ईसान स्वयं सर्दी से कांप रहा था । उसने अलाव को काफी कुरेदा । पर उसे सिवाय राख के कोई अंगारा न मिला । उसने निराश होकर उत्तर दिया - मुझे तो इसमें 1 चिंगारी तक नहीं दिखाई देती । आग पूरी तरह बुझ चुकी है ।
हयाकुजो ने चिमटे से अलाव को काफी गहराई तक कुरेदा । और 2 छोटे छोटे अंगारे निकाल कर ईसान को दिखाते हुये कहा - तू देख रहा है, यह आग ? तू काफी गहराई तक गया ही नहीं ।
कहते है हयाकुजो के यह वचन सुनते ही ईसान बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया । हयाकुजो ने जो अस्तित्वगत बात
कही थी । उसने तीर का काम किया । हयाकुजो हमेशा कहा करता था - गहरे जाओ । अपने अंदर और गहरे । खुदाई करते ही जाओ ।
ईसान को अपनी गलती समझ आ गई । वह ध्यान तो कर रहा था । पर गहरे नहीं उतर पा रहा था । और इसीलिये जीवन की आग को अर्थात सत्य को पाने से वंचित था । वह अपनी समग्र चेतना एकत्रित कर त्वरा और समग्रता से अपने ही अंदर की अतल गहराई तक पहुँच गया । हयाकुजो का यही इशारा था । केंद्र पर पहुँचते ही उसे जीवन की सारहीनता और शून्यता का अनुभव हुआ । वहाँ उसने अपने को निपट अकेला पाया । वहाँ अदभुत शांति और आनंद था । गहरी अनन्त शून्यता । और आनंद ने उसे चारो ओर से आच्छादित कर दिया । उसे लगा । जैसे उसे पंख मिल गये हैं । और वह मुक्ताकाश में पक्षी की तरह उड़ सकता है । वह उड़ने लगा । और उड़ता गया । उड़ता गया ।
तभी कहीं दूर से उसे अपने सदगुरु की आवाज़ सुनाई दी - तूने जो बुद्धत्व का फूल खिलते देखा है । तू अभी जड़ों तक नहीं पहुंचा । अभी तुझे यहीं रुकना नहीं है । अभी तुझे गहरे । और गहरे उतरना है । इतने गहरे कि तू मात्र गहराई ही बनकर रह जा । यह तूने जो पहली झलक देखी है । यह तुझे भटका भी सकती है । अभी तू उस चौराहे पर खड़ा है । जहाँ से भटक कर फिर मन के जाल में भटक सकता है ।
सावधान और सजग होकर । और गहरे उतर । अभी जो तूने पाया है । यह तुझे पहले ही से मिला हुआ था । तू उसे भूल गया था । यह अनुभव जब तक तेरी हर सांस और धड़कन में न बस जाये । जब तक उठते बैठते, चलते फिरते, भोजन या बात करते, जागते सोते तुझे इसका निरंतर स्मरण न रहे । तब तक गहराई में उतरते ही जाना है । याद रख । तेरे आसपास सैकड़ो चीज़े घटेंगी । पर तू न तो कर्ता है । और न भोक्ता । केवल साक्षी बने रहना है । जब बसंत आयेगा । तू अपने आप सुरभित और पुष्पित हो उठेगा । और हयाकुजो, अंतिम सीख देकर अपने कक्ष में चला गया ।
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जे जुग चारे आरजा होर दसुनी होए ।
नवां खंडा विच जानिये नाल चले सब कोई ।
चंगा नाउ रखाये के जस किरत जग लेई ।
जे तिस नदर ना आवई तां वात ना पूछे केई ।
4 युग से 10 गुणा आयु भी हो जाए । पूरी 9 खंड पृथ्वी पर तेरा नाम और शोहरत हो जाए । परन्तु अगर उस परमात्मा की शरण में नही आया । या उसकी कृपा नही हुई । तो तेरी कोई कीमत नही है ।
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धार्मिक व्यक्ति - दूसरा मेरी तरफ देखे । इसकी फ़िक्र नही करता । मैं अपनी तरफ देखूं । क्योंकि अंतत: वही मेरे साथ जाएगा । यह तो बच्चों की बात हुई । बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें । सर्टिफिकेट घर लेकर आते हैं । तो नाचते कूदते आते हैं । लेकिन बुढ़ापे में भी तुम सर्टिफिकेट मान रहे हो ? तब तुमने जिंदगी गंवा दी । सिद्धि की आकांक्षा दूसरो को प्रभावित करने में है । धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नही है । वही तो सांसारिक का स्वभाव है । मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती है । लेकिन आत्मज्ञान नही होता । दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो । अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जाएगा । तब तुम योग भी साधोगे । वह राजनीति होगी । धर्म नही । और राजनीति 1 जाल है । फिर येन केन प्रकारेण आदमी दूसरे को प्रभावित करना चाहता है । फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो कि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो । ओशो
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