जो मौन में पगे हुए आते हैं । और अगर तुम ध्यान से सुनोगे । तो तुम तत्क्षण पहचान लोगे कि यह शब्द मौन में पगा आया है । या नहीं आया है ? तुम्हारा हृदय तत्क्षण गवाही दे सकेगा । क्योंकि जितना शून्य लेकर शब्द आता है । अगर तुम शांतिपूर्वक सुनो । तो शब्द चाहे । तुम भूल भी जाओ । शून्य सदा के लिए तुम्हारा हो जाता है । शब्द चाहे तुम्हारे स्मृति में रहे । या न रहे । शून्य तुम्हारे प्राणों पर फैल जाता है । तुम्हें नया कर जाता है । ताजा कर जाता है । 
ध्यान में दर्शन है । मौन में दर्शन है । चुप्पी में साक्षात्कार है ।
देख सकता हूं जो आंखों से वो काफी है - मज़ाज़ ।
अहले इर्फां की नवाजिश मुझे मंजूर नहीं ।
ठीक कहा है मज़ाज़ ने । दार्शनिकों की सेवा करने की मेरी इच्छा नहीं । दार्शनिकों का सत्संग करने की मेरी कोई इच्छा नहीं ।
देख सकता हूं जो आंखों से वो काफी है - मज़ाज़ ।
जो मैं अपनी आंख से देख सकता हूं । वह पर्याप्त है । किसी और से क्या पूछना है । किसी और से क्या पूछने जाना है । आंख तुम्हारे पास है । लेकिन तुम्हारी आंख इतने शब्दों से भरी है । इतने विचारों से ढंकी है । जैसे दर्पण पर धूल जम गयी हो । दर्पण का पता ही न चलता हो । झाड़ दो धूल । तुम्हारा दर्पण फिर झलकायेगा । झाड़ दो आंख से विचारों की धूल । झाड़ दो मन से विचारों की धूल । तुम प्रतिबिंब दोगे परमात्मा का । तुम्हारा दर्पण खोया नहीं है । सिर्फ ढंक गया है धूल में । और धूल कितना ही दर्पण को ढांक ले । नष्ट थोड़े ही कर पाती है । इसलिए जब तक पोंछा नहीं है तभी तक परेशानी है । पोंछते ही तुम चकित हो जाओगे । जन्मों  जन्मों के अंधकार को क्षण में पोंछा जा सकता है । और जन्मों जन्मों की जमी धूल को क्षण में बुहारा जा सकता है । कुछ ऐसा नहीं है कि तुम्हें जनम जनम तक सफाई करनी होगी । सफाई तो 1 क्षण में भी हो सकती है । सिर्फ त्वरा चाहिए । प्रवृत्ति चाहिए अंतर्यात्रा की ।
ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है । इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का प्रतिक्रमण है ।
महावीर कहते हैं - और सब ठीक है । लेकिन वास्तविक क्रांति ध्यान में ही घटती है । समस्त अतिचारों का, सब दोषों का परित्याग ध्यान में ही होता है । क्यों ध्यान में परित्याग होता है ? महावीर नहीं कहते हैं । करुणा साधो । महावीर नहीं कहते । दया साधो । महावीर नहीं कहते । दान साधो । त्याग साधो । महावीर कहते हैं - ध्यान साधो । क्यों ? क्योंकि दान करोगे । तो पहले 1 कर्ता का भाव था कि मेरे पास धन है । दान करोगे । दूसरे कर्ता का भाव पैदा हो जाएगा कि मेरे पास त्याग है । मैं दानी हूं । क्रोध किया था । तो 1 अहंकार था । करुणा करोगे । तो दूसरा अहंकार हो जाएगा । दूसरा अहंकार स्वर्णिम है । पहला अहंकार सस्ता था । लेकिन हैं तो दोनों ही अहंकार ।
महावीर कहते हैं - ध्यान । ध्यान का अर्थ है कि तुम्हें पता चले । तुम कर्ता ही नहीं हो । न क्रोध के । न करुणा के । न लोभ के । न दान के । तुम अकर्ता हो । साक्षी हो ।
ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है । परित्याग हो जाता है । ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का प्रतिक्रमण है । 
झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । 
तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमणं । 
ध्यान सारभूत है । जो निज को निज भाव से देखता है ।
जो निज भाव को नहीं छोड़ता । और किसी भी पर भाव को ग्रहण नहीं करता । तथा जो सबका ज्ञाता द्रष्टा है । वह परम तत्व मैं ही हूं । आत्म ध्यान में लीन साधु ऐसा चिंतन करता । ऐसा अनुभव करता है ।
जो निज भाव को नहीं छोड़ता । ध्यान का अर्थ है - निजता में आ जाना । अपने में आ जाना । बाहर से सब नाते छोड़ देना । बाहर से सब नाते तोड़ देना । इसके लिए जरूरी नहीं है कि तुम घर से भागो । क्योंकि यह बात तो आंतरिक है । घर से भागना भी बाहर से ही जुड़े रहना है । घर तो बाहर है । न पकड़ो । न भागो । धन तो बाहर है । न पकड़ो । न छोड़ो । सिर्फ 1 बात स्मरण रखो कि यह मैं नहीं हूं । यह शरीर मैं नहीं । यह घर मैं नहीं । यह धन मैं नहीं । यह मन मैं नहीं । इतना भर स्मरण रखो । इतना ही याद रहे कि - मैं सिर्फ साक्षी हूं । द्रष्टा हूं । देखने वाला हूं ।
णियभावं ण वि मुच्चइ, परभावं णेव गेण्हए केइं ।
जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी ।
पर भाव को छोड़कर निज भाव को नहीं छोड़ता । सबका ज्ञाता द्रष्टा हूं । वह परम तत्व मैं ही हूं । ऐसी चिंतन धारा जिसमें सतत बहती रहती है । आत्म ध्यान में लीन ज्ञानी ऐसी परम दशा को जब उपलब्ध होता है । तो घटता है । असंभव घटता है । आनंद घटता है । सच्चिदानंद घटता है । जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । वह भी घटता है । जिसका हमें कभी कोई स्वाद नहीं मिला । यद्यपि हम उसी के लिए तड़फ रहे हैं । उसी के लिए भाग रहे हैं । दौड़ रहे हैं । अनेक अनेक दिशाओं में उसी को खोज रहे हैं । जो भीतर विराजमान है । दसों दिशाओं में उसकी खोज कर रहे हैं । जो ग्यारहवीं दिशा में बैठा है । खोजने वाले में बैठा है । और खोजने वाला भटक रहा है । कस्तूरी कुंडल बसै । लेकिन मृग है कि पागल है । दीवाना है । गंध की खोज में भाग रहा है । उसे याद ही नहीं । आये भी कैसे याद । आदमी को याद नहीं आती । मृग को कैसे याद आये । कैसे पता चले कि मेरी ही नाभि में छिपा है नाफा कस्तूरी का । वहीं से आ रही है गंध । और मुझे पागल किये दे रही है ।
जिस आनंद को तुम खोज रहे हो । जिस मुरली की आवाज के लिए तुम दौड़ रहे हो । वह तुम्हारे भीतर बज रही है । लेकिन तुम सपनों में खोये हो । बाहर की खोज सपना है । और इसलिए जैसे ही तुम्हारे बाहर के सपने टूटते हैं । तुम उदास हो जाते हो । 1 सपने को दूसरे सपने से जल्दी से परिपूरक बना लेते हो । और जिस दिन सब सपने हाथ से छूटने लगते हैं । उस दिन तुम आत्महत्या करने की सोचने लगते हो । सत्य को पाये बिना कोई जीवन नहीं है । सपनों में सिर्फ आभास है ।
गो हमसे भागती रही ये तेजगाम उम्र ।
ख्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र ।
जुल्फों के ख्वाब, होंठों के ख्वाब और बदन के ख्वाब ।
मिराजे फन के ख्वाब, कमाले सुखन के ख्वाब ।
तहजीबे जिंदगी के, फरोगे वतन के ख्वाब ।
जिंदा के ख्वाब, कूचए दारो रसन के ख्वाब ।
ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे ।
ये ख्वाब ही तो अपनी अमल की असास थे ।
ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात ।
यूं है कि जैसे दस्तेत्तहे संग है हयात ।
ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे ।
ये ख्वाब ही तो अपने अमल की असास थे ।
ये अपने सारे जीवन आचरण की नींव थे ।
ख्वाब  सपने ! कहीं पा लेने के ।
ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात ।
जब ये ख्वाब मरते हैं तो लगता है जीवन रंगहीन हो गया ।
यूं है कि जैसे दस्तेत्तहे संग है हयात ।
जब ख्वाब मरते हैं । तो ऐसा लगता है जैसे 2 चट्टानों के बीच में हाथ पिचल गया हो । ऐसी जिंदगी पिचल जाती है । बुढ़ापे में इसीलिए दुख है । बुढ़ापे का नहीं है । मरे हुए ख्वाबों का । पिचले हुए ख्वाबों का है । धूल में गिर गये इंद्रधनुषों का । पैरों में रुंध गये इंद्रधनुषों का दुख है ।
जवान नशे में है । बूढ़े का नशा तो टूट जाता है । लेकिन होश नहीं आता । नशा टूटते ही घबड़ाता है बूढ़ा । परेशान होता है । लेकिन यह याद नहीं आती कि जिसके पीछे हम दौड़ते थे । कहीं ऐसा तो नहीं घर में ही छिपा हो । आंखें बाहर खुलती हैं । तो हम बाहर देखते हैं । कान बाहर खुलते हैं । तो हम बाहर सुनते हैं । हाथ बाहर फैल सकते हैं । तो हम बाहर खोजते हैं । भीतर न तो आंख खुलती है । न हाथ खुलते हैं । न कान खुलते हैं । कोई इंद्रिय भीतर नहीं जाती । इसलिए भीतर की हमें याद नहीं आती ।
भीतर जाने की कला का नाम ध्यान है । बाहर जाने की कलाओं का नाम इंद्रियां हैं । इंद्रियां हैं बाहर जाने वाले द्वार । ध्यान है भीतर जाने वाला द्वार । इंद्रियों में ही भटके रहे । खो गये । तो तुम्हें जीवन का सत्व न मिल सकेगा । तो तुम रोते आये । रोते जाओगे । तो तुम खाली आये । खाली जाओगे ।
ध्यान को जगाओ । क्योंकि ध्यान ही भीतर जा सकता है । आंख भीतर नहीं जा सकती । कान भीतर नहीं जा सकते । हाथ भीतर नहीं जा सकते । सिर्फ ध्यान भीतर जा सकता है । जिसने ध्यान को जगा लिया । उसने जीवन का सारभूत पा लिया । जिसने ध्यान को जगा लिया । उसके भीतर सतत 1 धारा बहती रहती है । सब कामों धामों  व्यस्तताओं के बीच भी 1 स्मरण नहीं मिटता । 1 दीया नहीं बुझता । वह दीया जगमगाता रहता है - मैं साक्षी हूं । मैं साक्षी हूं । मैं साक्षी हूं । ऐसा कुछ शब्द नहीं दोहराने होते । खयाल रखना । ऐसा बोध । ऐसा भाव: - मैं साक्षी हूं । यही समता है । यही समाधि है । यही सामायिक है । ओशो 

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326