06 अक्तूबर 2010

उससे ऊपर और कुछ भी नहीं है

इसलिए तो हमने ऐसे व्यक्तियों को परमहंस कहा है - मैंने कहा कब कि है ? मैं तो शास्त्र विरोधी हूं । जरूर मैं उन सत्यों का समर्थन करता हूं । जो मैंने अनुभव किए हैं । शास्त्रों में हैं । इसलिए समर्थन नहीं करता । मैंने अनुभव किए हैं । और अगर शास्त्र भी उनके समर्थन में हैं । तो जरूर मैं शास्त्रों की पीठ भी ठोंक देता हूं कि बच्चा, ठीक कहते हो । बाकी जो मैं कह रहा हूं । अपना अनुभव है । अपने अनुभव के अतिरिक्त मुझे और किसी बात पर भरोसा नहीं है । जो मैंने नहीं जाना है । जो मेरा स्वानुभव नहीं है । वह मैं तुमसे नहीं कहूंगा । शास्त्रों से मुझे क्या लेना देना ? इसलिए मुझे सुनने वाले थोड़ी अड़चन में भी पड़ते हैं । थोड़ी झंझट में भी पड़ते हैं । क्योंकि कभी मैं उसी शास्त्र के 1 वचन का समर्थन कर देता हूं । और कभी उसी शास्त्र के दूसरे वचन का खंडन कर देता हूं । स्वभावतः उनकी समझ में यह बात नहीं आती । उनको समझ में आती है यह बात कि या तो मैं पूरे शास्त्र का समर्थन करूं । या पूरे शास्त्र का विरोध करूं । नहीं । मुझे पूरे का विरोध या समर्थन इसमें रस नहीं है । मेरी कसौटी पर जो सच उतर आता है । वह फिर कहीं भी हो । वह कुरआन में हो कि बाइबिल में हो कि जेंदावेस्ता में हो कि वेद में हो कि ताओत्तेह किंग में हो कि धम्मपद में हो । मुझे कोई अड़चन नहीं । मैं उसके समर्थन में खड़ा हूं । लेकिन अगर तुम गौर से समझोगे । तो तुम पाओगे कि मैं उसका समर्थन इसलिए कर रहा हूं कि वह मेरा समर्थन कर रहा है । अन्यथा जहां मुझसे भिन्न कोई बात हुई । फिर मैं संकोच नहीं करता । फिर सत सिरी अकाल । फिर वाहे गुरुजी की फतह । वाहे गुरुजी का खालसा । फिर मैं कोई शिष्टाचार नहीं मानता । कोई सभ्यता नहीं मानता । मेरे लिए तो सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है । सत्य जहां भी प्रतिध्वनित हुआ हो । मेरा समर्थन है । मगर वह सत्य मेरा अनुभूत सत्य हो । तो ही । मैं उधार सत्यों का समर्थन नहीं करता हूं । इसलिए वे क्यों चिंता में पड़ रहे हैं कि मेरी बातें शास्त्रों के अनुसार नहीं हैं ? मैंने कभी कहा ही नहीं । होनी चाहिए । यह भी नहीं कहा । तुम्हारे शास्त्रों का सौभाग्य है । अगर कोई बात उनकी मेरे अनुसार पड़ती हो । अन्यथा उनका दुर्भाग्य । जीवित आदमी हूं मैं । मैं मुर्दा शास्त्रों में अपना समर्थन खोजूंगा ? मुर्दे खोजते हैं । मुर्दा शास्त्रों में समर्थन । जिनका अपना अनुभव नहीं है । वे खोजते हैं ।
कालिदास का यह प्रसिद्ध वचन है -
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम ।
संतः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ।
अर्थात कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं हो जाती । न ही कोई काव्य नया होने से निन्दनीय हो जाता है । सतपुरुष नए पुराने की परीक्षा करके दोनों में से जो गुण युक्त होता है । उसको ग्रहण करते हैं । मूढ़ की बुद्धि तो दूसरे के ज्ञान से ही संचालित होती है ।
मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः - मूढ़ ही केवल दूसरों के ज्ञान से संचालित होते हैं । जिनके पास अपनी प्रज्ञा की कसौटी है । वे तो परीक्षा करते हैं । वे तो जांचते हैं । वे तो प्रयोग करते हैं । सच को सच कहते हैं । झूठ को झूठ कहते हैं । इसलिए तो हमने ऐसे व्यक्तियों को परमहंस कहा है । क्योंकि वे दूध को जल से अलग कर देते हैं । सार को सार । असार को असार कह देते हैं । और तुम्हारे शास्त्रों में 99%  असार है । 1%   सार है । यह भी चमत्कार है । क्योंकि 1%  सत्य भी बच रहा है । यह भी अनहोनी घटना है । यह भी कुछ कम नहीं । यह भी न होता । तो कोई आश्चर्य की बात न होती । यह है । यही आश्चर्य है । क्योंकि तुम्हारे शास्त्र सदियों सदियों तक लिखे गए हैं । और किन्हीं 1 व्यक्ति ने तो लिखे नहीं हैं । न मालूम । कितने व्यक्तियों ने लिखे हैं । उनमें जोड़ होता चला गया है । उनमें जानकारों के वचन हैं । उनमें अज्ञानियों के वचन हैं । उनमें प्रज्ञावानों के वचन हैं । उनमें पंडितों के वचन हैं । और आज उस खिचड़ी में से छांटना बहुत मुश्किल मामला है । मेरा शास्त्रों में कोई रस नहीं है । हां, जरूर अगर मेरे सत्य से कोई शास्त्र अनुकूल पड़ जाता है । तो मैं तुम्हें उसकी याद दिला देता हूं । जैसे कालिदास के इस वचन से मैं राजी हूं कि कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं होती । पुराना होना सत्य होने का कोई प्रमाण नहीं है । और न ही कोई वस्तु नई होने से गलत होती है । नया होना गलत होने का प्रमाण नहीं है । इससे उलटी बात भी सच है । नए होने से ही कोई बात सच नहीं होती । और पुराने होने से ही कुछ गलत नहीं होती । गलत और सही का नए और पुराने से क्या लेना देना है ? शराब तो जितनी पुरानी हो । उतनी अच्छी होती है । और फूल जितना ताजा हो । उतना अच्छा होता है । कुछ चीजें पुरानी अच्छी होती हैं । कुछ चीजें नई अच्छी होती हैं । और हमें दोनों में भेद कर लेने चाहिए । और हमारी निष्ठा सत्य के प्रति होनी चाहिए । न तो शास्त्रों के प्रति होनी चाहिए । न अतीत के प्रति होनी चाहिए । मेरी निष्ठा अतीत में नहीं है । मेरी निष्ठा वर्तमान में है । मेरी निष्ठा शब्दों में नहीं है । अनुभूति में है । मेरी निष्ठा मन में नहीं है । ध्यान में है - अमनी दशा में है । ओशो
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प्रेम अनुभूति है । प्रेम को पाओ । उससे ऊपर और कुछ भी नहीं है । तिरुवल्लुवर ने कहा है - प्रेम जीवन का प्राण है । जिसमें प्रेम नहीं । वह सिर्फ मांस से घिरी हुई हड्डियों का ढेर है । प्रेम क्या है ? कल कोई पूछता था । मैंने कहा - प्रेम जो कुछ भी हो । उसे शब्दों में कहने का उपाय नहीं । क्योंकि वह कोई विचार नहीं है । प्रेम तो अनुभूति है । उसमें डूबा जा सकता है । लेकिन उसे जाना नहीं जा सकता । प्रेम पर विचार मत करो । विचार को छोड़ो । और फिर जगत को देखो । उस शांति में जो अनुभव में आएगा - वही प्रेम है । और फिर मैंने 1 कहानी भी कही । किसी बाउल फकीर से 1 पंडित ने पूछा - क्या आपको शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम के विभिन्न रूपों का ज्ञान है ?
वह फकीर बोला - मुझ जैसा अज्ञानी शास्त्रों की बात क्या जानें ? इसे सुनकर उस पंडित ने शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम की विस्तृत चर्चा की । और फिर उस फकीर का तत्संबंध में मंतव्य जानना चाहा । वह फकीर खूब हंसने लगा । और बोला - आपकी बातें सुनकर मुझे लगता था कि जैसे कोई सुनार फूलों की बगिया में घुस आया है । और वह स्वर्ण को परखने वाले पत्थर पर फूलों को घिस घिसकर उनका सौंदर्य परख रहा है । प्रेम को विचारों मत - जीओ । लेकिन । स्मरण रहे कि उसे जीने में स्वयं को खोना पड़ता है । अहंकार अप्रेम है । और जो जितना अहंकार को छोड़ देता है । वह उतना ही प्रेम से भर जाता है । ऐसा प्रेम ही परमात्मा के द्वार की सीढ़ी है ।

मन का कोई अस्तित्व नहीं होता

मन का कोई अस्तित्व नहीं होता । पहली तो बात यह है । सिर्फ विचार होते हैं । दूसरी बात । विचार तुमसे अलग होते हैं । वे ऐसी वस्तु नहीं हैं । जो तुम्हारे स्वभाव के साथ एकाकार हो । वे आते हैं । और चले जाते हैं । तुम बने रहते हो । तुम स्थिर होते हो । तुम ऐसे हो । जैसे कि आसमान । यह कभी आता नहीं । कभी जाता नहीं । यह हमेशा यहां है । बादल आते हैं । और जाते हैं । वे क्षणिक घटना हैं । वे अनंत नहीं हैं । तुम विचार को पकड़ने का प्रयास भी करो । तुम लंबे समय तक रोक नही सकते । उसे जाना ही होगा । उसका अपना जन्म और मृत्यु है । विचार तुम्हारे नहीं हैं । वे तुम्हारे नहीं होते हैं । वे आगंतुक की तरह आते हैं । लेकिन वे मेजबान नहीं हैं । गहरे से देखो । तब तुम मेजबान बन जाओगे । और विचार मेहमान हो जाएंगे । और मेहमान की तरह वे सुंदर हैं । लेकिन यदि तुम पूरी तरह से भूल जाते हो कि तुम मेजबान हो । और वे मेजबान बन जाते हैं । तब तुम मुश्किल में पड़ जाते हो । यही नर्क है । तुम घर के मालिक हो । घर तुम्हारा है । और मेहमान मालिक बन गए हैं । उनका स्वागत करो । उनका ध्यान रखो । लेकिन उनके साथ तादात्म्य मत बनाओ । वरना वे मालिक बन जाएंगे । मन समस्या बन गया है । क्योंकि तुमने विचारों को अपने भीतर इतना गहरे ले लिया है कि तुम अंतराल को पूरी तरह से भूल गए हो । भूल गए कि वे आगंतुक हैं । वे आते हैं । और जाते हैं । हमेशा ध्यान रहे कि जो है । वह तुम्हारा स्वभाव है । तुम्हारा ताओ । हमेशा उसके प्रति सजग रहो । जो न कभी आता है । न कभी जाता है । ऐसे ही जैसे - आकाश । गेस्टाल्ट को बदलो । आगंतुक पर ध्यान मत दो । मेजबान के साथ बने रहो । आगंतुक आएंगे । और जाएंगे ।
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उनमनि चढ़ा गगन रस पीवै । और अब मैं चढ़ गया हूं - उन्मन में । वहां पहुंच गया हूं । जहां मन नहीं है । वहां चढ़ गया । जहां मन नहीं । तुम्हारे भीतर वह जगह है । जहां मन नहीं है । और वहीं तुम हो । जहां तक मन है । वहां तक संसार है । जहां तक मन है । वहां तक बाहर बाहर । जहां मन समाप्त होता है । वहीं भीतर की शुरुआत है । वहीं से अंतर्यात्रा शुरू होती है । मन यानी बाहर । उन्मन यानी भीतर । थोड़ा सोचो । जब तक तुम्हारे मन में विचार चलता है । तब तक तुम बाहर ही रहोगे । क्योंकि सब विचार बाहर के हैं । भीतर का कोई विचार ही नहीं होता । मेरे पास लोग आते हैं । वे कहते हैं - हम ध्यान करते हैं । हम आत्मा का विचार करते हैं । मैं उनसे कहता हूं - आत्मा का विचार कैसे करोगे ? आत्मा का अनुभव होता है । विचार कैसे करोगे ? अगर विचार करोगे । तो उसका आत्मा से कोई संबंध ही न रहा । शास्त्र में पढ़ लिया होगा सिद्धांत, कि आत्मा क्या है ? फिर उसका तुम विचार कर सकते हो । वह तो बाहर की बात हो गई । शास्त्र बाहर है । सत्य भीतर है । आत्मा का तुम विचार कैसे करोगे ? परमात्मा का विचार कैसे करोगे ? ये कोई विचार की बातें हैं ? जब तुम निर्विचार हो जाते हो । तभी तुम्हारा जोड़ बनता है । तभी सांधा बैठ जाता है । उनमनि चढ़ा गगन रस पीवै । और जैसे जैसे तुम ऊपर चढ़ते हो । वैसे वैसे गगन का रस बरसता है - ओशो ।
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एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था । जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता । तो संख्या को खडिया से दीवार पर लिखता । किसी दिन वह लाख की संख्या छू लेता । किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता । उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते । और मुस्कराते । एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये । जब वे थक गये । तो लौटते में एक बरगद की छांह बैठे । उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी । जो आता । उसे बर्तन में नापकर देती । और गिनकर पैसे रखवाती । वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे । तभी एक आकर्षक युवक आया । और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया । दूधवाली मुस्कराई । और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया । पैसे भी नहीं लिये । गुरु मुस्करा दिये । शिष्य हतप्रभ । उन दोनों के जाने के बाद । वे दोनों भी उठे । और अपनी राह चल पडे । चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की । तो गुरु ने उत्तर दिया - प्रेम वत्स, प्रेम ! यह प्रेम है । और प्रेम में हिसाब कैसा ? उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है । जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो । उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा ? और गुरु वैसे ही मुस्कराये व्यंग्य से ।
- समझ गया गुरुवर । मैं समझ गया । प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को । 

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326