31 जुलाई 2019

ज्ञान से सिद्ध फ़ल





हरिनाम का सुमिरन, सोऽहं-स्वांस को कहा है। ह का अर्थ - है, होना, एवं र का अर्थ चेतना, इ का स्थिति है। स्वांस से ही देह, चेतन, हरा-भरा है। इसीलिये प्रतीक रूप इसे पालक विष्णु कहा है। स्वांस देहकेन्द्र नाभि से उठता है। यही भव(होना)सागर है। नाभिचक्र पर ही विष्णु-लक्ष्मी की स्थिति कही है।

स्वांस का अंतिम-छोर जीव एवं आदि परमात्मा है।
अतः “अंतिम से आदि तक” भेदना अमरगति है।

ना मैं रीझूं गान-गप्पों से, ना मैं रीझूं तान-टप्पों से।

स्वांस-स्वांस पर हरि जपो, वृथा स्वांस ना खोय।
ना जाने जा स्वांस को, आवन होय न होय।



=धर्म-चिंतन=

शुकदेव, परीक्षित को कथा सुनाने के लिये विराजमान हुये तब देवता अमृतकलश लेकर आये, और शुकदेव को प्रणाम कर कहा - यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृत का दान दीजिये। इस प्रकार परस्पर अदला-बदली होने पर परीक्षित अमृतपान करें, और हम सब श्रीमदभगवत रूप अमृत का पान करें।
कहाँ कांच, कहाँ अनमोल मणि (कहाँ सुधा, कहाँ कथा) शुकदेव ने यह सोचकर देवों की हंसी उड़ा दी। उन्हें कथा सुनने का अधिकारी न समझा। इस प्रकार श्रीमद भागवत कथा देवों को भी दुर्लभ है।
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अमृत होने पर भी शास्त्र अनुसार देवता अमर नहीं हैं। पुण्य क्षीण होने पर तिर्यक योनि को प्राप्त होते हैं। वर्तमान भगवत कथा में अधिकांश स्थानों पर देवी-देव कथा के पात्र ही होते हैं। फ़िर वह कौन सी कथा थी?



ज्ञान से सिद्ध फ़ल, कर्म से असिद्ध फ़ल, ज्ञान-कर्म युति से मिश्रित फ़ल, इन तीन विनाशी प्रकृति-धर्म से परे/संयुक्त ही चौथा अविनाशी आत्मा है। पंचम स्वयंसिद्ध विराट पुरूष है। तुच्छ को त्याग कर विराट को भेदना
ही अमरगति है।
शरीर-मन संयम से जीव एवं आत्म से विराट को भेदो।

और ज्ञान सो ज्ञानङी, कबीर ज्ञान सो ज्ञान।
जैसे गोला तोप का, चलता करे मैदान॥

कबीर सोचि बिचारिया, दूजा कोई नाँहि।
आपा पर जब चीन्हिया, उलटि समाना माँहि॥  

29 जुलाई 2019

पंचविकार के उल्टे कमल



=धर्म-चिंतन=

शुकदेव द्वारा परीक्षित को मोक्षकथा सुनाते समय शास्त्र अनुसार अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, अरिष्टनेमि, शारद्वान, पाराशर, अंगिरा, भृगु, परशुराम, विश्वामित्र, इन्द्रमद, उतथ्य, मेधातिथि, देवल, मैत्रेय, पिप्पलाद, गौतम, भारद्वाज, और्व, कण्डव, अगस्त्य, नारद, वेदव्यास आदि जैसे वरिष्ठ ऋषि, महर्षि और देवर्षि अपने शिष्यों के साथ मौजूद थे।

इन्होंने कहा था - हम कथा सुनाने के अधिकारी नहीं हैं।

उस मोक्षकथा में ऐसा क्या खास था? क्या वर्तमान में सुनाई जाने वाली भागवत कथा वही है जो शुकदेव जी ने सुनाई?

शुकदेव के गुरू जनक त्रेता युग के थे। उसके लाखों वर्ष बाद द्वापर आया। शुकदेव तब भी थे, और आयु में छोटे ही थे।



काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद ये पंचविकार उल्टे कमल (चकरी) या कागवृति सोऽहं के हैं। अजपा हंऽसो जाप द्वारा ये विपरीत होकर सीधा कमल (चकरी पलटना) होने से विरति, क्षमा, दान, प्रेम,
दया में बदल जाते हैं।
सोऽहं विषय/विष्ठा ग्राही, हंऽसो सार/अमृत ग्राही है।
हंऽसो-परमहंस ही पारब्रह्म मोक्ष का हेतु है। 

मान-बढ़ाई जगत में, कुत्ते की पहचान।
प्यार किया मुख चाटे, बैर किया तन हानि॥

सात दीप नौ खंड में, तीन लोक ब्रह्मण्ड।
कहे कबीर सबको लगे, देह धरे का दंड॥



=धर्म-चिंतन=

नैमिषारण्य में अठासी हजार ऋषि एवं प्रमुख ज्ञानी महर्षियों की उपस्थिति के बाद भी, तक्षक दंश के शाप से मृत्यु उन्मुख परीक्षित की मोक्ष क्रियाविधि, आयु में सबसे छोटे, किन्तु अधिकारी, व्यास सुत शुकदेव जी द्वारा सम्पन्न हुयी।

सर्पदंश से हुयी मृत्यु पर नर्क मिलने का विधान एवं मोक्षहीन मृत्यु से भयभीत परीक्षित के चित्त को पूर्ण एकाग्र कर पूर्व के कई राजाओं एवं उनके महान पूर्वजों की वंशावली द्वारा उनके वैभव आदि से अवगत कराया। भाव (वैराग्य हेतु) कि एक दिन सभी की मृत्यु तय है।

इतने महान लोगों के होते हुये शुकदेव ही क्यों?
शुकदेव जनक के शिष्य थे। जबकि यह घटना छह-सात हजार वर्ष पूर्व की है?

27 जुलाई 2019

दो मन कबहु न होय



देह का केन्द्र नाभि एवं मन का केन्द्र आत्मा है। इनसे विस्थापित ब्रह्म ही जन्म-मरण आदि द्वय-चक्रिय जीव है। स्वांस को नाभि एवं मन को आत्मा (तालु) पर थिर करने से सोऽहं जीव हंऽसो होकर पुनः एकचक्रिय हो जाता है।
इन दो को भेदना ही अमरगति है।

कस्तूरी कुंडल बसै, मिरग ढूंढ़े वन माहिं।
स्वांस-स्वांस में रमि रह्यो, मूरख चेते नाहिं॥

आस-वास दुबिधा सब खोई।
सुरति एक कमलदल होई॥



चतुष्टय अंतःकरण का एक होना ही सु-रति है। पांच ज्ञान, पांच कर्मेंद्रिय, मन को एकादश कर सकाम/निष्काम एकादशी, दशरथ, राम संयोग से फ़लित होती है। द्वैत की एकादशी भोग एवं अद्वैत की मोक्षदाता है।

हे राम! (जीव रहने तक) इसे अविराम प्राप्त करो। 

माया को माया मिले, कर-कर लंबे हाथ। 
तुलसीदास गरीब की, कोई न पूछे बात॥

हम-तुम दोनों एक हैं। कहन-सुनन को दोय।
मन से मन को तौलिये, दो मन कबहु न होय॥

(पोस्ट में राम, दशरथ शब्द का भाव त्रेतायुगीन राम से नहीं है)




काम बिगाड़े भक्ति को, क्रोध बिगाड़े ज्ञान।
लोभ बिगाड़े त्याग को, मोह बिगाड़े ध्यान॥

तन मटकी मन दही, सुरत बिलोवनहार।
माखन संतन चाखिया, छांछ पिये संसार॥

करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन-रात।
कूकर सम भूकत फिरे, सुनी-सुनाई बात॥

जीत-जीत तूने उमर गुजारी, अब तो हार फकीरा।
जीत का मूल चार कौड़ियां, हार का मूल हीरा॥

जब तक गुरू मिले नहिं सांचा।
गुरू करो तुम एक सौ पांचा॥

वाटस एप्प सतसंग पर आये प्रश्न 2



प्रश्न - अनेकानेक परमहंसों में क्या भेद, विभिन्नता होती है? इस उपाधि के पीछे कोई गूढ़ रहस्य है? ये परमहंस लोग किस-किस लोकों तक आ-जा/विचर सकते हैं? अलग-अलग पंथ एवं मत के व्यक्ति परमहंस बनते हैं/बन जाते हैं। इनके विषय पर भी गूढ़ ज्ञान प्रकाश डालने के विषय विचार किया जाये।

उत्तर - परमहंस के पांच प्रकार होते हैं - बालक, पिशाच, मूक, जङ और उन्मत। लेकिन किसी परमहंस में एक या कुछ या सभी प्रकार भी हो सकते हैं। स्रष्टि के किसी भी कोने में इनकी स्वेच्छाचारिणी गति होती है। परमहंस सिर्फ़ निर्वाणी मत में हो सकता है। शेष जो अपने आगे लगा लेते हैं उन्हें परमहंस का सही अर्थ भी पता नहीं होता है।
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प्रश्न - सतगुरू किसे बोलते हैं इसे समझने एवं समझाने की ज़रूरत है? क्योंकि कुछ मंत्रों में पारंगत लोग या पण्डित या ज्योतिषी या कोई विशिष्ट देवी, देवता का साधक आदि भी पहले गुरू बन जाते हैं। बाद में उनके चेले उन्हें सद्गुरू की उपाधि दे देते हैं। और वे लोग समय के साथ-साथ सद्गुरू बन जाते हैं। दुनियां के नज़र में लाखों शिष्य होते हैं। करोड़ों, अरबों की सालाना आमदनी भी।

उत्तर - जो सत्य/परम सत्य को लखा दे वही सदगुरू कहलाता है। लखाने का अर्थ साक्षात्कार के अरस/परस से है। हरेक असली चीज की नकली चीज पैदा होने बहुत समय से है। पर वास्तव में उससे कुछ लाभ नहीं होता। कागज के फ़ूलों में गंध नहीं होती।
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प्रश्न - क्या ये बात सही है कि एक सद्गुरू तथा सतगुरू में ज़मीन आसमान का अंतर है, होता है? कहें तो सद मतलब अच्छा! ये किसी की अपनी व्यक्तिगत व्याख्या या निष्कर्ष हो सकता है कि फलाना-ढेकाना गुरू एक सद्गुरू (अर्थात अच्छा गुरू) है। ऐसे सैकड़ों गुरू टाइप लोग हैं जो कि सद्गुरू बने हुए हैं। आपको देश-विदेशों में मिल जायेंगे। सवाल है क्या ये सद्गुरू जो हैं क्या वे लोग सतगुरू हैं? क्योंकि मेरे सीमित ज्ञान/विचार में सतगुरू पूरे पृथ्वी में एक समयावधि विशेष में मात्र एक ही होता है, और वो सतलोक वासी होता है।

उत्तर - सतगुरू या सदगुरू में कोई अंतर नहीं है। सिर्फ़ अपने-अपने भाव, उच्चारण, हिन्दी, संस्कृत आदि जैसे कारणों से ऐसा चलन बन गया है। वैसे शुद्धता की द्रष्टि से सदगुरू शब्द सही है।
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प्रश्न - क्या सतलोक ही परमात्मा/परम सत्ता/परमेश्वर का लोक क्या होता है? इसे समझने/समझाने की आवश्यकता है।

आज तो वैसे लोग भी गुरू, सद्गुरू बने मिलेंगे, वे लोग जो कि -

1. सबसे निचले चक्र, मूलाधार के गणेशदेव को सिद्ध किये हैं, या

2. दूसरे नंबर के चक्र, स्वाधिष्ठान के देवी-देवता, ब्रह्मा-सावित्री (सावित्री से ही गायत्री देवी एवं गायत्री मंत्र का उदय हुआ है। उससे संबंधित है) को सिद्धस्त साधक भी गुरू, सद्गुरू बन गायत्री मंत्र का चारों तरफ प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। सद्गुरू बने बैठे हैं। उनके लाखों भक्त, शिष्य हैं।

3. तीसरे चक्र, मणिपुर नाभिकमल (जो विष्णु-लक्ष्मी का लोक है) उसे सिद्ध करके गुरू तत्पश्चात सद्गुरू बन बैठे हैं।

4. चौथे चक्र, अनाहत चक्र हृदयकमल (जिसके अधिष्ठात्री देवी-देव, शिव-पार्वती हैं) उस तक सिद्धि प्राप्त करके भी सम्भवतः कुछ लोग गुरू/महागुरू/सद्गुरू/अवतारी महापुरूष बन बैठे हैं।
बहुत हुआ तो इन चक्रों में अवस्थित देवी-देवताओं की पूजा-पाठ, आराधना-साधना खुद भी करेंगे, और अपने शिष्यों से भी वहीं करवायेंगे। क्या ये ज़्यादा संभावित नहीं कि ऐसे गुरूओं के अधिकांशतः चेलों/शिष्यों को न तो गति मिलेगी, न ही मुक्ति?

उत्तर - सतलोक कोई सिर्फ़ एक लोक नहीं है। उसका भेद खोलना उचित नहीं। इससे फ़िर नकली ज्ञानियों द्वारा फ़ैलाई बातों से जिज्ञासुओं में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
इस प्रश्न में आयी अन्य शंकाओं का उत्तर उपरोक्त अन्य उत्तरों में आ चुका है।
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प्रश्न - क्या मुक्तिमार्ग एक सतपुरूष एक सतगुरू ही बता सकता है? वो सतगुरू जो कि नौवें/दसवें अथवा सबसे उच्चस्थ चक्र (सतलोक) का अधिपति हो, या उस लोक/चक्र को प्राप्त कोई सिद्धस्त पुरूष/वासी?
क्या वो ज्ञान एवं राह एक सत्यलोक (सतलोक) गमन किया हुआ या वहाँ को प्राप्त या वहाँ से आया कोई तत्वदर्शी संत, महात्मा या गुरू जो कि साकार परमात्मा सदृश है, या हो, ही बता सकता है?

उत्तर - बिलकुल, सिर्फ़ पहुँचा हुआ या कबीर साहब की तरह प्राकटय सन्त ही मोक्ष या उससे सम्बन्धित अन्य विषय बता/दिखा सकता है। शेष ज्यादातर पूर्व उपलब्ध वाणियों/व्याख्याओं के आधार पर वर्णन करते हैंऔर अक्सर तीव्र जिज्ञासु को सन्तुष्ट नहीं कर पाते।
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वो सत-ज्ञान जो कि सूर्य के समान प्रकाशित हो। जिसके सामने अन्य समस्त ज्ञान एवं तथाकथित सद्गुरू लोगों का वज़ूद एवं ज्ञान दीपक तुल्य ही हो। बहुत हुआ तो चाँद के रोशनी के सदृश हो।
क्या वो ज्ञान कबीरदेव साहेब के माध्यम या उनके शिष्यों के माध्यम से इस धरा पर अवतरित होगा?
कृपया उपरोक्त विचारों पर (सही, गलत क्या है) प्रकाश डालें। अधिकांश लोगों की स्थिति ऊपर वाली है। लोगों से मेरा तात्पर्य आमजनों, चेलों, शिष्यों आदि से है, न कि गुरूओं से।

उत्तर - ज्ञान, हर युग हर काल में प्रकट होता रहा है। पर कुछ ही लोग इसे जान/समझ पाते हैं। खुद कबीर साहब के साथ भी ऐसा ही हुआ था ‘हाजिर की हुज्जत, गये की तलाशी"
वास्तव में यदि कोई पूर्ण शिष्य हो जाये तो सदगुरू हमेशा प्रकट होगा। भले ही वह उस समय देह में अवतरित न हुआ हो। पर एक पूर्ण शिष्य का होना ही बेहद दुर्लभ है। यह करोङों वर्ष बाद कोई एक-दो हो पाता है। लेकिन क्षुद्र अंशों में ज्ञान का जागरण अनवरत रहता ही है।

वाटस एप्प सतसंग पर आये प्रश्न 1





प्रश्न - सतपुरूष कबीरदेव साहेब और परमतत्व का क्या सम्बन्ध? क्या कबीरदेव साहेब ही परमतत्व हैं? या फिर कबीरदेव साहेब परमतत्व से परे के अबूझ, अज्ञात, गुणातीत तत्व हैंकृपया उचित ज्ञान प्रदान करें।

उत्तर - सतपुरूष, कबीर, कालनिरंजन आदि आत्मा की विभिन्न प्रमुख स्थितियां हैं। पुरूष या कबीर या साहेब शब्द सिर्फ़ किसी व्यक्ति विशेष का सूचक नहीं है अपितु जो भी उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है उसी के लिये है।

सर्वज्ञ और सर्वनियंता कायावीर को ही कबीर कहा है। आत्मा की स्वाधीन, स्वछंद स्थिति, जिस पर कोई स्रष्टि विधान लागू नहीं होता। कबीर ने कहा भी है ‘अपनी मढ़ी में आप में डोलूं, खेलूं खेल स्वेच्छा

वैसे प्राप्त वाणियों एवं विवरणों के आधार पर यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि आत्म-परमात्म एवं स्रष्टि रहस्य को जितना कबीर ने जाना, और वर्णन किया, वैसा उदाहरण कोई दूसरा नहीं है। फ़िर भी स्वयं कबीर साहब के अनुसार उनकी ही समस्त वाणियां सिर्फ़ संकेत मात्र है, और मूलभेद कुछ अलग ही है - अवधू मूलभेद कछु न्यारा।
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प्रश्न - क्योंकि कुछ मूलतः तांत्रिक गुरूओं के सार्वजनिक रूप से दिये गये उनके गुरूमंत्र में 1. सर्वतत्व अथवा परमतत्व 2. नारायण 3. गुरू आदि शब्दों का समुचित प्रयोग होता है। जिससे कि उनके शिष्यों को लगता है कि उनके गुरू, जिनका नाम भी नारायण से शुरू होता है, वो ही परमात्मा परमतत्व हैं। वे ही साक्षात नारायण रूप में अवतरित हुये हैं/थे। उक्त गुरू ‘नारायण..’ का सतपुरूष कबीरदेव साहेब के परिपेक्ष्य में क्या सम्बन्ध या स्थिति है, या बनती है? इस गूढ़ बात पर प्रकाश डालें।

उत्तर - कबीर का सही अर्थ “है’’ है। परमतत्व से परे कुछ नहीं। नारायण, मनुष्य की शुद्ध स्थिति है जो भग युक्त है। परमतत्व की तुलना में नारायण बेहद तुच्छ स्थिति है। गुरूमंत्र में वाणी का कोई भी शब्द/अक्षर हो, वह परमतत्व तक नहीं जाता। क्योंकि वह शब्दातीत, अक्षरातीत, गुणातीत और यहाँ तक कि प्रकृति से भी परे है।

सिर्फ़ आत्मा के प्रथम स्फ़ुरित ‘सारशब्द’ से उसका कुछ सम्बन्ध अवश्य है। लेकिन वह शब्द वाणी का नहीं है। परमात्मा मन, इन्द्रिय से अगोचर है। वह किसी ध्यान, क्रिया, योग आदि से प्राप्त नहीं होता। योग, ध्यान, क्रिया आदि सिर्फ़ शुरूआती सहायक हैं जो पात्र होने की भूमिका निभाते हैं।

गो गोचर जहँलगि मन जाई, सो सब माया जानो भाई।
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प्रश्न - तो क्या उपरोक्त रेफेरेंस किया हुआ गुरूमंत्र परमात्मा से साक्षात्कार कराने के निमित्त ही है, एवं उस हेतु पर्याप्त है? अथवा इसमें भी कुछ अबूझ, अज्ञात, छुपा हुआ रहस्य अथवा पेच हैक्या ये समझा जाये कि परमतत्व=परमात्मा, या कहें तो परमात्मा परमेश्वर=परमतत्व?

क्या हमारे जैसे लाखों, करोड़ों, अरबों अज्ञानियों को सही ज्ञान प्रदान करके इनके बीच का भेद, अभेद बताने/समझाने का विचार करेंगें ताकि जनमानस में सद्ज्ञान की जाग्रति हो। क्योंकि मैं भी आज तक इन्हें अभिन्न ही मानता, समझता रहा हूँ।

उत्तर - गुरूमन्त्र से परमात्मा का सिर्फ़ शुरूआती सम्बन्ध है। परमतत्व, परमात्मा, परमेश्वर तीनों भिन्न हैं। तथापि 70% समान हैं। वास्तव में परमात्मा असंख्यकला है, और उसके बारे में कहा गया कुछ भी ‘अंधों के हाथी’ के समान है। इसीलिये कहा गया है कि परमात्मा मन, बुद्धि से परे है। वह सिर्फ़ पहुँचे हुये समर्थ सदगुरू और कृपा से ही जाना जाता है।

जेहि जाने जाहि देयु जनाही, जानत तुमहि तुमहि हुय जाही।

परमतत्व, उसके लिये कहा है जब यह स्रष्टि आदि कुछ भी नहीं था। सिर्फ़ वही था। परमात्मा, उस पुरूष को कहा है, जो स्रष्टि का प्रथम प्रधान पुरूष था, जो अब स्थिति है। परमेश्वर उसे कहा है, जो स्रष्टि निर्माण के बाद, स्रष्टि सहित सर्वनियंता पुरूष हुआ। लेकिन यह भी सिर्फ़ स्थिति ही है।
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प्रश्न - ये शब्द ‘परमपिता’ भी ज़ेहन में आया तथा ‘परमहंस’ भी। परमहंस की अगली आध्यात्मिक उन्नतिशील गति क्या होती है? परमहंस कहित स्वामियों, साधुओं, गुरूओं आदि का कौन सा चक्र जाग्रत रहता है? क्या वो अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा, सहस्रार चक्र ये उसके ऊपर के चक्र तक जाग्रत रहते हैं?

उत्तर - परमपिता, इसलिये कहा है, क्योंकि उस एक से ही समस्त जीव उत्पन्न हुये। एकोहम बहुस्यामि। परम यानी उसने जीवों को रज-वीरज और शरीरों के द्वारा उत्पन्न नहीं किया। परमहंस, उस स्थिति को कहते हैं जब हंस ब्रह्मांड का शिखर पार कर पारब्रह्म परमात्मा के क्षेत्र में विचरता है।

जब हंसा परमहंस होय जावै।
पारब्रह्म परमात्मा साफ़-साफ़ दिखलावै।

परमहंस की अगली गति अचल में ठहराव, और असंख्य कलाओं का लय योग आदि है। फ़िर वह निरंतर ‘है’ में रहता है। इसके बाद वाणी का विषय नहीं रह जाता। लेकिन फ़िर भी बहुत कुछ है।
परमहंस स्थिति का चक्रों से कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि वह देह से परे विदेही स्थिति है। वास्तव में आत्मज्ञान का कुंडलिनी/चक्र आदि से कोई सम्बन्ध नहीं। लेकिन ‘बोध’ होने से वह सब स्वयं ही जाग्रत हो जाते है। पर आत्मज्ञान का असली साधक उन्हें कोई महत्व नहीं देता।

आजकल ‘परमहंस’ लगाने वाले हंस या गुरू स्तर के भी नहीं हैं। वृति और सुरति, दो तरह के सन्त होते हैं। जिनमें वृति वाले, प्रयोगात्मक ज्ञान से शून्य, भक्ति आचरण वाले होते हैं।

25 जुलाई 2019

गर्भज्ञानी शुकदेव जी




=धर्मचिंतन=

ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, मोक्ष के अनेक धर्मग्रन्थों के उपदेशक व्यास जी, शुकदेव के गर्भ से बाहर आकर तप हेतु वन जाने पर ‘पुत्रमोह’ से उनके पीछे गये। मार्ग में सरोवर पर स्नान करती युवतियों के शुकदेव के समक्ष निर्वस्त्र, और व्यास जी के समक्ष वस्त्र धारण करने के, उनके प्रश्न पर युवतियों ने उत्तर दिया कि - आपकी निगाह में स्त्री-पुरूष भेद है पर शुकदेव की नहीं।
ऐसे गर्भज्ञानी शुकदेव जी को बिना गुरू भक्ति करने पर विष्णु ने स्वर्ग से लौटा दिया कि - आप स्वर्ग के अधिकारी नहीं हैं।



अकह को कह कर, अक्रिय को क्रिय से, अचल को ध्या ने से नहीं जाना जा सकता। कह में अकह, क्रिय में अक्रिय, ध्या ने में अध्या को जानने वाली परम सयानी बुद्धि ही परम तत्व को जानती है।
पुष्प के सौन्दर्य/गंध/रंग विवरण से प्राप्त नहीं होते।

ज्यों मेंहदी में रंग है, और गंधी में वास।
ऐसे साहिब तुझ में है, जैसे शब्द आकास।

ज्यों वायु में अग्नि है, और अग्नि में नीर।
ज्यों नीर में धरनि है, तैसेहि मनहि शरीर॥


सभी योग/भक्तियों में, अप्रयास, भ्रंगमता सहज-योग, सुरति-शब्द योग, जो लय-योग होकर पूर्ण होता है, सर्वोच्च है। उसी प्रकार असंख्य नाम-रूप ब्रह्म/इष्ट उपाधियों में निरूपाधि आत्मा ही सर्वोच्च है। और एकमात्र सत्य, शाश्वत है। इसके अतिरिक्त शेष माया/मूलमाया जनित भ्रम है।

झूठा खेल, खिलाङी सच्चा।
ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या।

दुनियां में फ़ंस कर वीरान हुआ है।
बस खुद को भूल कर हैरान हुआ है।

23 जुलाई 2019

स्थिर समाधि


=धर्म-चिंतन=
                                                             
नियोग विधि से धृतराष्ट्र, पांडु, विदुर को जन्माने वाले, गुरू-शिष्य परंपरा के स्थापक, व्यास जी स्वयं वृद्धावस्था तक संतानहीन थे। अमरनाथ गुफ़ा में (कबूतर या) तोता द्वारा शंकर जी से अमर-कथा सुनकर, शंकर द्वारा मारने को उद्धत, तोता व्यास पत्नी (पिंगला या) आरुणी के मुख द्वारा गर्भ में प्रविष्ट हो बारह वर्ष तक रहा। फ़िर बारह वर्ष का ‘मनुष्य बालक’ गर्भ से निकल कर सीधा वन में तप करने चला गया। 



समाधि स्थिर होने पर द्वैत (तुरीया) पूर्ण शान्त होकर (तुरीयातीत) अद्वैत स्थिर हो जाता है तब उस स्थिति को प्राप्त योगी को सब लोक स्वप्न के समान दीखते हैं। अर्थात जल के बुलबुले के समान उनकी उत्पत्ति-प्रलय होती है।
सपना द्वैत अपना अद्वैत है।

अद्वैते स्थैर्यमायाते द्वैते प्रशममागते।
पश्यन्ति स्वप्नवल्लोकांश्चतुर्थीं भूमिकामिता:॥ 

केती लहरि समंद की, कत उपजै कत जाइ।
बलिहारी ता दास की, उलटी माँहि समाइ॥

क्षीर रूप हरि नाम है, नीर आन व्यौहार।
हंस रूप कोई साधु है, तत को जाननहार॥





वक्ता-ज्ञानी जगत में, पंडित-कवी अनंत।
सत्य-पदार्थ पारखी, बिरला कोइ संत॥

ध्यानी-ज्ञानी दाता घने। रथी-महारथी अनेक।
कहैंकबीर मान विरहित, कोइ लाख में एक॥

कबीरा ज्ञान बिचार बिन, हरी ढूंढन को जाय।
तन में त्रिलोकी बसे, अब तक परखा नाय॥

निर्बुद्ध को सूझे नही, उठी-उठी देवल जाय।
दिल देहरा की खबर नही, पाथर पीछे जाय॥

तेरे हृदय में हरी है, ताको न देखा जाय।
ताको जबही देखिये, दिल की दुविधा जाय॥

शीतल शब्द उचारिये, अहम मानिये नाहीं।
तेरा प्रीतम तुझ में है, दुश्मन भी तुझ माहीं॥

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326