*** नीलकंठ - समुद्र मंथन के समय " हलाहल " विष निकला था । इस विष ने सम्पूर्ण सृष्टि में हङकम्प मचा दिया । देवता तक भयभीत हो गये । तब शंकर जी इस विष को पी लिया । और गले में ही रोक लिया । विष के प्रभाव से उनका कंठ यानी गला नीला पङ गया । और उनका एक नाम नीलकंठ भी हुआ ।
महादेव - सीधी सीधी बात । बङा देवता ।
शम्भु - पक्का नहीं कह सकता । पर भगवान शंकर में योग द्वारा शम { भु } होने । नियन्त्रण की अदभुत क्षमता है । बहुत लम्बी समाधि लगाते हैं । इसीलिये शम्भु कहा गया है । वैसे आगे कन्फ़र्म होकर भी बताऊँगा ।
शंकर सहज सरूप सम्हारा । लागि समाधि अखन्ड अपारा ।
सन्तमत के नाम साधना के अतिरिक्त सभी ग्यान.. साधनायें द्वैत में ही आती हैं । पर शिवयोग एक बेहद श्रेष्ठ योग और बेहद उच्च योग है ।
महाकाल का अर्थ है । बङा समय । उदाहरण के लिये यहाँ के चार युग बीत जाने पर { सिर्फ़ समझाने हेतु । एक्यूरेट गणना नहीं है ये } अपवर्ग के जिन क्षेत्रों का अधिक से अधिक एक साल होता है । उस सत्ता के मालिक अधिपति शिवजी हैं । अतः उन्हें महाकाल भी कहा जाता है । अब क्योंकि 99% लोगों को पता ही नहीं होता कि शिव और शंकर अलग हैं । अतः वे एक ही बोल देते है ।
जब द्रोपदी को दुर्वासा को भोजन कराना था । और अक्षय पात्र उस दिन खाली हो चुका था । तब श्रीकृष्ण ने एक बचा तिनका निकालकर खाकर " शिवोहम " ही कहकर सकल सृष्टि को त्रप्त करके डकारें लेने पर मजबूर कर दिया था । वो शक्ति हैं । शिव ??
संजीवनी शक्ति क्या है ? परा शक्ति और अपरा शक्ति किसे कहते हैं ? शिव शक्ति क्या होती है ? टीवी पर 1 प्रोग्राम आता है । शिवयोग पर आधारित । उसमें बाबाजी द्वैत और अद्वैत दोनों साधनाओं की बात समझाते हैं । सेम टू सेम आपकी वाली बात कहते हैं । पर वो अपने आपको सन्त की बजाये सिद्ध बोलते हैं । और शिव को परमात्मा बोलते हैं । वो अकसर किसी " दत्तात्रेय " जी की बात करते है । ये कौन थे ?
*** संजीवनी शक्ति एक विशेष शक्तिशाली योग है । कलियुग के प्रारम्भ तक इसके जानने वाले रहे हैं । ये विध्या मुरदे { यदि उसका जीवन शेष हो } को भी जीवित कर सकती है । असाध्य रोग ठीक कर सकती है । सन्त इसके स्थान पर इससे भी उच्च अमृत ग्यान उपयोग में लाते हैं । दत्तात्रेय जी महान ऋषि तपस्वी योगी थे ।
अब कोई क्या बोलता है ? मैं उसके बारे में कुछ नहीं कह सकता । मर्जी उसकी । कोई अपने को क्या बोलता है । ये भी मर्जी उसकी । वैसे जिनकी आप बात कह रही हो । वो बाबाओं की भीङ में अलग और अच्छे योगी हैं । और जहाँ तक बोलते हैं । सही बोलते हैं ।
शिव शक्ति कल्याणकारी महाशक्ति है । थोङे शब्दों में नहीं बताया जा सकता । पर शिव को परमात्मा नहीं कह सकते । कभी सिर्फ़..यही मात्र एक सवाल फ़िर से करना । तब एक बङे पूरे लेख में बता पाऊँगा ।
मैंने परा और अपरा बिद्या के बारे में अवश्य सुना है । हो सकता है । माया और महामाया को भी शक्ति के रूप में कहकर ऐसा जिक्र आता हो । तुलसी रामायण के अनुसार -
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहो समुझाइ । जाते होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ।
- हे प्रभु ! ईश्वर और जीव में क्या अंतर है । इसे समझायें । जिससे मेरा मोह । शोक । भृम का नाश होकर प्रभु के चरणों में मन लग जाय ।
थोरेहि मंह सब कहउ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित लाई ।
- हे तात ! थोङे शब्दों में कहता हूँ । इसको मन लगाकर सुनो ।
मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।
- मैं..तू ..मेरा..तेरा यही माया है । समस्त जीव जिसके वश में हैं ।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।
- इन्द्रियाँ । उनके विचरण का स्थान । और जहाँ जहाँ तक ये मन जाता है । बह सब माया ही है ।
मेरी बात - अब सोच लो । आप लोग.. ग्यान कैसे होगा ? ऊपर की लाइन ध्यान से पढो । और सोचो । सत्य कैसे पता लगेगा ?
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ।
- इसके दो प्रकार हैं । एक { परा } बिद्या और दूसरी { अपरा } अबिद्या । मैं इसी की बात कर रहा हूँ ।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भवकूपा ।
- एक अत्यन्त दुष्ट और दुख देने वाली है । इसी के प्रभाव में आकर जीव संसार रूपी कुँये में गिर गया ।
एक रचइ जग गुन बस जाकें । प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ।
- दूसरी संसार की रचना करती है । ये प्रभु { चेतन पुरुष } से बल लेती है । इसकी अपनी कोई शक्ति नहीं है ।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माही ।
- ग्यान का अहं और खुद के सम्मान की भावना जिसमें नहीं है । और सब में ही बृह्म को देखता है ।
कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ।
- हे तात ! वही परम वैरागी है । जिसने तिनके के समान सिद्धियों और तीन गुणों यानी सत रज तम का भी त्याग कर दिया है ।
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ।
- धर्म से संसार से विरक्ति । योग से ग्यान । और ग्यान से मोक्ष । ऐसा वेदों में भी तो कहा गया है ।
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ।
- हे भाई ! जिससे में शीघ्र पिघल { प्रसन्न होना } जाता हूँ । वो भक्तों को सुख देने वाली मेरी भक्ति ही है ।
सो सुतंत्र अवलंब न आना । तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ।
- ये भक्ति स्वतंत्र है । इसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं । मेरी इसी भक्ति के अधीन ग्यान बिग्यान हैं ।
भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो संत होइ अनुकूला ।
- हे तात ! मेरी भक्ति अनोखी और सुखों की मूल हैं । ये सिर्फ़ सन्तों के अनुकूल होने से ही प्राप्त होती है ।
भगति कि साधन कहउ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ।
- अब मैं तुमसे भक्ति के साधन कहता हूँ । जिससे प्राणी मुझे सरलता से प्राप्त कर सकता है ।
संत चरन पंकज अति प्रेमा । मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ।
- सन्तों के चरणों में जिसको प्रेम होता है । और दृण नियम से । मन कर्म वचन से जो भक्ति करता है ।
काम आदि मद दंभ न जाके। तात निरंतर बस मैं ताके।।
- हे तात ! जिसके काम क्रोध घमन्ड जरा भी नहीं है । मैं निरन्तर उसके अन्दर वास { यानी रहता } करता हूँ ।
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम । तिन्ह के हृदय कमल महु करउ सदा बिश्राम ।
- मन वचन कर्म से । जो बिना किसी इच्छा के । कामना के मेरा भजन { सतनाम का ध्यान } करते हैं । मैं उनके ह्रदय रूपी कमल में सदा ही विश्राम पाता हूँ । अर्थात रहता हूँ ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें