07 अक्टूबर 2011

जुहो ! जुहो ! जुहो - भोल जाला

मैं एक छोटी सी कहानी कहूंगा । हिमालय की घाटियों में एक चिड़िया निरंतर रट लगाती है - जुहो ! जुहो ! जुहो ! अगर तुम हिमालय गए हो । तो तुमने इस चिड़िया को सुना होगा । इस दर्द भरी पुकार से हिमालय के सारे यात्री परिचित हैं । घने जंगलों में, पहाड़ी झरनों के पास, गहरी घाटियों में निरंतर सुनायी पड़ता है - जुहो ! जुहो ! जुहो ! और एक रिसता दर्द पीछे छूट जाता है । इस पक्षी के संबंध में एक मार्मिक लोककथा है । किसी जमाने में एक अत्यंत रूपवती पहाडी कन्या थी । जो वर्डसवर्थ की लूसी की भांति झरनों के संगीत, वृक्षों की मर्मर और घाटियों की प्रतिध्वनियों पर पली थी । लेकिन उसका पिता गरीब था । और लाचारी में उसने अपनी कन्या को मैदानों में ब्याह दिया । वे मैदान, जहां सूरज आग की तरह तपता है । और झरनों और जंगलों का जहां नामनिशान भी नहीं । प्रीतम के स्नेह की छाया में वर्षा और सर्दी के दिन तो किसी तरह बीत गए । कट गए । पर फिर आए सूरज के तपते हुए दिन । वह युवती अकुला उठी पहाड़ों के लिए । उसने नैहर जाने की प्रार्थना की । आग बरसती थी । न सो सकती थी । न उठ सकती थी । न बैठ सकती थी । ऐसी आग उसने कभी जानी न थी । पहाड़ों के झरनों के पास पली थी । पहाड़ों की शीतलता में पली थी । हिमालय उसके रोएं रोएं में बसा था । पर सास ने इनकार कर दिया । वह धूप में तपें गुलाब की तरह कुम्हलाने लगी । श्रृंगार छूटा । वेश विन्यास छूटा । खाना पीना भी छूट गया । अंत में सास ने कहा -अच्छा, तुम्हें कल भेज देंगे । सुबह हुई । उसने आकुलता से पूछा - जुहो ? जाऊं ? जुहो पहाड़ी भाषा में अर्थ रखता है - जाऊं ? सुबह हुई । उसने पूछा - जुहो ? जाऊं ? सास ने कहा - भोल जाला । कल सुबह जाना । वह और भी मुरझा गयी । एक दिन और किसी तरह कट गया । दूसरे दिन उसने पूछा - जुहो ? सास ने कहा - भोल जाला । रोज वह अपना सामान संवारती । रोज प्रीतम से विदा लेती । रोज सुबह उठती । रोज पूछती - जुहो ? और रोज सुनने को मिलता - भोल जाला । एक दिन जेठ का तपतपा लग गया । धरती धूप में चटक गयी । वृक्षों पर चिडियाए लू खाकर गिरने लगीं । उसने अंतिम बार सूखे कंठ से पूछा -जुहो ? सास ने कहा - भोल जाला । फिर वह कुछ भी न बोली । शाम एक वृक्ष के नीचे वह प्राणहीन मृत पायी गयी । गरमी से काली पड़ गयी थी । वृक्ष की डाली पर एक चिड़िया बैठी थी । जो गर्दन हिलाकर बोली - जुहो ? और उत्तर की प्रतीक्षा के बिना अपने नन्हे पंख फैलाकर हिमाच्छादित हिमशिखरों की तरफ उड़ गयी । तब से आज तक यह चिड़िया पूछती है - जुहो ? जुहो ? और एक कर्कश स्वर पक्षी उत्तर देता है - भोल जाला । और वह चिड़िया चुप हो जाती है । ऐसी पुकार हम सबके मन में है । न मालूम किन शांत, हरियाली घाटियों से हम आए हैं । न मालूम किस और दूसरी दुनिया के हम वासी हैं । यह जगत हमारा घर नहीं । यहां हम अजनबी हैं । यहां हम परदेशी हैं । और निरंतर एक प्यास भीतर है अपने घर लौट जाने की । हिमाच्छादित शिखरों को छूने की । जब तक परमात्मा में हम वापस न लौट जाएं । तब तक यह प्यास जारी रहती है । प्राण पूछते ही रहते है - जुहो ? जुहो ? तुमने पूछा है । मेरे भीतर एक प्यास है । बस इतना ही जानता हूं । किस बात की । यह साफ नहीं है । आप कुछ कहें ।  मैंने यह कहानी कही । इस पर ध्यान करना । सभी के भीतर है । पता हो । न पता हो । होश से समझो । तो साफ हो जाएगी । होश से न समझोगे । तो धुंधली धुंधली बनी रहेगी । और भीतर भीतर सरकती रहेगी । लेकिन यह पृथ्वी हमारा घर नहीं है । यहां हम अजनबी हैं । हमारा घर कहीं और है । समय के पार । स्थान के पार । बाहर हमारा घर नहीं है । भीतर हमारा घर है । और भीतर है - शांति । और भीतर है - सुख । और भीतर है - समाधि । उसकी ही प्यास है । ओशो
************
राह बारीक गुरुदेव तें पाइये । और क्या मिल सकता है गुरु के पास ? विचार नहीं । सिर्फ ध्यान । और ध्यान का अर्थ है - एक ऐसी चित्त की दशा । जब तुम जागे हुए पूरे हो । और विचार के बादल तुम्हारे भीतर के आकाश में बिलकुल नहीं । सूरज पूरी तरह निकला है होश का । और बदलियां बिलकुल छट गई हैं - नीला आकाश । तुम्हारे होश को छोड़ने के लिए । रोकने के लिए कोई भी अवरोध नहीं है । अबाध बहती है होश की धारा । आकाश पूरा खाली है । इस सोच शून्य अवस्था का नाम ही वह बारीक दशा है । जिसे ध्यान कहो । प्रारंभ जब होता है तो ध्यान । जब यह अवस्था पूर्ण हो जाती है तो - समाधि । ओशो ।
***********
बुद्ध का परमात्मा अवतरित नहीं होता । ऊपर से नीचे नहीं आता । ऊर्ध्वगमित होता है । नीचे से ऊपर जाता है । ज्योति की तरह है । वर्षा की तरह नहीं । वर्षा ऊपर से नीचे गिरती है । आग जलाओ । लपटें ऊपर की तरफ भागती हैं । तो बुद्ध कहते हैं - जहाँ चैतन्य की ज्योति जलने लगी । वहां परमात्मा प्रगट होने लगता है । तुम जब पूरे जल जाओगे । जब तुम्हारे भीतर सारा कचरा कूड़ा जल जाएगा । तुम खालिस कुंदन हो जाओगे । एक शुद्ध लपट रह जाओगे जीवन चेतना की । बोध की । प्रकाश की । तुम्हीं परमात्मा हुए ।
आनंद - लोग डरपोक हैं । उनके बारे में चिंता ना लो । तुम अपनी राह चलते रहो । अपनी राह पर नाचते हुए चलते रहो । सिर्फ एक बात याद रखो । जो कुछ भी अच्छा लगे । वह अच्छा है । जो कुछ भी सुंदर लगे । सुंदर है । और जो कुछ भी तुम्हें आनंदित करे । प्रसन्न करे । खुश करे । वही सत्य है । इसे एक मात्र कसौटी बन जाने दो । दूसरों की राय की परवाह मत करो । इसे अपनी कसौटी बन जाने दो । जो कुछ भी तुम्हें प्रसन्न करता है । वह निश्चित ही सत्य है । आनंद सत्य की एकमात्र कसौटी है - ओशो ।

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326