पूर्ण/होना/है
की शब्दातीत,
वर्णनातीत, तुरियातीत एवं विलक्षण स्थिति से
एकाकार हो जाना ही
वास्तविक
मोक्ष है। जो यथा अनुसार अनेकानेक योग विधियों के क्रम से सार-शब्द में लय होना
है।
मोक्षार्थियो, यही
अन्तिम अभीष्ट है।
सार-शब्द जब
आवै हाथा। तब तब काल नवावै माथा।
साढ़े बारह
लाख वर्ष की चौरासी,
कर्म-ज्ञान स्थिति अनुसार, आठ सौ वर्ष से
अधिकतम चार-पांच लाख वर्ष ही भोगनी होती है। फ़िर पुनः मनुष्य जन्म। इस घोर दुखदायी
कालचक्र से निकलने का एकमात्र उपाय ज्ञान और आत्मबोध ही है। कर्मरेख और संस्कार
बीजों का अनुकूल निवारण सिर्फ़ ‘सहज समाधि’ से ही संभव है।
बीस लाख
स्थावर जानो,
नौ लाख सब जलचर मानो।
ग्यारह लक्ष
कूर्म कवि गाए,
पक्षीगण दस लाख बताए।
तीस लाख पशु
जानो भाई,
चार लाख बंदर दुखदायी।
जब यह चौरासी
कट जायी,
तब यह मानुष तन हम पायी।
जिस प्रकार
ऊमर (गूलर) कभी थिर नहीं रहता। फ़लरूप होकर निरन्तर च्युत होता रहता है। उसी प्रकार कर्मफ़ल रूपी यह संसार जो मायापट पर अवतीर्ण
है। निरन्तर परिवर्तनशील प्रकृति द्वारा नित-नूतन रंग-रूप में पल-पल बदलता है।
अस्थिर है,
नाशवान है।
इसलिये अचल, अविनाशी
आत्मस्वरूप से प्रज्ञा लाओ।
जबही सुरति
नाम में लागे,
संशय-शोक मोह-भ्रम भागे।
घट में दरस
होय भगवाना,
तबही पावो आतम ग्याना॥
कर्म/धर्म/भर्म
काट सकने की योग्यता/पात्रता वाला ही मोक्ष/सत्ता का सच्चा अधिकारी है। शेष सभी
कर्मी/धर्मी असंग-मुक्ति को ही प्राप्त होते हैं।
खाया-पिया
ही अंग लगेगा। दान-पुण्य ही संग चलेगा।
बाकी सब में
जंग लगेगा।
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