भूत एवं भविष्य तथा उनके समय एवं स्थान को
खत्म कर सकने वाला, निरंतर प्रकृति-प्रवाह से जुङा,
वर्तमान क्षण में सक्रिय/सचेत/जाग्रत योगी, इच्छामात्र
से समस्त प्रारब्ध/शरीरी/स्रष्टिक गतिविधियों का कुशल नियंता होता है।
यह “है” में “होना” का योग है।
अतः अचल आत्मा, सचल प्रकृति को यथावत जानो।
तासो ही कछु पाइये, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥
आपा छिपा है आप में, आपही ढूंढे आप।
और कौन को देखिये, है सो आपही आप॥
भले
ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे। देवों को प्रसन्न करने के लिए भजन करे। नाना
शुभ-कर्म करे। तथापि जब तक ब्रह्म, आत्मा की एकता का बोध
नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं (सौ कल्प) के बीत जाने पर भी मुक्ति नहीं हो सकती।
वदन्तु
शास्त्राणि यजन्तु देवान कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवता।
आत्मैक्यबोधेन बिनापि
मुक्तिर्न सिद्धयाति ब्रह्मशतान्तरेअपि॥
(विवेक
चूङामणि)
अपने किये हुये शुभ-अशुभ कर्म अवश्य ही
भोगने पड़ते हैं। बिना भोग के कर्म नहीं मिटते। चाहे करोड़ों कल्प बीत जायें।
अश्वयमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम।
नाभुक्तं
क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि॥
शब्द व्युत्पत्ति से
अर्थ प्रसार एवं शब्दार्थ से स्थिति, स्थित है। भाव से स्वर में
सन्निहित मूल अक्षर क्रमशः संस्कृत, देवनागरी लिपि है। जिससे
विराट फ़िर आर्य पुरूष स्थित है। तदुपरान्त अन्य कृति विकृति हैं।
ट ठ ड ढ ण ङ, वर्ण
शेष से भिन्न हैं।
क्षर से अक्षर का मूल
निःअक्षर है।
केवल बुद्धि-विलास से, मुक्त
हुआ न कोय।
जब अपनी प्रज्ञा जगे, सहज
मुक्त है सोय॥
वचन वेद अनुभव युगति, आनन्द
की परछाहीं।
बोधरूप पुरूष अखंडित, कहबै
मैं कुछ नाहीं॥
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