आदि सृष्टि की रचना के बाद जब बहुत दिन ऐसे ही बीत गये । तब धर्मराज काल निरंजन ने क्या तमाशा किया । हे धर्मदास ! तुम उस चरित्र को ध्यान से सुनो ।
निरंजन ने सत्यपुरुष में ध्यान लगाकर । एक पैर पर खङे होकर 70 युग तक कठिन तपस्या की । इससे आदि पुरुष बहुत प्रसन्न हुये । तब निरंजन के लिये सत्यपुरुष की आवाज वाणी के रूप में हुयी - हे धर्मराय ! किस हेतु से तुमने यह तप सेवा की ?
इस पर निरंजन सिर झुकाकर बोला - हे प्रभु ! आप मुझे वह स्थान दें । जहाँ जाकर मैं निवास करूँ ।
तब सत्यपुरुष ने कहा - पुत्र ! तुम मानसरोवर दीप में जाओ ।
सत्यपुरुष की आग्या से प्रसन्न होकर धर्मराज मानसरोवर दीप की ओर चला गया । और उसे देखकर आनन्द से भर गया । मानसरोवर पर निरंजन ने फ़िर से एक पैर पर खङे होकर 70 युग तपस्या की । तब दयालु सत्यपुरुष के ह्रदय में दया भर गयी । निरंजन की कठिन सेवा तपस्या से पुष्प दीप के पुष्प विकसित हो गये । और फ़िर सत्यपुरुष की वाणी प्रकट हुयी । उनके बोलते ही वहां सुगन्ध फ़ैल गयी ।
सत्यपुरुष ने अपने सहज सुत से कहा - हे सहज ! तुम निरंजन के पास जाओ । और उससे तप का कारण पूछो । निरंजन की सेवा तपस्या से पहले ही मैंने उसको मानसरोवर दीप दिया है । अब वह क्या चाहता है । यह ग्यात कर तुम मुझे बताओ ?
तब सहज निरंजन के पास पहुँचे ।और प्रेमभाव से कहा - हे भाई ! अब तुम क्या चाहते हो ?
यह सुनकर निरंजन प्रसन्न होकर बोला - हे सहज ! तुम मेरे बङे भाई हो । इतना सा स्थान ..ये मानसरोवर मुझे अच्छा नहीं लगता । अतः मैं किसी बङे स्थान का स्वामी बनना चाहता हूँ । मुझे ऐसी इच्छा है कि या तो मुझे देवलोक दें । या मुझे एक अलग देश दें ।
सहज ने निरंजन की ये अभिलाषा सत्यपुरुष को जाकर बतायी । ये सुनकर सत्यपुरुष ने स्पष्ट शब्दों में कहा - हम निरंजन की सेवा तपस्या से संतुष्टि होकर उसको तीन लोक देते हैं । वह उसमें अपनी इच्छा से शून्य 0 देश बसाये । और वहाँ जाकर सृष्टि की रचना करे । हे सहज ! तुम निरंजन से ऐसा जाकर कहो ।
जब निरंजन ने सहज द्वारा ये बात सुनी । तो वह बहुत प्रसन्न और आश्चर्यचकित हुआ ।
तब निरंजन बोला - हे सहज सुनो । मैं किस प्रकार सृष्टि की रचना करके उसका विस्तार करूँ ? सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया है । परन्तु मैं सृष्टि की रचना का भेद नहीं जानता । फ़िर यह कार्य कैसे करूँ । जो सृष्टि मन बुद्धि की पहुँच से परे अत्यन्त कठिन और जटिल है । वह मुझे रचनी नहीं आती । अतः दया करके मुझे उसकी युक्ति बतायी जाये । हे भाई ! तुम मेरी तरफ़ से सत्यपुरुष से यह विनती करो कि मैं किस प्रकार नवखण्ड बनाऊँ ? अतः मुझे वह साज सामान दो । जिससे जगत की रचना हो सके ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सहज ने यह सब बात जब जाकर सत्यपुरुष से कही । तब उन्होंने आग्या दी । हे सहज ! कूर्म के पेट के अन्दर सृष्टि रचना का सब साज सामान है । उसे लेकर निरंजन अपना कार्य करे । इसके लिये निरंजन कूर्म से विनती करे । और उससे दण्ड प्रणाम करके विनयपूर्वक सिर झुकाकर माँगे ।
सहज ने सत्यपुरु्ष की आग्या निरंजन को बता दी ।
यह बात सुनते ही निरंजन बहुत हर्षित हुआ । और उसके अन्दर बहुत अभिमान हुआ । वह कूर्म के पास जाकर खङा हो गया । और बताये अनुसार दण्ड प्रणाम भी नहीं किया ।
अमृत स्वरूप कूर्म जो सबको सुख देने वाले हैं । और उनमें क्रोध एवं अभिमान का भाव जरा भी नहीं है । और वे अत्यन्त शीतल स्वभाव के हैं । अतः जब काल निरंजन ने अभिमान करके देखा । तो पता चला कि कूर्म जी अत्यन्त धैर्यवान और बलशाली हैं ।
12 पालंग कूर्म जी का विशाल शरीर है । और 6 पालंग बलबान निरंजन का शरीर है । निरंजन क्रोध करता हुआ कूर्म के चारों ओर दौङता रहा । और ये सोचता रहा कि किस उपाय से इससे उत्पत्ति का सामान लूँ ?
तब निरंजन बेहद रोष से कूर्म से भिङ गया । और अपने तीखे नाखूनों से कूर्म के शीश पर आघात करने लगा । प्रहार करने से कूर्म के उदर से पवन निकले । उसके शीश के तीन अंश सत रज तम गुण निकले । आगे जिनके वंश बृह्मा विष्णु महेश हुये । 5 तत्व धरती आकाश आदि तथा चन्द्रमा सूर्य आदि तारों का समूह उसके उदर में थे । उसके आघात से पानी अग्नि चन्द्रमा और सूर्य निकले । और प्रथ्वी जगत को ढकने के लिये आकाश निकला । फ़िर उसके उदर से प्रथ्वी को उठाने वाले वाराह शेषनाग और मत्स्य निकले ।
तब प्रथ्वी सृष्टि का आरम्भ हुआ ।
जब काल निरंजन ने कूर्म का शीश काटा । तब उस स्थान से रक्त जल के स्रोत बहने लगे । जब उनके रक्त में स्वेद यानी पसीना और जल मिला । उससे समुद्र का निर्माण तथा 49 कोटि प्रथ्वी का निर्माण हुआ । जैसे दूध पर मलाई ठहर जाती है । वैसे ही जल पर प्रथ्वी ठहर गयी ।
वाराह के दाँत प्रथ्वी के मूल में रहे । पवन प्रचण्ड था । और प्रथ्वी स्थूल थी । आकाश को अंडास्वरूप समझो । और उसके बीच में प्रथ्वी स्थिति है ।
कूर्म के उदर से कूर्म सुत उत्पन्न हुये । उस पर शेषनाग और वराह का स्थान है । शेषनाग के सिर पर प्रथ्वी है । निरंजन के चोट करने से कूर्म बरियाया । सृष्टि रचना का सब साजो सामान कूर्म उदर के अंडे में थी । परन्तु वह कूर्म के अंश से अलग थी । आदि कूर्म सत्यलोक के बीच रहता था ।
निरंजन के आघात से पीङित होकर उसने सत्यपुरुष का ध्यान किया । और शिकायत करते हुये कहा - काल निरंजन ने मेरे साथ दुष्टता की है । उसने मेरे ऊपर बल प्रयोग करते हुये मेरे पेट को फ़ाङ डाला है । आपकी आग्या का उसने पालन नहीं किया ।
सत्यपुरुष स्नेह से बोले - कूर्म ! वह तुम्हारा छोटा भाई है । और यह रीत है कि छोटे के अवगुणों को भुलाकर उससे स्नेह किया जाय । सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर कूर्म आनन्दित हो गये ।
इधर काल निरंजन ने फ़िर से सत्यपुरुष का ध्यान किया । और अनेक युगों तक उनकी सेवा तपस्या की । निरंजन ने अपने स्वार्थ से तप किया था । अतः सृष्टि रचना को लेकर वह पछताया । तब धर्मराय निरंजन ने विचार किया कि तीनों लोकों का विस्तार कैसे और कहाँ तक किया जाय ?
उसने स्वर्गलोक । मृत्युलोक और पाताललोक की रचना तो कर दी । परन्तु बिना बीज और जीव के सृष्टि का विस्तार कैसे संभव हो । किस प्रकार और क्या उपाय किया जाय । जो जीवों के धारण करने का शरीर बनाकर सजीव सृष्टि रचना हो सके । यह सब तरीका विधि सत्यपुरुष की सेवा तपस्या से ही होगा । ऐसा विचार करके हठपूर्वक एक पैर पर खङा होकर उसने 64 युगों तक तपस्या की ।
तब दयालु सत्यपुरुष ने सहज से कहा - अब ये तपस्वी निरंजन क्या चाहता है । वह तुम उससे पूछो । और दे दो । उससे कहो । वह हमारे वचन अनुसार सृष्टि का निर्माण करे । और छल मत का त्याग करे ।
सहज ने निरंजन से जाकर यह सब बात कही । तब निरंजन बोला - मुझे वह स्थान दो । जहाँ जाकर मैं बैठ जाऊँ ।
यह सुनकर सहज बोले - सत्यपुरुष ने पहले ही सब कुछ दे दिया है । कूर्म के उदर से निकले सामान से तुम सृष्टि रचना करो ।
निरंजन बोला - मैं कैसे क्या बनाकर रचना करूँ । सत्यपुरुष से मेरी तरफ़ से विनती कर कहो । अपना सारा खेत बीज मुझे दे दें ।
सहज ने यह हाल सत्यपुरुष को कह सुनाया । सत्यपुरुष ने आग्या दी । तो सहज अपने सुखासन दीप चले गये ।
निरंजन की इच्छा जानकर सत्यपुरुष ने इच्छा व्यक्त की । उनकी इस इच्छा से अष्टांगी नाम की कन्या उत्पन्न हुयी । वह कन्या आठ भुजाओं की होकर आयी थी । वह सत्यपुरुष के वायें अंग जाकर खङी हो गयी । और प्रणाम करते हुये बोली - हे सत्यपुरुष ! मुझे क्या आग्या है ?
सत्यपुरुष बोले - हे पुत्री ! तुम निरंजन के पास जाओ । मैं तुम्हें जो वस्तु देता हूँ । उसे संभाल लो । उससे तुम निरंजन के साथ मिलकर सृष्टि रूपी फ़ुलवारी की रचना करो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सत्यपुरुष ने अष्टांगी नामक कन्या को जो जीव बीज दिया । उसका नाम " सोहंग " है । इस तरह जीव का नाम सोहंग है । जीव ही सोहंगम है । दूसरा नहीं है । और वह जीव सत्यपुरुष का अंश है । फ़िर सत्यपुरुष ने तीन शक्तियों को उत्पन्न किया । उनके नाम चेतन । उलंघिन और अभय थे । सत्यपुरुष ने अष्टांगी कन्या से कहा कि निरंजन के पास जाकर उसे पहचान कर यह 84 लाख जीवों का मूल बीज .. जीव बीज दे दो ।
अष्टांगी कन्या यह जीव बीज लेकर मानसरोवर चली गयी । तब सत्यपुरुष ने सहज को बुलाया ।
सत्यपुरुष ने सहज से कहा । तुम निरंजन के पास जाकर यह कहो । जो वस्तु तुम चाहते थे । वह तुम्हें दे दी गयी है । जीब बीज सोहंग तुम्हें मिल गया है । अब जैसी चाहो सृष्टि रचना करो । और मानसरोवर में जाकर रहो । वहीं से सृष्टि का आरम्भ होना है ।
सहज ने निरंजन से जाकर ऐसा ही कहा ।
निरंजन ने सत्यपुरुष में ध्यान लगाकर । एक पैर पर खङे होकर 70 युग तक कठिन तपस्या की । इससे आदि पुरुष बहुत प्रसन्न हुये । तब निरंजन के लिये सत्यपुरुष की आवाज वाणी के रूप में हुयी - हे धर्मराय ! किस हेतु से तुमने यह तप सेवा की ?
इस पर निरंजन सिर झुकाकर बोला - हे प्रभु ! आप मुझे वह स्थान दें । जहाँ जाकर मैं निवास करूँ ।
तब सत्यपुरुष ने कहा - पुत्र ! तुम मानसरोवर दीप में जाओ ।
सत्यपुरुष की आग्या से प्रसन्न होकर धर्मराज मानसरोवर दीप की ओर चला गया । और उसे देखकर आनन्द से भर गया । मानसरोवर पर निरंजन ने फ़िर से एक पैर पर खङे होकर 70 युग तपस्या की । तब दयालु सत्यपुरुष के ह्रदय में दया भर गयी । निरंजन की कठिन सेवा तपस्या से पुष्प दीप के पुष्प विकसित हो गये । और फ़िर सत्यपुरुष की वाणी प्रकट हुयी । उनके बोलते ही वहां सुगन्ध फ़ैल गयी ।
सत्यपुरुष ने अपने सहज सुत से कहा - हे सहज ! तुम निरंजन के पास जाओ । और उससे तप का कारण पूछो । निरंजन की सेवा तपस्या से पहले ही मैंने उसको मानसरोवर दीप दिया है । अब वह क्या चाहता है । यह ग्यात कर तुम मुझे बताओ ?
तब सहज निरंजन के पास पहुँचे ।और प्रेमभाव से कहा - हे भाई ! अब तुम क्या चाहते हो ?
यह सुनकर निरंजन प्रसन्न होकर बोला - हे सहज ! तुम मेरे बङे भाई हो । इतना सा स्थान ..ये मानसरोवर मुझे अच्छा नहीं लगता । अतः मैं किसी बङे स्थान का स्वामी बनना चाहता हूँ । मुझे ऐसी इच्छा है कि या तो मुझे देवलोक दें । या मुझे एक अलग देश दें ।
सहज ने निरंजन की ये अभिलाषा सत्यपुरुष को जाकर बतायी । ये सुनकर सत्यपुरुष ने स्पष्ट शब्दों में कहा - हम निरंजन की सेवा तपस्या से संतुष्टि होकर उसको तीन लोक देते हैं । वह उसमें अपनी इच्छा से शून्य 0 देश बसाये । और वहाँ जाकर सृष्टि की रचना करे । हे सहज ! तुम निरंजन से ऐसा जाकर कहो ।
जब निरंजन ने सहज द्वारा ये बात सुनी । तो वह बहुत प्रसन्न और आश्चर्यचकित हुआ ।
तब निरंजन बोला - हे सहज सुनो । मैं किस प्रकार सृष्टि की रचना करके उसका विस्तार करूँ ? सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया है । परन्तु मैं सृष्टि की रचना का भेद नहीं जानता । फ़िर यह कार्य कैसे करूँ । जो सृष्टि मन बुद्धि की पहुँच से परे अत्यन्त कठिन और जटिल है । वह मुझे रचनी नहीं आती । अतः दया करके मुझे उसकी युक्ति बतायी जाये । हे भाई ! तुम मेरी तरफ़ से सत्यपुरुष से यह विनती करो कि मैं किस प्रकार नवखण्ड बनाऊँ ? अतः मुझे वह साज सामान दो । जिससे जगत की रचना हो सके ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सहज ने यह सब बात जब जाकर सत्यपुरुष से कही । तब उन्होंने आग्या दी । हे सहज ! कूर्म के पेट के अन्दर सृष्टि रचना का सब साज सामान है । उसे लेकर निरंजन अपना कार्य करे । इसके लिये निरंजन कूर्म से विनती करे । और उससे दण्ड प्रणाम करके विनयपूर्वक सिर झुकाकर माँगे ।
सहज ने सत्यपुरु्ष की आग्या निरंजन को बता दी ।
यह बात सुनते ही निरंजन बहुत हर्षित हुआ । और उसके अन्दर बहुत अभिमान हुआ । वह कूर्म के पास जाकर खङा हो गया । और बताये अनुसार दण्ड प्रणाम भी नहीं किया ।
अमृत स्वरूप कूर्म जो सबको सुख देने वाले हैं । और उनमें क्रोध एवं अभिमान का भाव जरा भी नहीं है । और वे अत्यन्त शीतल स्वभाव के हैं । अतः जब काल निरंजन ने अभिमान करके देखा । तो पता चला कि कूर्म जी अत्यन्त धैर्यवान और बलशाली हैं ।
12 पालंग कूर्म जी का विशाल शरीर है । और 6 पालंग बलबान निरंजन का शरीर है । निरंजन क्रोध करता हुआ कूर्म के चारों ओर दौङता रहा । और ये सोचता रहा कि किस उपाय से इससे उत्पत्ति का सामान लूँ ?
तब निरंजन बेहद रोष से कूर्म से भिङ गया । और अपने तीखे नाखूनों से कूर्म के शीश पर आघात करने लगा । प्रहार करने से कूर्म के उदर से पवन निकले । उसके शीश के तीन अंश सत रज तम गुण निकले । आगे जिनके वंश बृह्मा विष्णु महेश हुये । 5 तत्व धरती आकाश आदि तथा चन्द्रमा सूर्य आदि तारों का समूह उसके उदर में थे । उसके आघात से पानी अग्नि चन्द्रमा और सूर्य निकले । और प्रथ्वी जगत को ढकने के लिये आकाश निकला । फ़िर उसके उदर से प्रथ्वी को उठाने वाले वाराह शेषनाग और मत्स्य निकले ।
तब प्रथ्वी सृष्टि का आरम्भ हुआ ।
जब काल निरंजन ने कूर्म का शीश काटा । तब उस स्थान से रक्त जल के स्रोत बहने लगे । जब उनके रक्त में स्वेद यानी पसीना और जल मिला । उससे समुद्र का निर्माण तथा 49 कोटि प्रथ्वी का निर्माण हुआ । जैसे दूध पर मलाई ठहर जाती है । वैसे ही जल पर प्रथ्वी ठहर गयी ।
वाराह के दाँत प्रथ्वी के मूल में रहे । पवन प्रचण्ड था । और प्रथ्वी स्थूल थी । आकाश को अंडास्वरूप समझो । और उसके बीच में प्रथ्वी स्थिति है ।
कूर्म के उदर से कूर्म सुत उत्पन्न हुये । उस पर शेषनाग और वराह का स्थान है । शेषनाग के सिर पर प्रथ्वी है । निरंजन के चोट करने से कूर्म बरियाया । सृष्टि रचना का सब साजो सामान कूर्म उदर के अंडे में थी । परन्तु वह कूर्म के अंश से अलग थी । आदि कूर्म सत्यलोक के बीच रहता था ।
निरंजन के आघात से पीङित होकर उसने सत्यपुरुष का ध्यान किया । और शिकायत करते हुये कहा - काल निरंजन ने मेरे साथ दुष्टता की है । उसने मेरे ऊपर बल प्रयोग करते हुये मेरे पेट को फ़ाङ डाला है । आपकी आग्या का उसने पालन नहीं किया ।
सत्यपुरुष स्नेह से बोले - कूर्म ! वह तुम्हारा छोटा भाई है । और यह रीत है कि छोटे के अवगुणों को भुलाकर उससे स्नेह किया जाय । सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर कूर्म आनन्दित हो गये ।
इधर काल निरंजन ने फ़िर से सत्यपुरुष का ध्यान किया । और अनेक युगों तक उनकी सेवा तपस्या की । निरंजन ने अपने स्वार्थ से तप किया था । अतः सृष्टि रचना को लेकर वह पछताया । तब धर्मराय निरंजन ने विचार किया कि तीनों लोकों का विस्तार कैसे और कहाँ तक किया जाय ?
उसने स्वर्गलोक । मृत्युलोक और पाताललोक की रचना तो कर दी । परन्तु बिना बीज और जीव के सृष्टि का विस्तार कैसे संभव हो । किस प्रकार और क्या उपाय किया जाय । जो जीवों के धारण करने का शरीर बनाकर सजीव सृष्टि रचना हो सके । यह सब तरीका विधि सत्यपुरुष की सेवा तपस्या से ही होगा । ऐसा विचार करके हठपूर्वक एक पैर पर खङा होकर उसने 64 युगों तक तपस्या की ।
तब दयालु सत्यपुरुष ने सहज से कहा - अब ये तपस्वी निरंजन क्या चाहता है । वह तुम उससे पूछो । और दे दो । उससे कहो । वह हमारे वचन अनुसार सृष्टि का निर्माण करे । और छल मत का त्याग करे ।
सहज ने निरंजन से जाकर यह सब बात कही । तब निरंजन बोला - मुझे वह स्थान दो । जहाँ जाकर मैं बैठ जाऊँ ।
यह सुनकर सहज बोले - सत्यपुरुष ने पहले ही सब कुछ दे दिया है । कूर्म के उदर से निकले सामान से तुम सृष्टि रचना करो ।
निरंजन बोला - मैं कैसे क्या बनाकर रचना करूँ । सत्यपुरुष से मेरी तरफ़ से विनती कर कहो । अपना सारा खेत बीज मुझे दे दें ।
सहज ने यह हाल सत्यपुरुष को कह सुनाया । सत्यपुरुष ने आग्या दी । तो सहज अपने सुखासन दीप चले गये ।
निरंजन की इच्छा जानकर सत्यपुरुष ने इच्छा व्यक्त की । उनकी इस इच्छा से अष्टांगी नाम की कन्या उत्पन्न हुयी । वह कन्या आठ भुजाओं की होकर आयी थी । वह सत्यपुरुष के वायें अंग जाकर खङी हो गयी । और प्रणाम करते हुये बोली - हे सत्यपुरुष ! मुझे क्या आग्या है ?
सत्यपुरुष बोले - हे पुत्री ! तुम निरंजन के पास जाओ । मैं तुम्हें जो वस्तु देता हूँ । उसे संभाल लो । उससे तुम निरंजन के साथ मिलकर सृष्टि रूपी फ़ुलवारी की रचना करो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सत्यपुरुष ने अष्टांगी नामक कन्या को जो जीव बीज दिया । उसका नाम " सोहंग " है । इस तरह जीव का नाम सोहंग है । जीव ही सोहंगम है । दूसरा नहीं है । और वह जीव सत्यपुरुष का अंश है । फ़िर सत्यपुरुष ने तीन शक्तियों को उत्पन्न किया । उनके नाम चेतन । उलंघिन और अभय थे । सत्यपुरुष ने अष्टांगी कन्या से कहा कि निरंजन के पास जाकर उसे पहचान कर यह 84 लाख जीवों का मूल बीज .. जीव बीज दे दो ।
अष्टांगी कन्या यह जीव बीज लेकर मानसरोवर चली गयी । तब सत्यपुरुष ने सहज को बुलाया ।
सत्यपुरुष ने सहज से कहा । तुम निरंजन के पास जाकर यह कहो । जो वस्तु तुम चाहते थे । वह तुम्हें दे दी गयी है । जीब बीज सोहंग तुम्हें मिल गया है । अब जैसी चाहो सृष्टि रचना करो । और मानसरोवर में जाकर रहो । वहीं से सृष्टि का आरम्भ होना है ।
सहज ने निरंजन से जाकर ऐसा ही कहा ।
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