कालिदास का यह प्रसिद्ध वचन है -
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम ।
संतः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ।
अर्थात कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं हो जाती । न ही कोई काव्य नया होने से निन्दनीय हो जाता है । सतपुरुष नए पुराने की परीक्षा करके दोनों में से जो गुण युक्त होता है । उसको ग्रहण करते हैं । मूढ़ की बुद्धि तो दूसरे के ज्ञान से ही संचालित होती है ।
मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः - मूढ़ ही केवल दूसरों के ज्ञान से संचालित होते हैं । जिनके पास अपनी प्रज्ञा की कसौटी है । वे तो परीक्षा करते हैं । वे तो जांचते हैं । वे तो प्रयोग करते हैं । सच को सच कहते हैं । झूठ को झूठ कहते हैं । इसलिए तो हमने ऐसे व्यक्तियों को परमहंस कहा है । क्योंकि वे दूध को जल से अलग कर देते हैं । सार को सार । असार को असार कह देते हैं । और तुम्हारे शास्त्रों में 99% असार है । 1% सार है । यह भी चमत्कार है । क्योंकि 1% सत्य भी बच रहा है । यह भी अनहोनी घटना है । यह भी कुछ कम नहीं । यह भी न होता । तो कोई आश्चर्य की बात न होती । यह है । यही आश्चर्य है । क्योंकि तुम्हारे शास्त्र सदियों सदियों तक लिखे गए हैं । और किन्हीं 1 व्यक्ति ने तो लिखे नहीं हैं । न मालूम । कितने व्यक्तियों ने लिखे हैं । उनमें जोड़ होता चला गया है । उनमें जानकारों के वचन हैं । उनमें अज्ञानियों के वचन हैं । उनमें प्रज्ञावानों के वचन हैं । उनमें पंडितों के वचन हैं । और आज उस खिचड़ी में से छांटना बहुत मुश्किल मामला है । मेरा शास्त्रों में कोई रस नहीं है । हां, जरूर अगर मेरे सत्य से कोई शास्त्र अनुकूल पड़ जाता है । तो मैं तुम्हें उसकी याद दिला देता हूं । जैसे कालिदास के इस वचन से मैं राजी हूं कि कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं होती । पुराना होना सत्य होने का कोई प्रमाण नहीं है । और न ही कोई वस्तु नई होने से गलत होती है । नया होना गलत होने का प्रमाण नहीं है । इससे उलटी बात भी सच है । नए होने से ही कोई बात सच नहीं होती । और पुराने होने से ही कुछ गलत नहीं होती । गलत और सही का नए और पुराने से क्या लेना देना है ? शराब तो जितनी पुरानी हो । उतनी अच्छी होती है । और फूल जितना ताजा हो । उतना अच्छा होता है । कुछ चीजें पुरानी अच्छी होती हैं । कुछ चीजें नई अच्छी होती हैं । और हमें दोनों में भेद कर लेने चाहिए । और हमारी निष्ठा सत्य के प्रति होनी चाहिए । न तो शास्त्रों के प्रति होनी चाहिए । न अतीत के प्रति होनी चाहिए । मेरी निष्ठा अतीत में नहीं है । मेरी निष्ठा वर्तमान में है । मेरी निष्ठा शब्दों में नहीं है । अनुभूति में है । मेरी निष्ठा मन में नहीं है । ध्यान में है - अमनी दशा में है । ओशो
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प्रेम अनुभूति है । प्रेम को पाओ । उससे ऊपर और कुछ भी नहीं है । तिरुवल्लुवर ने कहा है - प्रेम जीवन का प्राण है । जिसमें प्रेम नहीं । वह सिर्फ मांस से घिरी हुई हड्डियों का ढेर है । प्रेम क्या है ? कल कोई पूछता था । मैंने कहा - प्रेम जो कुछ भी हो । उसे शब्दों में कहने का उपाय नहीं । क्योंकि वह कोई विचार नहीं है । प्रेम तो अनुभूति है । उसमें डूबा जा सकता है । लेकिन उसे जाना नहीं जा सकता । प्रेम पर विचार मत करो । विचार को छोड़ो । और फिर जगत को देखो । उस शांति में जो अनुभव में आएगा - वही प्रेम है । और फिर मैंने 1 कहानी भी कही । किसी बाउल फकीर से 1 पंडित ने पूछा - क्या आपको शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम के विभिन्न रूपों का ज्ञान है ?
वह फकीर बोला - मुझ जैसा अज्ञानी शास्त्रों की बात क्या जानें ? इसे सुनकर उस पंडित ने शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम की विस्तृत चर्चा की । और फिर उस फकीर का तत्संबंध में मंतव्य जानना चाहा । वह फकीर खूब हंसने लगा । और बोला - आपकी बातें सुनकर मुझे लगता था कि जैसे कोई सुनार फूलों की बगिया में घुस आया है । और वह स्वर्ण को परखने वाले पत्थर पर फूलों को घिस घिसकर उनका सौंदर्य परख रहा है । प्रेम को विचारों मत - जीओ । लेकिन । स्मरण रहे कि उसे जीने में स्वयं को खोना पड़ता है । अहंकार अप्रेम है । और जो जितना अहंकार को छोड़ देता है । वह उतना ही प्रेम से भर जाता है । ऐसा प्रेम ही परमात्मा के द्वार की सीढ़ी है ।
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