30 जून 2019

यह लीला निर्वान




सुखासन में तमरूपी निद्रा न होकर, बोधरूपी जाग्रति, होशरूपी प्रज्ञा, ज्ञानरूपी विवेक द्वारा इस मोक्षरूपी यज्ञ/धर्म को सम्पन्न किया जाता है। आत्मा सदैव अचल, अकंप, अक्रिय, अविगत, अकल ही है।
अहं-रूपी विकार मूल एवं उसकी प्रजा ज्ञानयज्ञ की आहुति है।

यह लीला निर्वान, भेद कोइ बिरला जानै।
सब जग भरमें डार, मूल कोइ बिरला माने॥



एक से शुरू हुआ क्रम, अनेक फ़िर असंख्य होकर, स्थिति प्रधान थिर होकर भी ‘एक’ ही है। जो अनादि, अकर्ता ही है। इस महाभूत ‘हहर’ में असंख्य अंशभूत उत्पन्न/विनष्ट होने के क्रम में ‘हर’ हैं।
हर से हहर, फ़िर ‘है’ ही अनंत है।

वस्तु कहीं ढूँढें कहीं, केहि विधि आवै हाथ।
वस्तु तभी पाइए, जब भेदी लीजे साथ॥

भेदी लीन्हा साथ कर, दीन्ही वस्तु लखाय।
कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाये॥



चित्त एवं चित्त की फ़ुरना, और आत्मा की अचलना, को अनुभूत कर लेने पर स्वयंभवी सबके मध्य सच्चिदानन्द रूप स्थिति है, और सर्वांग सराबोर, निर्लेप भी। तत-सत, तत-सत, तत-सत। है-नहीं, है-नहीं, है-नहीं। हहर, हहर, हहर।
लय-योग का यही अनंतकला पुरूष है।

हाँ कहो तो है नहीं, ना कहा न जाय।
हाँ-ना के मध्य में, साहिब रहा समाय।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326