31 मई 2011

इस जगत में दुःख अनंत हैं

क्या आपके संघ के साथ भी माल्थस का जनसंख्या सिद्धांत लागू होता है ? ओशो - नहीं, मेरा संघ इतना बुद्धिमान है कि प्रकृति को संतुलित करने की जरूरत नहीं है । इन 4 सालों में यहाँ 1 भी बच्चा पैदा नहीं हुआ । 4 संन्यासियों की मृत्यु हुई । मैं इस पृथ्वी को अधिक भार नहीं देना चाहता । वह प्रकृति का सहज संतुलन का ढंग है । यह पूरी तरह से सत्य है कि गरीबों की सेवा करने का विचार गरीबी का मूल कारण है । तुम अपनी जूठन फेंके जाते हो । और गरीब लोग अधिक आशा से भर जाते हैं । और तुम्हारे पंडित पुरोहित उन्हें कहे चले जाते हैं - बस थोड़ा सा इंतजार करो । मौत के बाद तुम स्वर्ग जाने वाले हो । और स्वर्ग में, ऊँट सुई के छेद से निकल सकता है । परंतु कोई अमीर आदमी स्वर्ग के दरवाजे में प्रवेश नहीं कर सकता । वे गरीबों को गरीब रहने के लिए सांत्वना दिए चले जाते हैं । वे उन्हें प्रसन्न करते हैं । क्योंकि अमीर नर्क में सड़ेंगे । वे अमीरों को प्रसन्न करते हैं । क्योंकि वे उनकी सांत्वना के द्वारा गरीबों को क्रांति करने से रोकते हैं । खुश अमीर बड़े बड़े मंदिर और धर्मशालाएँ बनाए चले जाते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि यदि वे यहाँ काम चला सकते हैं । तो वहाँ भी कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे । और तो और ऊँट तक जुगाड़ लाता है । तो क्या तुम सोचते हो कि टाटा, बिड़ला, डालमिया ये कोई राह नहीं ढूँढ लेंगे ? निश्चित ही वे ऊँट से अधिक दिमाग रखते हैं । निश्चित ही मैं गरीबी के खिलाफ हूँ । और मैं इसे पूरी तरह से 

समाप्त करना चाहता हूँ । परंतु इसको पूरी तरह से समाप्त करने के लिए 1 बात अच्छी तरह से समझनी होगी कि गरीबी को बचाने के सभी तरीके खत्म करने होंगे । जो लोग बच्चे पैदा नहीं कर रहे हैं । उन्हें पुरस्कार देना चाहिए । जो लोग बच्चे पैदा कर रहे हैं । उनको अधिक से अधिक आयकर लगाना चाहिए । लोग ठीक इसका उल्टा कर रहे हैं । यदि तुम्हारे अधिक बच्चे हैं । तो तुम्हें कम आयकर लगता है । यह आश्चर्यजनक है । सरकार की योजना परिवार नियोजन की है । और दूसरी तरफ यदि तुम्हारा परिवार बड़ा है । तो उसे सहायता दी जा रही है । तुम उसे मदद नहीं करते । जिसके कोई परिवार नहीं है । ये पंडित पुरोहित और राजनेता गरीबी को जिंदा रखने के लिए जिम्मेदार हैं । और वे अब भी यह सब किए चले जा रहे हैं । इथोपिया को मदद भेजो । भारत को मदद भेजो । यह धनी देशों का अहंकार तृप्त करता है । और यह उन गरीब देशों को 1 तरह की सूक्ष्म गुलामी देते हैं । मानसिक गुलामी । वे सदा तुम्हारे ऊपर निर्भर रहते हैं । यदि मुझे सुना जाए । तो यह बहुत आसान मामला है । हमें 1 विश्व सरकार की जरूरत है । हमें किसी तरह के देशों की जरूरत नहीं है । हमें 1 सरकार, और 1 विश्व की जरूरत है । भारत जैसे गरीब देश भी, जहाँ लोग भूखे मर रहे हैं । अपना गेहूँ निर्यात कर रहे हैं । ऐसा लगता है कि हम 1 पागलखाने में जी रहे हैं । भारतीय मर रहे हैं । भूखे मर रहे हैं । और वे गेहूँ निर्यात कर रहे हैं । परंतु उन्हें निर्यात करना होगा । क्योंकि वे आणविक अस्त्र शस्त्र बनाना चाहते हैं । वे कहाँ से आणविक विज्ञान लेंगे ? उन्हें अधिक धन की जरूरत है । सभी देशों की 75% आमदनी युद्ध पर खर्च होती है । या तो लड़ाई । या लड़ाई की तैयारी । यदि दुनिया 1 हो । तो दुनिया की 75% आमदनी पूरी तरह से मुक्त हो जाएगी । जैसे सुबह की पहली किरण के साथ ही ओस की बूँदें समाप्त हो जाती हैं । ओशो ।
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फ्रैंकल ने महत्वपूर्ण काम किया है कि मनोविज्ञान में उसने " अहा " अनुभव की बात शुरू की । लेकिन फ्रैंकल कोई रहस्यवादी संत नहीं । उसे संबोधि का या ध्यान का कोई पता नहीं । इसलिए वह अहा तक ही जा पाया । अहो - की बात नहीं कर पाया है । और उसकी अहा भी बहुत कुछ " आह " से मिलती जुलती है । क्योंकि उसके स्वयं के कोई अनुभव नहीं हैं । यह तर्क सरणी से, विचार की प्रक्रिया से उसने सोचा है कि ऐसा भी अनुभव होता है । इकहार्ट हैं । तरतूलियन हैं । कबीर हैं । मीरा हैं । इनके संबंध में सोचा है । सोच सोच कर उसने यह सिद्धांत निर्धारित किया । लेकिन फिर भी सिद्धांत मूल्यवान है । कम से कम किसी ने तर्क से भरे हुए खोपड़ियों में, कुछ तो डाला कि इसके पार भी कुछ हो सकता है । लेकिन फ्रैंकल की बात प्राथमिक है । उसे खींचकर - अहो, तक ले जाने की जरूरत है । तभी उसमें दिव्य आयाम प्रविष्ट होता है ।
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रामकृष्ण से विवेकानंद ने पूछा कि - मुझे परमात्मा को दिखाएंगे ? मुझे परमात्मा को सिद्ध करके बताएंगे ? मैं परमात्मा की खोज में हूं । मैं तर्क करने को तैयार हूं । रामकृष्ण सुनते रहे । और रामकृष्ण ने कहा - तू अभी देखने को राजी है कि थोड़ी देर ठहरेगा ? अभी चाहिए ?
थोड़े विवेकानंद चौंके । क्योंकि औरों से भी पूछा था । वे पूछते ही फिरते थे । बंगाल में जो भी मनीषी थे । उनके पास जाते थे कि - ईश्वर है ? तो कोई सिद्ध करता था । प्रमाण देता था - वेद से । उपनिषद से । और यहां 1 आदमी है अपढ़ । वह कह रहा है - अभी या थोड़ी देर रुकेगा ? जैसे कि घर में रखा हो । जैसे कि खीसे में पड़ा हो - परमात्मा ।
अभी यह सोचा ही नहीं था विवेकानंद ने कि कोई ऐसा भी पूछने वाला कभी मिलेगा कि अभी । और इसके पहले कि वह कुछ कहें । रामकृष्ण खड़े हो गए । इसके पहले कि विवेकानंद उत्तर देते । उन्होंने अपना पैर विवेकानंद की छाती :से लगा दिया । और विवेकानंद के मुंह से जोर की चीख निकली - आह ! और वे गिर पड़े । और कोई घंटे भर बेहोश रहे ।
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वास्तविक परमात्मा तो प्रसाद रूप मिलता है । वहां तुम्हारा कृत्य होता ही नहीं । न तुम्हारा पुण्य होता है । न तुम्हारा ध्यान ।  न तुम्हारा तप । वहाँ कुछ भी नहीं होता । वहां तुम भी नहीं होते । जब तुम मिटते हो । तब वह प्रसाद बरसता है । जब तुम सिंहासन खाली कर देते हो । तब वह राजा आता है ।
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अस्तित्व ने तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है । इससे उऋण होने का कोई मार्ग नहीं है । लेकिन हम कुछ कर सकते हैं । जो अस्तित्व ने हमारे लिए किया है । उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं है । किंतु यह हमारा अहोभाव होगा । सवाल छोटे और बड़े का नहीं है । सवाल है हमारी प्रार्थना का । हमारे धन्यभाव का । और हमारी समग्रता का । हां, ऐसा होगा । जितना तुम स्वयं जैसे होओगे । उतना ही तुम जिम्मेवारी महसूस करोगे । जो पहले कभी नहीं की थी ।
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यह जो श्वास का भीतर लौटना है । यह बड़ा नया अनुभव है । क्योंकि तुम तो मिट गए - आह में । अब श्वास भीतर लौटती है । एक शून्य गृह में । मंदिर में । और अब यह श्वास लौटती है । वह जो बाहर खड़ा है - परमात्मा । उसकी सुगंध से भरी हुई । उसकी गंध से आंदोलित । उसकी शीतलता । उसके प्रकाश की किरणों में नहाई हुई । उसके प्रेम में पगी । जैसे ही यह श्वास भीतर जाती है । तो अहा ! पहले तुम चौंक कर रह गए थे । श्वास बाहर की बाहर रह गई थी । अब श्वास भीतर आती है । तो श्वास के बहाने परमात्मा भीतर आता है । तुम्हारा रोआं रोआं खिल जाता है । कली कली फूल बन जाती है । हजार हजार कमल खिल जाते हैं - तुम्हारे चैतन्य की झील पर । अहा !
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अहा - शब्द बड़ा प्यारा है । यह किसी भाषा का शब्द नहीं है । हिंदी में कहो तो - अहा है । अंग्रेजी में कहो । तो अहा है । चीनी में कहो । तो अहा है । जर्मन में कहो । तो अहा है । यह किसी भाषा का शब्द नहीं है । यह भाषाओं से पार है । जिसको भी होगा । इकहार्ट को हो । तो उसको भी निकलता है - अहा । और रिंझाई को हो । तो उसको भी निकलता है - अहा । और कबीर को हो । तो उसको भी । सारी दुनिया में जहां भी किसी ने परमात्मा का अनुभव किया है । वहीं अहा का उदघोष हुआ है । लेकिन यह भी दूसरी सीढ़ी है । पहले तुम अपने पर चौंकते हो कि - मुझे हुआ । फिर तुम इस पर चौंकते हो कि परमात्मा हुआ । फिर इन दोनों के पार । एक तीसरा बोध है । जिसे हम कहें - अहो ! वही जनक को हो रहा है । तीसरा बोध है । फिर न तो यह सवाल है कि मुझे हुआ । न यह सवाल है कि परमात्मा हुआ । फिर सब्जेक्ट और आब्जेक्ट । मैं और तू के पार हो गई बात । हुआ । यही आश्चर्य है । होता है । यही आश्चर्य है ।
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अहा - अनुभव कहा है । वह " अहा " तो है । अनुभव बिलकुल नहीं ।
अनुभव का तो अर्थ होता है - अहा मर गई । अहा का अर्थ ही होता है कि तुम उसका अनुभव नहीं बना पा रहे । कुछ ऐसा घटा है । जो तुम्हारे अतीत ज्ञान से समझा नहीं जा सकता । इसीलिए तो अहा का भाव पैदा होता है । कुछ ऐसा घटा है । जो तुम्हारी अतीत श्रृंखला से जुड़ता नहीं । श्रृंखला टूट गई । अनहोना घटा है । अपरिचित घटा है । असंभव घटा है । जिसे न तुमने कभी सोचा था । न विचारा था । न सपना देखा था । ऐसा घटा है ।
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अहा का अर्थ होता है । ऐसी चौंक कि जैसे बिजली कौंध गई । और एक क्षण में जो अतीत था । वह मिट गया । उससे तुम्हारा कोई संबंध न रहा । कुछ ऐसा घटा । जिसकी तुम्हें सपने में भी भनक न थी । असंभव घटा । अज्ञेय द्वार पर खड़ा हो गया । न जिसके लिए कोई धारणा थी । न विचार था । न सिद्धात था । जिसे समझने में तुम असमर्थ हो गए बिलकुल । जिस पर तुम्हारी समझ का ढांचा न बैठ सका । जो तुम्हारी समझ के सारे ढांचे तोड़ गया । उसी अवस्था में ही अहा का भाव पैदा होता है ।
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निर्मल सांस आ रही है । मतलब ईश्वर है । हे ईश्वर - ऐसे मित्रो से मिलाना । जो गंभीर काम के बाद भी हास्य और मजाक से जीवन में ताजगी देते है । उन साथियो को मुझसे दूर रखना । जो हमेशा अपने आसपास निराशा का घेरा रखते हैं ।
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29 नवम्बर 1989 ओशो आश्रम । बुद्धा सभागार । पुणे । भारत ।
राइओजी कीकूची संबुद्ध रहस्यदर्शिनी थीं । जिन्हें जापान में झेन समुदाय बहुत आदर और श्रद्धा देता था । वे 82 वर्ष की थीं । जब जापान में उन्होंने किसी के पास ओशो का चित्र देखा । तो उसे देखते ही बोल पड़ीं - मानवता के भविष्य के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण बुद्ध पुरुष हैं । मैं उनके दर्शनों के लिये भारत अवश्य जाऊँगी ।
बाद में जब किसी ओशो के संन्यासी ने उन्हें बताया कि इन्हें अमरीकी जेलों में रेडियोधर्मी थेलियम विष दिया गया है । और ओशो गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं । तो वह तुरंत बोल उठीं - फिर तो मैं भारत तुरन्त जाऊँगी । मैं उनकी देह को आरोग्य उर्जा दूंगी । क्योंकि यह मानवता के भविष्य हैं । नष्ट होती पृथ्वी को यही बचा सकते हैं ।
वे 28 नवम्बर को पूना कम्यून में पधारीं । वे पूरे आश्रम में घूमती हुई सन्यासियों को प्रेम बांटती रहीं । वह 1 छोटी बच्ची की प्रकार सहज और सरल थीं ।
29 नवम्बर को " व्हाहिट स्वान ब्रदर हुड " में वह बुद्धा सभागार में पधारीं । वहां के ऊर्जामय वातावरण और संगीत लहरी में वह बेसुध खोई हुईं थीं । तभी नित्य की भांति ठीक समय पर ओशो मंच पर अवतरित हुये । सन्यान्सियो ने नाचते गाते । ओशो का घोष करते हुये उनका प्रेम पूर्ण स्वागत किया । ओशो दोनों हाथ जोड़े हुये आगे बढ़े । उनकी द्रष्टि पूरे सभागार को देखते हुये कीकूची पर आकर रुक गई । तभी उनके संकेत से संगीत थम गया । संगीत के रुकते ही पूरा बुद्धा हाल सभागार मौन में डूब गया । उनके संकेत और स्वागत पूर्ण मुस्कान के प्रत्युत्तर में प्रणाम करते हुये उनकी ओर बढीं । ओशो ने उन पर बहुत प्रेम से गुलाब की पंखड़ियो की वर्षा की ।
तभी ओशो ने उन्हें " दि झेन मेनिफेस्टो " पुस्तक भेंट की । जिसमें उन्होंने स्वयं लिखा था - मैं ओशो, जो स्वयं के अनुभव से 1 बुद्ध पुरुष हूँ । आपके बुद्धत्व को पहचानता हूं । और उसमें आनंदित होता हूं । मैं जानता हूं । और आप भी जानती होंगी कि परम सिद्धि के लिये 1 चरण और शेष है - बुद्धत्व के भी पार जाना । और न कुछ हो जाना ।
कीकूची ने पुस्तक स्वीकार कर धन्यवाद दिया । और चुपचाप अपने आसन पर आकर बैठ गईं । उधर ओशो अपनी कुर्सी पर बैठ गये । संगीत की लहरी फिर नई धुन के साथ बहने लगी । संगीत के स्वर ऐसे थे । जैसे सभी पर ध्वनि प्रपात की तरह बरस रही हो । संध्या सत्संग नित्य की भांति ही चलता रहा । आज 2 बुद्धों के सानिध्य का मौन । सभी को ध्यान की अनंत गहराइयों में ले गया । सभी लोग बरसती उर्जा और आनंद से अनुप्राणित हो उठे ।
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तुम अपना साथ छोड़कर उस पदचिह्न पर चल पड़े । जहाँ आगे पदचिह्न ठहर गये । और तुम भी वही आकर रुक गये । वो झुक रहा है । तो तुम भी झक गये । जैसे जैसे अपना चेतन से दूर होते गये । और अंहकार । अंधकार में फंस गया । तुम पूजा में फंस गये । तुम थोथी बातों को सुनकर । उसको ज्ञान की पोटली बना ली । और मंदिर मस्जिदो में भटकते रहे । मोक्ष को पाने के लिए । और अपनी राहों से चूक गये । समय बहुत ही कम रहा है । यमराज तैयार ही समझो ।
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कचिद वीणावाद्यं कचिदपि हाहेति रुदितम ।
कचिद रम्या रामा कचिदपि जराजर्जरतनुः ।
कचिद विद्व्द्रोष्ठी कचिदपि सुरामत्तकलहः ।
न जाने संसारः किममृतमयः किं विषमयः ।
- कोई जगह पर वीणावादन सुनाई देता है । तो कोई जगह पर " हाय हाय " ऐसा रुदन । कहीं सुंदर स्त्री दिखाई देती है । तो कहीं वृद्धावस्था से जर्जरित शरीर । कोई जगह पर विद्वान चर्चा करते हैं । तो कहीं मद्यपान की वजह से कलह होते हैं । दुनिया में जीवन अमृतमय सुखमय है । या विषमय दुःखमय ? यही समझ में नहीं आता ।
अनन्तानीह दुःखानि सुखं तृणलवोपमम ।
नातः सुखेषु बध्नीयात दृष्टिं दुःखानुबन्धिषु ।
- इस जगत में दुःख अनंत हैं । और सुख तो तृण की तरह अल्प । इसलिए जिसमें सुख के पीछे दुःख आता है । वैसे सुख में इंसान ने  आसक्ति नहीं रखनी चाहिए ।
सुखं हि दुःखान्यमुभूय शोभते । धनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम ।
सुखात्तु यो याति नरो दरिद्रताम । धृतः शरीरेण मृतः स जीवति ।
- दुःख के अनुभव बाद सुख आता है । तो घोर अंधकार के बाद आने वाले दीये की तरह शोभा देता है । पर जिसे सुख भुगतने के बाद दारिद्रय ( दुःख ) आता है । वह जिंदा होने के बावजूद मरा हुआ है ।

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