एक फकीर के बाबत मुझे ख्याल आता है । एक छोटा सा फकीर का झोंपड़ा था । रात थी । जोर से वर्षा होती थी । रात के 12 बजे होंगे । फकीर और उसकी पत्नी दोनों सोते थे । किसी आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी । छोटा सा झोंपड़ा । कोई शायद शरण चाहता था । उसकी पत्नी से उसने कहा कि - द्वार खोल दें । कोई द्वार पर खड़ा है । कोई यात्री । कोई अपरिचित मित्र । सुनते हैं उसकी बात ? उसने कहा - कोई अपरिचित मित्र । हमारे तो परिचित हैं । वह भी मित्र नहीं है । उसने कहां कि - कोई अपरिचित मित्र । प्रेम का भाव है । कोई अपरिचित
मित्र द्वार पर खड़ा है, द्वार खोल । उसकी पत्नी ने कहा - लेकिन जगह तो बिलकुल नहीं है । हम 2 के लायक ही मुश्किल से है । कोई तीसरा आदमी भीतर आयेगा । तो हम क्या करेंगे ।
उस फकीर ने कहा - पागल यह किसी अमीर का महल नहीं है । जो छोटा पड़ जाये । यह गरीब को झोंपड़ा है । अमीर का महल छोटा पड़ जाता है । हमेशा 1 मेहमान आ जाये । तो महल छोटा पड़ जाता है । यह गरीब की झोपड़ी है ।
उसकी पत्नी ने कहा - इसमें झोपड़ी, अमीर और गरीब का क्या सवाल है ? जगह छोटी है । उस फकीर ने कहा - जहां दिल में जगह बड़ी हो । वहां झोपड़ी महल की तरह मालूम हो जाती है । और जहां दिल में छोटी जगह हो । वहां झोंपड़ा तो क्या महल भी छोटा और झोंपड़ा हो जाता है । द्वार खोल दो । द्वार पर खड़े हुए आदमी को वापस कैसे लौटाया जा सकता है ? अभी हम दोनों लेटे थे । अब 3 लेट नहीं सकेंगे । 3 बैठेंगे । बैठने के लिए काफी जगह है ।
मजबूरी थी । पत्नी को दरवाजा खोल देना पडा । एक मित्र आ गया । पानी से भीगा हुआ । उसके कपड़े बदले । और वे तीनों बैठकर गपशप करने लग गये । दरवाजा फिर बंद कर दिया ।
फिर किन्हीं 2 आदमियों ने दस्तक दी । अब उस मित्र ने उस फकीर को कहा - वह दरवाजे के पास था कि दरवाजा खोल दो । मालूम होता है कि कोई आया है । उसी आदमी ने कहा - कैसे खोल दूँ दरवाजा । जगह कहां हैं यहां ।
वह आदमी अभी 2 घड़ी पहले आया था खुद । और भूल गया वह बात कि जिस प्रेम ने मुझे जगह दी थी । वह मुझे जगह नहीं दी थी । प्रेम था उसके भीतर । इस लिए जगह दी थी । अब कोई दूसरा आ गया । जगह बनानी पड़ेगी ।
लेकिन उस आदमी ने कहा - नहीं । दरवाजा खोलने की जरूरत नहीं । मुश्किल से हम 3 बैठे है ।
वह फकीर हंसने लगा । उसने कहां - बड़े पागल हो । मैंने तुम्हारे लिए जगह नहीं की थी । प्रेम था । इसलिए जगह की थी । प्रेम अब भी है । वह तुम पर चुक नहीं गया । और समाप्त नहीं हो गया । दरवाजा खोलो । अभी हम दूर दूर बैठे हैं । फिर हम पास पास बैठ जायेंगे । पास पास बैठने के लिए काफी जगह है । और रात ठंडी है । पास पास बैठने में आनंद ही और होगा ।
दरवाजा खोलना पडा । 2 आदमी भीतर आ गये । फिर वह पास पास बैठकर गपशप करने लगे । और थोड़ी देर बीती है । और रात आगे बढ़ गयी है । और वर्षा हो रही है । ओर 1 गधे ने आकर सर लगाया दरवाजे से । पानी में भीग गया था । वह रात शरण चाहता था ।
उस फकीर ने कहा - मित्रों, वे 2 मित्र दरवाजे पर बैठे हुए थे । जो पीछे आये थे । दरवाजा खोल दो । कोई अपरिचित मित्र फिर आ गया ।
उन लोगों ने कहा - वह मित्र वगैरह नहीं है । वह गधा है । इसके लिए द्वार खोलने की जरूरत नहीं है ।
उस फकीर ने कहा - तुम्हें शायद पता नहीं । अमीर के द्वार पर आदमी के साथ भी गधे जैसा व्यवहार किया जाता है । यह गरीब की झोपड़ी है । हम गधे के साथ भी आदमी जैसा व्यवहार करने की आदत भर हो गई है । दरवाजा खोल दो । पर वे दोनों कहने लगे - जगह ।
उस फकीर ने कहा - जगह बहुत है । अभी हम बैठे है । अब खड़े हो जायेंगे । खड़े होने के लिए काफी जगह है । और फिर तुम घबडाओ मत । अगर जरूरत पड़ेगी । तो मैं हमेशा बाहर होने के लिए तैयार हूं । प्रेम इतना कर सकता है ।
1 लिविंग एटीटयूड, 1 प्रेम पूर्ण ह्रदय बनाने की जरूरत है । जब प्रेम पूर्ण ह्रदय बनता है । तो व्यक्तित्व में 1 तृप्ति का भाव । 1 रस पूर्ण तृप्ति - ओशो
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17 जनवरी 1990 ओशो आश्रम । पुणे । भारत ।
17 जनवरी 1990 को उन्हें भयंकर दर्द था । वे चलने में भी असमर्थ थे । चिकित्सकों ने उनसे बुद्धा हाल में न जाने को कहा । तो वे कहने लगे - तुम लोगो को मेरे दर्द की पड़ी है । और वहां ( बुद्धा हाल में ) मेरे प्यारे संन्यासी जो कहां कहां से कितनी मुसीबते झेलते हुये मेरे दर्शन करने आये हैं । और जो मेरे बिना जल बिन मछ्ली की भांति तड़प रहे हैं । जो परम अनुभव के करीब आ पहुंचे हैं । उनके पास कैसे न जाऊँ ? मुझे जाना ही होगा । मैं उन तक जाऊँगा । और वे प्रेम से विहवल हो उठे । उनकी आँखे प्रेमाश्रु से भर गईं । ओशो अपने शिष्यों को कितना गहन प्रेम करते । यह वर्णन नहीं किया जा सकता । उनकी यह दशा देखकर सभी सिसकियां भरने लगे । और उनको बुद्धा हाल में ले जाने को सहमत हो गए । वे बुद्ध सभागार में अर्धचन्द्राकार मंच पर आहिस्ता आहिस्ता आए । मंच के 1 कोने से दुसरे कोने तक अत्यंत मंथर गति से चलते हुए विस्मय विमुग्ध मुद्रा में बुद्धा हाल में उपस्थित अपने सन्यासी शिष्यों, प्रेमियों और मित्रों को 1-1 कर हाथ जोड़े अभिवादन करते हुये निहारा । उपस्थित समुदाय भी श्वांस रोके चातक की भांति उन्हें निहारते हुये धन्य हो रहा था । ऐसा लगता था कि ओशो और उनके सन्यासियों के ह्रदय में एक दूसरे की चाहत की आग समान रूप से प्रज्वलित है । वह द्रश्य अलौकिक था । अस्तित्व की रहस्यमय पर्तों में कुछ घट रहा था । जिसे मानव की मन बुद्धि समझने में असमर्थ है । सदगुरु ओशो अपने शिष्यों को जो अद्रश्य हस्तांतरण कर रहे थे । उसे उनके अतिरिक्त और कौन जान सकता है ?
पूरा बुद्ध सभागार मौन प्रेम के आल्हाद से प्रकम्पित था । गहन सन्नाटे प्रगाढ़ नीरवता का अंतहीन साम्राज्य फैला था । बुद्धा सभागार के चारों ओर फैली प्रकृति की सुषमा अत्यंत प्रसाद पूर्ण थी । ओशो की ज्योतिर्मयी मुस्कान ने कितना हलाहल प्राशन किया हुआ था । वे ही जानें । उन्होंने इतनी देर तक हाथ जोड़े प्रणाम किया । जितनी देर तक उन्होंने कभी नहीं किया था । उधर शिष्यों की ध्यान और प्रेम की मुद्राएं मानों उन्हें आश्वस्त करती हुई कह रही थीं - आपने हमारे ह्रदयों में जो क्रांति बीज बोये । बे बीज ही नहीं रहेंगे । और हमारे प्राणों में जो प्यार का विश्व बन्धुत्व का दीप जलाया है । उन्हें हम अपनी श्वासों की प्राण वायु से फूंक फूंककर जलाते रहेगें । जीवन के सृजनात्मक पथ पर हम साहस, समझ और सहयोग के साथ कदम बढ़ाते रहेंगे । उन सभी के ह्रदयों में 1 ही गीत बज रहा था -
ठहर जाओ घड़ी भर और, तुमको देख ले आँखे ।
अभी कुछ देर मेरे कान में, गूंजें तुम्हारा स्वर ।
बहें प्रति रोम से, सरस उल्लास का निर्झर ।
दिया दिल का बुझा शायद, किरण सा खिल उठे जलकर ।
तड़फती तडफड़ाती, प्राण पक्षी की तरुण आँखे ।
किन्तु ओशो की महा करुणा को उनका जर्जर शरीर बर्दाश्त न कर सका । उन्हें इतना ज्यादा दर्द होने लगा कि वे 20 मिनट भी न रुक सके । गौतम बुद्ध सभागार में एकत्रित संन्यासी मित्रों को वे केवल प्रणाम कर के चले गये ।
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