धर्मदास ने विनीत होकर कबीर साहब से कहा -हे प्रभो ! अब आप मुझे आप वह वृतांत कहो । जब आप पहली बार इस संसार में आये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जो तुमने पूछा है । वह युग युग की कथा है । जो मैं तुमसे कहता हूँ । जब सत्यपुरुष ने मुझे आग्या की । तब मैंने जीवों की भलाई के लिये प्रथ्वी की और पाँव बङाया । सतपुरुष को प्रणाम कर मैंने पांव आगे बङाया । और विकराल काल निरंजन के क्षेत्र में आ गया । उस युग में मेरा नाम अंचित था । तब जाते हुये मुझे अन्यायी काल निरंजन मिला । वह मेरे पास आया । और झगङते हुये महाक्रोध से बोला - हे योगजीत ! आप यहाँ कैसे आये हो ? क्या आप मुझे मारने आये हो । हे पुरुष !अपने आने का कारण मुझे बताओ ?
तब मैंने उससे कहा - हे निरंजन सुनो । मैं जीवों का उद्धार करने के लिये सतपुरुष द्वारा भेजा गया हूँ । हे अन्यायी निरंजन ! सुन तुमने बहुत कपट चतुराई की । भोले भाले जीवों को तुमने बहुत भृम में डाला है । और बार बार सताया । सतपुरुष की महिमा को तो तुमने गुप्त रखा । और अपनी महिमा का बङा चङाकर बखान किया । तुम तप्त शिला पर जीव को जलाते हो । और उसे जला पकाकर खाते हुये अपना स्वाद पूरा करते हो । तुमने ऐसा कष्ट जीवों को दिया । तब ही सतपुरुष ने मुझे आग्या दी कि मैं तेरे जाल में फ़ँसे जीव को सावधान करके सतलोक ले जाऊँ । और काल निरंजन के कष्ट से जीव को मुक्ति दिलाऊं । इसलिये मैं संसार में जा रहा हूं । जिससे जीव को सत्यग्यान देकर जीव को सतलोक भेजूं ।
यह बात सुनते ही काल निरंजन भयंकर रूप हो गया । और मुझे भय दिखाने लगा । फ़िर वह क्रोध से बोला - मैंने 70 युगों तक सतपुरुष की सेवा तपस्या की । तब सतपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य और उसकी मान बङाई दी । फ़िर दोबारा मैंने 64 युग तक सेवा तपस्या की । तब सतपुरुष ने सृष्टि रचने हेतु मुझे अष्टांगी कन्या ( आद्याशक्ति ) को दिया ।
तब तुमने मुझे मारकर मानसरोवर दीप से निकाल दिया था । हे योगजीत ! अब मैं तुम्हें नहीं छोङूँगा । तुम्हें मारकर अपना बदला लूँगा । अब मैं तुम्हें अच्छी तरह समझ गया ।
तब मैंने उससे कहा - हे धर्मराय निरंजन सुनो । मैं तुमसे नहीं डरता । मुझे सतपुरुष का बल और तेज प्राप्त है । अरे काल ! तेरा मुझे कोई डर नहीं । तुम मेरा कुछ नहीं बिगाङ सकते ।
यह कहकर मैंने उसी समय सत्यपुरुष के प्रताप का सुमरन करके दिव्य शब्द अंग से काल को मारा । मैंने उस पर दृष्टि डाली । तो उसी समय उसका माथा काला पङ गया । जैसे किसी पक्षी के पंख चोटिल होने पर वह जमीन पर पङा वेवश होकर देखता है । पर उङ नहीं पाता । ठीक यही हाल काल निरंजन का था । वह क्रोध कर रहा था । पर कर कुछ नहीं पा रहा था । तब फ़िर आकर वह मेरे चरणों में गिर पङा ।
तब निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! सुनो । मैं आपसे विनती करता हूँ कि मैंने आपको भाई समझकर विरोध किया । यह मुझसे बङी गलती हुयी । अब मैं आपको सत्यपुरुष के समान समझता हूँ । आप बङे हो । शक्ति सम्पन्न हो । आप गलती करने वाले अपराधी को भी क्षमा देते हो ।
जैसे सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया । वैसे ही आप भी मुझे कुछ पुरस्कार दो । सोलह सुतों में आप ईश्वर हो । हे ग्यानी जी आप और सत्यपुरुष दोनों एक समान हो ।
तब मैंने कहा - हे निरंजन राव सुन । तुम तो सत्यपुरुष के वंश में ( सोलह सुतों में ) कालिख के समान कलंकित हुये हो । मैं जीवों को सत्य शब्द का उपदेश करके सत्यनाम मजबूत करा के बचाने आया हूँ । भवसागर से जीवों को मुक्त कराने को आया हूँ । यदि तुम इसमें विघ्न डालते हो । तो मैं इसी समय तुमको यहाँ से निकाल दूँगा ।
तब निरंजन विनती करते हुये बोला - मैं आपका एवं सत्यपुरुष दोनों का सेवक हूँ । इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं जानता । ग्यानी जी आपसे मेरी विनती है कि ऐसा कुछ मत करो । जिससे मेरा बिगाङ हो । जैसे सत्यपुरुष ने मुझे राज्य दिया । वैसे आप भी दो । तो मैं आपका वचन मानूँगा । फ़िर आप मुक्ति के लिये हँस जीव मुझसे ले लीजिये ।
हे तात ! मैं आपसे विनती करता हूँ । आप मेरी बात को मानो । आपका कहना ये भृमित जीव नहीं मानेंगे । और उल्टे मेरा पक्ष लेकर आपसे वाद विवाद करेंगे । मैंने मोह रूपी फ़ँदा इतना मजबूत बनाया है कि समस्त जीव उसमें उलझ कर रह गये हैं । वेद शास्त्र पुराण स्मृति में विभिन्न प्रकार के गुण धर्म का वर्णन है । और उसमें मेरे तीन पुत्र बृह्मा विष्णु महेश देवताओं में मुख्य हैं ।
उनमें भी मैंने बहुत चतुराई का खेल रचा है कि मेरे मत पँथ का ग्यान प्रमुख रूप से वर्णन किया गया है । जिससे सब मेरी बात ही मानते हैं । मैं जीवों से मन्दिर देव और पत्थर पुजवाता हूँ । और तीर्थ वृत जप और तप में सबका मन फ़ँसा रहता है ।
संसार में लोग देवी देवों और भूत भैरव आदि की पूजा आराधना करेंगे । और जीवों को मार काटकर बलि देंगे । इन ऐसे अनेक मत सिद्धांतो से मैंने जीवों को बाँध रखा है कि धर्म के नाम पर यग्य होम नेम और इसके अलावा भी अनेक जाल मैंने डाल रखे हैं । अतः हे ग्यानी जी ..आप संसार में जायेंगे । तो जीव आपका कहा नहीं मानेंगे । वे मेरे मत फ़ँदे में फ़ँसे रहेंगे ।
तब मैंने कहा - अन्याय करने वाले.. हे निरंजन ! सुनो मैं तुम्हारे जाल फ़ँदे को काटकर जीव को सत्यलोक ले जाऊँगा । जितने भी मायाजाल जीव को फ़ँसाने के लिये तुमने रच रखे हैं । सत शब्द से उन सबको नष्ट कर दूँगा । जो जीव मेरा सार शब्द मजबूती से गृहण करेगा । तुम्हारे सब जालों से मुक्त हो जायेगा । जब जीव मेरे शब्द उपदेश को समझेगा । तेरे फ़ैलाये हुये सब भृम अग्यान को त्याग देगा । मैं जीवों को सतनाम समझाऊँगा । साधना कराऊँगा । और उन हँस जीवों का उद्धार कर सतलोक ले जाऊँगा ।
सत्य शब्द दृणता से देकर मैं उन हँस जीवों को दया । शील । क्षमा । काम आदि विषयों से रहित । सहजता । सम्पूर्ण संतोष और आत्मपूजा आदि अनेक सदगुणों का धनी बना दूँगा । सतपुरुष के सुमरन का जो सार उपाय है । उसमें सतपुरुष का अविचल नाम हँस जीव पुकारेंगे । तब तुम्हारे सिर पर पांव रखकर मैं उन हँस जीवों को सतलोक भेज दूँगा । अविनाशी अमृत नाम का प्रचार प्रसार करके मैं हँस जीवों को चेताकर भृम मुक्त कर दूँगा ।
इसलिये हे धर्मराय निरंजन ! मेरी बात मन लगाकर सुन । इस प्रकार मैं तुम्हारा मान मर्दन करूँगा । जो मनुष्य विधिपूर्वक सदगुरु से दीक्षा लेकर नाम को प्राप्त करेगा । उसके पास काल नहीं आता । सत्यपुरुष के नामग्यान से हँस जीव को संधि हुआ देखकर काल निरंजन भी उसको सिर झुकाता है ।
मेरी इतनी बात सुनते ही काल निरंजन भयभीत हो गया । उसने हाथ जोङकर विनती की - हे तात ! आप दया करने वाले साहब दाता हो । इसलिये आप मुझ पर इतनी कृपा करो । सतपुरुष ने मुझे ऐसा शाप दिया है कि मैं नित्य लाखों जीव खाऊँ । यदि संसार के सभी जीव सत्यलोक चले गये । तो मेरी भूख कैसे मिटेगी ? फ़िर सतपुरुष ने मुझ पर दया की । और भवसागर का राज्य मुझे दिया । आप भी मुझ पर कृपा करो । और जो मैं माँगता हूँ । वह वर मुझे दीजिये ।
सतयुग त्रेता और द्वापर इन तीनों में से थोङे जीव सत्यलोक में जायँ । लेकिन जब कलियुग आये । तो आपकी शरण में बहुत जीव जायँ । ऐसा पक्का वचन मुझे देकर ही आप संसार में जायें ।
तब मैंने कहा - अरे काल निरंजन ! तुमने ये छल मिथ्या का जो प्रपंच फ़ैलाया है । और तीनों युगों में जीव को दुख में डाल दिया । मैंने तुम्हारी विनती जान ली । अरे अभिमानी काल ! तुम मुझे ठगते हो ।
जैसी विनती तुमने मुझसे की । वह मैंने तुम्हें बख्श दी । लेकिन चौथा युग यानी कलियुग जब आयेगा । तब मैं जीवों के उद्धार के लिये अपने वंश यानी सन्तों को भेजूँगा ।
आठ अंश सुरति संसार में जाकर प्रकट होंगे । उसके पीछे फ़िर नये और उत्तम स्वरूप सुरति । नौतम । धर्मदास के घर जाकर प्रकट होंगे । सतपुरुष के वे 42 अंश जीव उद्धार के लिये संसार में आयेंगे । वे कलियुग में व्यापक रूप से पंथ प्रकट कर चलायेंगे । और जीव को ग्यान प्रदान कर सतलोक भेजेंगे । वे 42 अंश जिस जीव को सत्य शब्द का उपदेश देंगे । मैं सदा उनके साथ रहूँगा । तब वह जीव यमलोक नहीं जायेगा । और काल जाल से मुक्त रहेगा ।
तब निरंजन बोला - हे साहिब ! आप पँथ चलाओ । और भवसागर से उद्धार कर जीव को सतलोक ले जाओ । जिस जीव के हाथ में मैं अंश वंश की छाप ( नाम मोहर ) देखूँगा । उसे मैं सिर झुकाकर प्रणाम करूँगा । सतपुरुष की बात को मैंने मान लिया । परन्तु हे ग्यानी जी ..मेरी भी एक विनती है ।
आप एक पँथ चलाओगे । और जीवों को नाम देकर सत्यलोक भिजवाओगे । तब मैं 12 पँथ ( नकली ) बनाऊँगा । जो आपकी ही बात करते हुये ( मतलब आपके जैसे ही ग्यान की बात.. मगर फ़र्जी ) ग्यान देंगे । और अपने आपको कबीरपँथी ही कहेंगे । मैं 12 यम संसार में भेजूँगा । और आपके नाम से पँथ चलाऊँगा । मृतु अंधा नाम का मेरा एक दूत सुकृत धर्मदास के घर जन्म लेगा । पहले मेरा दूत धर्मदास के घर जन्म लेगा । इसके बाद आपका अंश वहाँ आयेगा । इस प्रकार मेरा वह दूत जन्म लेकर जीवों को भरमायेगा । और जीवों को सत्यपुरुष का नाम उपदेश ( मगर नकली प्रभावहीन ) देकर समझायेगा ।
उन 12 पँथ के अंतर्गत जो जीव आयेंगे । वे मेरे मुख में आकर मेरा ग्रास बनेंगे । मेरी इतनी विनती मानकर मेरी बात बनाओ । और मुझ पर कृपा करके मुझे क्षमा कर दो ।
द्वापर युग का अंत और कलियुग की शुरूआत जब होगी । तब मैं बौद्ध शरीर धारण करूँगा । इसके बाद मैं उङीसा के राजा इंद्रमन के पास जाऊँगा । और अपना नाम जगन्नाथ धराऊँगा । राजा इन्द्रमन जब मेरा अर्थात जगन्नाथ मंदिर समुद्र के किनारे बनवायेगा । तब उसे समुद्र का पानी ही गिरा देगा । उससे टकराकर बहा देगा । इसका विशेष कारण यह होगा कि त्रेता युग में मेरे विष्णु का अवतार राम वहाँ आयेगा । और वह समुद्र से पार जाने के लिये समुद्र पर पुल बाँधेगा । इसी शत्रुता के कारण समुद्र उस मंदिर को डुबा देगा ।
अतः हे ग्यानी जी ! आप ऐसा विचार बनाकर पहले वहाँ समुद्र के किनारे जाओ । आपको देखकर समुद्र रुक जायेगा । आपको लाँघकर समुद्र आगे नहीं जायेगा । इस प्रकार मेरा वहाँ मंदिर स्थापित करो । उसके बाद अपना अंश भेजना ।
आप भवसागर में अपना मत पँथ चलाओ । और सत्यपुरुष के सतनाम से जीवों का उद्धार करो । और अपने मत पँथ का चिह्न छाप मुझे बता दो । तथा सत्यपुरुष का नाम भी सुझा समझा दो । बिना इस छाप के जो जीव भवसागर के घाट से उतरना चाहेगा । वह हँस के मुक्ति घाट का मार्ग नहीं पायेगा ।
तब मैंने कहा - हे निरंजन ! जैसा तुम मुझसे चाहते हो । वैसा तुम्हारे चरित्र को मैंने अच्छी तरह समझ लिया है । तुमने 12 पँथ चलाने की जो बात कही है । वह मानों तुमने अमृत में विष डाल दिया है । तुम्हारे इस चरित्र को देखकर तुम्हें मिटा ही डालूँ । और अब पलटकर अपनी कला दिखाऊँ । तथा यम से जीव का बँधन छुङाकर अमरलोक ले जाऊँ ।
मगर सतपुरुष का आदेश ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैंने निश्चय किया है कि अमरलोक उस जीव को ले जाकर पहुँचाऊँगा । जो मेरे सत्य शब्द को मजबूती से ग्रुहण करेगा ।
हे अन्यायी निरंजन ! तुमने जो 12 पँथ चलाने की माँग कही है । वह मैंने तुमको दी । पहले तुम्हारा दूत धर्मदास के यहाँ प्रकट होगा । पीछे से मेरा अंश आयेगा । समुद्र के किनारे में चला जाऊँगा । और जगन्नाथ मंदिर भी बनवाऊँगा । उसके बाद अपना सत्य पँथ चलाऊँगा । और जीवों को सत्यलोक भेजूँगा ।
तब निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! आप मुझे सत्यपुरुष से अपने मेल का छाप निशान दीजिये । जैसी पहचान आप अपने हंस जीवों को दोगे । जो जीव मुझको उसी प्रकार की निशान पहचान बतायेगा । उसके पास काल नहीं आयेगा । अतः हे साहिब दया करके सतपुरुष की नाम निशानी मुझे दें ।
तब मैंने कहा - हे धर्मराय निरंजन ! जो मैं तुम्हें सत्यपुरुष के मेल की निशानी समझा दूँ । तो तुम जीवों के उद्धार कार्य में विघ्न पैदा करोगे । तुम्हारी इस चाल को मैंने समझ लिया । हे काल ! तुम्हारा ऐसा कोई दाव मुझ पर नहीं चलने वाला । हे धर्मराय ! मैंने तुम्हें साफ़ शब्दों में बता दिया कि अपना अक्षर नाम मैंने गुप्त रखा है । जो कोई हमारा नाम लेगा । तुम उसे छोङकर अलग हो जाना । जो तुम हँस जीवों को रोकोगे । तो काल तुम रहने नहीं पाओगे ।
तब धर्मराय निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! आप संसार में जाईये । और सत्यपुरुष के नाम द्वारा जीवों को उद्धार करके ले जाईये । जो हँस जीव आपके गुण गायेगा । मैं उसके पास कभी नहीं आऊँगा । जो जीव आपकी शरण में आयेगा । वह मेरे सिर पर पाँव रखकर भवसागर से पार होगा । मैंने तो व्यर्थ आपके सामने मूर्खता की । तथा आपको पिता समान समझकर लङकपन किया । बालक करोंङो अवगुण वाला होता है । परन्तु पिता उनको ह्रदय में नहीं रखता । यदि अवगुणों के कारण पिता बालक को घर से निकाल दे । फ़िर उसकी रक्षा कौन करेगा । इसी प्रकार मेरी मूर्खता पर यदि आप मुझे निकाल देंगे । तो फ़िर मेरी रक्षा कौन करेगा ? ऐसा कहकर निरंजन ने उठकर शीश नवाया । और मैंने संसार की और प्रस्थान किया ।
तब कबीर साहब ने धर्मदास से कहा - जब मैंने निरंजन को व्याकुल देखा । तब मैंने वहाँ से प्रस्थान किया । और भवसागर की ओर चला आया ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जो तुमने पूछा है । वह युग युग की कथा है । जो मैं तुमसे कहता हूँ । जब सत्यपुरुष ने मुझे आग्या की । तब मैंने जीवों की भलाई के लिये प्रथ्वी की और पाँव बङाया । सतपुरुष को प्रणाम कर मैंने पांव आगे बङाया । और विकराल काल निरंजन के क्षेत्र में आ गया । उस युग में मेरा नाम अंचित था । तब जाते हुये मुझे अन्यायी काल निरंजन मिला । वह मेरे पास आया । और झगङते हुये महाक्रोध से बोला - हे योगजीत ! आप यहाँ कैसे आये हो ? क्या आप मुझे मारने आये हो । हे पुरुष !अपने आने का कारण मुझे बताओ ?
तब मैंने उससे कहा - हे निरंजन सुनो । मैं जीवों का उद्धार करने के लिये सतपुरुष द्वारा भेजा गया हूँ । हे अन्यायी निरंजन ! सुन तुमने बहुत कपट चतुराई की । भोले भाले जीवों को तुमने बहुत भृम में डाला है । और बार बार सताया । सतपुरुष की महिमा को तो तुमने गुप्त रखा । और अपनी महिमा का बङा चङाकर बखान किया । तुम तप्त शिला पर जीव को जलाते हो । और उसे जला पकाकर खाते हुये अपना स्वाद पूरा करते हो । तुमने ऐसा कष्ट जीवों को दिया । तब ही सतपुरुष ने मुझे आग्या दी कि मैं तेरे जाल में फ़ँसे जीव को सावधान करके सतलोक ले जाऊँ । और काल निरंजन के कष्ट से जीव को मुक्ति दिलाऊं । इसलिये मैं संसार में जा रहा हूं । जिससे जीव को सत्यग्यान देकर जीव को सतलोक भेजूं ।
यह बात सुनते ही काल निरंजन भयंकर रूप हो गया । और मुझे भय दिखाने लगा । फ़िर वह क्रोध से बोला - मैंने 70 युगों तक सतपुरुष की सेवा तपस्या की । तब सतपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य और उसकी मान बङाई दी । फ़िर दोबारा मैंने 64 युग तक सेवा तपस्या की । तब सतपुरुष ने सृष्टि रचने हेतु मुझे अष्टांगी कन्या ( आद्याशक्ति ) को दिया ।
तब तुमने मुझे मारकर मानसरोवर दीप से निकाल दिया था । हे योगजीत ! अब मैं तुम्हें नहीं छोङूँगा । तुम्हें मारकर अपना बदला लूँगा । अब मैं तुम्हें अच्छी तरह समझ गया ।
तब मैंने उससे कहा - हे धर्मराय निरंजन सुनो । मैं तुमसे नहीं डरता । मुझे सतपुरुष का बल और तेज प्राप्त है । अरे काल ! तेरा मुझे कोई डर नहीं । तुम मेरा कुछ नहीं बिगाङ सकते ।
यह कहकर मैंने उसी समय सत्यपुरुष के प्रताप का सुमरन करके दिव्य शब्द अंग से काल को मारा । मैंने उस पर दृष्टि डाली । तो उसी समय उसका माथा काला पङ गया । जैसे किसी पक्षी के पंख चोटिल होने पर वह जमीन पर पङा वेवश होकर देखता है । पर उङ नहीं पाता । ठीक यही हाल काल निरंजन का था । वह क्रोध कर रहा था । पर कर कुछ नहीं पा रहा था । तब फ़िर आकर वह मेरे चरणों में गिर पङा ।
तब निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! सुनो । मैं आपसे विनती करता हूँ कि मैंने आपको भाई समझकर विरोध किया । यह मुझसे बङी गलती हुयी । अब मैं आपको सत्यपुरुष के समान समझता हूँ । आप बङे हो । शक्ति सम्पन्न हो । आप गलती करने वाले अपराधी को भी क्षमा देते हो ।
जैसे सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया । वैसे ही आप भी मुझे कुछ पुरस्कार दो । सोलह सुतों में आप ईश्वर हो । हे ग्यानी जी आप और सत्यपुरुष दोनों एक समान हो ।
तब मैंने कहा - हे निरंजन राव सुन । तुम तो सत्यपुरुष के वंश में ( सोलह सुतों में ) कालिख के समान कलंकित हुये हो । मैं जीवों को सत्य शब्द का उपदेश करके सत्यनाम मजबूत करा के बचाने आया हूँ । भवसागर से जीवों को मुक्त कराने को आया हूँ । यदि तुम इसमें विघ्न डालते हो । तो मैं इसी समय तुमको यहाँ से निकाल दूँगा ।
तब निरंजन विनती करते हुये बोला - मैं आपका एवं सत्यपुरुष दोनों का सेवक हूँ । इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं जानता । ग्यानी जी आपसे मेरी विनती है कि ऐसा कुछ मत करो । जिससे मेरा बिगाङ हो । जैसे सत्यपुरुष ने मुझे राज्य दिया । वैसे आप भी दो । तो मैं आपका वचन मानूँगा । फ़िर आप मुक्ति के लिये हँस जीव मुझसे ले लीजिये ।
हे तात ! मैं आपसे विनती करता हूँ । आप मेरी बात को मानो । आपका कहना ये भृमित जीव नहीं मानेंगे । और उल्टे मेरा पक्ष लेकर आपसे वाद विवाद करेंगे । मैंने मोह रूपी फ़ँदा इतना मजबूत बनाया है कि समस्त जीव उसमें उलझ कर रह गये हैं । वेद शास्त्र पुराण स्मृति में विभिन्न प्रकार के गुण धर्म का वर्णन है । और उसमें मेरे तीन पुत्र बृह्मा विष्णु महेश देवताओं में मुख्य हैं ।
उनमें भी मैंने बहुत चतुराई का खेल रचा है कि मेरे मत पँथ का ग्यान प्रमुख रूप से वर्णन किया गया है । जिससे सब मेरी बात ही मानते हैं । मैं जीवों से मन्दिर देव और पत्थर पुजवाता हूँ । और तीर्थ वृत जप और तप में सबका मन फ़ँसा रहता है ।
संसार में लोग देवी देवों और भूत भैरव आदि की पूजा आराधना करेंगे । और जीवों को मार काटकर बलि देंगे । इन ऐसे अनेक मत सिद्धांतो से मैंने जीवों को बाँध रखा है कि धर्म के नाम पर यग्य होम नेम और इसके अलावा भी अनेक जाल मैंने डाल रखे हैं । अतः हे ग्यानी जी ..आप संसार में जायेंगे । तो जीव आपका कहा नहीं मानेंगे । वे मेरे मत फ़ँदे में फ़ँसे रहेंगे ।
तब मैंने कहा - अन्याय करने वाले.. हे निरंजन ! सुनो मैं तुम्हारे जाल फ़ँदे को काटकर जीव को सत्यलोक ले जाऊँगा । जितने भी मायाजाल जीव को फ़ँसाने के लिये तुमने रच रखे हैं । सत शब्द से उन सबको नष्ट कर दूँगा । जो जीव मेरा सार शब्द मजबूती से गृहण करेगा । तुम्हारे सब जालों से मुक्त हो जायेगा । जब जीव मेरे शब्द उपदेश को समझेगा । तेरे फ़ैलाये हुये सब भृम अग्यान को त्याग देगा । मैं जीवों को सतनाम समझाऊँगा । साधना कराऊँगा । और उन हँस जीवों का उद्धार कर सतलोक ले जाऊँगा ।
सत्य शब्द दृणता से देकर मैं उन हँस जीवों को दया । शील । क्षमा । काम आदि विषयों से रहित । सहजता । सम्पूर्ण संतोष और आत्मपूजा आदि अनेक सदगुणों का धनी बना दूँगा । सतपुरुष के सुमरन का जो सार उपाय है । उसमें सतपुरुष का अविचल नाम हँस जीव पुकारेंगे । तब तुम्हारे सिर पर पांव रखकर मैं उन हँस जीवों को सतलोक भेज दूँगा । अविनाशी अमृत नाम का प्रचार प्रसार करके मैं हँस जीवों को चेताकर भृम मुक्त कर दूँगा ।
इसलिये हे धर्मराय निरंजन ! मेरी बात मन लगाकर सुन । इस प्रकार मैं तुम्हारा मान मर्दन करूँगा । जो मनुष्य विधिपूर्वक सदगुरु से दीक्षा लेकर नाम को प्राप्त करेगा । उसके पास काल नहीं आता । सत्यपुरुष के नामग्यान से हँस जीव को संधि हुआ देखकर काल निरंजन भी उसको सिर झुकाता है ।
मेरी इतनी बात सुनते ही काल निरंजन भयभीत हो गया । उसने हाथ जोङकर विनती की - हे तात ! आप दया करने वाले साहब दाता हो । इसलिये आप मुझ पर इतनी कृपा करो । सतपुरुष ने मुझे ऐसा शाप दिया है कि मैं नित्य लाखों जीव खाऊँ । यदि संसार के सभी जीव सत्यलोक चले गये । तो मेरी भूख कैसे मिटेगी ? फ़िर सतपुरुष ने मुझ पर दया की । और भवसागर का राज्य मुझे दिया । आप भी मुझ पर कृपा करो । और जो मैं माँगता हूँ । वह वर मुझे दीजिये ।
सतयुग त्रेता और द्वापर इन तीनों में से थोङे जीव सत्यलोक में जायँ । लेकिन जब कलियुग आये । तो आपकी शरण में बहुत जीव जायँ । ऐसा पक्का वचन मुझे देकर ही आप संसार में जायें ।
तब मैंने कहा - अरे काल निरंजन ! तुमने ये छल मिथ्या का जो प्रपंच फ़ैलाया है । और तीनों युगों में जीव को दुख में डाल दिया । मैंने तुम्हारी विनती जान ली । अरे अभिमानी काल ! तुम मुझे ठगते हो ।
जैसी विनती तुमने मुझसे की । वह मैंने तुम्हें बख्श दी । लेकिन चौथा युग यानी कलियुग जब आयेगा । तब मैं जीवों के उद्धार के लिये अपने वंश यानी सन्तों को भेजूँगा ।
आठ अंश सुरति संसार में जाकर प्रकट होंगे । उसके पीछे फ़िर नये और उत्तम स्वरूप सुरति । नौतम । धर्मदास के घर जाकर प्रकट होंगे । सतपुरुष के वे 42 अंश जीव उद्धार के लिये संसार में आयेंगे । वे कलियुग में व्यापक रूप से पंथ प्रकट कर चलायेंगे । और जीव को ग्यान प्रदान कर सतलोक भेजेंगे । वे 42 अंश जिस जीव को सत्य शब्द का उपदेश देंगे । मैं सदा उनके साथ रहूँगा । तब वह जीव यमलोक नहीं जायेगा । और काल जाल से मुक्त रहेगा ।
तब निरंजन बोला - हे साहिब ! आप पँथ चलाओ । और भवसागर से उद्धार कर जीव को सतलोक ले जाओ । जिस जीव के हाथ में मैं अंश वंश की छाप ( नाम मोहर ) देखूँगा । उसे मैं सिर झुकाकर प्रणाम करूँगा । सतपुरुष की बात को मैंने मान लिया । परन्तु हे ग्यानी जी ..मेरी भी एक विनती है ।
आप एक पँथ चलाओगे । और जीवों को नाम देकर सत्यलोक भिजवाओगे । तब मैं 12 पँथ ( नकली ) बनाऊँगा । जो आपकी ही बात करते हुये ( मतलब आपके जैसे ही ग्यान की बात.. मगर फ़र्जी ) ग्यान देंगे । और अपने आपको कबीरपँथी ही कहेंगे । मैं 12 यम संसार में भेजूँगा । और आपके नाम से पँथ चलाऊँगा । मृतु अंधा नाम का मेरा एक दूत सुकृत धर्मदास के घर जन्म लेगा । पहले मेरा दूत धर्मदास के घर जन्म लेगा । इसके बाद आपका अंश वहाँ आयेगा । इस प्रकार मेरा वह दूत जन्म लेकर जीवों को भरमायेगा । और जीवों को सत्यपुरुष का नाम उपदेश ( मगर नकली प्रभावहीन ) देकर समझायेगा ।
उन 12 पँथ के अंतर्गत जो जीव आयेंगे । वे मेरे मुख में आकर मेरा ग्रास बनेंगे । मेरी इतनी विनती मानकर मेरी बात बनाओ । और मुझ पर कृपा करके मुझे क्षमा कर दो ।
द्वापर युग का अंत और कलियुग की शुरूआत जब होगी । तब मैं बौद्ध शरीर धारण करूँगा । इसके बाद मैं उङीसा के राजा इंद्रमन के पास जाऊँगा । और अपना नाम जगन्नाथ धराऊँगा । राजा इन्द्रमन जब मेरा अर्थात जगन्नाथ मंदिर समुद्र के किनारे बनवायेगा । तब उसे समुद्र का पानी ही गिरा देगा । उससे टकराकर बहा देगा । इसका विशेष कारण यह होगा कि त्रेता युग में मेरे विष्णु का अवतार राम वहाँ आयेगा । और वह समुद्र से पार जाने के लिये समुद्र पर पुल बाँधेगा । इसी शत्रुता के कारण समुद्र उस मंदिर को डुबा देगा ।
अतः हे ग्यानी जी ! आप ऐसा विचार बनाकर पहले वहाँ समुद्र के किनारे जाओ । आपको देखकर समुद्र रुक जायेगा । आपको लाँघकर समुद्र आगे नहीं जायेगा । इस प्रकार मेरा वहाँ मंदिर स्थापित करो । उसके बाद अपना अंश भेजना ।
आप भवसागर में अपना मत पँथ चलाओ । और सत्यपुरुष के सतनाम से जीवों का उद्धार करो । और अपने मत पँथ का चिह्न छाप मुझे बता दो । तथा सत्यपुरुष का नाम भी सुझा समझा दो । बिना इस छाप के जो जीव भवसागर के घाट से उतरना चाहेगा । वह हँस के मुक्ति घाट का मार्ग नहीं पायेगा ।
तब मैंने कहा - हे निरंजन ! जैसा तुम मुझसे चाहते हो । वैसा तुम्हारे चरित्र को मैंने अच्छी तरह समझ लिया है । तुमने 12 पँथ चलाने की जो बात कही है । वह मानों तुमने अमृत में विष डाल दिया है । तुम्हारे इस चरित्र को देखकर तुम्हें मिटा ही डालूँ । और अब पलटकर अपनी कला दिखाऊँ । तथा यम से जीव का बँधन छुङाकर अमरलोक ले जाऊँ ।
मगर सतपुरुष का आदेश ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैंने निश्चय किया है कि अमरलोक उस जीव को ले जाकर पहुँचाऊँगा । जो मेरे सत्य शब्द को मजबूती से ग्रुहण करेगा ।
हे अन्यायी निरंजन ! तुमने जो 12 पँथ चलाने की माँग कही है । वह मैंने तुमको दी । पहले तुम्हारा दूत धर्मदास के यहाँ प्रकट होगा । पीछे से मेरा अंश आयेगा । समुद्र के किनारे में चला जाऊँगा । और जगन्नाथ मंदिर भी बनवाऊँगा । उसके बाद अपना सत्य पँथ चलाऊँगा । और जीवों को सत्यलोक भेजूँगा ।
तब निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! आप मुझे सत्यपुरुष से अपने मेल का छाप निशान दीजिये । जैसी पहचान आप अपने हंस जीवों को दोगे । जो जीव मुझको उसी प्रकार की निशान पहचान बतायेगा । उसके पास काल नहीं आयेगा । अतः हे साहिब दया करके सतपुरुष की नाम निशानी मुझे दें ।
तब मैंने कहा - हे धर्मराय निरंजन ! जो मैं तुम्हें सत्यपुरुष के मेल की निशानी समझा दूँ । तो तुम जीवों के उद्धार कार्य में विघ्न पैदा करोगे । तुम्हारी इस चाल को मैंने समझ लिया । हे काल ! तुम्हारा ऐसा कोई दाव मुझ पर नहीं चलने वाला । हे धर्मराय ! मैंने तुम्हें साफ़ शब्दों में बता दिया कि अपना अक्षर नाम मैंने गुप्त रखा है । जो कोई हमारा नाम लेगा । तुम उसे छोङकर अलग हो जाना । जो तुम हँस जीवों को रोकोगे । तो काल तुम रहने नहीं पाओगे ।
तब धर्मराय निरंजन बोला - हे ग्यानी जी ! आप संसार में जाईये । और सत्यपुरुष के नाम द्वारा जीवों को उद्धार करके ले जाईये । जो हँस जीव आपके गुण गायेगा । मैं उसके पास कभी नहीं आऊँगा । जो जीव आपकी शरण में आयेगा । वह मेरे सिर पर पाँव रखकर भवसागर से पार होगा । मैंने तो व्यर्थ आपके सामने मूर्खता की । तथा आपको पिता समान समझकर लङकपन किया । बालक करोंङो अवगुण वाला होता है । परन्तु पिता उनको ह्रदय में नहीं रखता । यदि अवगुणों के कारण पिता बालक को घर से निकाल दे । फ़िर उसकी रक्षा कौन करेगा । इसी प्रकार मेरी मूर्खता पर यदि आप मुझे निकाल देंगे । तो फ़िर मेरी रक्षा कौन करेगा ? ऐसा कहकर निरंजन ने उठकर शीश नवाया । और मैंने संसार की और प्रस्थान किया ।
तब कबीर साहब ने धर्मदास से कहा - जब मैंने निरंजन को व्याकुल देखा । तब मैंने वहाँ से प्रस्थान किया । और भवसागर की ओर चला आया ।
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