तो इसे 2 प्रकार से जाना जा सकता है । या तो प्रारब्ध को देखकर या फिर कुछ लक्षण और पूर्वाभास हैं । जिन्हें देखकर जाना जा सकता है ।
उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति मरता है । तो मरने के ठीक 9 महीने पहले कुछ न कुछ होता है । साधारणतया हम जागरूक नहीं होते हैं । और वह घटना बहुत ही सूक्ष्म होती है । मैं 9 महीने कहता हूं -क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में इसमे थोड़ी भिन्नता होती है । यह निर्भर करता है । समय का जो अंतराल गर्भधारण और जन्म के बीच मौजूद रहता है । उतना ही समय मृत्यु को जानने का रहेगा । अगर कोई व्यक्ति गर्भ में 9 महीने रहने बाद जन्म लेता है । तो उसे 9 महीने पहले मृत्यु का आभास होगा । अगर कोई 10 महीने गर्भ में रहता है । तो उसे 10 महीने पहले मृत्यु का अहसास होगा । कोई 7 महीने पेट में रहता है । तो उसे 7 महीने पहले उसे मृत्यु का एहसास होगा । यह इस बात पर निर्भर करता है कि गर्भधारण और जन्म के समय के बीच कितना समय रहा । मृत्यु के ठीक उतने ही महीने पहले हार में । नाभि चक्र में कुछ होने लगता है । हारा सेंटर को क्लिक होना ही पड़ता है । क्योंकि गर्भ में आने और जन्म के बीच 9 महीने का अंतराल था । जन्म लेने में 9 महीने का समय लगा । ठीक उतना ही समय मृत्यु के लिए लगेगा । जैसे जन्म लेने के पूर्व 9 महीने मां के गर्भ में रहकर तैयार होते हो । ठीक ऐसे ही मृत्यु की तैयारी में भी 9 महीने लगेंगे । फिर वर्तुल पूरा हो जायेगा । तो मृत्यु के 9 महीने पहले नाभि चक्र में कुछ होने लगता है । जो लोग जागरूक हैं । सजग हैं । वे तुरंत जान लेंगे कि नाभि चक्र में कुछ टूट गया है । और अब मृत्यु निकट ही है । इस पूरी प्रक्रिया में लगभग 9 महीने लगते है । या फिर उदाहरण के लिए, मृत्यु के और भी कुछ अन्य लक्षण तथा पूर्वाभास होते हैं । कोई आदमी मरने से पहले । अपने मरने के ठीक 6 महीने पहले । अपनी नाक की नोक को देखने में धीरे धीरे असमर्थ हो जाता है । क्योंकि
आंखें धीरे धीरे ऊपर की और मुड़ने लगती है । मृत्यु में आंखे पूरी तरह ऊपर की और मुड़ जाती है । लेकिन मृत्यु के पहल ही लौटने की यात्रा का प्रारंभ हो जाता है । ऐसा होता है । जब 1 बच्चा जन्म लेता है । तो बच्चे की दृष्टि थिर होने में करीब 6 महीने लगते है । साधारणतया ऐसा ही होता है । लेकिन इसमे कुछ अपवाद भी हो सकते है । बच्चे की दृष्टि ठहरने में 6 महीने लगते हैं । उससे पहले बच्चे की दृष्टि थिर नहीं होती । इसीलिए तो 6 महीने का बच्चा अपनी दोनों आंखें 1 साथ नाक के करीब ला सकता है । और फिर किनारे पर भी आसानी से ला सकता है । इसका मतलब है बच्चे की आंखे अभी थिर नहीं हुई है । जिस दिन बच्चे की आंखे थिर हो जाती है । फिर वह दिन 6 महीने के बाद का हो । या 10 महीने के बाद का हो । ठीक उतना ही समय लगेगा । फिर उतने ही समय के पूर्व आंखें शिथिल होने लगेंगी । और ऊपर की और मुड़ने लगेंगी । इसीलिए भारत में गांव के लोग कहते है । निश्चित रूप से इस बात की खबर उन्हें योगियों से मिली होगी कि - मृत्यु आने के पूर्व व्यक्ति अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हो जाता है । और भी बहुत सी विधियां हैं । जिनके माध्यम से योगी निरंतर अपनी नाक की नोक पर ध्यान देते हैं । वह नाक की नोक पर अपने को एकाग्र करते हैं । जो लोग नाक की नोक पर एकाग्र चित होकर ध्यान करते हैं । अचानक 1 दिन वे पाते हैं कि वे अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हैं । वे अपनी नाक की नोक नहीं देख सकते हैं । इस बात से उन्हें पता चल जाता है कि मृत्यु अब निकट ही है । योग के शरीर विज्ञान के अनुसार व्यक्ति के शरीर में 7 चक्र होत है । पहला चक्र है - मूलाधार । और अंतिम चक्र है - सहस्त्रार । जो सिर में होता है । इन दोनों के बीच में 5 चक्र और होते है । जब भी व्यक्ति की मृत्यु होती है । तो वह किसी 1 निश्चित चक्र के द्वारा अपने प्राण त्यागता है । व्यक्ति ने किस चक्र से शरीर छोड़ा है । वह उसके इस जीवन के विकास को दर्शा देता है । साधारणतया तो लोग मूलाधार से ही मरते हैं । क्योंकि जीवन भर लोग काम केंद्र के आसपास ही जीते हैं । वे हमेशा सेक्स के बारे ही सोचते हैं । उसी की कल्पना करते हैं । उसी के स्वप्न देखते हैं । उनका
सभी कुछ सेक्स को लेकर ही होता है । जैसे कि उनका पूरा जीवन काम केंद्र के आसपास ही केंद्रित हो गया हो । ऐसे लोग मूलाधार से काम केंद्र से ही प्राण छोड़ते हैं । लेकिन अगर कोई व्यक्ति प्रेम का उपलब्ध हो जाता है । और कामवासना के पार चला जाता है । तो वह ह्रदय केंद्र से प्राण को छोड़ता है । और अगर कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है । सिद्ध हो जाता है । तो वह अपनी ऊर्जा को । अपने प्राणों को सहस्त्रार से छोड़ेगा । और जिस केंद्र से व्यक्ति की मृत्यु होती है । वह केंद्र खुल जाता है । क्योंकि तब पूरी जीवन ऊर्जा उसी केंद्र से निर्मुक्त होती है । जिस केंद्र से व्यक्ति प्राणों को छोड़ता है । व्यक्ति का निर्मुक्ति देने वाला बिंदु स्थल खुल जाता है । उस बिंदु स्थल को देखा जा सकता है । किसी दिन जब पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान योग के शरीर विज्ञान के प्रति सजग हो सकेगा । तो वह भी पोस्टमार्टम का हिस्सा हो जाएगा कि - व्यक्ति कैसे मरा । अभी तो चिकित्सक केवल यही देखता है कि - व्यक्ति की मृत्यु स्वाभाविक हुई है । या उसे जहर दिया गया है । या उसकी हत्या की गयी है । या उसने आत्महत्या की है ? यही सारी साधारण सी बातें चिकित्सक देखते हैं । सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण बात की चिकित्सक चूक जाते हैं । जो कि उनकी रिपोर्ट में होनी चाहिए कि - व्यक्ति के प्राण किस केंद्र से निकले हैं ? काम केंद्र से निकले हैं । ह्रदय केंद्र से निकले हैं । या सहस्त्रार से निकले हैं । किसी केंद्र से उसकी मृत्यु हुई है । और इसकी संभावना है । क्योंकि योगियों ने इस पर बहुत काम किया है । और इसे देखा जा सकता है । क्योंकि जिस केंद्र से प्राण ऊर्जा निर्मुक्त होती है । वही विशेष केंद्र टूट जाता है । जैसे कि कोई अंडा टूटता है । और कोई चीज उससे बाहर आ जाती है । ऐसे ही जब कोई विशेष केंद्र टूटता है । तो ऊर्जा वहां से निर्मुक्त होती है । जब कोई व्यक्ति संयम को उपल्बध हो जाता है । तो मृत्यु के ठीक 3 दिन पहले वह सजग हो जाता है कि - उसे कौन से केंद्र से शरीर छोड़ना है । अधिकतर तो वह सहस्त्रार से ही शरीर को छोड़ता है । मृत्यु के 3 दिन पहले 1 तरह की हलन चलन । 1 तरह की गति । ठीक सिरा के शीर्ष भाग पर होने लगती है । यह संकेत हमे मृत्यु को कैसे ग्रहण करना । इसके लिए तैयार कर सकते हैं । और अगर हम मृत्यु को उत्सव पूर्ण ढंग से । आनंद से । अहो भाव से नाचते गाते कैसे ग्रहण करना हैं । यह जान लें । तो फिर हमारा दूसरा जन्म नहीं होता । तब इस संसार की पाठशाला में हमारा पाठ पूरा हो गया । इस पृथ्वी पर जो कुछ भी सीखने को है । उसे हमने सीख लिया । अब हम तैयार हैं - किसी महान लक्ष्य । महान जीवन । और अनंत अनंत जीवन के लिए । अब ब्रह्मांड में संपूर्ण अस्तित्व में समाहित होने के लिए हम तैयार है । और इसे हमने अर्जित कर लिया है ।
इस सूत्र के बारे में 1 बात और - क्रियमान कर्म । दिन प्रतिदिन के कर्म । वे तो बहुत ही छोटे छोटे कर्म होते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे चेतन कह सकते हैं । इसके नीचे होता है - प्रारब्ध कर्म । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे " अवचेतन " कह सकते है । उससे भी नीचे होता है - संचित कर्म । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इसे हम - अचेतन कह सकते हैं । साधारणतया तो आदमी अपनी प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में सजग ही नहीं होता । तो फिर प्रारब्ध या संचित कर्म के बारे में कैसे सचेत हो सकता है । यह लगभग असंभव ही है । तो तुम दिन प्रतिदिन की छोटी छोटी गतिविधियों में सजग होने का प्रयास करना । अगर सड़क पर चल रह हो । तो सड़क पर सजग होकर, होश पूर्वक चलना । अगर भोजन कर रहे हो । तो सजगता पूर्वक करना । दिन में जो कुछ भी करो । उसे होश पूर्वक सजगता से करना । कुछ कार्य करो । उस कार्य पूरी तरह से डूब जाना । उसके साथ 1 हो जाना । फिर कर्ता और कृत्य अलग अलग न रहें । फिर मन इधर उधर ही नहीं भागता रहे । जीवित लाश की भांति कार्य मत करना । जब सड़क पर चलो । तो ऐसे मत चलना जैसे कि किसी गहरे सम्मोहन में चल रहे हो । कुछ भी बोलो । वह तुम्हारे पूरे होश सजगता से आए । ताकि तुम्हें फिर कभी पीछे पछताना न पड़े । अगर तुम इस प्रथम चरण को उपलब्ध कर लेते हो । तो फिर दूसरा चरण अपने से सुलभ हो जाता है । तब तुम अवचेतन में उतर सकते हो । तो फिर जब कोई तुम्हारा अपमान करता है । तो जिस समय तुम्हें क्रोध आया । जागरूक हो जाओ । तब किसी ने तुम्हारा अपमान किया । और क्रोध की 1 छोटी सी तरंग । जो कि बहुत ही सूक्ष्म होती है । तुम्हारे अस्तित्व के अवचेतन की गहराई में उतर जाती है । अगर तुम संवेदनशील और जागरूक नहीं हो । तो तुम उस उठी हई सूक्ष्म तरंग को पहचान न सकोगे । जब तक कि वह चेतन में न आ जाए । तुम उसे नहीं जान सकोगे । वरना धीरे धीरे तुम सूक्ष्म बातों को, भावनाओं को सूक्ष्म तरंगों के प्रति सचेत होने लगोगे । वही है - प्रारब्ध । वहीं है - अवचेतन । और जब अवचेतन के प्रति सजगता आती है । तो तीसरा चरण भी उपलब्ध हो जाता है । जितना अधिक व्यक्ति का विकास होता है । उतने ही अधिक विकास की संभावना के द्वार खुलते चले जाते हैं । तीसरे चरण को । अंतिम चरण को देखना संभव है । जो कर्म अतीत में संचित हुए थे । अब उनके प्रति सजग हो पाना संभव है । जब व्यक्ति अचेतन में उतरता है । तो इसका अर्थ है कि वह चेतन के प्रकाश को अपने अस्तित्व की गहराईयों में ले जा रहा है । व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाएगा । संबुद्ध होने का अर्थ यही है कि - अब कुछ भी अंधकार में नहीं है । व्यक्ति का अंतस्तल का कोना कोना प्रकाशित हो गया । तब वह जीता भी है । कार्य भी करता है । लेकिन फिर भी किसी तरह के कर्म का संचय नहीं होता । ओशो
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साधारण चाय का आनंद - क्षण क्षण जीएं । 3 सप्ताह के लिए कोशिश करें कि जो भी आप कर रहे हैं । उसे जितनी समग्रता से कर सकें । करें । उसे प्रेम से करें । और उसका आनंद लें । हो सकता है । यह मूर्खतापूर्ण लगे । यदि आप चाय पी रहे हैं । तो उसमें इतना आनंद लेना मूर्खतापूर्ण लगता है कि यह तो साधारण सी चाय है । लेकिन साधारण सी चाय भी असाधारण रूप से सौंदर्य पूर्ण हो सकती है । यदि हम उसका आनंद ले सकें । तो वह 1 गहन अनुभूति बन सकती है । गहन समादर से उसका आनंद लें । उसे 1 ध्यान बना लें - चाय बनाना । केतली की आवाज सुनना । फिर चाय उड़ेलना । उसकी सुगंध लेना । चाय का स्वाद लेना । और ताजगी अनुभव करना । मुर्दे चाय नहीं पी सकते । केवल अति जीवंत व्यक्ति ही चाय पी सकते हैं । इस क्षण हम जीवित हैं । इस क्षण हम चाय का आनंद ले रहे हैं । धन्यवाद से भर जाएं । और भविष्य की मत सोचें । अगला क्षण अपनी फिक्र खुद कर लेगा । कल की चिंता न लें । 3 सप्ताह के लिए वर्तमान में जीएं ।
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न तो धार्मिक नेता । और न ही राजनैतिक नेता । उन लोगों में रुचि रखते हैं । जिनका नेतृत्व करने का वे दिखावा करते हैं । वे नेता होने में रुचि रखते हैं । और निश्चित ही नेता बिना नेतृत्व के नहीं हो सकते । इसलिए यह जरूरी है कि - लोगों की चीजों के वादे किए चले जाओ । राजनेता इस दुनियां की चीजों के वादे उनसे किए चले जाते हैं । धार्मिक नेता दूसरी दुनिया के वादे किए चले जाते हैं । लेकिन क्या तुम कोई फर्क देखते हो उसमें । जो वे कर रहे हैं ? दोनों ही वादे किए चले जा रहे हैं । ताकि तुम उनका अनुसरण करो । इससे डर के कि कहीं कुछ खो ना जाए । क्योंकि यदि तुम राह चूक जाते हो । तो तुम वादे से चूक जाओगे । वादे तुम्हें भीड़ के साथ बनाए रखते हैं । और वादों में कुछ लगता तो है नहीं । तुम किसी भी चीज का वादा कर सकते हो । वादे हमेशा आने वाले कल के लिए होते हैं । और आने वाला कल कभी भी नहीं आएगा ।
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मैं तुम्हें तुम्हारी ही तरह चलने के लिए प्रोत्साहन दे सकता हूं । तुम्हारे भीतर खोज की 1 प्रक्रिया को तेज़ कर सकता हूं । परंतु मैं तुम्हें कोई विचार की विधि नहीं दूंगा । मैं तुम्हें कोई आश्वासन नहीं दूंगा । मैं तुम्हें 1 तीर्थ यात्रा का निमंत्रण । 1 तीर्थ यात्रा जो अत्यंत खतरनाक है । 1 तीर्थ यात्रा जिसमें लाखों तरह के नुकसान की संभावनाएं हैं । 1 तीर्थ यात्रा जहां तुम्हें दिन प्रतिदिन अधिक से अधिक खतरों का सामना करना पड़ेगा । 1 तीर्थ यात्रा जो तुम्हें मनुष्य चेतना के उच्चतम शिखर तुरीय अवस्था तक ले जाएगी । लेकिन तुम जितनी ऊंचाई पर चढ़ते हो । उतना ही नीचे गिरने का खतरा भी बना रहता है । मैं तुम्हें 1 महज साहसिक कार्य का वचन भर दे सकता हूं । जो अधिक संकट पूर्ण और खतरनाक है । परंतु तुम इसे पा सकोगे । इसका कोई वचन नहीं देता । क्योंकि अज्ञात के लिए कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है ।
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तुम जिम्मेदारी शब्द का अर्थ तक नहीं समझते । समाज बड़ा चालाक है । इसने हमारे सबसे सुंदर शब्दों को विकृत अर्थ देकर नष्ट कर दिया है । सामान्यतया तुम्हारे शब्दकोशों में " जिम्मेदारी " का मतलब कर्तव्य होता है । चीजों को उस तरह से करना । जिस तरह से तुम्हारे माता पिता, तुम्हारे शिक्षक, तुम्हारे पंडित, तुम्हारे राजनेता । किन्हीं दूसरों द्वारा अपेक्षा की जाती है । तुम्हारे बड़े बुजुर्गों व तुम्हारे समाज द्वारा तुम्हारे ऊपर थोपी गई मांगों को पूरा करना । तुम्हारी जिम्मेदारी है । यदि तुम उस तरह से कार्य करते हो । तुम जिम्मेदार व्यक्ति हो । यदि तुम स्वयं के अनुसार कार्य करते हो - निजी ढंग से । तब तुम गैर जिम्मेदार व्यक्ति हो । तुम्हारा डर यह होता है कि सहजता से । अभी और यहीं कृत्य करने पर । खतरा है । हो सकता है कि तुम निजी तरीके से व्यवहार करने लगो । तब तुम्हारी जिम्मेदारी का क्या होगा ? सच तो यह है कि " रिस्पोंसिबिलिटी " शब्द को 2 शब्दों में बांटना होगा । इसका अर्थ होता है - रिस्पांस-एबिलिटी । और रिस्पॉंस तब ही संभव है । जब तुम सहज, अभी और यहां हो । रिस्पॉंस का मतलब होता है कि तुम्हारा ध्यान, तुम्हारा होश, तुम्हारी चेतना, पूरी तरह से यहां और अभी है । वर्तमान में है । तो जो कुछ भी घटता है । तुम अपनी पूरी चेतना के साथ रिस्पॉंस करते हो । इसका किसी दूसरे, किसी पवित्र ग्रंथ, या किसी पवित्र मूर्ख के साथ तालमेल बैठाने से कुछ लेना देना नहीं है । इसका सामान्य सा अर्थ यह है कि वर्तमान क्षण के साथ लयबद्ध होना ।
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यह जानना कि कुछ न अच्छा है । न कुछ बुरा है । 1 टर्निंग प्वाइंट है । परिवर्तन का बिंदु है । यह 1 रूपांतरण है । तुम अंदर देखने लगते हो । बाहर की वास्तविकता मूल्यहीन लगने लगती है । सामाजिक वास्तविकता 1 कल्पना है । 1 सुंदर नाटक है । तुम इसमें भाग ले सकते हो । परंतु तब तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते हो । यह तुम्हारे लिए 1 भूमिका मात्र है । जिसे तुम अदा कर रहे हो । इसे जितनी सुंदरता से । जितनी दक्षता से निभा सकते हो । निभाओ । परंतु इसे गंभीरता से मत लो । इसमें कुछ भी अंतिम नहीं है । अंतिम तुम्हारे भीतर है । वैयक्तिक चेतना इसे जानती है । और उस चेतना तक आने के लिए यह 1 अच्छा टर्निंग प्वाइंट है ।
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