अहंकार का जीवन दर्शन अपने आप में परिपूर्ण शास्त्र है । और वैसे ही निरहंकार का जीवन दर्शन की अंतिम उपलब्धि नरक है । अपने आसपास दुख और पीड़ा का 1 साम्राज्य । और निरहंकार जीवन दर्शन की अंतिम उपलब्धि मोक्ष है - मुक्ति । सच्चिदानंद । लेकिन अहंकार का जीवन दर्शन आश्वासन देता है । मोक्ष तक पहुंचाने का । और अहंकार का जीवन दर्शन सब तरह के प्रलोभन देता है । अहंकार के द्वार पर भी लिखा है - स्वर्ग । और अहंकार के आमंत्रण बड़े ही भुलावे पूर्ण हैं । वे ऐसे ही हैं । जैसे कोई मछलियां पकड़ने जाता है । तो कांटे पर आटा लगा देता है । कोई मछलियों को आटा खिलाने के लिए नहीं । खिलाना तो कांटा है । लेकिन आटे के बिना कांटा मछलियों तक पहुंचेगा नहीं । अहंकार बड़े प्रलोभन देता है । दुख के कांटे पर बड़ा आटा लगा देता है । आटे के लोभ में ही हम उसे निगल जाते हैं । और बहुत देर हो गई होती है । फिर उसे थूक देना संभव नहीं । कांटा छिद गया होता है । घाव बन गये होते हैं । और फिर अहंकार के कारण ही यह कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि - हमने भूल की ।
यह जिदंगी की बड़ी गहरी बातों में नहीं । छोटी छोटी बातों में भी ऐसा है । तुम कभी भोजन करते समय गरम आलू मुंह में रख लेते हो । तो भी उसे थूकते नहीं । जलता है मुंह । तो भी अहंकार कहता है । अब सबके सामने इसे बाहर थूकना कैसे संभव है । मुंह जल जाए । लेकिन तुम आलू को भी किसी तरह गटक जाते हो । और ऐसा कोई गरम आलू के साथ ही नहीं है । यह तो तुम्हारे जीवन का दृष्टिकोण है । तुमने जो चुन लिया । वह गलत कैसे हो सकता है ? तुम उसे थूककर कैसे स्वीकार करोगे कि तुमसे भूल हो गई । तुमसे और कहीं भूल होती है ? तो जलता होता है मुंह । तो भी तुम चेहरे पर प्रसन्नता बनाए रखता हो ।
कहानी है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी नाराज थी । और जब पत्नियां नाराज होती हैं । तो किसी न किसी रूप में प्रतिशोध लेती हैं । उसने सूप बनाया हैं । और इतना गरम कि मुल्ला पीएगा । तो जलेगा । लेकिन बातचीत में भूल गई । और भूल ही गई कि सूप दुश्मन की तरह बनाया है । और मुल्ला को जलाने को बनाया है । तो खुद बातचीत में भूलकर सूप को पीना शुरू कर दिया । जल गया कंठ । आंख से आंसू बहने लगे । लेकिन अब यह कहना कि इतना गरम सूप पी गई है । और यह कहना कि यह बनाया था मुल्ला के लिए । मुश्किल । और यह स्वीकार कर लेने पर तो फिर मुल्ला पीएगा ही नहीं । तो आंख से आंसू बहते रहे । लेकिन वह सूप पी गई । मुल्ला ने पूछा - क्या बात है ? आंख से आंसू बह रहे हैं ? तो उसने कहा कि - मुझे मेरी मां की याद आ गई । ऐसा ही सूप मेरी मां भी बनाया करती थी । और इसलिए आंख से आंसू बह रहे हैं । और कोई बात नहीं । मुल्ला ने भी सूप चखा । वह जलती आग था । उसकी भी आंख से आंसू बहने लगे । लेकिन वह भी पीए । इसलिए आंसू बह रहे हैं कि - तुम्हारी मां मर गई । और तुम्हें क्यों छोड़ गई ? तुम्हें भी ले जाती । तो अच्छा होता ।
जीवन में रोज छोटे छोटे कामों में भी तुम्हारा मूल जीवन दर्शन प्रकट होता है । तुम भूल स्वीकार नहीं कर सकते । अहंकार कभी भूल स्वीकार नहीं कर सकता । क्योंकि अगर भूल स्वीकार की । तो ज्यादा देर न लगेगी । जबकि तुम्हें यह भी पता चल जाएगा कि - अहंकार तो महा भूल है । इसलिए अहंकार कोई भूल स्वीकार नहीं करता । क्योंकि कहीं से भी भूल स्वीकार की गई । तो ज्यादा देर न लगेगी कि तुम पाओगे कि - अहंकार तो महा भूल है । इसलिए अहंकार भूलों का निषेध करता है । इनकार करता है । वह उनको स्वीकार नहीं करता ।
और अहंकार की बड़ी से बड़ी भूल यह है कि जो अंत में दुख देता है । उसमें प्रारंभ में सुख देखता है । जहां जहां प्रारंभ में सुख दिखाई पड़े । वहां वहां अंत में तुम पाओगे कि - दुख मिलेगा । क्योंकि सुख इतना सस्ता नहीं हो सकता कि प्रारंभ में मिल जाए । सुख तो यात्रा की मंजिल की सुवास है । वह यात्रा का पहला पड़ाव नहीं है । न द्वार है । वह तो यात्रा का अंत है । सुख तो उपलब्धि है । इसलिए जहां जहां पहले सुख मिलता है । वहां वहां पीछे दुख मिलेगा । और जहां जहां पहले दुख दिखाई पड़ता है । अगर तुमने साहस रखा । तो तुम पाओगे कि - पीछे वहीं से महा सुख के द्वार खुलते हैं ।
दुख को झेलने की जिसकी क्षमता है । वही सुख को पा सकेगा । दुख को सुखपूर्वक झेल लेने की जिसकी सामर्थ्य है । महा सुख उस पर बरसेगा । लेकिन जिसने कहा कि - दुख को मैं झेलना ही नहीं चाहता । मैं तो पहले ही कदम पर सुख चाहता हूं । वह आटे के लोभ में बड़े कांटों में उलझ जाएगा । लेकिन इस सूत्र को खयाल में रख लेना । जहां जहां तुम सुख पहले चरण में पाओ । समझ लेना कि धोखा है । क्योंकि पहले चरण में अगर सुख मिलता होता । तो सारा संसार कभी का सुखी हो गया होता । सुख तो अंतिम चरण की उपलब्धि है । सुख तो पुरस्कार है । सुख तो पूरी जीवन यात्रा का निचोड़ है । सुख तो सार है सारे अनुभवों का । सुख खुद कोई अनुभव नहीं है । सुख तो सारे अनुभवों के बीच से गुजर कर तुम्हें जो प्रौढ़ता उपलब्ध होती है । जो जागृति आती है । उस जागृति की छाया है । सुख अपने आप में कोई अनुभव नहीं है । सुख जागे हुए आदमी की प्रतीति हैं । और जागना तो मंजिल पर होगा । अंत में होगा । प्रथम तो तुम कैसे जाग सकोगे ?
इसलिए जहां जहां सुख हो । वहां वहां सावधान हो जाना । और अहंकार की यह तरकीब अगर तुम्हारी समझ में आ जाए । तो बहुत साफ हो जाएगा । अहंकार की यह रणनीति है । इसी तरह उसने तुम्हें फंसाया है - व्यक्ति को भी । समाज को भी । राष्ट्रों को भी । सभ्यताओं को भी । इस अहंकार की रणनीति के कुछ सूत्र समझ लेने चाहिए । तो लाओत्से आसान हो जाएगा । लाओत्से अहंकार की रणनीति के बिलकुल विपरीत है ।
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