26 जून 2019

राम धुन




नेवला और सर्प, चन्दन और सर्प, जैसा गुरू, शिष्य का सम्बन्ध होता है। गुरू, नेवले की भांति खिला-खिलाकर शिष्य की विषता, जीवता को मार देता है। तथापि अहंकार के घोर विष से जलता हुआ शिष्य चन्दन रूपी गुरू से शीतलता पाता है। परन्तु गुरू उसके विष/ताप से सदैव अप्रभावित ही रहता है।
इसलिये प्रथम समर्थ सदगुरू की शरण आवश्यक है।

सांचा शब्द कबीर का, सुनकर लागे आग।
विषयी तो जल कर मरे, साधु जाये जाग॥

जैसे सीप समुद्र की, स्वाति बूंद ठहराय।
ऐसा ज्ञान कबीर का, समझे मांहि समाय॥



शाश्वत से सत्व, सत्व से सत, सत से असत, फ़िर असत से असंख्य त्रयगुणी मनोवृतियां हुयीं। तभी अनादि-मूल में पुरूष, प्रकृति, काल, माया, पंच-महाभूत का प्राकटय भी हुआ। इस तरह समष्टि की कुल रचना होकर वह आप ही इसमें व्यष्टि होकर क्रीङारत हुआ। फ़िर ये सृष्टि अनवरत नये रूपों में प्रकाशित होने लगी।
और वह आत्म से ब्रह्म, ब्रह्म से जीव हुआ।

रहनी रहै सो रोगी होई, करनी करै सो कामी।
रहनी-करनी से हम न्यारे, ना सेवक ना स्वामी॥ 



पिंडी धुनें, स्थूल-जगत के समान वीणा, नफ़ीरी, शंख, बादल गर्जन आदि हैं। अनहद नाद, अगोचरी मुद्रा आदि की सहायता से आसानी से सुनाई देता है। इनके अतिरिक्त सोऽहंग, हंग, छंग, रंरंकार, निरंजन, ॐकार आदि ध्वनि भी हैं। चेतन बीज-समाधि से ब्रह्म-शब्द सुनाई देता है। इसके बाद शक्ति-शब्द तथा सबसे बाद सार-शब्द है।
ये गुप्त हैं। पात्र साधक होने पर प्राकटय कराया जाता है। (राम धुन)

शब्द शब्द सब कोइ कहे, वो है शब्द विदेह।
जिह्वा पर आवै नहीं, निरख-परख कर लेह॥

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326