अतिरिक्त रूप
से नमक,
मिर्च, खट्टा, मीठा,
बादी भक्षक कभी योगी/निरोगी नहीं हो सकते। उसी प्रकार अतिरिक्त रूप
से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद युक्त मनुष्य इहलोक/परलोक में उत्तम गति
वाले नहीं होते। प्रकृति में निहित ही समाहित है।
अतः
आत्म-प्रकृति का स्वाध्याय ही पूर्ण स्वस्थता है।
दोष पराया
देखकर, चले हसन्त-हसन्त।
अपने याद न
आवहीं, जिनका आदि न अन्त।
अपने-अपने
घरन की,
सब काहू को पीर।
तुम्हें पीर
सब घरन की,
सो धन्य-धन्य रघुवीर॥
=धर्म-चिंतन=
स्वयंभू मनु
और सतरूपा जिनसे यह नर सृष्टि हुयी, के पुत्र उत्तानपाद थे।
उत्तान के पुत्र ध्रुव, प्रियव्रत तथा पुत्री देवहूति (कर्दम
मुनि पत्नी) हुयी। देवहूति के पुत्र कपिल (सांख्य शास्त्र)
हुये। जब मनु, सतरूपा का चौथापन आया तब उन्हें दुख, वैराग हुआ कि भक्ति न की, जन्म व्यर्थ गया।
तब पुत्र को
राज देकर,
नैमिषारण्य में, उन्होंने एक पैर पर खङे होकर,
छह हजार वर्ष पानी पीकर, तथा पुनः सात हजार
वर्ष वायु पर, और पुनः दस हजार वर्ष पानी, वायु के बिना अस्थिमात्र देह रहने तक कठोर तप किया।
प्रभु? प्रसन्न
हुये। मनु के वर मांगने पर, प्रभु ने उन्हें दशरथ के रूप में
जन्म लेने पर, उनका पुत्र होने का वर दिया, और तब तक स्वर्गवास के लिये कहा। लेकिन दशरथ के वृद्धावस्था तक पुत्र न
होने पर वैश्या, श्रंगी ऋषि का तप भंग कर लायी, और श्रंगी द्वारा यज्ञ-खीर से दशरथ पुत्रवान हुये।
बालपुत्र
पहले गुरू आश्रम,
फ़िर विश्वामित्र के साथ, फ़िर वनवास चले गये।
दशरथ उस पुत्र के मोह में, जिसके नाम लेने दर्शन मात्र से
मोक्ष होता है, बिना मोक्ष ही फ़िर स्वर्गवासी हुये।
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ओह, लेकिन
आजकल ऐसा कोई नहीं जिसका मोक्ष न होता हो।
कालपुरूष-निरंजन एवं आद्या-माया
ने, कच्चे-तत्वों से, त्रिलोकी विषयों की रचना, जैसे विष के लड्डू पर मीठे, मधुर, आकर्षक पदार्थों की ऊपरी परत चढ़ाकर की। जो अन्ततः फ़लरूप मृत्यु/दुर्गति
देय हैं।
जबकि सतपुरूष एवं
मूलमाया ने,
चौथे लोक की रचना, पक्के तत्वों से, अन्दर-बाहर समान रूप अमृत द्वारा की। जो सदा अमरत्व का हेतु है।
काम एवं ताप कालपुरूष
के ही गुण हैं।
कृतयुग केवल “नाम”
अधारा।
सुमिर-सुमिर नर
उतरहिं पारा॥
उमा कहहुं मैं अनुभव
अपना।
सत हरिनाम जगत सब
सपना॥
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