महावीर ने अपने संन्यासी को मुनि कहा । मुनि का अर्थ है । जो मौन हो गया । जिसने वचन उच्चारण की क्रिया का परित्याग किया । क्यों महावीर ने इतना जोर दिया मौन पर ? इसे खयाल में लें । मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात बातचीत है । भाषा है । बोलने की क्षमता है । पशु हैं । पक्षी हैं । पौधे हैं । हैं तो । पर भाषा नहीं है । बोल नहीं सकते । इसलिए पशु पक्षी पौधे अकेले अकेले हैं । उनका कोई समाज नहीं है । समाज के लिए भाषा जरूरी है । आदमी का समाज है । आदमी सामाजिक प्राणी है । क्योंकि आदमी बोल सकता है । बोले बिना जुड़ोगे कैसे किसी से ? जब बोलते हो । तभी सेतु फैलते हैं । और जोड़ होता है । तो भाषा का अर्थ हुआ । व्यक्ति व्यक्ति के बीच जोड़ने वाले सेतु । भाषा मनुष्य को समाज बनाती है । समाज देती है । समुदाय देती है ।
महावीर ने कहा - मौन हो जाओ । अर्थ हुआ । टूट जाओ । सारे सेतु तोड़ दो दूसरों से । बोलने के ही तो सेतु हैं । बोलने के द्वारा जुड़े हो । तोड़ दो बोलने के सेतु । अकेले हो जाओ । बोलना छोड़ते ही आदमी अकेला हो जाता है ।
चाहे बाजार में खड़ा हो । अगर बोलना जारी रहे । तो पहाड़ पर बैठा भी अकेला नहीं है । वहां भी किसी से, कल्पना के मित्र से, शत्रु से बात करता रहेगा । वहां भी समाज बना रहेगा । कल्पना का ही सही । लेकिन समाज रहेगा । आदमी अकेला न होगा । बीच बाजार में आदमी मौन हो जाए । अचानक उसी क्षण मौन होते ही समाज खो गया । भीड़ के कारण समाज नहीं है । भाषा के कारण समाज है । तो महावीर ने कहा - जंगल में भागने से क्या सार होगा ? अपने में भाग जाओ । छोड़ दो दूसरे तक जाना । भाषा से ही हम दूसरे तक जाते हैं । तोड़ दो भाषा । अपने में लीन हो जाओ । महावीर 12 वर्ष मौन रहे । उन 12 वर्षों में उन्होंने क्या किया ? उन्होंने सब भांति अपने को समाज से मुक्त किया । वे परम विद्रोही थे । समाज से सब भांति उन्होंने सब तरह के संबंध । सब धागे तोड़ डाले । उन्होंने सब तरह से अपने को समाज से अलग किया । क्योंकि उन्होंने पाया कि जितने तुम समाज से जुड़े हो । उतने ही अपने से टूट जाते हो ।
स्वाभाविक गणित था । समाज से टूट जाओ । अपने से जुड़ जाओगे । फिर महावीर लौटे । समाज में लौटे । समझाने आये । बोले - लेकिन 12 वर्ष के मौन के बाद बोले । अब समाज से जुड़ने का कोई उपाय न था । अब उन्होंने सब भांति अपनी निपटता, एकांत को उपलब्ध कर लिया था । सब भांति कैवल्य को जान लिया था । स्वयं के अकेलेपन को पहचान लिया था । फिर आये । अब कोई डर न था । अब बोले । अब भाषा केवल उपयोग की बात रह गयी । 1 साधन मात्र । तुम्हारे लिए भाषा केवल साधन नहीं है । भाषा तुम्हारी व्यस्तता है । बिना बोले तुम घबड़ाने लगते हो । अगर कोई बात करने को न मिले । तो बेचैन होने लगते हो ।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि - अगर 3 सप्ताह किसी आदमी को एकांत में बंद कर दिया जाए । तो पहले सप्ताह तो वह भीतर भीतर बात करता है । दूसरे सप्ताह बोल बोलकर बात करने लगता है - अकेले में । और तीसरे सप्ताह तो वह बिलकुल खयाल ही भूल जाता है कि - अकेला है । वह अपनी प्रतिमाएं कल्पना की खड़ी कर लेता है । उनसे बातचीत में संलग्न हो जाता है ।
कम्युनिस्ट मुल्कों में जिन कैदियों से उन्हें बात उगलवानी होती है । उनको वे सताते नहीं । उनको वे सिर्फ एकांत में डाल देते हैं । अंधेरी कोठरियों में डाल देते हैं । उनको पड़े रहने देते हैं अकेले में । टेप लगे रहते हैं उनके आसपास । वे कुछ भी बोलें । तो वह टेप में संगृहीत हो जाता है ।
3-4 सप्ताह के बाद जो वह उगलवाना चाहते थे । वह खुद ही उगलने लगते हैं । 1 सीमा है ।
तुमने कभी खयाल किया ? कोई तुमसे गुप्त बात कह दे । कहे किसी को कहना मत । बस तुम मुश्किल में पड़े । उसका यह कहना कि किसी को कहना मत । कहने के लिए बड़ा उकसावा बन जाएगा । बड़ी उत्तेजना पैदा हो जाएगी । आदमी लेता है । देता है । भाषा में । भीतर छिपाकर रखना बहुत कठिन है ।
मैंने सुना है । 1 सूफी फकीर के पास 1 युवक आया । और उस युवक ने कहा कि - मैंने सुना है कि आपको जीवन का परम रहस्य मिल गया । आपके गुरु ने आपको कुंजी दे दी है । उस गुप्त कुंजी को मुझे भी दे दें । उस सूफी फकीर ने कहा - ठीक ! लेकिन तुम इसे गुप्त रख सकोगे ? किसी को बताना मत । उसने कहा - कसम खाता हूं आपकी । पैर छुए । कभी किसी को न बताऊंगा । वह सूफी बोला - फिर ठीक । मैंने भी ऐसी ही कसम खायी है । अपने गुरु के सामने । अब बोलो । मैं क्या करूं ? अगर तुम गुप्त रख सकते हो जीवन भर । तो मैं भी रख सकता हूं । और अगर तुम सच पूछते हो । तो मेरे गुरु ने भी मुझे बतायी नहीं । क्योंकि उसने भी अपने गुरु के सामने ऐसी ही कसम खायी थी । सिर्फ अफवाह है । परेशान मत होओ । गुप्त बात गुप्त रखी नहीं जा सकती । आदमी बोझिल अनुभव करने लगता है । जो बाहर से आया है । वह बाहर लौटाना पड़ता है । जब तुम बोलते हो । तुमने खयाल किया । तुम वही बोलते हो । जो बाहर से तुम्हारे भीतर आ गया है । वह भारी होने लगता है । सुबह अखबार पढ़ लिया । फिर वही अखबार । तुम दूसरों से बोलने लगे । जब तक तुम किसी को बता न दो । तुमने अखबार में क्या पढ़ा है । तब तक तुम्हें चैन नहीं । यह विजातीय तत्व है । जो बाहर से आ जाता है । इसे बाहर निकालना पड़ता है । यह तुम्हारी प्रकृति को विकृत करता है । बाहर निकलते ही से तुम हलके हो जाते हो । इसीलिए तो किसी से अपनी बातें कहकर आदमी हलकापन अनुभव करता है । रो लिया दुखड़ा । हो गये हलके ।
पश्चिम में तो अब कोई किसी की सुनने को राजी नहीं । किसके पास फुर्सत है । तो व्यावसायिक सुनने वाले पैदा हो गये हैं । उन्हीं का नाम मनोवैज्ञानिक है । वे व्यावसायिक हैं । उनका कोई और काम नहीं है । उनका काम यह है कि वे ध्यान पूर्वक तुम्हारी बात सुनते हैं । सुनते भी हैं । या नहीं ? यह भी कुछ पक्का नहीं है । लेकिन ध्यान पूर्वक जतलाते हैं कि सुन रहे हैं । आदमी घंटा भर अपनी बकवास उन्हें सुनाकर हलका अनुभव करता है । और इसके लिए पैसे भी देता है । महंगा धंधा है । काफी पैसे देने पड़ते हैं । लोग वर्षों तक मनो चिकित्सा में रहते हैं । 1 चिकित्सक को छोड़ फिर दूसरे को पकड़ लेते हैं । क्योंकि 1 बार वह जो राहत मिलती है किसी को । ध्यान पूर्वक कोई तुम्हारी सुन ले । तो बड़ा आनंद आता है । तुम हलके हो जाते हो ।
महावीर ने कहा - भाषा इस तरह अगर व्यस्तता का आधार बन गयी हो । तो रोग है । तो तुम चुप हो जाना ।
जो वचन उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग भाव से आत्मा का ध्यान करता है । उसको परम समाधि या सामायिक होती है ।
यह बात खयाल में रखने जैसी है ।
कम से कम दिन में 2-4 घंटे तो मौन में बिताओ । नियम ही बना लो कि 24 घंटे में कम से कम 4 घंटे तुम अपने लिए दे दोगे । बाकी दे दो 20 घंटे संसार के लिए । 4 घंटे अपने लिए बचा लो । चलो 4 घंटे बहुत लगें । घंटे से शुरू करो । लेकिन 1 घंटा अपने लिए बचा लो । उस 1 घंटे में फिर तुम बिलकुल चुप हो जाओ । पहले पहले कठिन होगा । ओंठ बंद कर लेना तो आसान है । भीतर की तरंगें बंद करना मुश्किल होगा । लेकिन साक्षी भाव से उन तरंगों को देखते रहो । देखते रहो । देखते रहो । धीरे धीरे तुम पाओगे । गति विचारों की कम हो गयी । धीरे धीरे तुम पाओगे । कभी कभी बीच बीच में 2 विचार के अंतराल आने लगा । खाली जगह आने लगी । उसी खाली जगह में से रस बहेगा । उसी खाली जगह में से तुम्हें आत्मा की झलक पहली दफे मिलेगी । यह झलक ऐसे ही होगी । जैसे वर्षा में बादल घिरे हों । और कभी कभी सूरज की झलक मिल जाए क्षण भर को । किरणों की छटा छा जाए । फिर सूरज ढक जाए । लेकिन 1 बार झलक आने लगे । 1 दफे वहां भीतर की मुरली का स्वर तुम्हें सुनायी पड़ने लगे । तो जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । वह घट गया ।
साज शृंगार ?
छोड़ दौड़ो सब साज सिंगार । रास की मुरली रही पुकार ।
गयी सहसा किस रस से भींग । वकुल वन में कोकिल की तान ?
चांदनी में उमड़ी सब ओर । कहां के मद की मधुर उफान ?
गिरा चाहती भूमि पर इंदु । शिथिल वसना रजनी के संग ।
सिहरते पग सकता न संभाल । कुसुम कलियों पर स्वयं अनंग ।
ठगी सी रूठी नयन के पास । लिये अंजन उंगली सुकुमार ।
अचानक लगे नाचने मर्म । रास की मुरली उठी पुकार ।
साज शृंगार ?
छोड़ दौड़ो सब साज सिंगार । रास की मुरली रही पुकार ।
खोल बांहें आलिंगन हेतु । खड़ा संगम पर प्राणाधार ।
तुम्हें कंकन कुंकुम का मोह । और यह मुरली रही पुकार ।
सनातन महानंद में आज । बांसुरी कंकन एकाकार ।
बहा जा रहा अचेतन विश्व । रास की मुरली रही पुकार ।
साज शृंगार ?
छोड़ दौड़ो सब साज सिंगार । रास की मुरली रही पुकार ।
1 बार भी तुम्हें भीतर की किरणों का बोध हो जाए । सुन पड़ी मुरली । रास का निमंत्रण मिल गया । उस परम प्यारे की सुध आ गयी । वह तुम्हारे भीतर ही बैठा है । वह तुम्हें सदा से ही पुकारता रहा है । लेकिन तुम इतने व्यस्त हो । दूसरों के साथ भाषा में । बोलने में । झगड़ने में । मित्रता शत्रुता बनाने में । तुम इतने व्यस्त हो बाहर कि तुम्हारे भीतर अंतर्तम से उठी मुरली की पुकार तुम्हें सुनायी नहीं पड़ती ।
महावीर ने कहा - मौन हो जाओ । तो तुम्हें अपने संगीत का पहली दफा अनुभव हो । चुप हो जाओ । उस चुप्पी में ही । उस अनाहत का नाद शुरू होगा । वह ध्वनिहीन ध्वनि । वह स्वरहीन स्वर । तुम्हारे भीतर से उठने लगेगा । तुम्हारी अतल गहराइयों से । तुम्हारी चेतना की परम गहराइयों से तुम्हारे पास तक पहुंचने लगेगा । लेकिन मौन उसकी अनिवार्य शर्त है । और मौन का अर्थ है - ओंठ से मौन । कंठ से मौन । भीतर विचार से मौन । धीरे धीरे सब तलों पर । सब पर्तों पर मौन । तब तुम मुनि हुए । मुनि का कोई संबंध बाह्य आचरण से नहीं है । मुनि का संबंध उस अंतस दशा से है । मौन की दशा से है । और जो मौन को उपलब्ध हुआ । वही बोलने का हकदार है । जो अभी मौन को ही नहीं जाना । वह तो बाहर के ही कचरे को भीतर लेता है । और बाहर फेंक देता है । उसका बोलना तो वमन जैसा है । जो मौन को उपलब्ध हुआ । उसके पास कुछ देने को है । उसके पास कुछ भरा है । जो बहना चाहता है । बंटना चाहता है । उसके पास कुछ आनंद की संपदा है । जो वह तुम्हारी झोली में डाल दे सकता है ।
महावीर 12 वर्ष मौन रहे । जीसस जब भी बोलते । तो बोलने के बाद कुछ दिनों के लिए पहाड़ पर चले जाते । वहां चुप हो जाते । जब भी कोई महत्वपूर्ण बात बोलते । तब तत्क्षण वे पहाड़ चले जाते । अपने मित्र, संग साथियों को भी छोड़ देते । कहते - अभी कोई मत आना । अभी मुझे जाने दो अकेले में । उस अकेले में जीसस क्या करते ? मुहम्मद पर जब पहली दफा कुरान की आयत - पहली आयत उतरी । तो वे 40 दिन से मौन थे । उसी मौन में पहली दफे कुरान उतरा ।
जो भी मौन में उतरा है । वही शास्त्र है । मौन में जो नहीं उतरा । वह शास्त्र नहीं । किताब होगी । जो मौन में कहा गया है । मौन से कहा गया है । वही उपदेश है । जो शब्द मौन में डूबे हुए नहीं आये । मौन में पगे हुए नहीं आये । वे सब शब्द रुग्ण हैं । स्वस्थ तो वे ही शब्द हैं । जो मौन में पगे हुए आते हैं । और अगर तुम ध्यान से सुनोगे । तो तुम तत्क्षण पहचान लोगे कि यह शब्द मौन में पगा आया है । या नहीं आया है ? तुम्हारा हृदय तत्क्षण गवाही दे सकेगा । क्योंकि जितना शून्य लेकर शब्द आता है । अगर तुम शांतिपूर्वक सुनो । तो शब्द चाहे । तुम भूल भी जाओ । शून्य सदा के लिए तुम्हारा हो जाता है । शब्द चाहे तुम्हारे स्मृति में रहे । या न रहे । शून्य तुम्हारे प्राणों पर फैल जाता है । तुम्हें नया कर जाता है । ताजा कर जाता है ।
ध्यान में दर्शन है । मौन में दर्शन है । चुप्पी में साक्षात्कार है ।
देख सकता हूं जो आंखों से वो काफी है - मज़ाज़ ।
अहले इर्फां की नवाजिश मुझे मंजूर नहीं ।
ठीक कहा है मज़ाज़ ने । दार्शनिकों की सेवा करने की मेरी इच्छा नहीं । दार्शनिकों का सत्संग करने की मेरी कोई इच्छा नहीं ।
देख सकता हूं जो आंखों से वो काफी है - मज़ाज़ ।
जो मैं अपनी आंख से देख सकता हूं । वह पर्याप्त है । किसी और से क्या पूछना है । किसी और से क्या पूछने जाना है । आंख तुम्हारे पास है । लेकिन तुम्हारी आंख इतने शब्दों से भरी है । इतने विचारों से ढंकी है । जैसे दर्पण पर धूल जम गयी हो । दर्पण का पता ही न चलता हो । झाड़ दो धूल । तुम्हारा दर्पण फिर झलकायेगा । झाड़ दो आंख से विचारों की धूल । झाड़ दो मन से विचारों की धूल । तुम प्रतिबिंब दोगे परमात्मा का । तुम्हारा दर्पण खोया नहीं है । सिर्फ ढंक गया है धूल में । और धूल कितना ही दर्पण को ढांक ले । नष्ट थोड़े ही कर पाती है । इसलिए जब तक पोंछा नहीं है तभी तक परेशानी है । पोंछते ही तुम चकित हो जाओगे । जन्मों जन्मों के अंधकार को क्षण में पोंछा जा सकता है । और जन्मों जन्मों की जमी धूल को क्षण में बुहारा जा सकता है । कुछ ऐसा नहीं है कि तुम्हें जनम जनम तक सफाई करनी होगी । सफाई तो 1 क्षण में भी हो सकती है । सिर्फ त्वरा चाहिए । प्रवृत्ति चाहिए अंतर्यात्रा की ।
ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है । इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का प्रतिक्रमण है ।
महावीर कहते हैं - और सब ठीक है । लेकिन वास्तविक क्रांति ध्यान में ही घटती है । समस्त अतिचारों का, सब दोषों का परित्याग ध्यान में ही होता है । क्यों ध्यान में परित्याग होता है ? महावीर नहीं कहते हैं । करुणा साधो । महावीर नहीं कहते । दया साधो । महावीर नहीं कहते । दान साधो । त्याग साधो । महावीर कहते हैं - ध्यान साधो । क्यों ? क्योंकि दान करोगे । तो पहले 1 कर्ता का भाव था कि मेरे पास धन है । दान करोगे । दूसरे कर्ता का भाव पैदा हो जाएगा कि मेरे पास त्याग है । मैं दानी हूं । क्रोध किया था । तो 1 अहंकार था । करुणा करोगे । तो दूसरा अहंकार हो जाएगा । दूसरा अहंकार स्वर्णिम है । पहला अहंकार सस्ता था । लेकिन हैं तो दोनों ही अहंकार ।
महावीर कहते हैं - ध्यान । ध्यान का अर्थ है कि तुम्हें पता चले । तुम कर्ता ही नहीं हो । न क्रोध के । न करुणा के । न लोभ के । न दान के । तुम अकर्ता हो । साक्षी हो ।
ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है । परित्याग हो जाता है । ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का प्रतिक्रमण है ।
झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं ।
तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमणं ।
ध्यान सारभूत है । जो निज को निज भाव से देखता है ।
जो निज भाव को नहीं छोड़ता । और किसी भी पर भाव को ग्रहण नहीं करता । तथा जो सबका ज्ञाता द्रष्टा है । वह परम तत्व मैं ही हूं । आत्म ध्यान में लीन साधु ऐसा चिंतन करता । ऐसा अनुभव करता है ।
जो निज भाव को नहीं छोड़ता । ध्यान का अर्थ है - निजता में आ जाना । अपने में आ जाना । बाहर से सब नाते छोड़ देना । बाहर से सब नाते तोड़ देना । इसके लिए जरूरी नहीं है कि तुम घर से भागो । क्योंकि यह बात तो आंतरिक है । घर से भागना भी बाहर से ही जुड़े रहना है । घर तो बाहर है । न पकड़ो । न भागो । धन तो बाहर है । न पकड़ो । न छोड़ो । सिर्फ 1 बात स्मरण रखो कि यह मैं नहीं हूं । यह शरीर मैं नहीं । यह घर मैं नहीं । यह धन मैं नहीं । यह मन मैं नहीं । इतना भर स्मरण रखो । इतना ही याद रहे कि - मैं सिर्फ साक्षी हूं । द्रष्टा हूं । देखने वाला हूं ।
णियभावं ण वि मुच्चइ, परभावं णेव गेण्हए केइं ।
जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी ।
पर भाव को छोड़कर निज भाव को नहीं छोड़ता । सबका ज्ञाता द्रष्टा हूं । वह परम तत्व मैं ही हूं । ऐसी चिंतन धारा जिसमें सतत बहती रहती है । आत्म ध्यान में लीन ज्ञानी ऐसी परम दशा को जब उपलब्ध होता है । तो घटता है । असंभव घटता है । आनंद घटता है । सच्चिदानंद घटता है । जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । वह भी घटता है । जिसका हमें कभी कोई स्वाद नहीं मिला । यद्यपि हम उसी के लिए तड़फ रहे हैं । उसी के लिए भाग रहे हैं । दौड़ रहे हैं । अनेक अनेक दिशाओं में उसी को खोज रहे हैं । जो भीतर विराजमान है । दसों दिशाओं में उसकी खोज कर रहे हैं । जो ग्यारहवीं दिशा में बैठा है । खोजने वाले में बैठा है । और खोजने वाला भटक रहा है । कस्तूरी कुंडल बसै । लेकिन मृग है कि पागल है । दीवाना है । गंध की खोज में भाग रहा है । उसे याद ही नहीं । आये भी कैसे याद । आदमी को याद नहीं आती । मृग को कैसे याद आये । कैसे पता चले कि मेरी ही नाभि में छिपा है नाफा कस्तूरी का । वहीं से आ रही है गंध । और मुझे पागल किये दे रही है ।
जिस आनंद को तुम खोज रहे हो । जिस मुरली की आवाज के लिए तुम दौड़ रहे हो । वह तुम्हारे भीतर बज रही है । लेकिन तुम सपनों में खोये हो । बाहर की खोज सपना है । और इसलिए जैसे ही तुम्हारे बाहर के सपने टूटते हैं । तुम उदास हो जाते हो । 1 सपने को दूसरे सपने से जल्दी से परिपूरक बना लेते हो । और जिस दिन सब सपने हाथ से छूटने लगते हैं । उस दिन तुम आत्महत्या करने की सोचने लगते हो । सत्य को पाये बिना कोई जीवन नहीं है । सपनों में सिर्फ आभास है ।
गो हमसे भागती रही ये तेजगाम उम्र ।
ख्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र ।
जुल्फों के ख्वाब, होंठों के ख्वाब और बदन के ख्वाब ।
मिराजे फन के ख्वाब, कमाले सुखन के ख्वाब ।
तहजीबे जिंदगी के, फरोगे वतन के ख्वाब ।
जिंदा के ख्वाब, कूचए दारो रसन के ख्वाब ।
ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे ।
ये ख्वाब ही तो अपनी अमल की असास थे ।
ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात ।
यूं है कि जैसे दस्तेत्तहे संग है हयात ।
ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे ।
ये ख्वाब ही तो अपने अमल की असास थे ।
ये अपने सारे जीवन आचरण की नींव थे ।
ख्वाब सपने ! कहीं पा लेने के ।
ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात ।
जब ये ख्वाब मरते हैं तो लगता है जीवन रंगहीन हो गया ।
यूं है कि जैसे दस्तेत्तहे संग है हयात ।
जब ख्वाब मरते हैं । तो ऐसा लगता है जैसे 2 चट्टानों के बीच में हाथ पिचल गया हो । ऐसी जिंदगी पिचल जाती है । बुढ़ापे में इसीलिए दुख है । बुढ़ापे का नहीं है । मरे हुए ख्वाबों का । पिचले हुए ख्वाबों का है । धूल में गिर गये इंद्रधनुषों का । पैरों में रुंध गये इंद्रधनुषों का दुख है ।
जवान नशे में है । बूढ़े का नशा तो टूट जाता है । लेकिन होश नहीं आता । नशा टूटते ही घबड़ाता है बूढ़ा । परेशान होता है । लेकिन यह याद नहीं आती कि जिसके पीछे हम दौड़ते थे । कहीं ऐसा तो नहीं घर में ही छिपा हो । आंखें बाहर खुलती हैं । तो हम बाहर देखते हैं । कान बाहर खुलते हैं । तो हम बाहर सुनते हैं । हाथ बाहर फैल सकते हैं । तो हम बाहर खोजते हैं । भीतर न तो आंख खुलती है । न हाथ खुलते हैं । न कान खुलते हैं । कोई इंद्रिय भीतर नहीं जाती । इसलिए भीतर की हमें याद नहीं आती ।
भीतर जाने की कला का नाम ध्यान है । बाहर जाने की कलाओं का नाम इंद्रियां हैं । इंद्रियां हैं बाहर जाने वाले द्वार । ध्यान है भीतर जाने वाला द्वार । इंद्रियों में ही भटके रहे । खो गये । तो तुम्हें जीवन का सत्व न मिल सकेगा । तो तुम रोते आये । रोते जाओगे । तो तुम खाली आये । खाली जाओगे ।
ध्यान को जगाओ । क्योंकि ध्यान ही भीतर जा सकता है । आंख भीतर नहीं जा सकती । कान भीतर नहीं जा सकते । हाथ भीतर नहीं जा सकते । सिर्फ ध्यान भीतर जा सकता है । जिसने ध्यान को जगा लिया । उसने जीवन का सारभूत पा लिया । जिसने ध्यान को जगा लिया । उसके भीतर सतत 1 धारा बहती रहती है । सब कामों धामों व्यस्तताओं के बीच भी 1 स्मरण नहीं मिटता । 1 दीया नहीं बुझता । वह दीया जगमगाता रहता है - मैं साक्षी हूं । मैं साक्षी हूं । मैं साक्षी हूं । ऐसा कुछ शब्द नहीं दोहराने होते । खयाल रखना । ऐसा बोध । ऐसा भाव: - मैं साक्षी हूं । यही समता है । यही समाधि है । यही सामायिक है । ओशो
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