30 अक्तूबर 2011

अजीवोगरीब प्रेत संस्कार

ये इत्तफ़ाक की ही बात है कि मैं " अँधेरा " कहानी में एक पूर्व जन्म के संस्कार से जुङी प्रेत बाधा पर लिखता हूँ । और इसके दोनों पक्षों पर स्थिति को स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ । यानी ये संस्कार जस्सी की तरफ़ से क्रियाशील होता है । या फ़िर इस संस्कार से जुङे दूसरे पात्रों से ।
लेकिन अँधेरा लिखने से पूर्व ही इसी ब्लाग पर ठीक इसी तरह के दो केस प्रकट आ चुके हैं । एक कोलकाता के मनोज कुमार जी का । और दूसरा एक लङके का । मनोज कुमार को अधिकांश नींद में एक दृश्य दबाब की स्थिति बनती है । फ़िर एक ताकतवर इंसान विभिन्न परिस्थितियों के साथ किसी को बेतरह सताता नजर आता है । और मनोज उससे लङते हैं । और अंत में घबराकर पसीना पसीना हुये लगभग चीखते हुये जाग जाते हैं । और ये एक ही घटना बहुत बार होती है । दूसरा एक लङके को छिपकलियों से नफ़रत । और अक्सर स्वप्न में उसे छिपकलियाँ बहुभांति परेशान करती हैं ।
ये दोनों परिस्थितियाँ स्वप्न जैसी प्रतीत होती हैं । एक ऐसा  स्वप्न । जो आम स्वप्नों की तुलना में बेहद स्पष्ट दिखने वाला और वास्तविकता के बेहद नजदीक था । और कभी की कहीं की अज्ञात अदृश्य भूमि की हकीकत लगता है । यहीं प्रेत संस्कार हैं । फ़िर अभी अभी मेरे पास मेरे मण्डल से जुङे एक व्यक्ति का फ़ोन आता है । इनका परिचय खोलना उचित नहीं । एक लङकी है । अभी 14 साल की उमृ है । 5 साल की उमृ से अब तक । उसे लगातार हर 6-7 दिन में एक अजीब सी घटना घटती है । जो यही समझ से बाहर है कि - आखिर ये है क्या ?
लङकी को रात में सोते सोते अचानक मिर्गी या दौरा जैसी स्थिति बन जाती है । पर एक आम इंसान भी ऐसे रोग

और उनके लक्षण समझता हैं । इसलिये ये मिर्गी या दौरा या इनके समान अन्य कोई रोग नहीं है । ये पूरा मामला ही अलग है । और गौर से समझने लायक है । लङकी के घरवालों के अनुसार उसके चेहरे और शरीर में एक भयानकता प्रकट होती है । कुछ ऐसा । जो उसे देखने वाले के अन्दर भी डर पैदा कर देता है । यहाँ ध्यान दें । उसके चेहरे पर डरने या सहमने के भाव नहीं बनते । बल्कि वह उल्टे खुद भयानक हो उठती है । उतने समय की उसकी तमाम हरकतें अजीव और डर पैदा करने वाली हैं । पर वे लोग कुछ नहीं कर पाते । फ़िर लङकी कुछ समय बाद धीरे धीरे सामान्य हो जाती है । सुबह उसे कुछ भी मालूम नहीं है । बल्कि उसके साथ रात में ऐसा कुछ हुआ था । इसका भी उसे दूर दूर तक कोई पता नहीं है । और इस बाधा के चलते उस खास समय को छोङकर उसे अब तक कोई भी कैसी भी अन्य परेशानी भी नहीं हुयी ।
फ़ोन सुबह 10 बजे आया है । मैं कहता हूँ - कल लङकी से बात कराईये ।.. अभी कर लो । वह मेरे पास ही बैठी है । लेकिन वह उस बारे में कुछ भी नहीं बता पायेगी । उसे कुछ भी मालूम ही नहीं है ।
मैं कहता हूँ - मुझे उससे कुछ पूछना भी नहीं है । बस सामान्य बात ही करनी है । केवल औपचारिक हाय हल्लो जैसा ।
इसी ब्लाग के जरिये मेरे पास एक और शिकायत भी आती है । एक आदमी हाल ही में मर गया है । वह शिकायत कर्ता को दो रात से निरन्तर दिखाई दे रहा है । पर स्वप्न में नहीं । कुछ अलग ढंग से । मैं पूछता भी नहीं । पर शिकायत कर्ता बताता है । वह कैसा है ? उसकी आँखें स्टिल है । पर वह घूरकर देखता है । आगे जो भी वर्णन है । वह सटीक प्रेतों के सूक्ष्म शरीर का है । शिकायत कर्ता बेहद टेंशन में है । क्या वह प्रेतयोनि में चला गया है ? अगर 


चला भी गया है । तो उसका मुझसे क्या वास्ता । मुझसे क्या चाहता है । मुझे क्यों दिखाई देता है ? राजीव जी ! मुझे क्या करना चाहिये । मैं बेहद टेंशन में हूँ ।
- आप कुछ कर भी नहीं सकते । पर अब नहीं दिखाई देगा । 1% दिखाई दे भी । आप उसी वक्त मुझसे ध्यान जोङना । यही उपाय मैं मनोज जी को बताता हूँ । आप शाम को ध्यान का अभ्यास करते हैं । उस वक्त कुछ दिनों इसी भावना के साथ ध्यान मुझसे जोङें । जो कि एन बाधा के समय स्वाभाविक ही आसानी से मुझसे ध्यान जुङ जाये । इन दोनों लोगों की समस्या खत्म हो जाती है । अब नहीं दिखाई दिया । अव वैसा नहीं होता । ये कैसे हुआ ?
दूसरे दिन फ़िर फ़ोन आता है - लङकी से बात कराऊँ ।
- नहीं । कोई आवश्यकता नहीं । कोई बङा मामला नहीं है । सिर्फ़ एक बङा संस्कार है । जो जटिलता से मजबूती से प्रबल हो उठता है । अब मैं द्वैत के उपचार नहीं कर सकता । वैसे अब ये उतनी प्रबलता से नहीं होगा । भूत पिशाच निकट नहिं आवे । महावीर जब नाम सुनावे । हनुमान जी जिस निर्वाणी नाम को जपते हैं । वही नाम आपके द्वारा लेने पर यह समस्या जङ से कट जायेगी । कितना भी मजबूत अङियल संस्कार हो । उसे जलना ही होगा । पीङिता के सम्बन्धी सहमत हो जाते हैं । फ़िर भी मैं कहता हूँ - जब तक हँसदीक्षा नहीं होती । यदि ऐसा कोई अटैक हो । आप उसके ठीक अगली सुबह मुझसे बात कराना । क्योंकि ये सुरक्षा अस्थायी है । ये दवा नहीं है । ये सिर्फ़ प्रतिरोधक है । रोग को समूल नष्ट करने के लिये दवा खाना और इलाज कराना दोनों आवश्यक है ।
दो और विलक्षण मामले मेरी जानकारी में अनुभव में आये । एक मेरे परिचय में ही 10 साल की लङकी थी । ये नींद में चलती थी । इसे दो बार मैंने स्वयँ देखा है । एक बार अधिक देर तक । एक बार कुछ ही मिनट तक । वो भी दीपावली के एक दिन पूर्व का समय था । मैं छत पर था । लङकी आराम से चलती हुयी मेरे पास आकर खङी हो 


गयी । पर उसकी आँखें सामान्य नहीं थी । वे घूरती सी लग रही थी । और अपलक थी । मेरे लिये यह बङी हैरानी की बात थी । वह बहुत कम शब्द एक फ़िक्स स्लो वाल्यूम पर बोलती है । और एकदम सीध में 180 अँश लाइन पर ही देखती है । मुझे नहीं पता है । यह नींद में है । मैं उससे सामान्य बात करता हूँ । पर वह न सुनती है । और न उत्तर देती है । वह सिर्फ़ जो खुद बोलना चाहती है । वही बोलती है । तब मुझे कुछ अजीव सा अहसास होता है । दूसरी बार में वह मेरे सामने से किसी रोबोट के अन्दाज में विचित्र चाल से गुजर जाती है । मुझे तब भी नहीं पता था । ये नींद में है । इत्तफ़ाकन मैं उसे आवाज देता हूँ । पर वह नहीं सुनती है । ये मेरे लिये एक अजीव अलौकिक अनुभव के समान है । मैं सोचता हूँ । इस तरह इसके साथ कोई हादसा भी हो सकता है । ये चलते चलते छत से गिर सकती है । दूसरी अन्य बहुत सी घटनायें हो सकती हैं ।
- पर सामान्यतयाः ऐसा होता नहीं है । डाक्टर बताते हैं - वह सीङिया चङते समय भी सामान्य और सधे अन्दाज में पाँव रखेगी । उसका शरीरी गतिविधि को लेकर व्यवहार सामान्य ही होगा । इसकी दवाईयाँ हैं ।
बङा अजीव रोग है । मैं सोचता हूँ । अब से करीब 7 साल पहले । मेरा एक साधारण मित्र उमृ 26 साल भी कुछ ऐसी ही बात कहता है । वह सोते सोते उठकर बैठ जाता है । पर वास्तव में वह नींद में है । और पूरी तरह सो रहा है । तब वह अपना दुकान का हिसाब किताब लगाने लगता है । रुपये गिनता है । और रात के सन्नाटे में घर में प्रेत के समान विचरण करता है । अन्य कार्य करने लगता है । क्योंकि वह धीरे ही सही कुछ बोलता है । बङबङाता है । तब एक दिन उसके घरवालों को पता चल ही जाता है । फ़िर उसका भी महँगा इलाज होता है ।
डाक्टरों के पास एक ही इलाज है । और ऐसे सभी केसों का लगभग एक ही इलाज है । जो पागलपन का इलाज है । मानसिक उत्तेजना को उसकी विभिन्न औषधियों द्वारा सामान्य निष्क्रिय और बेहद निर्बल कर देना ।


कुछ और समय लगभग 13 साल पहले । एक और अजीव सा केस देखता हूँ । ये एक विधवा 27 साल थी । इसका एक बच्चा है । जो पति के मरने के बाद पैदा हुआ है । पति सरकारी नौकरी में था । और अब वह मृतक आश्रित नियम अनुसार चपरासी की नौकरी कर रही थी । इसके उठने बैठने में अजीव सी कामुकता झलकती है । खास ये अपने दोनों पैरों के बीच दो फ़ुट का फ़ासला करके ही बैठती है । और ठीक उसी अन्दाज में बैठती है । जिस तरह 7-8 महीने के बढे प्रसवकाल में औरत बैठती है । इसको देखकर कोई भी इसके अन्दर मचलती काम लहरों को सहज ही महसूस कर सकता है । जो उसके विधवा हो जाने से स्वाभाविक ही है । कामुक चाहत इस पर इस कदर हावी है कि 5-6 औरतों के मध्य बैठे हुये या किसी कार्यकृम में बैठे हुये भी ये माहौल को भूल जाती है । और किसी पुरुष की तरफ़ देखते हुये ऐसे हाव भाव प्रकट करने लगती है । मानों उस समय अकेली हो ।
ये मेरे परिचित के यहाँ किरायेदार है । वह बहु स्त्री भोगी है । मैं उससे इस बारे में बात करता हूँ - तुम्हें इसकी भी हेल्प करनी चाहिये । दूसरों की अपेक्षा उसे अधिक आवश्यकता है । तब जबकि तुम ऐसा करते भी हो ।
- जानोगे । तो घिन आयेगी । वह अजीव से घृणित अन्दाज में कहता है - इसकी योनि बाहर निकल आती है । उसने मेरी पत्नी को । और मेरी पत्नी ने मुझे बताया । पति के मरते समय यह गर्भवती थी । और प्रेगनेंसी के दौरान तनावयुक्त स्थिति में बहुत रोती रही है । उस समय पैसे की बहुत कमी थी । देहात में थी । फ़िर बच्चा भी

देहाती व्यवस्था में हुआ । उसी समय से योनि की आंतरिक माँसपेशियाँ अत्यन्त ढीली हो गयी । इतनी कि शायद वह हस्तमैथुन से भी खुद को सन्तुष्ट नहीं कर सकती । बल्कि सोच भी नहीं सकती । वह अब माँस का फ़ैला हुआ बेहद शिथिल लिबलिबा लोथङा सा है ।
बात संवेदना जाहिर करने की है । अफ़सोस करने की है । पर मानवीय स्वभाववश मुझे हँसी आ जाती है । उसे भी आती है । दोनों की हँसी देर तक रुकती ही नहीं । मुझे यह देखने की स्वाभाविक बेहद इच्छा होती है । पर ऐसा संभव ही नहीं है । और इसके लिये बहुत कोशिश मुझे करनी नहीं हैं ।
- वह सिर्फ़ ऊपरी बाह्य काम व्यवहार के साथी की इच्छुक है । वह बताता है - जिसमें उस अंग को छोङकर प्रयोग हो । और वह साथी मर्द से अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सके । अब उसके पास पैसा भी है । पर अभी देहात से नया नया शहर में आयी है । इसलिये खुली नहीं है । कोई न कोई मिल ही जायेगा । आप उसकी फ़िक्र न करो । वैश्या पुरुष भी बहुत होते हैं इस समाज में । और इस तरह की चाहत वाले भी ।
- आप औरतों को मेरे जितना नहीं समझ सकते । वह आगे की बातचीत में समाज का आइना दिखाता है - एक औरत को जानता हूँ । उसका पति बेहद शंकालु है । इतना कि हँसी आती है । वह कुछ घण्टों के लिये भी उससे दूर रहे । और फ़िर वापिसी में तुरन्त किसी डाक्टर की तरह उसे लिटाकर वह उसका गहन चेकअप करता है कि इसने किसी के साथ इतने बीच में सेक्स तो नहीं कर लिया । और भाई साहब ! उसका शंकालु होना एकदम उचित है । उसे इसका डबल शंकालु होना चाहिये । पर वह कोई झण्डे नहीं उखाङ पाता । उसकी औरत थोङा ही मौका मिलने पर इच्छा होते ही सेक्स कर लेती है ।
मुझे सभ्य समाज की इस असभ्य असामाजिक बात पर बीच में ही तेज हँसी आती है । वह भी जबरदस्त हँसता है । विचित्र दुनियाँ । विचित्र लोग । विचित्र व्यवहार । हँसी देर तक नहीं रुकती । अब मुझे जिज्ञासा है कि इतने

सख्त नियन्त्रण के बाद जब वह उसका अंग ही चेक कर लेता है । वह ऐसा कैसे कर लेती है ?
- उसकी इच्छायें है । बह बताता है - दो प्रबल इच्छाय़े । उन्मुक्त बहु कामभोग की इच्छा । और खूब पैसे खर्च करने की इच्छा । इन दोनों को ही लेकर वह पति से सन्तुष्ट नहीं हो पाती । पति कभी कभार सामान्य सेक्स करता है । और उसे सन्तुष्ट नहीं कर पाता । खर्चे के लिये पैसे तो देता ही नहीं है । वह गधा नहीं जानता । औरत को रोटी से भी अधिक इन्ही चीजों की जरूरत है । वह इन पर खास मरती है । और ये सिर्फ़ उसकी नहीं । ज्यादातर औरतों की इच्छा होती है ।
तब वह ऊपर वाली औरत का फ़ार्मूला अपनाती है । और पार्ट टाइम सेक्स वर्कर का काम करती है । देहात में रहती है । और लगभग रोजाना बाजार करने निकट के शहर में जाती है । उसकी शर्त रहती है । मुख्य दो अंग को छोङकर चाहे जो व्यवहार करो । उसकी पूर्ति वह मुख से कर देती है । और भाईसाहब ! एडस आदि के चलते ऐसा चाहने वालों की भी कोई कमी नहीं है ।
उदाहरण लाखों हो सकते हैं । उनके कामना प्रकार करोङों हो सकते हैं । पर उनके मूल में एक ही बात कामन है । कोई छिपी हुयी अतृप्त चाहना । इसी चाहना के % पर संस्कार बनता है । % जितना अधिक होगा । क्रिया प्रतिक्रिया का निर्माण भी उसी अनुपात में होगा । न तो उससे कम । न तो उससे ज्यादा । इसी जन्म में इसी जन्म के बने संस्कार प्रेतक प्रभाव कम ही दिखाते हैं । बहुत अधिक इच्छा दमन पर ये हिस्टीरिया टायप अनुभव में आते हैं । पर यही जीवन भर दमित रहने पर अगले जन्मों के लिये प्रेत संस्कार बन जाते हैं । और  तब समय आने पर पूर्व जन्म के संस्कार उखङने लगते हैं । उभरने लगते हैं । इलाज एक ही है । संस्कार को जलाना । या उसे पूरा करके भोगना ।
बात अभी खत्म नहीं हुयी । पर अभी बीच में ही खत्म करनी पङ रही है । ऐसी ही महत्वपूर्ण जीवन से जुङी बातों पर आगे भी चर्चा होगी । तब तक करते रहिये - सत्यकीखोज ।
आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।

26 अक्तूबर 2011

मेरा अहंकार भी शांत हो गया

कबीरदास के पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था । कमाली जब 16- 17 वर्ष की थी । तबकी 1 घटना है । कमाली सदैव प्रसन्न रहती थी । उसका स्वभाव मधुर और बोलचाल इतनी पवित्र थी कि कोई ब्राह्मण सोच भी नहीं सकता था कि वह बुनकर है । उसकी निगाहें नासाग्र रहती । वह इधर उधर नहीं देखती थी ।  कबीर की छत्रछाया में रहने से उसका जीवन बड़ा आभा सम्पन्न, प्रभाव सम्पन्न था । 1 बार कमाली पनघट पर पानी भरने गयी । कुएँ से गागर भरकर ज्यों ही बाहर निकली । इतने में 1 ब्राह्मण आया । और बोला - मैं बहुत प्यासा हूँ । कमाली ने गागर दे दी । वह ब्राह्मण गागर का काफी पानी पी गया । और लम्बी साँस ली ।
कमाली ने पूछा - भाई ! इतना सारा पानी पी गये । क्या बात है ?
ब्राह्मण ने कहा - मैं कश्मीर गया था । पढ़ने के लिए । अब पढ़ाई पूरी हो गयी । तो अपने घर जा रहा था । रास्ते में कहीं पानी मिला नहीं । सुबह का प्यासा था । पानी नहीं मानो यह तो अमृत था । बहुत देर के बाद मिला है । तो इसकी कद्र हो रही है । अच्छा तुम कौन सी जाति की हो ? 
कमाली बोली - कमाल है ! पानी पीने के बाद जाति पूछते हो ? ब्राह्मण ! पहले जाति पूछते ।
ब्राह्मण ने कहा - मैं तो समझा तुम ब्राह्मण की कन्या होगी । और फिर जल्दबाजी में मैंने पूछा नहीं । प्यास बहुत जोरों की लगी थी । बताओ । जाति की कौन हो तुम ?
कमाली बोली - हमारे पिता संत कबीर जी ताना बुनी करते हैं । हम जाति के बुनकर हैं ।
उस विद्वान का नाम था - हरदेव पंडित । बुनकर सुनते ही वह आग बबूला हो गया ।  बोला - कबीर तो ब्राह्मणों को धर्म भ्रष्ट करते हैं । और तुम भी उसमें सहयोगी हो । मुझे तो तू ब्राह्मण कन्या लगती थी । तूने मुझे पानी देने के पहले क्यों नहीं बताया कि हम बुनकर हैं ?
कमाली बोली - ब्राह्मण ! तुमने पूछा ही नहीं । और मैंने धर्म भ्रष्ट करने के लिए तुमको पानी नहीं पिलाया है । मैंने तो देखा कोई प्यासा पथिक जा रहा है । और पानी माँगता है । इसलिए पानी पिलाया है । तुमने पानी जैसी चीज माँगी । तो मैं ना कैसे करती ? क्यों तुम्हें जाति पांत के चक्कर में डालूँ ? मैंने तो देखा । पथिक प्यासा है । वैसे तो करोड़ों करोड़ों लोग प्यासे ही हैं । उनकी प्यास तो मेरे पिता ही बुझा सकते हैं । लेकिन तुम्हारे जैसे पथिक, जिसकी प्यास पानी से बुझती है । उसकी प्यास तो मैं भी बुझा सकती हूँ । जिसकी प्यास आत्म परमात्म अनुसंधान से बुझती है । उसकी प्यास तो मेरे पिता बुझा सकते हैं ।
ब्राह्मण ने कहा - वाह ! जैसा तेरा बाप चतुर है बात करने में । वैसी तू भी चतुर है । अपनी जाति नहीं बतायी । और लगी है ज्ञान छाँटने ।
कमाली बोली - पंडित जी ! ज्ञान के बिना तो जीवन खोखला है । ज्ञान तो पानी भरते समय भी चाहिए । रोटी बनाते समय और चलते समय भी चाहिए । कश्मीर के विद्वानों के पास उचित विद्या है । यह ज्ञान था । तभी तो तुम पढ़ने गये । पढ़ाई पूरी हुई । यह ज्ञान हुआ । तभी अपने वतन में आये हो । प्यास का ज्ञान हुआ । तभी तुमने पानी माँगा । ज्ञान तो सतत चाहिए । लेकिन वह ज्ञान अज्ञान संयुक्त शरीर को पोसने में लगता है । इसलिए दुःखकारी हो जाता है । यदि वह ज्ञान स्वरूप आत्मा के अनुसंधान में आकर फिर संसार का व्यवहार करता है । तो पूजनीय हो जाता है । वंदनीय हो जाता है । 
हरदेव पंडित ने सोचा कि मैं कश्मीर से पढ़कर आया । और यह जुलाहे की लड़की मुझे ज्ञान दे रही है । वह बोला - चुप रह । ब्राह्मणों को ज्ञान छाँटती है । 
कमाली बोली - पंडित जी ! ब्राह्मण कौन । और बुनकर कौन ?
ब्राह्मण ने कहा - जो जुलाहे लोग हैं । वे बुनकर होते हैं । और जो ब्राह्मण के कुल में जन्म लेते हैं । वे ब्राह्मण होते हैं ।
कमाली बोली - नहीं पंडित जी ! जो ब्रह्म को जानता है । वह ब्राह्मण होता है । और जो राग द्वेष में झूलता रहता है । वह जुलाहा होता है ।
ब्राह्मण ने कहा - तुम्हारे पिता भी ब्राह्मणों के विरुद्ध बोलते हैं । पंडित बदे सो झूठा । और तुमने हमारे साथ ऐसा किया । लेकिन लड़कियों से मुँह लगना ठीक नहीं । चलो तुम्हारे पिता के पास । वहीं खुलासा होगा ।
कमाली बोली - हाँ, चलिये पिताजी के पास ।
कबीर तो अपने सतत स्वरूप में रमण करने वाले थे । उन्होंने देखा कि कमाली के साथ कोई पंडित चेहरे पर रोष लिये आ रहा है । कबीर ने अपने स्वरूप आत्मदेव में गोता मारा । और पूरी बात जान ली । 
ब्राह्मण बोला - तुम्हारी लड़की ने मेरा ब्राह्मणत्व नाश कर दिया । मुझे अशुद्ध पानी पिलाकर अशुद्ध कर दिया ।
कबीर हँसने लगे । बोले - पंडित ! पानी इसके घड़े में आने से अशुद्ध हो गया । लेकिन कुएँ के अंदर क्या क्या होता है ? उसमें जो मछलियाँ रहती हैं । उनका मल मूत्र आदि उसी में होता है । कछुए आदि और भी जीव जंतु रहते हैं । उनका पसीना, लार, थूक, मैला, उनके जन्म और मृत्यु के वक्त की सारी क्रियाएँ सब पानी में ही होती हैं । घड़ा जिस मिट्टी से बना है । उसमें भी कई मुर्दों की मिट्टी मिली होती है । कई जीव जंतु मरते हैं । तो उसी मिट्टी में मिल जाते हैं । उसी मिट्टी से घड़े बनते हैं । फिर चाहे वह घड़ा ब्राह्मण के घर पहुँच जाय । चाहे बुनकर के घर । पृथ्वी पर अनंत बार जीव आये । और मरे । ऐसी कौन सी मिट्टी होगी । ऐसा कौन सा 1 कण होगा । जिसमे मुर्दे का अंश न हो ? पंडित ! कुआँ तो गाँव का है । उसमें से तो सभी लोग पानी भरते हैं । कई बुनकरों के घड़े, मटके, सुराहियाँ उसमें पड़ती होंगी । बुनकर के हाथ की रस्सियाँ भी पड़ती होंगी । उसी कुएँ से गाँव के सभी ब्राह्मण पानी भरते हैं । और तुम पवित्रता अपवित्रता का विचार करते हो । तो अपवित्र विचार यही है कि यह बुनकर है । शूद्र वह है । जो हाड़ मांस की देह को " मैं " मानता है । और ब्राह्मण वह है । जो ब्रह्म को जानता है । अथवा जानने के रास्ते चलता है ।
कबीर की युक्ति युक्त बात से पंडित बड़ा प्रभावित हुआ । कबीर के दिल में सतत स्वरूप का अनुसंधान था । वे घृणा, अहंकार से नहीं, नीचा दिखाने के लिए नहीं । बल्कि उसका अज्ञान, अशांति मिटाकर उसको शांति का दान देने के लिए बोल रहे थे । पंडित का गुस्सा शांत हुआ । 
कमाली को पंडित ने साधुवाद दिया । और कहा - हे देवी ! मैं कृतार्थ हो गया । आज मेरी विद्या सफल हुई कि मैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता के चरणों में पहुँचा । तुम्हारे पवित्र हाथों से पानी पीकर मेरा अहंकार भी शांत हो गया । मेरी बेवकूफी भी दूर हो गयी । अब मैं भी आप लोगों के रास्ते चलूँगा ।  
जो देह को मैं मानते हैं । वे भगवान के मंदिर में रहते हुए भी भगवान से दूर हैं । और जो भगवान के स्वरूप का चिंतन करते हैं । वे बाजार में रहते हुए भी मंदिर में हैं ।
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अष्टावक्र कह रहे हैं - परमज्ञान की अवस्था है । जब तुम्हें सिर्फ अपने में ही वेद का अनुभव हो । बाहर के सब वेदों से मुक्ति - निर्वेद ।
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तुम्हारे जीवन में जो भी महत्वपूर्ण घटेगा - अयाचित घटेगा । और नहीं घट रहा है । क्योंकि तुम याचना से भरे हो । तुम्हारी याचना ही अवरोध बन रही है । मांगो मत । अगर चाहते हो । तो मांगो मत । अगर चाहते हो । तो चाहो मत । होगा । अपने से हो जाता है । यह तुम्हीं थोड़े ही परमात्मा को तलाश रहे हो । परमात्मा भी तुम्हें तलाश रहा है । अगर तुम्हीं तलाश रहे होते । तो खोजना मुश्किल था । अगर वह छिप रहा होता । तो खोजना मुश्किल था । कैसे तुम तलाशते ? कुछ पता ठिकाना भी तो नहीं उसका । वह भी तुम्हें तलाश रहा है । उसके भी अदृश्य हाथ तुम्हारे आसपास आते हैं । मगर तुम्हें मौजूद ही नहीं पाते । तुम कुछ और ही खोज में निकल गए हो ।
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तुम बहते जाना, बहते जाना, बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।

तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई ।
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध से सूरज, चांद, सितारे ।
गल रही बरफ, चल रही हवा, जब रहे यहां अंगारे ।
है आना जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई ।
कब रुकने पाये झुकने वाले जीवन पर बेचारे ?
तुम किस पर खुश हो गये और तुम बोलो किस पर रूठे ?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे ।
है यह कांटो की राह विवश सा सबको चलते रहना ।
जो स्वयम प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे ।
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती ।
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती ।
तुम कल बनकर रजकण पैरों से ठुकराये जाओगे ।

है कौन यहां पर ऐसा जो खा आया हो अमरौती ?
यह रंग बिरंगी उषा लिये है दुख की काली रातें ।
हैं ग्रीष्मकाल की दाहक लपटों में रस की बरसाते ।
यह बनना मिटना अमिट काल के चल चरणों का क्रम है ।
छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख दुख की बातें ।
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई ।
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई ।
हिमखण्ड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश भागी ।
मना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई ।
तुम बहते जाना, बहते जाना बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।
तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई । 

कामवासना सामाजिक घटना नहीं है

तंत्र सूत्र विधि 26 अचानक रूकने की कुछ विधियां । दूसरी विधि ।
जब कोई कामना उठे । उसे पर विमर्श करो । फिर - अचानक उसे छोड़ दो । यह पहली विधि का ही दूसरा आयाम है । जब कोई कामना उठे । उस पर विमर्श करो । अचानक, उसे छोड़ दो । तुम्हें कोई इच्छा होती है । चाहे वह कामवासना हो । चाहे प्रेम की इच्छा हो । चाहे भोजन की इच्छा हो । तुम्हें इच्छा होती है । तो उस पर विमर्श करो । जब यह सूत्र कहता है कि - विमर्श करो । तो उसका मतलब होता है कि उसके पक्ष या विपक्ष में विचार मत करो । बल्कि देखो कि - वह इच्छा क्या है ? मन में कामवासना पैदा होती है । और तुम कहते हो कि यह बुरी है । यह विमर्श करना नहीं हुआ । तुम्हें सिखाया गया है कि कामवासना बुरी है । इसीलिए उसे बुरा कहना विमर्श नहीं है । तुम शास्त्रों से पूछ रहे हो । तुम अतीत से पूछ रहे हो । तुम गुरूओ और ऋषियों से पूछ रहे हो । तुम स्वयं कामना पर विमर्श नहीं कर रहे हो । तुम किसी और चीज पर विमर्श कर रहे हो । हो सकता है । वह तुम्हारा संस्कार हो । तुम्हारे पालन पोषण की शैली हो । तुम्हारी शिक्षा हो । तुम्हारी संस्कृति हो । तुम्हारा धर्म हो । तुम उन पर विचार कर रहे हो । कामना पर विमर्श नहीं । यह सीधी सी चाह पैदा हुई है । इसमे मन को मत बीच में लाओ । अतीत को शिक्षा को । संस्कार को मत बीच में लाओ । केवल इस चाह पर विमर्श करो कि - यह क्या है ? अगर वह सब तुम्हारी खोपड़ी से बिलकुल पोंछ दिया जाए । जो तुम्हें समाज से, मां बाप से, शिक्षा और संस्कृति से मिला है । अगर तुम्हारा मन पोंछकर अलग कर दिया जाए । तो भी कामवासना पैदा होगी । क्योंकि वह वासना तुम्हें समाज से नहीं मिलती है । वह वासना जैविक है। तुम में बिल्ट है । वह तुममें ही है । उदाहरण के लिए 1 नवजात शिशु को लो । यदि उसे कोई भाषा न सिखायी जाए । तो वह भाषा नहीं जानेगा । भाषा के बिना रहेगा । भाषा 1 सामाजिक घटना है । वह सिखायी जाती है । लेकिन जब ठीक समय आएगा । तो इस बच्चे को भी कामवासना उठेगी । कामवासना सामाजिक घटना नहीं है । वह जैविक रूप से बिल्ट है । सही और प्रौढ़ क्षण आने पर वह पैदा होगी । वह आएगी । वह सामाजिक नहीं है । जैविक है । और गहरी है । वह तुम्हारी कोशिकाओं में ही बिल्ट इन है । तुम्हारा जन्म कामवासना से हुआ है । इसलिए तुम्हारे शरीर की प्रत्येक कोशिका काम कोशिका है । तुम काम कोशिकाओं से बने हो । जब तुम तुम्हारी बायोलाजी पूरी तरह न मिटा दी जाए । तब तक कामवासना रहेगी । वह आएगी ही । क्योंकि वह है ही । कामवासना बच्चे के जन्म के साथ साथ आती है । क्योंकि बच्चा मैथुन की उप-उत्पत्ति है । वह कामवासना से ही पैदा हुआ है । उसका समूचा शरीर काम कोशिकाओं से बना है । वासना मौजूद है । सिर्फ समय की जरूरत है । जब उसका शरीर प्रौढ़ होगा । तो वासना आएगी । और वह उसमें जाएगा । चाहे कोई तुम्हें सिखाये । या न सिखाये । या तुम्हें लाख कहे कि - कामवासना बुरी चीज है । वह अच्छी नहीं है । वह पाप है । वह नरक में ले जाती है । या वह ये है ? या वो है ? कामवासना सदा मौजूद रहती है । पुरानी परंपराएं पुराने धर्म खासकर ईसाईयत कामवासना के खिलाफ थी । वह उसके खिलाफ जोरदार प्रचार कर रही थी । यिप्पी या हिप्पी और अन्य संप्रदाय इसके विपरीत आंदोलन चला रहे हैं । वे कहते है कि - कामवासना शुभ है कि कामवासना में परम सुख है । वे कहते है कि संसार में कामवासना ही असली चीज है । उसे अशुभ कहो । या शुभ । दोनों ही सिखावन हैं । किसी सिखावन के मुताबिक अपनी चाह का विचार मत करो । कामना पर, उसकी शुद्धि में, वह जैसी है । 1 तथ्य की तरह विमर्श करो । उसकी व्याख्या मत करो । यहां विमर्श का मतलब व्याख्या नहीं है । तथ्य को तथ्य की तरह देखना है । चाह है । उसे सीधा और प्रत्यक्ष देखो । विचारों और धारणाओं को बीच में मत लो । कोई विचार तुम्हारा नहीं है । कोई धारणा तुम्हारी नहीं है । हर चीज तुम्हें दी गई है । हर धारणा उधार है । कोई विचार मौलिक नहीं है । कोई विचार मौलिक नहीं हो सकता । इसलिए विचार को बीच में मत लो । सिर्फ कामना को देखो कि - वह क्या है ? ऐसे देखो जैसे कि तुम्हें उसके संबंध में कुछ भी पता नहीं है । उसका साक्षात्कार करो । विमर्श का अर्थ यही है ।
जब कोई कामना उठे । उस पर विमर्श करो । उसे तथ्य की तरह देखा । देखो कि - यह क्या है ? दुर्भाग्य से यह सर्वाधिक कठिन कामों में से 1 है । इसके मुकाबले चाँद पर जाना कठिन नहीं है । गौरी शंकर पर पहुंचना कठिन नहीं है । चाँद पर पहुंचना बहुत जटिल है । अत्यंत जटिल । लेकिन आंतरिक मन के किसी तथ्य के साथ जीने की बात के सामने चाँद पर पहुंचना कुछ भी नहीं है । क्योंकि तुम जो भी करते हो । उसमें मन बहुत सूक्ष्म रूप से संलग्न रहता है । मन उसमें सदा समाया रहता है । उलझा रहता है । इस शब्द को देखो । ज्यों ही मैंने
कहां कि कामवासना या संभोग कि तुम तुरंत उसके पक्ष या विपक्ष में कुछ निर्णय लेते हो । जिस क्षण मैंने कहां संभोग कि तुमने व्याख्या कर ली । तुम कहते हो - यह भला है । या वह बुरा है । तुम शब्द की भी व्याख्या कर लेते हो । जब " संभोग से समाधि की और " पुस्तक प्रकाशित हुई । तो बहुत से लोग मेरे पास आए । उन्होंने कहा कि कृपा कर यह नाम " संभोग से समाधि की और " बदल दीजिए । संभोग शब्द से उन्हें घबड़ाहट होती है । उन्होंने किताब भी नहीं पढ़ी । और वे भी नाम बदलने को कहते है । जिन्होंने किताब नहीं पढ़ी । वे भी क्यों ? यह शब्द ही तुम्हारे भीतर व्याख्या को जन्म देता है । मन ऐसा व्याख्याकार है कि अगर मैंने कहा कि नींबू का रस तो तुम्हारी लार टपकने लगती है । तुमने शब्दों की व्याख्या कर ली । नींबू का रस । इन शब्दों में नींबू जैसी कोई चीज नहीं है । लेकिन तुम्हारे मुंह में खट्टापन भर जायेगा । मन ने व्याख्या कर ली । मन बीच में आ गया । फिर अचानक, उसे छोड़ दो । इस विधि के 2 हिस्से हैं । पहला कि तथ्य के साथ रहो । जो हो रहा है । उसके प्रति सजग रहो । अवधान पूर्ण रहो । देखो कि जब कामवासना पकड़ती है । तो तुम्हारे भीतर क्या क्या घटित होता है । तुम्हारा शरीर ज्वर ग्रस्त हो जाता है । कांपने लगता है । तुम्हें लगता है कि तुम किसी से आविष्ट हो । इसका अनुभव करो । इस पर विमर्श करो । कोई निर्णय न लो । सीधे तथ्य में प्रवेश करो । यह मत कहो कि - यह बुरा है । अगर बुरा कहा । तो विमर्श समाप्त हो गया । तुमने द्वार बंद कर दिया । अब कामवासना की और तुम्हारी पीठ है । मुंह नहीं । तुम उससे दूर सरक गए । ऐसे तुमने 1 गहरा और कीमती क्षण गंवा दिया । जिसमें तुम अपने जीवन की 1 जैविक पर्त का दर्शन कर सकते थे । तुम अभी जिस पर्त से परिचित हो । वह सामाजिक पर्त है । और तुम उससे ही चिपके हो । वह सतही है ।
कामवासना तुम्हारे शास्त्रों से गहरी है । क्योंकि वह जैविक है । अगर सभी शास्त्र नष्ट कर दिए जाएं । ऐसा हो सकता है । ऐसा कई बार हुआ है । तो तुम्हारी व्याख्या खो जाएगी । लेकिन कामवासना तब भी रहेगी । वह ज्यादा गहरी है । सतही चीजों को बीच में मत लाओ । तथ्य पर अवधान दो । उसमे प्रवेश करो । और देखो कि तुम्हें क्या हो रहा है । किसी ऋषि विशेष को, मोहम्मद को, महावीर को क्या हुआ । वह प्रासंगिक नहीं है । इस क्षण तुम्हें क्या हो रहा है । इस जीवंत क्षण में जो हो रहा है । वह प्रासंगिक है । उस पर विमर्श करो । उसका ही निरीक्षण करो ।
और अब दूसरा हिस्सा । यह सचमुच अदभुत है । शिव कहते हैं - फिर, अचानक छोड़ दो । यहां " अचानक " को याद रखो । यह मत कहो कि यह खराब है । इसलिए छोड़ रहा हूं । यह मत कहो कि यह खराब है । इसलिए इसे नहीं रखूंगा । यह मत कहो कि यह बुरा है । यह पाप है । इसलिए इसके साथ गति नहीं करूंगा । मैं इसे त्याग दूँगा । मैं इसका दमन कर दूँगा । तब तो दमन घटित होगा । ध्यान नहीं । और दमन अपने ही हाथों अपना 1 भ्रमित चित निर्मित करना है । दमन मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है । उसके द्वारा तुम समूचे यंत्र को उपद्रव में डाल रहे हो । उन ऊर्जाओं को दबा रहे हो । जो किसी ने किसी दिन फ़ूट कर बाहर आएँगी । ऊर्जा तो है ही । सिर्फ दमित हो गई है । न इसे बाहर जाने दिया गया है । और न भीतर । उसे सिर्फ दमित कर दिया गया है । वह कोने कातर में छिप गई है । जहां वह पड़ी रहेगी । और विकृत होगी । और स्मरण रहे - विकृत ऊर्जा ही मनुष्य की बुनियादी समस्या है । जो मानसिक रूग्णताएं हैं । वे विकृत ऊर्जा की उप-उत्पत्ति हैं । तब वह ऊर्जा ऐसे ढंगों में अभिव्यक्त होगी । जिसकी कोई कल्पना नहीं हो सकती है । और इन विकृतियां में भी वह फिर अपने को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करेगी । और जब वह विकृत रूप में अभिव्यक्ति होती है । तो बहुत दुःख और संताप लाती है । विकृत ऊर्जा की अभिव्यक्ति से संतुष्टि नहीं मिलती है । और अड़चन यह है कि तुम विकृत नहीं रह सकते । तुम्हें विकृति को अभिव्यक्ति देना होगी । दमन विकृति पैदा करता है । इस सूत्र का दमन से कुछ लेना देना नहीं है । यह सूत्र यह नहीं कहता कि - नियंत्रण करो । यह सूत्र दमन की बात ही नहीं करता है । यह सूत्र कहता है - अचानक, छोड़ दो । तो क्या किया जाए ? कामना है । कामना पर तुमने विमर्श किया है । अगर कामना पर तुमने विमर्श किया है । तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा । तब यह आसान होगा । यदि विमर्श नहीं किया है । तो तुम्हारे मन में विचार चलते रहेंगे । मन कहेगा - यह अच्छा है कि कामवासना को हम अचानक छोड़ दें ।
तुम छोड़ना चाहोगे । लेकिन यह सवाल नहीं है । यह पसंद तुम्हारी न होकर समाज की हो सकती है । यह पसंद तुम्हारा विमर्श न होकर मात्र परंपरा हो सकती है । इसलिए विमर्श करो । पसंद या गैर पसंद की बात मत उठाओ । केवल विमर्श करो । और तब तुम्हारा हिस्सा आसान हो जाएगा । तब तुम कामना को छोड़ सकते हो । कैसे छोड़ सकते हो । जब किसी चीज पर तुम ने समग्र रूपेण विमर्श किया है । तो उसे छोड़ना बहुत आसान हो जाता है । वह इतना ही आसान है । जितना मेरे लिए इस कागज़ हो गिराना । इसे छोड़ दो । क्या होगा ? कामना है । उसे तुमने दबाया नहीं है । कामना है । और वह बाहर जाना चाहती है । वह उठ रही है । और तुम्हारे पूरे अस्तित्व को उद्वेलित कर दिया है ।
सच तो यह है कि जब तुम किसी कामना पर बिना किसी व्याख्या के विचार करोगे । तो तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही कामना बन जाएगा । समझो कि कामवासना है । और तुम उसके पक्ष या विपक्ष में नहीं हो । उसके संबंध में तुम्हारी कोई धारणा नहीं है । तुम सिर्फ उसे देख रहे हो । तो इस देखने भर से तुम्हारा पूरा अस्तित्व उस कामना में संलग्न हो जाएगा । 1 अकेली कामवासना आग की लपट बन जाएगी । उसमें तुम्हारा अस्तित्व जलने लगेगा । मानो कि तुम समग्र रूपेण कामुक हो उठे हो । तब कामवासना काम केंद्र पर ही सीमित नहीं रहेगी । वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगी । तुम्हारे शरीर का 1-1 तंतु कांपने लगेगा । कामना अंगारा बन जाएगी । तब उसे छोड़ दो । उससे अचानक हट जाओ । उससे लड़ों मत । इतना ही कहो कि - मैं छोड़ता हूं । तब क्या होगा । ज्यों ही तुम कहते हो कि मैं छोड़ता हूं । 1 अलगाव घटित होता है । तुम्हारा शरीर कामात्तप्त शरीर और तुम 2 हो जाते हो । अचानक 1 क्षण को भीतर उनके बीच जमीन आसमान की दूरी पैदा हो गई । शरीर तो आवेग में, कामवासना से उद्वेलित है । और केंद्र शांत है । मात्र देख रहा है । स्मरण रहे । वहां कोई संघर्ष नहीं है । सिर्फ अलगाव है । संघर्ष । तुम अलग नहीं होते । जब तुम लड़ते हो । तुम लड़ाई के विषय के साथ 1 होते हो । तुम जब मात्र छोड़ देते हो । तब तुम अलग होते हो । तब तुम इसे देख सकते हो । मानो तुम नहीं दूसरा देख रहा है । मेरे 1 मित्र बहुत वर्षों तक मेरे साथ थे । वे सतत धूम्रपान करते थे । चेन स्मोकर थे । और जैसा कि सभी धूम्रपान करने वाले करते है । मेरे मित्र ने भी निरंतर उससे छूटने की चेष्टा की । किसी सुबह अचानक तय करते कि - अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा । और शाम होते होते फिर पीने लगते । और फिर वह अपराधी अनुभव करते । और अपना बचाव करते । और तब कुछ दिनों तक धूम्रपान छोड़ने का नाम भी नहीं लेते । फिर वे यह सब भूल जाते । और किसी दिन साहस जुटाकर फिर कहते कि अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा । और मैं सिर्फ हंसता । क्योंकि यह घटना इतनी बार दुहरा चुकी थी । फिर वे खुद भी इस दुष्चक्र से ऊब उठे कि धूम्रपान करना । और छोड़ना । मानो हमेशा हमेशा के लिए उनका संगी साथी बन गया है । वे गंभीरता से सोचने लगे कि क्या करू । और तब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूं । मैंने उनसे कहा कि पहली बात तो यह कि धूम्रपान का विरोध करना छोड़ दो । धूम्रपान करो । और मजे से करो । 7 दिनों तक इसका कोई विरोध मत करो । इसे स्वीकार कर लो । उन्होंने कहा कि - यह आप क्या कह रहे हैं ? मैं इसके विरोध में रहकर भी इसे नहीं छोड़ सकता हूं । और आप इसे स्वीकार को कहते हैं । तब तो छोड़ने की जरा भी संभावना नहीं रहेगी । मैंने उन्हें समझाया कि तुम शत्रुता का रूख प्रयोग करके देख चुके । निष्फलता ही हाथ लगी है । अब मैत्री के रूख का प्रयोग करो । बस 7 दिनों के लिए धूम्रपान का विरोध मत करो । उन्होंने छूटते ही पूछा कि - क्या तब धूम्रपान छूट जाएगा ? मैंने कहा - तुम अब भी उसके प्रति शत्रुता का भाव रखते हो । छोड़ने के भाव में ही शत्रुता है । छोड़ने की बात ही भूल जाओ । धूम्रपान के साथ रहो । उसके साथ सहयोग करो । क्या कोई मित्र को छोड़ने का विचार करता है । 7 दिन तक छोड़ने की बात को भूल जाओ । उसका सहयोग करो । जितना संभव हो । उतने प्रगाढ़ ढंग से । उतने प्रेम के साथ पीओ । जब तुम धूम्रपान कर रहे हो । तो उस समय सब कुछ भूलकर धूम्रपान ही हो जाओ । उसके साथ आराम से रहो । उसके साथ संवाद साध लो । 7 दिन तक जितना संवाद साध लो । 7 दिन तक जितना चाहो उतना धूम्रपान करो । छोड़ने की बात ही भूल जाओ । ये 7 दिन उनके लिए विमर्श के दिन बन गये । वे धूम्रपान के तथ्य को सीधा सीधा देख पाए । वे इसके विरोध में नहीं थे । इसलिए अब वे इसका साक्षात्कार कर सकते थे । जब तुम किसी व्यक्ति या वस्तु के विरोध में होते हो । तो तुम उसका साक्षात्कार नहीं कर सकते । विरोध ही बाधा बन जाता है । तब विमर्श कहां । क्या तुम शत्रु पर विमर्श करते हो ? तुम उसे देख भी नहीं सकते । तुम उसकी आँख से आँख नहीं मिला सकते । शत्रु को देखना बहुत कठिन है । तुम उसी व्यक्ति की आंखों में आँख डालकर देख सकते हो । जिसे तुम प्रेम करते हो । प्रेम में ही तुम गहरे उतर सकते हो । अन्यथा आँख मिलाना मुश्किल है । मेरे उन मित्र ने धूम्रपान के तथ्य का गहराई से साक्षात्कार किया । 7 दिन तक वे विमर्श करते रहे । उन्होंने विरोध छोड़ दिया था । इसीलिए ऊर्जा सुरक्षित थी । और वह ध्यान बन गया । उन्होंने सहयोग किया । और वे धूम्रपान सी बन गए । 7 दिन बाद मेरे मित्र मुझे कहना भी भूल गये कि क्या हुआ था । मैं इंतजार कर रहा था कि वे और कहेंगे कि 7 दिन बीत गये । अब मैं धूम्रपान कैसे छोडूँ ? वे 7 दिन की बात ही भूल गये । 3 सप्ताह गुजर गये । तो मैंने ही उनसे पूछा कि आप बिलकुल भूल गये क्या ? उन्होंने कहा कि यह अनुभव सुंदर रहा । इतना सुंदर कि अब मैं किसी चीज के विषय में सोचना ही नहीं चाहता । पहली बार मैंने तथ्य के साथ संघर्ष नहीं किया । पहली बार मैं सिर्फ अनुभव कर रहा हूं । उसे जो मेरे साथ घटित हो रहा है ।
तब मैंने उनसे कहा - अब जब भी धूम्रपान की वृति पैदा हो । तो उसे छोड़ दो । उन्होंने फिर नहीं पूछा कि - कैसे छोड़ना है । उन्होंने पूरी चीज पर विमर्श किया था । और उससे ही वह पूरी चीज बचकानी दिखने लगी थी । संघर्ष की गुंजायश ही नहीं थी । तब मैंने उनसे कहा कि - अब जब फिर धूम्रपान की चाह पैदा हो । तो उसे देखो । और उसे छोड़ दो । सिगरेट को अपने हाथ में ले लो । 1 क्षण के लिए रूको । और तब सिगरेट को छोड़ दो । गिर जाने दो । और सिगरेट के गिरने के साथ साथ धूम्रपान की वृति पैदा हो । और तुम उसे छोड़ दो । तो सारी ऊर्जा 1 छलांग लेकर भीतर गति कर जाती है । विधि 1 ही है । केवल उसके आयाम भिन्न हैं । जब कोई कामना उठे । उस पर विमर्श करो । फिर, अचानक, उसे छोड़ दो । ओशो

24 अक्तूबर 2011

तुम्हें नये नये उपाय खोजने पडेंगे


मैं आपका संदेश घर घर हृदय हृदय में पहुंचाना चाहता हूं । पर लोग बिलकुल बहरे हैं । अंधे हैं । मैं क्या करूं ? जो पाया है । उसे पाकर न बांटू ? यह भी संभव नहीं है । उसे बांटने की भी तो 1 अपरिहार्यता है ।
- निश्चय ही उसे बांटने की 1 अपरिहार्यता है । उससे बचा नहीं जा सकता । उसे बांटना ही होगा । उसे रोकने का कोई उपाय ही नहीं है । बादल जब भर जाएंगे जल से । तो बरसेंगे ही । और फूल जब खिलेगा । तो सुगंध उड़ेगी ही । और दीया जब जलेगा । तो प्रकाश विकीर्ण होगा ही । बांटना तो पड़ेगा । लेकिन बांटने में शर्त बंदी न करो । क्या फिक्र करना कि कौन बहरा है । कौन अंधा है ? आखिर अंधे को भी तो आंख देनी है न । और बहरे को भी कान देने हैं न । ऐसे देख देखकर चलोगे कि आंख वाले को देंगे । तो आंख वाले को तो जरूरत ही नहीं है । वह तो खुद ही देख ले रहा है । और उसको ही देंगे । जो सुन सकता है । जो सुन सकता है । उसने तो सुन ही लिया होगा । वह तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठेगा ? आंख है जिसकी खुली हुई । उसने देख लिया । कान हैं । जिसके पास सुनने के । उसने सुन लिया - नाद । वह तुम्हारी राह थोड़े ही देखेगा कि तुम जब आओगे । तब सुनेगा । उसकी बासुरी तो बज गई । उसकी रोशनी तो जल गई । अंधे और बहरों को ही जरूरत है । इसलिये यह मत सोचे कि अंधे बहरे लोग हैं । इनको कैसे दें ? इनको ही देने में मजा है । इन्हीं को देने में कला है । इन्हीं को देने की चेष्टा में तुम्हें नये नये उपाय खोजने पडेंगे । नई भाषा । नई भाव भंगिमाएं खोजनी पड़ेगी । और इन्हीं को देने में तुम विकसित भी होओगे । क्योंकि जो मिला है । इसका कोई अंत थोड़े ही है । जितना बाटोगे । उतना और मिलेगा । जितना लुटाओगे । उतना और पाओगे । फिक्र छोड़ो । शर्तबंदी छोङो । जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से - चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर चिल्लाओ । लोग बहरे हैं । चिल्लाना पड़ेगा । झकझोरो । लोगों को जगाओ । लोग सोये हैं । और जब तुम झकझोरोगे सोये हुए लोगों को । तो वे नाराज भी होंगे । गालियां भी देंगे । कौन जागना चाहता है - सुखद नींद से । और नींद वाले को पता भी क्या कि जागने का मजा क्या है ? पता हो भी कैसे सकता है ? वह क्षम्य है । अगर नाराज हो । और बहरा अगर न माने नाद के अस्तित्व को । तो तुम क्रुद्ध मत हो जाना । वह मानेगा । तो उसका मानना झूठ होगा । और झूठे मानने से कोई क्रांति नहीं होती । उसके न मानने से टकराना । उसके न मानने को काटना । इंच इंच तोड़ना । उठाना छैनी और उसके पत्थर को काटना । जन्म से कोई भी बहरा नहीं है । और जन्म से कोई अंधा नहीं है । मैं आध्यात्मिक अंधेपन और बहरेपन की बात कर रहा हूं । जन्म से सभी लोग आध्यात्मिक आखें और आध्यात्मिक कान लेकर पैदा हुए हैं । क्योंकि आत्मा लेकर पैदा हुए हैं । समाज ने कानों को बंद कर दिया है । रुद्ध कर दिया है । कानों में रुई भर दी है -शास्त्रों की । शब्दों की । सिद्धातों की । आखों पर पट्टिया बौध दी हैं । जैसे कोल्हू के बैल या तांगे में जुते घोड़े की आंख पर पट्टी बांध देते हैं । ऐसी पट्टिया बांध दी हैं । कोई अंधा नहीं है । कोई बहरा नहीं है । जरा तुमने अगर प्रेम पूर्ण मेहनत की । तो पट्टिया उतारी जा सकती हैं । फुसलाना होगा । जरा तुमने अगर मेहनत की । तो उनके कानों से रुई निकाली जा सकती है । मगर एकदम से वे तुम्हारी बात मानने को राजी नहीं होंगे । जल्दी भी क्या है ? परमात्मा के काम में जल्दी की जरूरत भी नहीं है । उसकी मर्जी होगी । तो तुमसे काम ले लेगा । उसकी मर्जी होगी । तो तुमसे किन्हीं को गवा लेगा । किन्हीं की आखें खुलवा लेगा । और उसकी मर्जी नहीं होगी । तो तुम्हारी चिंता क्या है ? तुम्हारी खुल गई । यही क्या कम है ।
तुम बहते जाना बहते जाना बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।
तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई ।
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध से सूरज, चांद, सितारे ।
गल रही बरफ, चल रही हवा, जल रहे यहां अंगारे ।
है आना जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई ।
कब रुकने पाये झुकने वाले जीवन पर बेचारे ?
तुम किस पर खुश हो गये और तुम बोलो किस पर रूठे ?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे ।
है यह कांटो की राह विवश सा सबको चलते रहना ।
जो स्वयम प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे ।
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती ।
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती ।
तुम कल बन कर रजकण पैरों से ठुकराये जाओगे ।
है कौन यहां पर ऐसा जो खा आया हो अमरौती ?
यह रंग बिरंगी उषा लिये है दुख की काली रातें ।
हैं ग्रीष्मकाल की दाहक लपटों में रस की बरसाते ।
यह बनना मिटना अमिट काल के चल चरणों का क्रम है ।
छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख-दुख की बातें ।
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई ।
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई ।
हिम खण्ड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश भागी ।
जमना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई!
तुम बहते जाना, बहते जाना बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।
तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई ।
फिक्र न करना । तुम्हारे भीतर जो हुआ है । उसे कहे जाओ । कहे जाओ । कोई सुने तो । कोई सुने न तो । कोई चिंता नहीं । कोई न देखे तो । तुम बांटते रहो । 100 में से अगर 1 ने भी देख लिया । और 100 में से अगर 1 ने भी सुन लिया । तो तुम धन्यभागी हो । उतना ही बहुत है । तुम्हारा श्रम सार्थक हुआ । बांटना अपरिहार्य है । शर्त बंदी छोड़ दो । पात्र अपात्र का विचार न करो । यह पात्र अपात्र का विचार न करो । यह पात्र अपात्र का विचार ही बाधा बन जाता है । लोग सोचते हैं - पात्र को देंगे । फिर पात्र मिलता नहीं । क्या पात्र । क्या अपात्र ? तुम जिसको दोगे । वही पात्र बन जायेगा । तुम देते ही जाना भाई ।

22 अक्तूबर 2011

हम जीवन भर उसमें दबे दबे जीते है

लाओत्से कहता है - सुख का द्वार 1 को जानना है । दुख का द्वार अनेक को जानना है । अनेक की जानकारी होगी । दुख बढ़ेगा । 1 का बोध होगा । सुख बढ़ेगा । क्यों ? क्योंकि जितनी दिशाओं में हमारा ज्ञान बंटता है । उतने ही भीतर हम बंट जाते हैं । और बंटा हुआ आदमी दुखी होगा । खंडित, टूटा हुआ आदमी दुखी होगा । आपको पता नहीं कि आप कितने खंडित हैं ? आप दुकान पर होते हैं । तो आप और ही तरह के आदमी होते हैं । अगर एकदम से आपकी प्रेयसी वहां आ जाए । तो आपको बड़ी अड़चन होगी । क्योंकि प्रेयसी के साथ आप जैसे आदमी होते हैं । वैसे आदमी आप दुकान पर नहीं हैं । वह ग्राहक के साथ जैसे आदमी होते हैं । वह बिलकुल दूसरा आदमी है । अगर प्रेयसी एकदम से आ जाए । तो आपको सब भीतर का सरंजाम बदलना पड़ेगा । आपको सब भीतर के सामान फिर से आयोजित करने पड़ेंगे । आपको आंख और ढंग की करनी पड़ेगी । चेहरे पर मुस्कुराहट और ढंग की लानी पङेगी । हाथ पैर और ढंग से चलाने पड़ेंगे । सब आपको बदल देना पड़ेगा । आपकी भाषा, सब । क्योंकि ग्राहक के साथ आप और ही व्यवस्था से काम कर रहे थे । आपका 1 खंड काम कर रहा था । प्रेयसी के सामने दूसरा खंड काम करता है । यह जो खंडित व्यक्ति है । यह सुखी नहीं हो सकता । क्योंकि सुख अखंडता की छाया है । जितना भीतर अखंड भाव होता है कि - मैं 1 हूं । उतनी ही शांति और सुख मालूम होता है । दुख का कारण होता है - भीतर के लड़ते हुए खंड । और भीतर खंड प्रतिपल लड़ रहे हैं । क्योंकि विपरीत हैं । आप इस तरह के आयोजन कर लिए हैं जीवन में । जो एक दूसरे के विरोधाभासी हैं । अगर आपको धन इकट्ठा करना है । तो धन प्रेम का विरोधी है । जितना ज्यादा धन इकट्ठा करना हो । उतना ही आपको अपने प्रेम पूर्ण हृदय को रोक लेना पड़ेगा । लेकिन आपको प्रेम भी करना है । क्योंकि प्रेम के बिना जीवन में कोई तृप्ति नहीं । और जब प्रेम करना है । तो वह जो धन की पागल दौड़ थी । उसे 1 तरफ हटा देना होगा । मगर अड़चन है । हमारे मन में ऐसे खयाल हैं कि लोग प्रेम के लिए भी धन इकट्ठा करते हैं । वे सोचते हैं कि जब धन होगा पास । तो प्रेम भी हो सकेगा । लेकिन धन इकट्ठा करने में वे इतने आदी हो जाते हैं 1 खास ढांचे के । जो कि अप्रेम का है । घृणा का है । शोषण का है कि जब प्रेम का मौका आता है । तो वे खुल ही नहीं पाते । उनका दुकानदार इतना मजबूत हो जाता है कि वे उससे कहते हैं - हट ! लेकिन वह नहीं हटता । वह बीच में खड़ा हो जाता है । ओशो
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विश्राम व शांति के सूत्र - ध्यान । इधर मनुष्य के जीवन में निरंतर पीड़ा दुःख और अशांति बढ़ती गई है । बढ़ती जा रही है । जीवन के रस का अनुभव, आनंद का अनुभव विलीन होता जा रहा है । जैसे 1 भारी बोझ पत्थर की तरह हमारे मन और ह्रदय पर है । हम जीवन भर उसमें दबे दबे जीते है । उसी बोझ के नीचे समाप्त हो जाते हैं । लेकिन किसलिए यह जीवन था ? किसलिए हम थे ? कौन सा प्रयोजन था ? इस सबको कोई अनुभव नहीं हो पाता है । यह कौन सा बोझा है ? जो हमारे चित पर बैठकर हमारे जीवन का रस सोख लेता है । कौन साभार है । जो हमारे प्राणों पर पाषाण बनकर बोझिल हो जाता है ? यह भार क्या है ? यह वेट क्या है ? जो आपकी जान लिए लेता है । मेरी जान लिए लेता है । सारी दुनियां की जान लिए लेता है । यह कौन सा पाषाण भार है । जो आपके कंघे पर है ? कौन सी चीज है । जो दबाए देती है । ऊपर नहीं उठने देता । आकांक्षायें तो आकाश छूना चाहती हैं ।
लेकिन प्राण तो पृथ्वी से बंधे हैं । क्या है । कौन सी बात है ? कौन रोक रहा है ? कौन अटका रहा है ? किसने यह सुझाव दिया है कि इस पत्थर को अपने सिर पर ले लेना ? किसने समझाया ? शायद हमारे अहंकार ने हमको भी फुसलाया है । शायद हमारी अस्मिता ने ईगो ने, हमको भी कहा है कि भर सिर ले लो । क्योंकि इस जगत में जिसके सिर पर जितना भार है । वह उतना बड़ा है । बड़े होने की दौड़ है ।
इसलिए भार को सहना पड़ता है । लेकिन सारी दुनिया, सारे मनुष्य का मन कुछ ऐसी गलत धारणा में परिपक्व होता है । निर्मित होता है कि जिन पत्थरों को हम अपने ऊपर अपने हाथों से ही रखते हैं । कौन सी चीजें हैं । कौन सा केंद्र है ? जिस पर भर को रखने वाले हाथ मेरे ही है । कौन सी चीजें हैं । कौन सा केंद्र है ? जिस पर भार इकट्ठा होता है । कौन से तत्व हैं ? जिनसे पत्थर की तरह भार संग्रहीत होता है । उनकी ही मैं आपसे चर्चा करना चाहता हूं । केंद्र है - मनुष्य का अहंकार । केंद्र है - मनुष्य की यह धारणा कि मैं कुछ हूं । केंद्र है - मैं का बोध । और यह मैं इस जगत में सबसे ज्यादा असत्य, सबसे ज्यादा भ्रामक, सबसे ज्यादा इलुजरी है । यह मैं कहीं है ? नहीं । यह मैं कहीं है ? नहीं । इस शैडोई, इस अत्यंत भ्रामक, इस अत्यंत भ्रमपूर्ण मैं के लिए सारी दौड़
चलती है । जो कहीं है ही नहीं । ओशो

20 अक्तूबर 2011

कुण्डलिनी - 10 सवाल

इस बार मैं आपसे 10 सवाल ‘कुण्डलिनी जागरण’ क्रिया के बारे में पूछ रहा हूँ ।
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प्रश्न 1 कुण्डलिनी जागरण से तो हर कोई वाकिफ़ होगा पर असल में यह क्या है ? यह कोई नहीं जानता । तो मेरा प्रश्न यह है कि कुण्डलिनी जागरण किस तरह की अवस्था है ? यह कैसे की जाती है और इसको करना क्या आम लोगों के बस की बात है ?
उत्तर - इस संसार में जो शक्ति काम कर रही है और जिसके द्वारा इस संसार की सभी रचना हुयी है । इस शरीर में भी वही शक्ति कार्य करती है । उसको कुण्डलिनी महामाया कहते हैं । इसका स्थान नाभि के नीचे है ।
पेट में मांस का 1 कमल है । इस कमल के बीच में ह्रदय कमल है । इस कमल के अन्दर 2 और कमल हैं । 1 कमल नीचे और दूसरा ऊपर, 1 कमल आकाश रूप और दूसरा प्रथ्वी रूप । ऊपर के कमल में सूर्य का निवास और नीचे के कमल में चन्द्रमा का निवास, इन दोनों के बीच में रहती है - कुण्डलिनी महामाया । ये साँप के समान साढे 3 लपेटे मारकर बैठी है । वह एकदम दूधिया सफ़ेद मोतियों के भण्डार के समान प्रकाशित है ।
इससे स्वतः वायु निकलती है जो साँप की फ़ुफ़कार के समान ‘प्राणवायु’ और ‘अपान वायु’ रूप में स्थित रहती है । यह दोनों वायु जब आपस में टकराती हैं तो इनसे 1 प्रकार की संघर्ष शक्ति पैदा होती है ।
प्राण और अपान के परस्पर टकराने से ह्रदय में बङा प्रकाश होता है । कुण्डलिनी वासनाओं से भरी हुयी होती है । तमाम सांसारिक वासनायें उसका विषय है । जब कुण्डलिनी में स्फ़ुरण पैदा होता है । तब ‘मन’ प्रकट होता है ।
सब कर्म धर्म इसी से प्रकट होते हैं । यह स्थूल रूप से बृह्माण्ड में विराजमान है । पिंड से बृह्माण्ड के लिये सुष्मणा नाङी से होकर मार्ग गया है । सुष्मणा के भीतर जो बृह्मरन्ध्र है । उसमें पूरक द्वारा कुण्डलिनी शक्ति स्थित होती है अथवा रेचक प्राणवायु के प्रयोग से 12 अंगुल तक मुख से बाहर अथवा भीतर ऊपर 1 मुहूर्त तक 1 ही बार स्थित होती है । मनुष्य की सामान्य अवस्था में ये सोयी हुयी और नीचे मुँह किये होती है ।
कुण्डलिनी जागरण का मतलब चक्रों को जगाना या जानना है । चक्रों की स्थिति अनुसार इसके अलग अलग पहुँच वाले गुरु हो सकते हैं । वे चक्रों पर ध्यान करना सिखाते हैं और ध्यान की बारबार ठोकर से ये जागती है । आम और खास लोग कहना वास्तव में अज्ञान है । जो कुछ प्राप्त करना चाहता है । जिसमें सीखने की ललक लगन है । वही आम से खास हो जाता है ।
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प्रश्न 2 -  कुण्डलिनी से प्रथम साक्षात्कार, पहचान, जागृति, क्रियाशील, सिद्धि कैसे की जाती है ?
उत्तर -  समर्थ गुरु के सानिध्य में चक्रों पर ध्यान करके ही यह सब होता है । सिद्धियों के अलग अलग स्वरूप होते हैं । उनके बहुत से प्रकार हैं । कुण्डलिनी जागृत होते ही अंतर जगत के दृश्य और अलौकिक अनुभव और प्रबल उर्जा आवेश का अनुभव होने लगते हैं । यही इसकी पहचान है ।
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प्रश्न 3 - पिछले किसी लेख में आपने कुण्डलिनी जागरण से सम्बन्धित कुछ बातें बताई थी और कुछ मंत्र भी बताये थे और यह भी कहा था कि बिना गुरू के सानिध्य में इसे न करें । अन्यथा परिणाम भयंकर हो सकते हैं । तो अब ये बतायें कि इस क्रिया को ठीक से जानने वाले गुरू कहाँ मिलेंगे ? क्या आप ऐसे किसी इंसान को जानते हैं । जो इस क्रिया में पारंगत हो और ट्रेनिंग वगैरह देते हों ।  हमने तो आज तक न कभी ऐसे किसी इंसान के बारे में सुना और न कभी देखा ।
उत्तर - इसका कोई एक निश्चित गुरु या स्थान नहीं होता । वह किसी शहर कस्बे गाँव जंगल हिमालय आदि कहीं भी हो सकता है पर उससे पहले महत्वपूर्ण ये हैं कि आप क्या चाहते हैं ? 12 वर्ष के अष्टावक्र ने 80 वर्ष के राजा जनक को सिर्फ़ 5 सेकेण्ड में ये ज्ञान कराया था । बस सीखने वाला व्यक्ति पात्र होना चाहिये ।
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प्रश्न 4 - कुण्डलिनी जागरण क्रिया को पूरा करने में कितना समय लगता है और इसको करने के लिए कोई विशेष स्थान वगैरह जैसे निर्जीव स्थान, नदी, पर्वत, आश्रम, वन, घर, गुफा आदि कहाँ किया जाता है । यह किस समय की जाती है ?
उत्तर - किसी भी सात्विक ध्यान साधना की शुरुआत में एकान्त पवित्र और शान्त स्वच्छ स्थान का बेहद महत्व है । फ़िर वह किसी प्रकार का निर्जीव स्थान नदी, पर्वत, आश्रम, वन, घर, गुफा या आपके घर का एकान्त कमरा आदि कुछ भी हो । इससे अधिक मतलब नहीं है ।
समय गुरु की समर्थता और साधक की स्थिति पर निर्भर है । दस मिनट से लेकर दस साल और दस जन्म भी लग सकते हैं । मुख्यतः समय प्रातःकाल 4 to 6 और सांय 5 to 7 अच्छा होता है । सुबह उगते सूर्य की तरफ़ मुँह और शाम को अस्त होते सूर्य की तरफ़ मुँह करके ज्यादातर ज्ञान ध्यान किया जाता है ।
ग्रह स्थितियों की अनुसार नवरात्र आदि जैसे दिनों में सिद्ध मुहूर्त बनते हैं । तब ऐसे योग सरलता से होते हैं पर अद्वैत में किसी नियम को कोई महत्व नहीं दिया जाता । वहाँ नियम खुद गुलाम होते हैं ।
कर्म धर्म दोऊ बटें जेबरी । मुक्ति भरती पानी ।
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प्रश्न 5 - यह तो सभी जानते ही हैं कि कुण्डलिनी के विभिन्न स्वरूपों को क्रम अनुसार किया जाता है  पर कुण्डलिनी जागरण क्रिया की शुरूआत कैसे की जाती है । कुण्डलिनी के दर्शन मूलाधार में कैसे होते हैं । क्या मूलाधार में कुण्डलिनी माँ के दर्शन के स्वरुप का दर्शन करना ही जागृत कुण्डलिनी की पहचान है ?
उत्तर - वही समर्थ गुरु और उसकी पहुँच के अनुसार चक्र का ध्यान करना । जरूरी नहीं इसको मूलाधार चक्र से ही शुरू किया जाये । गुरु अपने तरीके अनुसार इसे ऊपर से भी शुरू कर सकता है । हमारे यहाँ शुरूआत ही आज्ञा चक्र से होती है । अंतर में तेज अलौकिक प्रकाश या दिव्य प्रकाश देखना ही खास पहचान है । साधक के पुण्य संस्कार अनुसार उसे देवताओं के दर्शन भी हो सकते हैं ।
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प्रश्न 6 - क्या चिरनिद्रित कुण्डलिनी की निद्रा को भंग कर देना ही कुण्डलिनी की जागृतावस्था है । जागृति के समय साधक को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है । अगर यह ठीक से न हो  तो क्या इसमें साधक को भारी नुकसान भी उठाना पड सकता है ?
उत्तर - चिरनिद्रित से मतलब ये नहीं कि ये शक्ति सोयी हुयी है । वो तो बराबर अपना काम कर रही है । बस आप में यह ज्ञान या स्थिति या क्रिया जागृत नहीं है । ध्यान द्वारा इससे योग होना ही जागृतावस्था है । परिस्थितियाँ भी चक्र, मन्त्र, जागरण का तरीका और गुरु की ताकत के अनुसार लाखों बनती हैं ।
शक्ति का प्रवाह होता है तब साधक की मजबूती के अनुसार उसे डर भय रोमांच सिहरन आदि बहुत सी स्थितियाँ बनती हैं । केवल कोई भी योग मनमाने तरीके से नियम के विपरीत हठ पूर्वक करने पर ही नुकसानदायक है । वैसे ये अलौकिक ज्ञान है और कोई भी ज्ञान कभी नुकसानदायक नहीं होता । ये एक प्रकार का अति शक्तिशाली करेंट ही है । ऊर्जा है । अब बिजली से कोई मूर्खतापूर्वक छेङछाङ करेगा । तो अंजाम एक ही होगा..भयंकर दुर्घटना या फ़िर मौत । इसीलिये अनुभवी समर्थ गुरु का बहुत महत्व है । बिजली आपको सभी सुख देती है । अति आवश्यक भी है पर जानबूझ कर उसके नंगे तारों से खिलवाङ करोगे तो अत्यधिक हानि ही होगी ।
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प्रश्न 7 - जिस किसी व्यक्ति ने अपनी कुण्डलिनी को जाग्रत कर लिया हो तो उनकी पहचान क्या है । इसको करने वाले मुख्यतया वे लोग कौन होते हैं । इससे उन्हें क्या लाभ होता है । क्या वे अपने शरीर को आत्मा से अलग करने में सक्षम होते हैं । क्या उनमें दिव्य शक्ति आ जाती हैं । और वे निरोगी हो जाते हैं । और चिरायु को प्राप्त होते हैं । क्या उनको ज्ञान प्राप्त होता है ?
उत्तर - मनुष्य का स्वभाव बङा विचित्र है । एक करोङपति आदमी भी हो सकता है, गन्दे फ़टे कपङे पहनने का शौकीन हो । वहीं मामूली कमाई वाले उतने में ही ठाठ बाठ से रहने के शौकीन होते हैं । इसलिये कुण्डलिनी जागरण करने वाला भी इंसान ही होता है । वह एक भिखारी से लेकर राजा स्टायल कुछ भी हो सकता है । गूढ ज्ञान को जानने वाले को पहचानना साधारण आदमी के लिये कठिन ही नहीं असंभव है । दिव्य शक्ति का ये ज्ञान ही है । जैसी दिव्यता को वे प्राप्त होते हैं । वैसा ही लाभ भी होता है । हाँ कुण्डलिनी से निरोगता और चिरायु होना निश्चय ही प्राप्त होता है । ज्ञान और शरीर से अलग होना साधक की स्थिति के अनुसार है । वैसे ये आत्मज्ञान नहीं हैं और न ही इससे मुक्त होते हैं । इससे सिर्फ़ शक्ति और दिव्यता आती है ।
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प्रश्न 8 - मूलाधार के इन चक्रों का अपना क्या महत्व है । इन चक्रों पर अपना नियंत्रण कैसे रखा जाता है ?
उत्तर - आप अपने खाये हुये भोजन पर खाने के बाद कोई नियन्त्रण नहीं कर सकते फ़िर चक्र तो बहुत बङी बात है ।
दरअसल किसी भी सिस्टम से जुङकर क्षमता अनुसार उससे लाभ प्राप्त होता है । उसका असल नियन्त्रण महाशक्तियों के हाथ में होता है । बाजार में दुकान खोल लेने का मतलब ये नहीं कि आप बाजार पर नियन्त्रण कर लोगे । वहाँ भी आप अपने व्यवहार सौदा क्षमता लेन देन के अनुसार लाभ ही प्राप्त करते हो । चक्र हो या कोई योग हो । योग का मतलब ही प्लस हो जाना है । जीवन में जहाँ भी आप प्लस होते हो । उसका भाव अनुसार लाभ होने लगता है । फ़िर वो एक साधारण आदमी औरत से ही प्लस होना क्यों न हो ।
चक्रों का महत्व थोङे शब्दों में समझाना कठिन है । ये जीवन हो या अलौकिक जीवन, सभी स्थितियों में मुख्य बात ये है कि आप क्या चाहते हैं ? उसको प्राप्त करने की आपके अन्दर कितनी क्षमता हैं और फ़िर कितना प्राप्त कर पाते हैं । बस वही आपका है । वास्तविकता में एक पति अपनी पत्नी को नियन्त्रण में नहीं रख पाता । पत्नी पति को नहीं रख पाती । ये दोनों बच्चों को नहीं रख पाते फ़िर शक्ति को नियन्त्रण करना हँसी खेल नहीं है । केवल विभिन्न रंग बिरंगी स्थितियों में इंसान अपने को कंट्रोल रखे । यही बहुत बङी बात है ।
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प्रश्न 9 - कुण्डलिनी को जाग्रत करना और इस मनुष्य के इस जीवन का क्या भेद है । कुण्डलिनी जागरण को पूर्ण करने वाले व्यक्ति की क्या अवस्था है और उनका क्या कार्य है अथवा मृत्यु के बाद इसका क्या स्थान है ?
उत्तर - एक मामूली व्यक्ति से प्रधानमन्त्री बनने के बीच तक बहुत से स्तर होते हैं । अब वह कौन सी स्थिति को प्राप्त करता है । वही उसे लाभ होगा । ये सामान्य जीवन में पाना है । अलौकिक जीवन में भी यही बात है । वह किस स्थिति को प्राप्त होता है । उनकी अवस्था और कार्य भी स्थिति अनुसार विभिन्न ही होंगे । मृत्यु इंसानी जीवन का रिजल्ट है, निचोङ है । जो आपने यहाँ बोया हैं । वही काटेंगे । अतः देवता, सिद्ध, गण, तांत्रिक, भगवान, ईश्वर बनना आदि बहुत परिणाम हो सकते हैं ।
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प्रश्न 10 - और आखिरी सवाल में मैं आपसे जानना चाहूँगा कि क्या आपने कभी कुण्डलिनी जागरण जैसी जटिल क्रिया को करने के बारे में नहीं सोचा । आप इस बारे में क्या सोचते हैं । कृपया अपना मत जरूर रखें । आज के समय में और आमजन लोगों के सोच और विचारों की बात की जाये तो आपको क्या लगता है कि लोग कभी इसकी तरफ आकर्षित होंगे । जबकि हम सभी जानते हैं कि उनसे योग तो ठीक से होता नहीं । बस भोग में ही लगे रहते हैं ।
उत्तर - कुण्डलिनी जागरण और जटिल या सरल ! मैंने इस बारे में क्या सोचा ? ये सब ज्ञान से प्राप्त होता है - समर्थ गुरु और साधक की लगन, मेहनत से । द्वैत ज्ञान में इसका पूर्ण ज्ञान बहुत ऊँचा माना जाता है पर अद्वैत में इसकी अधिक महत्ता नहीं हैं ।
वहाँ इस भाव में देवी भक्ति सबसे ऊँची होती है । हर युग में हर समय में ये ज्ञान देने वाले और लेने वाले लगभग हमेशा रहते हैं पर आदमी अपने वर्ग की जानकारी में जीवन जीता है । इसलिये उसको ये सब अजीब लगता है । कोई भी अपने स्वभाव के अनुसार स्वभाव वाले लोगों के मेलजोल में अधिक रहता है । इसलिये ये सब अजूबा सा लगता है ।
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आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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प्रश्नकर्ता - राज मल्होत्रा (ई मेल से)

17 अक्तूबर 2011

मैं सिर्फ द्रष्टा मात्र हूं

सब जुड़ा है । संयुक्त है । कहीं कोई अंत नहीं आता । तुम्हारे होने का । तुम उतने ही बड़े हो । जितना यह बड़ा अस्तित्व है । इससे रत्ती भर कम नहीं । इससे रत्ती भर भी तुमने अपने को कम जाना । तो तुम दुखी रहोगे । और नर्क में रहोगे । क्योंकि असत्य में कोई कैसे सुख को उपलब्ध हो सकता है ? असत्य दुख है । लेकिन सारी राजनीति तुम्हें तोड़ती है । लोग मेरे पास आते हैं । वे कहते हैं - मैं हिंदू । आदमी होना काफी था । पर्याप्त तो नहीं था बहुत । लेकिन फिर भी बेहतर था - हिंदू होने से । हिंदू तो बीस ही करोड़ हैं । आदमी कम से कम चार अरब । थोड़े तो बड़े होते । लेकिन अगर वह आदमी से खोजबीन करो । तो वह कहता है कि हिंदू भी मैं राम को मानने वाला हूं । कृष्ण को नहीं मानता । राजनीति ने और काटा । अब वह पूरा हिंदू भी नहीं है । बीस करोड़ लोगों के साथ भी उसका तादात्म्य नहीं है । अब दस करोड़ के साथ ही उसका तादात्म्य रह गया है । ऐसा आदमी टूटता जाता है । और फिर हजार पंथ हैं । घर घर पंथ हैं । संप्रदाय हैं । और आदमी छोटा होता जाता है । कम से कम आदमियत से जुड़ो । आदमियत कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है । क्योंकि पृथ्वी बड़ी छोटी है । सूरज इससे साठ हजार गुना बड़ा है । और सूरज - बहुत मध्यवर्गीय अस्तित्व है उसका । उससे हजारों गुने बड़े सूरज हैं । पृथ्वी का तो कहीं कोई पता नहीं है ।
और पृथ्वी पर भी आदमी केवल चार अरब हैं । थोड़ा मच्छरों की सोचो । कितने अरब हैं ? आदमी चार अरब हैं । फिर और कीड़े पतंगों की सोचो । क्या आदमी की हैसियत है ? तुम नहीं थे । तब भी मच्छर थे । तुम नहीं रहोगे । अगर राजनीतिज्ञों की चली । तो तुम ज्यादा नहीं रह पाओगे । इस सदी के पूरे होते होते सब समाप्त हो ही जाएगा । मच्छर फिर भी रहेंगे । उनका गीत गूंजता ही रहेगा । कितने प्राणी हैं ?
अगर थोड़े बड़े होना है । और छोटे होने से तुम्हें पीड़ा हो रही है । फिर भी तुम बड़े होना चाहते । क्षुद्र होने से तुम्हें कष्ट हो रहा है । ऐसे जैसे बड़े आदमी को छोटे बच्चे के कपड़े पहना दिए जाएं । ऐसी तुम्हारी तकलीफ हो रही है । छोटे बच्चे का जांघिया पहने खड़े हो । पीड़ा हो रही है । बंध हो । कसे हो । लेकिन और छोटे होने की आकांक्षा बनी है । सब संप्रदाय राजनीति हैं । क्योंकि तोड़ते हैं । हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई सब राजनीति हैं । क्योंकि तोड़ते हैं । धर्म तो जोड़ता है । तो पहले तो धर्म तुम्हें जोड़ेगा मनुष्यता से । फिर जोड़ेगा प्राण से । प्राण से जुड़ो । और फिर जोड़ेगा - अस्तित्व से । जब तुम अस्तित्व से जुड़ जाओगे । तभी तुम ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हुए । तब तुम उतने ही बड़े हो जाओगे । जितना बड़ा यह सारा होना है । इससे तुम रत्ती भर छोटे न रहोगे । तभी तो उपनिषद के ऋषियों ने कहा है- अहं ब्रह्मास्मि । मैं ब्रह्म हूं । यह कोई अहंकार की घोषणा नहीं है । यह तो निरहंकार की परम उदघोषणा है । मैं हूं ही हनीं । जब ऋषि ने कहा - अहं ब्रह्मास्मि । उसने मैं की बात ही नहीं की । मजबूरी है । तुम्हारी भाषा का उपयोग करना पड़ता है । इसलिए अहं शब्द का उपयोग किया - मैं ब्रह्म हूं । अन्यथा मैं तो वह है ही नहीं । जब तक मैं है । तब तक तो ब्रह्म का अनुभव हो ही नहीं सकता । अहं ब्रह्मास्मि का अर्थ है - मैं नहीं हूं । ब्रह्म है । मैं तो रहूंगा । तो छोटा ही रहूंगा । तुम्हारी कोई न कोई सीमा रहेगी । तुम कहीं न कहीं समाप्त होओगे । तुम्हारी कोई न कोई परिभाषा होगी । अब अपरिभाष्य के साथ । असीम के साथ एक हो जाना ही परम आनंद है । सारे ज्ञानी एक ही इशारा कर रहे हैं कि तुम छोटे से पोखरे हो गए हो । छोटी सी तलैया हो । सड़ रहे हो नाहक । जबकि सागर की तरफ बह सकते हो । तो पहला काम है - बहो । और दूसरा काम है - सागर में डूब जाओ । और इसकी पीड़ा तुम्हें भी अनुभव होती है । तुम समझ पाओ । न समझ पाओ । यह दूसरी बात है - ओशो ।
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सभी का मूल स्रोत एक है । एक दिन एक कुत्ता गार्ड की आंख बचाकर एक खाली घर के अंदर जाकर कोने में बैठ गया । गार्ड ने दरवाजा बंद किया । तब भी वह कुत्ता चुपचाप बैठा रहा । पर सुबह जब दरवाजा खोला गया । तो वह कुत्ता मरा पाया गया । दीवारों और फर्श पर चारों ओर खून ही खून था । पड़ोसियों ने कहा - हम लोग भी रात भर परेशान रहे कि कुत्ते कहाँ भौंक रहे हैं ? जिस कमरे में कुत्ता बंद था । उसमें चारों ओर शीशे लगे हुये थे । और गार्ड गलती से रोशनी खुली छोड़ गया था । वह कुत्ता जरुर बहुत बुद्धिजीवी रहा होगा । इसलिये स्वाभाविक रूप से कमरे में घूमते हुये अपने अनेक प्रतिबिम्ब देखकर वह सोचने लगा । माय गाड । इतने सारे कुत्ते ? और दरवाजा बंद है । उसे लगा । वह कुत्तों के गिरोह द्वारा घेर लिया गया है । वह प्रतिबिम्बों पर हमला करने लगा । और उसने स्वयं अपने आपको समाप्त कर लिया । 
रहस्य के इस संसार में सबसे आवश्यक और आधारभूत समझ यही है कि हम अपने चारों ओर अपने को जिन मनुष्यों से घिरा पा रहे हैं । वह हमारे ही प्रतिबिम्ब हैं । हम उनसे व्यर्थ ही उलझ रहे हैं । उनसे झगड़ा फसाद कर रहे हैं । उनसे भयभीत हो रहे हैं । आज पूरी दुनिया में इसी तरह का भय है । एक के पास परमाणु अस्त्र होने से अन्य सभी भय से उन्हें इकठ्ठा कर रहे हैं । कुत्ता एक ही है । और बाकी सब उसकी छायायें हैं । इसलिये चेतना । तू बौद्धिक मत बन । समस्याओं के बारे में सोचना छोड़ दे । नहीं तो तू उनमे उलझ कर ही रह जायेगी । सिर्फ उनकी साक्षी हो जा । सजग होकर सिर्फ उन्हें देख । उनसे कोई रिश्ता कायम मत कर । उनके प्रति तटस्थ हो जा । साक्षी हो जा ।
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एक सूफी फकीर हुआ । उसके दो बेटे थे - जुडवां बेटे । बड़े प्यारे बेटे थे । और बड़ी देर से बुढ़ापे में पैदा हुए थे । उसका बड़ा मोह था उन पर । वह एक दिन मस्जिद में प्रवचन देकर लौटा । घर आया । तो वह आते ही से रोज पूछता था कि आज बेटे कहां हैं ? अक्सर तो वे मस्जिद जाते थे । आज नहीं गए थे सुनने । उसने पूछा पत्नी से - बेटे कहां हैं ? उसने कहा - आते होंगे । कहीं खेलते होंगे । तुम भोजन तो कर लो । उसने भोजन कर लिया । भोजन करके उसने फिर पूछा कि - बेटे कहा हैं ? क्योंकि ऐसा कभी न हुआ था । वे भोजन उसके साथ ही करते थे । तो उसने कहा - इसके पहले कि मैं बेटों के संबंध में कुछ कहूं । एक बात तुमसे पूछती हूं । अगर कोई आदमी बीस साल पहले अमानत में कुछ मेरे पास रख गया था । दो हीरे रख गया था । आज वह वापिस मांगने आया । तो मैं उसे लौटा दूं कि नहीं ?
फकीर ने कहा - यह भी कोई पूछने की बात है ? यह भी तू पूछने योग्य सोचती है ? लौटा ही देने थे । मेरे से पूछने की क्या बात थी ? उसके हीरे उसे वापिस कर देने थे । इसमें हमारा क्या लेना देना है ? तू मुझसे पूछने को क्यों रुकी ?
उसने कहा - बस ठीक हो गया । पूछने को रुक गई थी । अब आप आ जाएं ।
वह कमरे में ले गई । दोनों बेटे मुर्दा पड़े थे । पास के एक मकान में खेल रहे थे । और छत गिर गई । फकीर ने देखा । बात को समझा । हंसने लगा । कहा - तूने भी ठीक किया । ठीक है । बीस साल पहले कोई हमें दे गया था । अदृश्य, दैवयोग, परमात्मा या जो नाम पसंद हो । आज ले गया । हम बीच में कौन ? जब ये बेटे नहीं थे । तब भी हम मजे में थे । अब ये बेटे नहीं हैं । तो हम फिर वैसे हो गए । जैसे हम पहले थे । इनके आने जाने से क्या भेद पड़ता है । तूने ठीक किया । तूने मुझे ठीक जगाया । जो भी हो रहा है । वह मेरे कारण हो रहा है । इससे ही " मैं " की भ्रांति पैदा होती है । जो हो रहा है । वह समस्त के कारण हो रहा है । मैं सिर्फ द्रष्टा मात्र हूं । ऐसी समझ प्रगाढ़ हो जाए । ऐसी ज्योति जले - अकंप, निर्धूम, तो साक्षी का जन्म होता है ।

16 अक्तूबर 2011

क्या कहेंगे लोग ?


सबसे बड़ा रोग । क्या कहेंगे लोग ? पहला भय । लोग क्या कहेंगे - ओशो । लोग क्या कहेंगे ? यह पहला भय है । और गहरे से गहरा भय है । लोग क्या समझेंगे ? एक महिला मेरे पास कुछ ही दिन पहले आई । और उसने मुझे कहा कि मेरे पति ने कहा है कि सुनना तो जरूर । लेकिन भूलकर कभी कीर्तन में सम्मिलित मत होना । तो मैंने उससे पूछा कि पति को क्या फिक्र है । तेरे कीर्तन में सम्मिलित होने से ? तो उसने कहा - पति मेरे डॉक्टर हैं । प्रतिष्ठा वाले हैं । वे बोले कि अगर तू कीर्तन में सम्मिलित हो जाए । तो लोग मुझे परेशान करेंगे कि पापी पत्नी को क्या हो गया ? तो तू और सब करना । लेकिन कीर्तन भर में सम्मिलित मत होना । घर से लोग समझाकर भेजते हैं कि सुन लेना । करना भर मत कुछ । क्योंकि करने में खतरा है । सुनने तक बात बिलकुल ठीक है । करने में अड़चन मालूम होती है । क्योंकि आप पागल होने के लिए तैयार हैं । और जब तक आप पागल होने के लिए तैयार नहीं हैं । तब तक धार्मिक होने का कोई उपाय नहीं है । तो सुनें मजे से । फिर चिंता में मत पड़ें । जिस दिन भी करेंगे । उस दिन आपको दूसरे क्या कहेंगे ? इसकी फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी । दूसरे बहुत सी बातें कहेंगे । वे आपके खिलाफ कह रहे हैं । वे अपनी आत्मरक्षा कर रहे हैं । क्योंकि अगर आपको ठीक मानें । तो वे गलत लगेंगे । इसलिए उपाय एक ही है कि आप गलत हैं । तो वे अपने को ठीक मान सकते हैं । और निश्चित ही उनकी संख्या ज्यादा है । आपको गलत होने के लिए तैयार होना पड़ेगा । बड़े से बड़ा साहस समूह के मत से ऊपर उठता है । इस फिक्र के छोड़ते ही आपके भीतर भी रस का संचार हो जाएगा । यही द्वार बाँधा हुआ है । इसी से दरवाजा रुका हुआ है । यह फिक्र छोड़ते ही से आपके पैर में भी थिरकन आ जाएगी । और आपका हृदय भी नाचने लगेगा । और आप भी गा सकेंगे । और अगर यह फिक्र छोड़कर आप एक बार भी गा सके । और नाच सके । तो आप कहेंगे कि अब दुनिया की मुझे कोई चिंता नहीं है । एक बार आपको स्वाद मिल जाए । किसी और लोक का । तो फिर कठिनाई नहीं है । लोगों की फिक्र छोड़ने में । कठिनाई तो अभी है कि उसका कोई स्वाद भी नहीं है । जिसे पाना है । और लोगों से जो प्रतिष्ठा मिलती है । उसका स्वाद है । जिसको छोड़ना है । जिसको छोड़ना है । उसमें रस है । और जिसको पाना है । उसका हमें कोई रस नहीं है । इसलिए डर लगता है । हाथ की आधी रोटी भी, मिलने वाली स्वर्ग में पूरी रोटी से ज्यादा मालूम पड़ती है । स्वाभाविक है । सीधा गणित है । लेकिन अगर इस दशा में, जिसमें आप हैं । आप सोचते हैं । सब ठीक है । तो मैं आपसे नहीं कहता कि आप कोई बदलाहट करें । और आपको लगता हो कि सब गलत है । जिस हालत में आप हैं । तो फिर हिम्मत करें । और थोड़े परिवर्तन की खोज करें । शांत प्रयोग करना हो । शांत प्रयोग करें । लेकिन कुछ करें । अधिक लोग कहते हैं कि शांत प्रयोग ही ठीक है । क्योंकि अकेले में आँख बंद करके बैठ जाएँगे । किसी को पता तो नहीं चलेगा । लेकिन अक्सर शांत प्रयोग सफल नहीं होता । क्योंकि आप भीतर इतने अशांत है कि जब आप आँख बंद करके बैठते हैं । तो सिवाय अशांति के भीतर और कुछ भी नहीं होता । वह जो भीतर अशांति है । वह चक्कर जोर से मारने लगती है । जब आप शांत होकर बैठते हैं । तब आपको सिवाय भीतर के उपद्रव के और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता । इसलिए, उचित तो यह है कि वह जो भीतर का उपद्रव है । उसे भी बाहर निकल जाने दें । हिम्मत से उसको भी बह जाने दें । उसके बह जाने पर, जैसे तूफान के बाद एक शांति आ जाती है । वैसी शांति आपको अनुभव होगी । तूफान तो धीरे धीरे विलीन हो जाएगा । और शांति स्थिर हो जाएगी । यह कीर्तन का प्रयोग कैथार्सिस है । इसमें जो नाच रहे हैं । लोग, कूद रहे हैं लोग । ये उनके भीतर के वेग हैं । जो निकल रहे हैं । इन वेगों के निकल जाने के बाद भीतर परम शून्यता का अनुभव होता है । उसी शून्यता से द्वार मिलता है । और हम अनंत की यात्रा पर निकल जाते हैं - ओशो । तेईस घंटे संसार को दे दो । एक घंटा स्वयं को दे दो । ध्यान को दे दो । और जीवन के अंत में तुम पाओगे कि वो एक घंटा ही सार्थक सिद्ध हुआ । अमृत सिद्ध हुआ । मृत्यु भी जिसे तुमसे छीन नहीं सकती - ओशो ।

11 अक्तूबर 2011

गुरु महामृत्यु है

प्रेम की तीन कोटियां हैं । पहली कोटि । जिससे सौ मैं निन्यानबे लोग परिचित हैं । काम का अर्थ है । दूसरे से लेना । लेकिन देना नहीं । वासना लेती है । देती नहीं । मांगती है । प्रत्युत्तर नहीं देती । वासना शोषण है । अगर देने का बहाना करना पड़े । तो करती है । या देने का दिखावा भी करना पड़े । तो भी करती है । क्योंकि मिलेगा नहीं । तो तुम्हारा जो प्रेम है । वह दिखावा है । वस्तुतः तुम देना नहीं चाहते । तुम लेना चाहते हो । मेरे पास लोग आते हैं । वे कहते हैं - हमें कोई प्रेम नहीं करता । मैं उनसे पूछता हूं कि यह कोई सवाल ही नहीं है कि तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता । सवाल यह है कि तुम किसी को प्रेम करते हो ? इसका उन्हें खयाल ही नहीं है । इस पर उन्होंने विचार ही नहीं किया । वे कहते हैं कि इस पर हमने सोचा ही नहीं । इसको तो तुम मान ही बैठे हो कि तुम प्रेम करते हो । कठिनाई यह है कि दूसरा तुम्हें प्रेम नहीं करता । पत्नियां मेरे पास आती हैं । वे कहती हैं कि पति प्रेम नहीं करते । पति आते हैं । वे कहते हैं । पत्नियां प्रेम नहीं करतीं । काम वासना मांगती है । देना नहीं चाहती । काम वासना कृपण है । इकट्ठा करती है । बांटना नहीं चाहती । शोषण है । और जब दो व्यक्ति, दोनों ही कामातुर हों । तो बड़ी अढ़न हो जाती है । दोनों ही भिखारी हैं । दोनों मांग रहे हैं । देने की हिम्मत किसी में भी नहीं है । और दोनों यह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं दे रहा हूं । लेकिन यह धोखा कितनी देर चल सकता है ? इसलिए काम वासना से जुड़े लोगों का जीवन अनिवार्य रूपेण दुखपूर्ण हो जाएगा । उसमें सुख नहीं हो सकता । उसमें सुख की संभावना ही नहीं है । जिस ऊर्जा का नाम प्रेम है । उसके तीन रूप हैं । पहला काम - जिसमें तुम मांगते हो । और भिखारी होते हो । और देने से डरते हो । देते नहीं । या देने का का सिर्फ दिखावा करते हो । ताकि मिल सके । अगर थोड़ा बहुत कभी देना पड़ता है । तो वह ऐसा ही जैसा कि मछली पकड़ने वाला कांटे में थोड़ा आटा लगा देता है । वह कोई मछली का पेट भरने को नहीं । वह कोई मछली को भोजन देने के लिए तैयारी नहीं कर रहा है । लेकिन कांटा चुभेगा नहीं बिना आटे के । मछली आटा पकड़ने आएगी । कांटे में फंसेंगी । तुम अगर देते हो । तो बस इतना ही कि आटा बन जाए । दूसरा व्यक्ति फंस जाए तुम्हारे जाल में । पर मजा यह है कि दूसरा भी मछलीमार है । उसने भी आटा कांटे पर लगा रखा है । और जब दोनों के कांटे फंस जाते हैं दोनों के मुंह में । तो उसको तुम विवाह कहते हो । दोनों ने एक दूसरे को धोखा दे दिया । इसलिए जीवन भर क्रोध बना रहता है । जीवन भर कि दूसरे न धोखा दे दिया । लेकिन वही पीड़ा दूसरी की भी है । इस क्रोध में कैसे आनंद के फूल लग सकते हैं ? असंभव । तुम नीम के बीज बोते हो । और आम की अपेक्षा करते हो । यह नहीं होगा । यह नहीं हो सकता है । 
दूसरा रूप है - प्रेम का अर्थ है । जितना लेना । उतना देना । वह सीधा साफ सुथरा सौदा है । काम शोषण है । प्रेम शोषण नहीं है । वह जितना लेता है । उतना देता है । हिसाब साफ है । इसलिए प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं होते । लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं । कामी शांति को उपलब्ध नहीं होते । सिर्फ अशांति, चित, संताप । प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं हो सकते । लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं । एक संतुलन होता है जीवन में । जितना लिया । उतना दिया । जितना दिया । उतना पा लिया । हिसाब किताब साफ होता है । प्रेमियों के बीच में कलह नहीं होती । एक गहरी मित्रता होती है । सब साफ है । लेना देना बाकी नहीं है । क्रोध भी नहीं है । क्योंकि जितना दिया । उतना पाया । कुछ विषाद भी नहीं है । न कुछ लेने को है । न कुछ देने को है । हिसाब किताब साफ है । प्रेमी साफ सुथरे होते हैं । ऐसी घटना अक्सर मित्रों के बीच घटती है । इसलिए मित्र बड़े शांत होते हैं मित्रों के साथ । पति पत्नी के बीच कभी घटती है । मुश्किल से घटती है । क्योंकि वहां काम ज्यादा प्रगाढ़ है । लेकिन दो मित्रों के बीच अक्सर घटती है । और अगर दो प्रेमी हो पति पत्नी । तो वे भी मित्र हो जाते हैं । उनके बीच पति पत्नी का संबंध नहीं रह जाता । एक मैत्री का संबंध हो जाता है । जहां कोई विषाद नहीं है । न कोई मन में पश्चात्ताप है । न यह खयाल है कि किसी ने किसी को धोखा दिया ।
प्रेम का तीसरा रूप है - भक्ति । जिसमें सिर्फ भक्त देता है । लेने की बात ही नहीं करता । काम से ठीक उलटी है भक्ति । और काम और भक्ति के बीच में है प्रेम । कामी दुखी होता है । भक्त आनंदित होता है । प्रेमी शांत होता है । इस पूरी बात को ठीक से समझ लेना । भक्ति काम से बिलकुल उलटी घटना है । दूसरा विरोधी छोर है । वहां भक्त देता है । सब देता है । अपने को पूरा दे देता है । कुछ बचाता ही नहीं पीछे । इसी को तो हम समर्पण कहते हैं । अपने को भी नहीं बचाता । देने वाले को भी बचाता । उसको भी दे डालता है । और मांगता कुछ भी नहीं । न बैकुंठ मांगता है । न स्वर्ग मांगता है । मांगता कुछ भी नहीं । मांग उठी कि भक्ति तत्क्षण पतित हो जाती है । काम हो जाती है । अगर उतना भी दिया । जितना परमात्मा देता है । तो भी भक्ति भक्ति नहीं है । प्रेम ही हो जाती है । भक्ति तो तभी भक्ति है । जब अशेष भाव से भक्त अपने को पूरा उड़ेल देता है । ऐसा नहीं है कि भक्त को मिलता नहीं । भक्त को जितना मिलता है । उतना किसी को नहीं मिलता । उसी को मिलता है । लेकिन उसकी मांग नहीं है । छिपी हुई मांग भी नहीं है । वह सिर्फ उड़ेल देता है । अपने को पूरा दे देता है । और परिणाम में परमात्मा पूरा उसे मिल जाता है । लेकिन वह परिणाम है । वह उसकी आकांक्षा नहीं है । वह उसने कभी चाहा न था । इसलिए भक्त सदा कहता है कि परमात्मा की अनुकंपा से मिला । अनुग्रह से मिला । मैंने कभी मांगा न था । उसने दिया है । मैं अपात्र था । फिर भी उसने भर दिया मुझे । मेरे पात्र को पूरा कर दिया है । मैं योग्य न था । मेरी क्या योग्यता थी ? उसने स्वीकार किया । यह भी काफी था । वह इनकार भी कर देता तो मैं कहां अपील करने जाता ? कोई अपील न थी । क्योंकि मेरी कोई योग्यता ही नहीं थी । भक्त अपने को दे देता है । समग्र भाव से । परिपूर्ण भाव से । और जितना अपने को दे देता है । उतना ही परिपूर्ण परमात्मा उस पर बरस उठता है । बहुत पा लेता है । अनंत पा लेता है । सब पा लेता है । जो इस अस्तित्व में पाने योग्य है । जो भी सत्य है । सुंदर है । शिव है । सब उसे मिल जाता है । वह इस अस्तित्व का शिखर हो जाता है ।
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मधुराष्टकम - 
अधरं मधुरं । बदनं मधुरं । नयनं मधुरं । हसितं मधुरम । हृदयं मधुरं । गमनं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
वचनं मधुरं । चरितं मधुरं । वसनं मधुरं । वलितं मधुरम । 
चलितं मधुरं । भ्रमितं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम । 
वेणुर्मधुरो । रेणुर्मधुरः । पाणिर्मधुरः । पादौ मधुरौ । 
नृत्यं मधुरं । सख्यं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
गीतं मधुरं । पीतं मधुरं । भुक्तं मधुरं । सुप्तं मधुरम । 
रुपं मधुरं । तिलकं मधुरं । मधुराधिपतेरखिल मधुरम । 
करणं मधुरं । तरणं मधुरं । हरणं मधुरं । रमणं मधुरम । 
वमितं मधुरं । शमितं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरं ।
गुञ्जा मधुरा । माला मधुरा । यमुना मधुरा । वीची मधुरा । 
सलिलं मधुरं । कमलं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
गोपी मधुरा । लीला मधुरा । युक्तं मधुरं । मुक्तं मधुरम । 
दृष्टं मधुरं । शिष्टं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
गोपा मधुरा । गोवा मधुरा । यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा । 
दलितं मधुरं । फलितं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम । 
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तुम्हे जो भी मिला है । वो सदैव तुम्हारी पात्रता से अधिक है । ज़रा सोचो । तुम्हें एक श्वास भी ना मिलती । तो किससे शिकायत करने जाते ? तुम्हे इतना कुछ बेशर्त मिला है । और फिर भी तुम्हारा मन सदा शिकायत से भरा है । जो रत्ती भर भी मिले । उसके लिए प्रभु को धन्यवाद दो । और जो पहाड़ भर ना भी मिले । उसको भूल जाओ । फिर तुम्हे कोई दुखी नहीं कर सकता - ओशो ।
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मैं तेरे ही रंग का यारा । मैं तेरे ही ढंग का यारा । 
तुझ में यूँ घुल जाउंगा । ज्यूँ दूध के संग में मिश्री यारा ।
तू ना पहचानेगा खुद को । ऐसा रंग रंग दूंगा यारा ।
तू ढूंढेगा खुद को मुझमें । ढूंढ़ नहीं पायेगा यारा ।
तू बड़ा धनवान है यारा । तेरा कोई मकान न यारा । 
मेरे अंदर ही तू रहता । फिर कैसा धनवान तू यारा । 
मैं तो तेरे पास न आऊं । तू खुद ही आएगा यारा l 
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गुरु महामृत्यु है । क्योंकि गुरु के माध्यम से मोक्ष की तरफ चलना पड़ता है । गुरु सिखाता ही है - मरने की कला ।

09 अक्तूबर 2011

बुद्ध पुरुष के मित्र नहीं होते

तुमने पूछा है कि वास्तविक प्रमाणिक मैत्री क्या है ? तुम मैत्री का स्वाद चख सको । इसके लिए तुम्हारे अंदर महान रूपांतरण की आवश्यकता है । जैसे अभी तुम हो । उसमें तो मैत्री एक दूर का सितारा है । तुम दूर के सितारे को देख तो सकते हो । तुम इस संबंध में बौद्धिक समझ भी रख सकते हो । पर यह समझ केवल बौद्धिक समझ ही बनी रहेगी । यह कभी अस्तित्वगत स्वाद नहीं बन सकता । जब तक तुम मैत्री का अस्तित्वगत स्वाद न लो । तब तक यह बड़ा मुश्किल होगा । लगभग असंभव कि तुम मित्रता और मैत्री में अंतर कर सको । तुम ऐसा समझ सकते हो कि मैत्री प्रेम का सबसे पवित्र रूप है । यह इतना पवित्र है कि तुम इसे फूल भी नहीं कह सकते । तुम ऐसा कह सकते हो कि यह एक ऐसी सुगंध है । जिसको केवल अनुभव किया जा सकता है । और महसूस किया जा सकता है । पर इसे तुम पकड़ नहीं सकते । यह मौजूद है । तुम्हारे नासापुट इसे महसूस कर सकते हैं । तुम चारों ओर इससे घिरे हुए हो । तुम इसकी तंरगें महसूस कर सकते हो । पर इसको पकड़े रखे रहने का कोई मार्ग नहीं है । इसका अनुभव इतना बड़ा और व्यापक है । जिसके मुकाबले तुम्हारे हाथ इतने छोटे पड़ जाते हैं । मैंने तुमसे कहा कि तुम्हारा प्रश्न बड़ा जटिल है । ऐसा तुम्हारे प्रश्न के कारण नहीं । पर तुम्हारे कारण कहा था । अभी तुम ऐसे बिंदु पर नहीं हो । जहां मैत्री एक अनुभव बन सके । स्वाभाविक और प्रामाणिक बनो । तब तुम प्रेम की सबसे विशुद्ध गुणवत्ता को जान सकते हो । प्रेम की एक सुगंध । जो हमेशा चारों ओर से घेरे हो । और इस विशुद्ध प्रेम की गुणवत्ता मैत्री है । मित्रता किसी व्यक्ति से संबंधित होती है । कोई व्यक्ति तुम्हारा मित्र होता है । एक बार किसी व्यक्ति ने गौतम बुद्ध से पूछा कि क्या बुद्ध पुरुष के भी मित्र होते हैं ? उन्होंने जवाब दिया - नहीं । प्रश्न कर्ता अचंभित रह गया । क्योंकि वह सोच रहा था कि जो व्यक्ति स्वयं बुद्ध हो चुका । उसके लिए सारा संसार मित्र होना चाहिए । चाहे तुम्हें यह जानकर धक्का लगा हो । या न लगा हो । पर गौतम बुद्ध बिलकुल सही कह रहे हैं । जब वे कह रहे हैं कि बुद्ध पुरुष के मित्र नहीं होते । तब वे कह रहे हैं कि उनका कोई मित्र नहीं होता । क्योंकि उनका कोई शत्रु नहीं होता । ये दोनों चीजें एक साथ आती हैं । हां ! वे मैत्री रख सकते हैं । पर मित्रता नहीं । मैत्री ऐसा प्रेम है । जो किसी अन्य से संबंधित या किसी अन्य को संबोधित नहीं है । न ही यह किसी तरह का लिखित या अलिखित समझौता है । न ही किसी व्यक्ति का व्यक्ति विशेष के प्रति प्रेम है । यह व्यक्ति का समस्त अस्तित्व के प्रति प्रेम है । जिसमें मनुष्य केवल छोटा सा भाग है । क्योंकि इसमें पेड़ भी सम्मिलित हैं । इसमें पशु भी सम्मिलित हैं । नदियां भी सम्मिलित हैं । पहाड़ भी सम्मिलित हैं । और तारे भी सम्मिलित हैं । मैत्री में प्रत्येक चीज सम्मिलित है । मैत्री तुम्हारे स्वयं के सच्चे और प्रामाणिक होने का तरीका है । तुम्हारे अंदर से मैत्री की किरणें 

निकलने लगती हैं । यह अपने से होता है । इसको लाने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता । जो कोई भी तुम्हारे संपर्क में आता है । वह इस मैत्री को महसूस कर सकता है । इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारा कोई शत्रु नहीं होगा । पर जहां तक तुम्हारा संबंध है । तुम किसी के भी शत्रु नहीं होते । क्योंकि अब तुम किसी के मित्र भी नहीं हो । तुम्हारा शिखर । तुम्हारा जागरण । तुम्हारा आनंद । तुम्हारा मौन । बहुतों को परेशान करेगा । और बहुतों में जलन पैदा करेगा । यह सब होगा । और यह सब बिना तुम्हें समझे होगा । वास्तव में बुद्ध पुरुष के शत्रु ज्यादा होते हैं । बजाय अज्ञानी के । साधारण जन के कुछ ही शत्रु होते हैं । और कुछ ही मित्र । पर इसके विपरीत लगभग सारा विश्व ही बुद्ध पुरुष के विरोध में दिखाई देता है । क्योंकि अंधे लोग किसी आंख वाले को क्षमा नहीं कर सकते । और अज्ञानी उसे माफ नहीं कर सकते । जो ज्ञानी हैं । वे उस आदमी से प्रेम नहीं कर सकते । जो आत्यंतिक कृतार्थता को उपलब्ध हो गया है । क्योंकि उनके अहं को चोट लगती है ।
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रूपांतरण की गुह्य विधियां - सेक्स या काम निम्नतम चक्र है । और शहस्त्रार उच्चतम । और काम ऊर्जा इन दोनो के बीच गति करती है । काम केन्द्र से इसे मुक्त किया जा सकता है । जब वह काम केन्द्र से छूटती है । तो तुम किसी को जन्म देने का कारण बनते हो । और जब वही ऊर्जा सहस्त्रार से मुक्त होकर ब्रह्मांड मे समाती है । तो तुम अपने को नया जन्म देते हो । यह भी जन्म देना है । लेकिन जैविक तल पर नही । तब यह आध्यात्मिक पुनर्जन्म है । तब तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ - ओशो । 
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अरे नर ध्यान धर घट में । व्यर्थ क्यों जनम खोता है । अरे नर ध्यान धर घट में । व्यर्थ क्यों जनम खोता है । विषय के सूल झूले में । क्यों दुःख के बीज बोता है । क्यों दुःख के बीज बोता है । व्यर्थ क्यों जनम खोता है । गया तू भूल चेतन का । प्रपंची बन गया जग में । ना जाने देह को नश्वर । सदा सुख नींद सोता है । सदा सत्संग कर प्यारे । दमन कर पञ्च विषयो को । सजग हो आत्म चिंतन में । समय सम्पूर्ण होता है । शरण गुरुदेव की रहकर । श्रवण कर सत्य शिक्षा को ।  बने आतम तभी निर्मंल । अभय पद प्राप्त होता है । अविद्या भाव तब नाशे । लखे चहू और अमृत को । समावे आप में शंकर । तभी सुख रूप होता है । जय श्री नाथ ।
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जब तुम शून्य हो जाओगे । वह उतर आता है । शून्यता में पूर्णता ऐसी ही उतर आती है । जैसे बूंद सागर में खो जाए । तुम शून्य हुए कि पूर्ण होने के अधिकारी हुए । तुम मिटे कि परमात्मा हुआ - ओशो ।
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रहना नहीं देश विराना है ।
यह संसार कागद की पुङिया बूंद परे गल जाना है ।
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क्यों कर जोड़े है खड़ा तू उसके । वो तो अन्दर बसता है ।
है भ्रम में तू उसको लेकर । वो महँगा नहीँ वो सस्ता है ।
तू समझ बैठा उसको है कहीं । तू भागम दौङ में लगा हुआ ।
जो देखा होता नजर खोल । तो बात दूर की नहीं थी ये ।
कोई जगह नहीं जहाँ नहीं है वो । फिर भी पागल भटका है तू ।
तू आँख खोल तू आँख खोल । हर तरफ है वो हर तरफ है वो ।
वो सागर है आकाश है वो । वो कण कण में वो जीवन में ।
वो देख के तेरा पागलपन । वो करुणा और प्रेम में हँसता है ।
क्यों कर जोड़े तू खड़ा है उसके । वो तो अन्दर बसता है ।
है भ्रम में तू उसको लेकर । वो महँगा नहीं वो सस्ता है ।
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पहले अंग्रेजो की गुलामी की । फिर राजा महाराजाओ की गुलामी की । और अब कुछ कुर्सी के कीडे की गुलामी करते हैं । आजादी के पैंसठ साल के बाद भी कया हम सही मायनों में आजाद हुए । हम ही गधों को तख्तो ताज पर बिठाते हैं । सपने दिखाओ । और राज करो । जो जितना सपने दिखाने में माहिर होता है । वो उतना ही अच्छा नेता होता है । लेकिन भारत सपने देखने वालों का देश है । इसलिए नेताओं की दुकानें फलफ़ूल रहीं हैं । नेता नहीं चाहते कि आप सपने से जागो ।
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सच्चा भिखारी - पूर्ण दीनतामय भाव के सूक्ष्म सूत्र का अवलम्बन करके ही भाव स्वरूप भगवान प्रगट होते है । पापियों के अत्याचार से जब पृथ्वी पर दीनता छा जाती है । पुण्य का पूर्ण अभाव हो जाता है । तभी भगवान का अवतार होता है । साठ हज़ार शिष्यों को साथ लेकर जिस समय ऋषि दुर्वासा वन में पांडवो की कुटिया पर पहुँचे । उस समय द्रौपदी के सूर्य प्रदत पात्र में अन्न का एक कण भी नहीं था । उस पूर्ण अभाव के समय पूरी दीनता के काल में द्रौपदी ने पूर्ण रूप प्रभु को कातर स्वर में पुकार कर कहा - हे द्वारकाधीश ! इस कुसमय में दर्शन दो ! दीनबन्धो ! विपत्ति के इस तीर हीन समुद्र में तुम्हे देखकर कुछ भरोसा होगा । द्रौपदी की आर्त प्रार्थना सुनकर जगत प्रभु स्थिर नहीं रह सके । ऐश्वर्य शालिनी रुक्मिणी और सत्यभामा को छोड़कर भिखारिणी दरिद्रा द्रौपदी की और दौड़े । द्वारका के अतुलनीय ऐश्वर्य स्तम्भ को देखकर अरण्यवासी पाण्डवों की पर्णकुटी में विभूति स्वरुप प्रखर प्रभा प्रकाशित हो गयी । द्रौपदी ने कहा - नाथ ! क्या इतनी देर करके आना चाहिये ? भगवान बोले - तुमने मुझको द्वारकाधीश के नाम से क्यों पुकारा था । प्राणेश्वर क्यों नहीं कहाँ ? जानती नही हो । द्वारका यहाँ से कितनी दूर है ? इसी से आने में देर हुई । जो हमारे प्राणों के अन्दर की प्रत्येक क्रिया को जानते हैं । उनके सामने माँगने के लिए मुहँ खोलना बुद्धिमानी नहीं है । भीख की झोली बगल में लेकर दरवाजे पर खड़े होते ही वे दया करते है । बस हमें तो चुपचाप उनकी सेवा करनी चाहिये - हनुमान प्रसाद पोद्दार भाईजी
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इंसानियत !   मत खेलो अदावत की होली । इंसानियत बिखर जाएगा । हर ज़र्रा ज़र्रा कायनात का । बगावत पर उतर आएगा । लहू से गहरा सुर्ख होता नही । कभी भी मज़हब का रंग । गर धर्म पे गिरेंगी लाशें । तो खुदा भी सिहर जाएगा । बुत परस्त हो या अजान परस्त । अगर न हो नेक इरादें । राम रहीम रहम न करेगा । सीधा दोज़ख में पसर जाएगा । शमा की इश्क में जल जलकर । जान लुटाते हैं परवाने । इश्क की गंगा में डुबकी लगा ले । जनम सुधर जाएगा । नशा वो हर्गिज़ नही । जो हर पल सर पे चढ़कर बोलता हैं । प्रेम का प्याला पी ले रे मन । दिल पे कर असर जाएगा । तन की मैल तो हर पल धोता । पोत रहा है रूह में कालिख । जिस दिन मैल धुले रूह की । तेरा जीवन संवर जाएगा । मालिक बैठा सबके अंदर । देख रहा सबका इल्म । नेकी का सबब बडा हैं - आनंद । इसमे ही खुदा नज़र आएगा - आनंद थापा ।
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कितना भी प्यार क्यों न हो तुम्हें मुझसे ।
जब तक " तुम " हो । तुम उब ही जाओगे मुझसे ।
जब भेजा था उसने । मुझे इस जहां में ।
कहा था फुसफुसाते हुये । बहुत धीरे से ।
अब ये प्यास बुझेगी नहीं ।
जब तक खुद । मिटोगे नहीं - तुम ।
तब से बनता हूं । मिटता भी हूं । 
पर मिट ही नहीं जाता हूं ।
और हर बार की तरह । प्यासा ही रह जाता हूं ।
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तुम कौन हो । तुम कौन हो ? जिसने यौवन का विराट आकाश समेट लिया है अपनी बाहों में । जिसने अपनी चितवन की प्रेरणा से ठहरा दिया है सांसारिक गति को । तुम कौन हो ? जिसने सौभाग्य की कुंकुमी सजावट कर दी है मेरे माथे पर । जिसने मंत्रमुग्ध कर दिया है जगत को कल कण्ठ की ऋचाओं से । तुम कौन हो ? जिसने मेरी श्वांस वेणु बजा दी है । और लय हो गयी है चेतना में उसकी माधुरी । जिसने अपने हृदय के कंपनों से भर दिये हैं मेरे प्राण, कँप गयी है अनुभूति । तुम कौन हो ? आखिर कौन हो तुम ? कि तुम्हारे सम्मुख प्रणय की पलकें काँप रही हैं । और मैं विलीन होना चाह रहा हूँ तुममें ।
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तुम कितने लायक हो ? यह जानने का एक ही तरीका है । तुम कितने नालायक हो - यह जानना ।
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प्रतीक्षा करो । प्रार्थना करो । आशा को जगाए रखो । आंख खोलकर पुकारते रहो । अंधेरा भी उसका है । प्रकाश भी उसका है । मृत्यु भी उसकी । जीवन भी उसका । इसलिए सब जगह उसे पहचानते रहो । ओशो ।
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Identify your painful thought, question it, and wake yourself up. No one else can.
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The reason why the universe is eternal is that it does not live for itself . it gives life to others as it transforms - LaoTzu

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IF YOU DENY THESE SINGING BIRDS THEN SOMETHING IN YOU IS DENIED -  OSHO

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OSHO
Never Born
Never Died
Only Visited this
Planet Earth between
Dec 11,1931-
Jan 19,1990

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Beautiful meditation by osho at the end - white robe brotherhood 
निवेदनो - ढम्म म म म म म म म म म...Beeeeeeeeee silent
Absolutely in - Close your eyes, No movement Just be still.
Feel the beauty of this moment..Feel the freshness .And the youth
Of this moment...Feel the bliss   And the dance.  In the deepest core of your being..  Everybody relax into death. Let the body breath,  Don't bother. You don't have to stop breathing,
You have to stop being out..Be in .And take the quantum leap.
From mind to no-mind. Feel the silent fragrance within..
This moment is a divine moment..This moment you are a Buddha.
Pin down your consciousness to this moment..
No head,  No heart  But just a pure consciousness..
You can come back to life   To new life   With new light . With new joy   . With new eyes to see.  With new senses to feel.   With new intelligence to understand.
निवेदनो - ढम्म म म म म म म 
Now come back -  As you r a buddha .

यह सरासर बात झूठ है ।

 
  युवा कौन हे ? सभी युवक, युवक नहीं होते । सभी बूढे, बूढ़े नहीं होते । जिसे युवक होने की कला आती है । वह बूढ़ा होकर भी युवक होता है । और जिसे युवक होने की कला नहीं आती । वह युवक होकर भी बूढ़ा ही होता है । तो पहले तो इस सत्य को समझने की कोशिश करो कि युवा होना क्या है ? पहली तो बात, युवक हैं कहां ? इस देश में तो नहीं हैं । इस देश में तो बच्चे बूढ़े ही पैदा होते हैं । गायत्री मंत्र पढ़ते हुए ही पैदा होते हैं । कोई गीता का पाठ करते चले आ रहे हैं । कोई राम नाम जपते चले आ रहे हैं । इस देश में युवक हैं कहां ? शक्ल सूरत से भला युवक मालूम पड़ते हों । मगर युवक होना शक्ल सूरत की बात नहीं । युवक होना उम्र की बात नहीं । युवक होना एक बड़ी और ही, बड़ी अनूठी अनुभूति है । एक आध्यात्मिक प्रतीत है । सभी युवक, युवक नहीं होते । सभी बूढे, बूढ़े नहीं होते । जिसे युवक होने की कला आती है । वह बूढ़ा होकर भी युवक होता है । और जिसे युवक होने की कला नहीं आती । वह युवक होकर भी बूढ़ा ही होता है । तो पहले तो इस सत्य को समझने की कोशिश करो कि युवा होना क्या है ? तुम्हारी उम्र पच्चीस साल है । इसलिए तुम युवा हो । इस भ्रांति में मत पड़ना । उम्र से क्या वास्ता ? पच्चीस साल के भला होओ । लेकिन तुम्हारी धारणाएं क्या है ? तुम्हारी धारणाएं तो इतनी पिटी पिटाई हैं । इतनी मुर्दा हैं । इतनी सड़ी गली हैं । इतनी सदियों से तुम्हारे ऊपर लदी हैं । तुम्हें उन्हें उतारने का भी साहस नहीं है । तुम जंजीरों को आभूषण समझते हो । और तुम, जो बीत चुका - अतीत । उसमें जीते हो । और फिर भी अपने को युवा मानते हो ? युवा हो । और पूजते हो । जो मर गया उसको । जो बीत गया उसको । जो जा चुका उसको । तुम्हारी धारणाओं का जो स्वर्ण युग था । वह अतीत में था । तो तुम युवा नहीं हो । राम राज्य, सतयुग सब बीत चुके । वहीं तुम्हारी श्रद्धा है । लेकिन न तुम विचार करते हो । न तुम श्रद्धा के कभी भीतर प्रवेश करते हो कि श्रद्धा है भी । या सिर्फ थोथा एक आवरण है ? पक्षी तो कभी का उड़ गया । पिंजरा पड़ा है । तुम कुछ भी मानते चले जाते हो । इतने अंधेपन में युवा नहीं हो सकते । जैसे उदाहरण के लिए, कोई ईसाई कहे कि - मैं युवा हूं । और फिर भी मानता हो कि जीसस का जन्म कुंवारी मरियम से हुआ था । तो मैं उसे युवा नहीं कह सकता । ऐसी मूढ़तापूर्ण बात, कुंवारी मरियम से कैसे जीसस का जन्म हो सकता है ? अगर तुम मान सकते हो । तो तुम अंधे आदमी हो । तुम्हारे पास विवके ही नहीं है । उसके पास श्रद्धा क्या खाक होगी । जिसके पास संदेह की क्षमता नहीं है । उसके पास श्रद्धा की भी संभावना नहीं होती । लेकिन तुम्हारे पंडित पुरोहित तुम्हें समझाते हैं - संदेह न करना । हम जो कहें - मानना । और वे ऐसी ऐसी बातें कहते हैं तुमसे कि तुम भी जरा सा सजग होओगे । तो नहीं मान सकोगे । कुंवारी लड़की से कैसे जीसस का जन्म हो सकता है ?
हां, अगर तुम हिंदू हो । तो तुम कहोगे - कभी नहीं हो सकता । यह सरासर बात झूठ है । अगर मुसलमान हो । तो तुम राजी हो जाओगे कि यह बात सरासर झूठ है । मगर ईसाई । कैथलिक ईसाई । वह नहीं कह सकेगा कि सरासर झूठ है । उसके प्राण कांपेगे । उसके हाथ पैर भयभीत...डोलने लगेंगे । वह डरेगा कि इसको मैं कैसे झूठ कह दूं । दो हजार साल की मान्यता है । मेरे पूर्वजों ने मानी । मेरे बाप दादा ने मानी । उनके बाप दादों ने मानी । दो हजार साल से लोग नासमझ थे । एक मैं ही समझदार हुआ हूं । वह छिपा लेगा अपने संदेह को । ओढ़ लेगा ऊपर से चदरिया श्रद्धा की । दबा देगा संदेह को । आसान है दूसरे के धर्म पर संदेह करना । युवा वह है । जो अपनी मान्यताओं पर संदेह करता है । अब जैसे हिंदू है कोई । हिंदू की मान्यता है कि गीता का जो प्रवचन हुआ । वह महाभारत के युद्ध में हुआ । और महाभारत का युद्ध हुआ कुरुक्षेत्र के मैदान में । कुरुक्षेत्र के मैदान में कितने लोग खड़े हो सकते हैं ? महाभारत कहता है - अठारह अक्षौहिणी सेना वहां खड़ी थी । और उस युद्ध में एक अरब पच्चीस करोड़ व्यक्ति मारे गए । जिस युद्ध में एक अरब और पच्चीस करोड़ व्यक्ति मारे गए हों । उस युद्ध में कम से कम चार अरब व्यक्ति तो लड़े ही होंगे । क्योंकि इतने लोग मारे जाएंगे तो कोई मारने वाला भी चाहिए, कि यूं ही अपनी अपनी छाती में ही छुरा मार लिया । और मर गए । बुद्ध के जमाने में भारत की कुल आबादी दो करोड़ थी । और कृष्ण के जमाने में तो एक करोड़ से ज्यादा नहीं थी । अभी भी भारत की कुल आबादी सत्तर करोड़ है । अगर पूरा भारत भी अभी कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा हो । तो पूरी अठारह अक्षौहिणी सेना नहीं बन सकती । अभी दुनिया की आबादी चार अरब है । पूरी दुनिया की अभी । अगर पूरी दुनिया के लोगों को तुम कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा करो । तब कहीं एक अरब पच्चीस करोड़ लोग मारे जा सकेंगे । मगर कुरुक्षेत्र के मैदान में इतने लोग खड़े कैसे हो सकते हैं ? यह भी तुमने कभी सोचा ? हां, चींटी रहें । तो बात अलग । मच्छर मक्खी रहें हों । तो बात अलग । मगर आदमी अगर रहे हों । इतने आदमी खड़े नहीं हो सकते । और फिर हाथी भी थे । और घोड़े भी थे । और रथ भी थे । फिर इनको चलाने वगैरह के लिए भी कोई जगह चाहिए, कि बस खड़े हैं । जो जहां अड़ गया । सो अड़ गया । फंस गया । सो फंस गया । न लौटने का उपाय । न जाने का उपाय । न चलने का उपाय । कुरुक्षेत्र के मैदान में एक अरब पच्चीस करोड़ लोगों की लाशें भी नहीं बन सकतीं । मैदान ही छोटा सा है । एक अरब की बात छोड़ दो । तुम एक करोड़ आदमियों को खड़ा नहीं कर सकते वहां । मगर नहीं । मानते चले जाएंगे लोग । क्योंकि शास्त्र में जो लिखा है । कुछ भी लिखा हो । उसको मानने में कोई अड़चन नहीं होती ।
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प्रेम क्या है - ओशो । जागे हुए को पूछो । तो कोई अंधेरा नही सुझाएगा । जागे हुए को पूछो । तो कोई दुःख नही होगा । तो जहाँ चेतन की जोत जले । तो और सारा कचरा जल जाने देना । शेष जो रह जाए । वो चेतन्य की रोशनी होगी । आँख बंद मत करना । आंख खोलने की कला जान लेना । होश की चाबी एक ऐसी कुंजी है । जिससे तुम हर प्रकार के ताले को खोल सकते हो - ओशो ।  

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326