11 अक्टूबर 2011

गुरु महामृत्यु है

प्रेम की तीन कोटियां हैं । पहली कोटि । जिससे सौ मैं निन्यानबे लोग परिचित हैं । काम का अर्थ है । दूसरे से लेना । लेकिन देना नहीं । वासना लेती है । देती नहीं । मांगती है । प्रत्युत्तर नहीं देती । वासना शोषण है । अगर देने का बहाना करना पड़े । तो करती है । या देने का दिखावा भी करना पड़े । तो भी करती है । क्योंकि मिलेगा नहीं । तो तुम्हारा जो प्रेम है । वह दिखावा है । वस्तुतः तुम देना नहीं चाहते । तुम लेना चाहते हो । मेरे पास लोग आते हैं । वे कहते हैं - हमें कोई प्रेम नहीं करता । मैं उनसे पूछता हूं कि यह कोई सवाल ही नहीं है कि तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता । सवाल यह है कि तुम किसी को प्रेम करते हो ? इसका उन्हें खयाल ही नहीं है । इस पर उन्होंने विचार ही नहीं किया । वे कहते हैं कि इस पर हमने सोचा ही नहीं । इसको तो तुम मान ही बैठे हो कि तुम प्रेम करते हो । कठिनाई यह है कि दूसरा तुम्हें प्रेम नहीं करता । पत्नियां मेरे पास आती हैं । वे कहती हैं कि पति प्रेम नहीं करते । पति आते हैं । वे कहते हैं । पत्नियां प्रेम नहीं करतीं । काम वासना मांगती है । देना नहीं चाहती । काम वासना कृपण है । इकट्ठा करती है । बांटना नहीं चाहती । शोषण है । और जब दो व्यक्ति, दोनों ही कामातुर हों । तो बड़ी अढ़न हो जाती है । दोनों ही भिखारी हैं । दोनों मांग रहे हैं । देने की हिम्मत किसी में भी नहीं है । और दोनों यह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं दे रहा हूं । लेकिन यह धोखा कितनी देर चल सकता है ? इसलिए काम वासना से जुड़े लोगों का जीवन अनिवार्य रूपेण दुखपूर्ण हो जाएगा । उसमें सुख नहीं हो सकता । उसमें सुख की संभावना ही नहीं है । जिस ऊर्जा का नाम प्रेम है । उसके तीन रूप हैं । पहला काम - जिसमें तुम मांगते हो । और भिखारी होते हो । और देने से डरते हो । देते नहीं । या देने का का सिर्फ दिखावा करते हो । ताकि मिल सके । अगर थोड़ा बहुत कभी देना पड़ता है । तो वह ऐसा ही जैसा कि मछली पकड़ने वाला कांटे में थोड़ा आटा लगा देता है । वह कोई मछली का पेट भरने को नहीं । वह कोई मछली को भोजन देने के लिए तैयारी नहीं कर रहा है । लेकिन कांटा चुभेगा नहीं बिना आटे के । मछली आटा पकड़ने आएगी । कांटे में फंसेंगी । तुम अगर देते हो । तो बस इतना ही कि आटा बन जाए । दूसरा व्यक्ति फंस जाए तुम्हारे जाल में । पर मजा यह है कि दूसरा भी मछलीमार है । उसने भी आटा कांटे पर लगा रखा है । और जब दोनों के कांटे फंस जाते हैं दोनों के मुंह में । तो उसको तुम विवाह कहते हो । दोनों ने एक दूसरे को धोखा दे दिया । इसलिए जीवन भर क्रोध बना रहता है । जीवन भर कि दूसरे न धोखा दे दिया । लेकिन वही पीड़ा दूसरी की भी है । इस क्रोध में कैसे आनंद के फूल लग सकते हैं ? असंभव । तुम नीम के बीज बोते हो । और आम की अपेक्षा करते हो । यह नहीं होगा । यह नहीं हो सकता है । 
दूसरा रूप है - प्रेम का अर्थ है । जितना लेना । उतना देना । वह सीधा साफ सुथरा सौदा है । काम शोषण है । प्रेम शोषण नहीं है । वह जितना लेता है । उतना देता है । हिसाब साफ है । इसलिए प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं होते । लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं । कामी शांति को उपलब्ध नहीं होते । सिर्फ अशांति, चित, संताप । प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं हो सकते । लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं । एक संतुलन होता है जीवन में । जितना लिया । उतना दिया । जितना दिया । उतना पा लिया । हिसाब किताब साफ होता है । प्रेमियों के बीच में कलह नहीं होती । एक गहरी मित्रता होती है । सब साफ है । लेना देना बाकी नहीं है । क्रोध भी नहीं है । क्योंकि जितना दिया । उतना पाया । कुछ विषाद भी नहीं है । न कुछ लेने को है । न कुछ देने को है । हिसाब किताब साफ है । प्रेमी साफ सुथरे होते हैं । ऐसी घटना अक्सर मित्रों के बीच घटती है । इसलिए मित्र बड़े शांत होते हैं मित्रों के साथ । पति पत्नी के बीच कभी घटती है । मुश्किल से घटती है । क्योंकि वहां काम ज्यादा प्रगाढ़ है । लेकिन दो मित्रों के बीच अक्सर घटती है । और अगर दो प्रेमी हो पति पत्नी । तो वे भी मित्र हो जाते हैं । उनके बीच पति पत्नी का संबंध नहीं रह जाता । एक मैत्री का संबंध हो जाता है । जहां कोई विषाद नहीं है । न कोई मन में पश्चात्ताप है । न यह खयाल है कि किसी ने किसी को धोखा दिया ।
प्रेम का तीसरा रूप है - भक्ति । जिसमें सिर्फ भक्त देता है । लेने की बात ही नहीं करता । काम से ठीक उलटी है भक्ति । और काम और भक्ति के बीच में है प्रेम । कामी दुखी होता है । भक्त आनंदित होता है । प्रेमी शांत होता है । इस पूरी बात को ठीक से समझ लेना । भक्ति काम से बिलकुल उलटी घटना है । दूसरा विरोधी छोर है । वहां भक्त देता है । सब देता है । अपने को पूरा दे देता है । कुछ बचाता ही नहीं पीछे । इसी को तो हम समर्पण कहते हैं । अपने को भी नहीं बचाता । देने वाले को भी बचाता । उसको भी दे डालता है । और मांगता कुछ भी नहीं । न बैकुंठ मांगता है । न स्वर्ग मांगता है । मांगता कुछ भी नहीं । मांग उठी कि भक्ति तत्क्षण पतित हो जाती है । काम हो जाती है । अगर उतना भी दिया । जितना परमात्मा देता है । तो भी भक्ति भक्ति नहीं है । प्रेम ही हो जाती है । भक्ति तो तभी भक्ति है । जब अशेष भाव से भक्त अपने को पूरा उड़ेल देता है । ऐसा नहीं है कि भक्त को मिलता नहीं । भक्त को जितना मिलता है । उतना किसी को नहीं मिलता । उसी को मिलता है । लेकिन उसकी मांग नहीं है । छिपी हुई मांग भी नहीं है । वह सिर्फ उड़ेल देता है । अपने को पूरा दे देता है । और परिणाम में परमात्मा पूरा उसे मिल जाता है । लेकिन वह परिणाम है । वह उसकी आकांक्षा नहीं है । वह उसने कभी चाहा न था । इसलिए भक्त सदा कहता है कि परमात्मा की अनुकंपा से मिला । अनुग्रह से मिला । मैंने कभी मांगा न था । उसने दिया है । मैं अपात्र था । फिर भी उसने भर दिया मुझे । मेरे पात्र को पूरा कर दिया है । मैं योग्य न था । मेरी क्या योग्यता थी ? उसने स्वीकार किया । यह भी काफी था । वह इनकार भी कर देता तो मैं कहां अपील करने जाता ? कोई अपील न थी । क्योंकि मेरी कोई योग्यता ही नहीं थी । भक्त अपने को दे देता है । समग्र भाव से । परिपूर्ण भाव से । और जितना अपने को दे देता है । उतना ही परिपूर्ण परमात्मा उस पर बरस उठता है । बहुत पा लेता है । अनंत पा लेता है । सब पा लेता है । जो इस अस्तित्व में पाने योग्य है । जो भी सत्य है । सुंदर है । शिव है । सब उसे मिल जाता है । वह इस अस्तित्व का शिखर हो जाता है ।
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मधुराष्टकम - 
अधरं मधुरं । बदनं मधुरं । नयनं मधुरं । हसितं मधुरम । हृदयं मधुरं । गमनं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
वचनं मधुरं । चरितं मधुरं । वसनं मधुरं । वलितं मधुरम । 
चलितं मधुरं । भ्रमितं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम । 
वेणुर्मधुरो । रेणुर्मधुरः । पाणिर्मधुरः । पादौ मधुरौ । 
नृत्यं मधुरं । सख्यं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
गीतं मधुरं । पीतं मधुरं । भुक्तं मधुरं । सुप्तं मधुरम । 
रुपं मधुरं । तिलकं मधुरं । मधुराधिपतेरखिल मधुरम । 
करणं मधुरं । तरणं मधुरं । हरणं मधुरं । रमणं मधुरम । 
वमितं मधुरं । शमितं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरं ।
गुञ्जा मधुरा । माला मधुरा । यमुना मधुरा । वीची मधुरा । 
सलिलं मधुरं । कमलं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
गोपी मधुरा । लीला मधुरा । युक्तं मधुरं । मुक्तं मधुरम । 
दृष्टं मधुरं । शिष्टं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।
गोपा मधुरा । गोवा मधुरा । यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा । 
दलितं मधुरं । फलितं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम । 
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तुम्हे जो भी मिला है । वो सदैव तुम्हारी पात्रता से अधिक है । ज़रा सोचो । तुम्हें एक श्वास भी ना मिलती । तो किससे शिकायत करने जाते ? तुम्हे इतना कुछ बेशर्त मिला है । और फिर भी तुम्हारा मन सदा शिकायत से भरा है । जो रत्ती भर भी मिले । उसके लिए प्रभु को धन्यवाद दो । और जो पहाड़ भर ना भी मिले । उसको भूल जाओ । फिर तुम्हे कोई दुखी नहीं कर सकता - ओशो ।
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मैं तेरे ही रंग का यारा । मैं तेरे ही ढंग का यारा । 
तुझ में यूँ घुल जाउंगा । ज्यूँ दूध के संग में मिश्री यारा ।
तू ना पहचानेगा खुद को । ऐसा रंग रंग दूंगा यारा ।
तू ढूंढेगा खुद को मुझमें । ढूंढ़ नहीं पायेगा यारा ।
तू बड़ा धनवान है यारा । तेरा कोई मकान न यारा । 
मेरे अंदर ही तू रहता । फिर कैसा धनवान तू यारा । 
मैं तो तेरे पास न आऊं । तू खुद ही आएगा यारा l 
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गुरु महामृत्यु है । क्योंकि गुरु के माध्यम से मोक्ष की तरफ चलना पड़ता है । गुरु सिखाता ही है - मरने की कला ।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

महामृत्यु का शाब्दिक अर्थ क्या है ??

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