प्रथम कर्म, फ़िर धर्म,
फ़िर पंचभूत-महाभूतादि को भी निर्विकल्प,
निर्बीज समाधि द्वारा, बोध द्वारा, सदगुरू शब्द आदि द्वारा तुरीया को पार कर तुरीयातीत, फ़िर क्रमशः ‘हहर’ में स्थिति हुआ ही आत्मा और अनन्तता
को जानता है। और यही शब्दातीत, निःशब्द है।
कर्म धर्म जहाँ
बटें जेबरी,
मुक्ति भरती पानी।
यह गति बिरले
जानी।
‘शिवसूत्र’
मंत्र
अइउण, ॠलृक्,
एओड़्, ऐऔच्, हयवरट्,
लण्, ञमड़णनम्, झभञ्,
घढधश्, जबगडदश्,
खफछठथ, चटतव्, कपय्,
शषसर्, हल्।
टंक-डंक
वाद्य-ध्वनि संयोग से लय में एक स्वांस में सिद्ध करें।
जहरीले दंश, कठिन
ज्वर, प्रेतादि आवेश, मिर्गी आदि
मनःरोगों में प्रभावी।
द्रश्य जगत! भाव
द्वारा, ज्ञान-इन्द्रियों से अनुभूत
है। भाव का सार सिर्फ़ गुरूत्व ही है। अर्थात ‘चक्षु अनुभूत जगत’ मात्र द्रश्य है।
अन्य समस्त अनुभूति शरीर, मन, उर्जा,
चेतना, गुरूत्व, आत्म से
है।
अतः गुरूत्व
बोध ही समस्त ज्ञान का सार है।
कहै कबीर संसा सब छूटा, रामरतन धन पाया॥
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