29 सितंबर 2013

कल आज कल जहाँ चाहे चल

पिछले दिनों समय यात्रा को लेकर कुछ चर्चा हुयी । उसमें लोगों की अलग अलग जिज्ञासायें रहीं । आईये ऐसे ही कुछ योग उदाहरण देखें ।
- आप मनुष्य हैं । अभी इसी ( या किसी ) प्रथ्वी पर स्थूल शरीर हैं । तो फ़िर आप बिना योगी की भूमिका में जाये भूतकाल या भविष्य छोङो । आने वाले अगले दो मिनट में नहीं जा सकते । न गुजरे दो मिनट में पीछे । लेकिन यदि आप सफ़ल योगी हैं । तो फ़िर आपके योग स्तर अनुसार ये सब मदारी के खेल से अधिक नहीं है ।
- आईये योग के अलग अलग पात्र स्थान आदि पर प्रसिद्ध उदाहरण देखिये । नारद मोह में विष्णु ने एक ऐसी मायानगरी या राज्य का ही निर्माण कर दिया था । दरअसल जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं था । यही नहीं इस राज्य में कई एक राजा और प्रजा आदि भी थे । किसी राजकुमारी का स्वयंवर भी था । और फ़िर नारद का अहंकार नष्ट हो जाने पर यह स्वपन की भांति गायव हो गया । ये योग का वह प्रकार था । जिसमें छोटे से कारण से एक पूरे राज्य की ही स्थापना हुयी । ये अधिकतम दो चार दिन के लिये था । इसी प्रकार अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण से ये पूछे जाने पर कि - माया क्या है ? एक मायावी सृष्टि हुयी थी । उस समय कुन्ती रोटी बना रही थी । और श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ नदी में नहाकर रोटी खाने की कह गये थे । अर्जुन ने नदी में गोता मारा । और श्रीकृष्ण की योगमाया से बहते हुये सब कुछ भूलकर एक राज्य में जा लगा । जहाँ एक राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा था । वहाँ अर्जुन ने स्वयंवर जीतकर राजकुमारी से विवाह किया । उसके अनेक सन्तानें भी हुयीं । और यहाँ तक कि वह वृद्ध होकर मृत्यु को भी प्राप्त हुआ । तब जैसे ही उसे जलाया जा रहा था । श्रीकृष्ण ने माया का प्रभाव हटा दिया । और वह चिता से वापस उसी नदी में आकर फ़िर उसी तरह वापिसी करता हुआ गोता लगाने के स्थान से ठीक उसी तरह ऊपर आया । जो पूर्व में गोता लगाने की स्थिति थी । उसके प्रश्न का अनुभूत जबाब देने हेतु श्रीकृष्ण ने उसकी स्मृति यथावत रखी । अजीब से आश्चर्य में डूबा अर्जुन जब श्रीकृष्ण के साथ कुन्ती के रोटी 

बनाने वाले स्थान पर पहुँचा । तो कुन्ती ने कहा - बहुत जल्दी आ गये तुम लोग । अभी तो दो तीन रोटियां भी नहीं बनी । जबकि अर्जुन एक पूरा जीवन व्यतीत करके आया था ।
इसी तरह आपको याद होगा । दुर्योधन के हठ करने पर श्रीकृष्ण ने योगमाया शक्ति से उनके रहने हेतु तत्काल इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था । क्योंकि भौतिक तरीकों से इतनी जल्दी निर्माण संभव नहीं था । हनुमान को धोखा देने हेतु कालयवन राक्षस ने मायावी कुटिया बनायी थी । योग के स्थायी निर्माण में विश्वामित्र ने एक अलग स्वर्ग का ही निर्माण कर दिया था ।
अभी के सन्तों में भी ऐसे कई प्रमाण हैं । जिनमें एक राजा किसी सन्त का सतसंग सुनने गया था । और कुछ उपहास बनाकर लौट आया । लेकिन सन्त ने कहा - सच्चे सन्त स्वपनवत पूरा जीवन संस्कार तक काट देते हैं । वह राजा कुछ दिन बाद जब जंगल गया । तो यकायक योग भूमि का निर्माण हो गया । और वह ट्रांस में अगले जन्म में चला गया । लेकिन उसे अपनी स्थिति याद रही । अगले जन्म में बह मेहतर था । उसके ( अगले जन्म के । जो अभी हुये भी नहीं थे ) परिवारीजनों ने ठीक वैसा ही व्यवहार किया । जो उन्हें करना चाहिये था । वे उससे ऐसा व्यवहार भी कर रहे थे । जैसे उसके साथ गुजरी ( उसी होने वाले जन्म की ) जिन्दगी वे बखूबी जानते हों । कोई दो घण्टे राजा उस स्थिति में रहा । लेकिन उस योग स्थिति में उसका ( वो ) पूरा जीवन व्यतीत हो गया । ट्रांस से बाहर आने पर राजा वापिस सन्त के चरणों में जाकर गिर गया । रैदास ने मीरा को बेहद बदबूदार ऊँट के पंजर में छुपाकर उसका सौ वर्ष का नर्क सिर्फ़ एक घण्टे में काट दिया । ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं । एक और अदभुत उदाहरण में सूफ़ी सन्त खिज्र साहब ने एक बुढिया के बेटे की बारह वर्ष पूर्व दुर्घटना से मृत हुयी पूरी बारात को ही साक्षात जीवित कर दिया था । कैसे होता है यह सब ? यह हम आपको समय समय पर यहीं बताते रहेंगे ।
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आप कोई भी समाजी हों । पंथी हों । धर्मी हों । आदर्शवादी हों । व्यक्ति विशेष के अनुयायी हों । अथवा धर्म निरपेक्ष ही हों । नास्तिक हों । आस्तिक हों । या कोई खुद की बना ली धारणा हो । या कोई स्थिति परिस्थिति वश बना हठ हो । या व्यर्थ का मिथ्या अहम ही हो । थोङा गौर से ईमानदारी से सोचिये । क्या आपने उससे सम्बन्धित सोच विशेष का एक मोटा चश्मा तो नहीं लगा रखा है । जो आपको मुक्त उन्मुक्त स्वछ्न्द खिलखिलाते नित नूतन अजस्र प्रवाहित सत्य को नहीं देखने देता । अपनी अल्प क्षमता के चलते कोई एक दो पुस्तक विशेष । कोई कुछ प्रवचन आदि । किसी के कुछ आचरण आदि । या फ़िर किसी लोभवश किसी की विद्या विशेष से आकर्षित होकर । या फ़िर महज किसी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही कहीं आप एक संकीर्णता में । एक तुच्छ वर्ग में कैद तो नहीं हो गये ? जिसे कूप मंडूकता भी कहा जाता है । मैं आपको दो चीटियों के बारे में बताता हूँ । जिनमें एक नमक के पहाङ पर और एक मिश्री के पहाङ पर रहती थी । एक दिन दोनों की परस्पर भेंट हुयी । तो मिश्री के पहाङ वाली ये देखकर हैरान रह गयी कि किस तरह ये मिश्री की मिठास मधुरता आनन्द और अस्तित्व से अज्ञात होने के कारण इससे प्रत्येक भाव में विपरीत नमक के न सिर्फ़ गुणगान कर रही है । बल्कि

उसी को अन्तिम सत्य भी मान बैठी है । तब उसको असल सत्य से परिचित कराने हेतु उसने नमक वाली को अपने मिश्री के पहाङ पर आने का निमन्त्रण दिया । नमक वाली गयी तो । मगर अपने हठ और अज्ञान के चलते नमक का एक टुकङा मुँह में दबा ले गयी । क्या पता खाने को कुछ न मिला तो । मिश्री वाली ने उसे मधुर मिश्री का स्वाद चखाया । लेकिन नमक वाली को कुछ समझ में नहीं आया । वह अजीब सा मुँह बनाती रही । तब मिश्री वाली बोली - तुम्हारे मुँह में क्या दबा है । पहले उसे बाहर हटाओ । नमक मुँह से बाहर हो जाने पर नमक वाली चीटीं को मिश्री के असली स्वाद और रस का पता चला । वह एक अजीब से आनन्द से भर उठी । जिसकी अनुभूति उसे पहले कभी नहीं हुयी थी ।
तो आप जब तक हठ पूर्वक नमक की डली को दबाये ही रखेंगे । तो उसके साथ मिश्री का वास्तविक स्वाद कभी पता नहीं चलेगा । इसलिये मुक्त सत्य को देखने जानने के लिये सभी धारणाओं सभी अहम को त्याग कर उस वर्ग से बाहर आना ही होता है । जिसमें अपनी ही अज्ञानता और मूर्खतावश आपने स्वयं ही स्वयं को कैद कर रखा है । जकङ रखा है ।
हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता । गावहि वेद पुरान श्रुति सन्ता ।
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श्री कुलश्रेष्ठ जी ने इस समूह के उद्देश्य, विचार विमर्ष और प्रश्नों को आधारहीन और अनावश्यक बताया । उनका भाव था कि ये सभी कोरी कल्पना पर आधारित विषय हैं । जिनका यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं । उन्होंने यह भी कहा । मेरे प्रश्न लम्बे उबाऊ और बोरिंग श्रेणी के हैं । मुझे छोटे प्रश्न करने चाहिये । दूसरे जिक्र में श्री चन्द्रभूषण मिश्रा गाफ़िल जी ने कबीर जन्म से सम्बन्धित लेख को मनगढंत कहानी ( अप्रमाणित ) कहकर विमर्ष हेतु सही विषय चुनने की सलाह दी । ये अलग बात है । कृमशः प्रश्न उत्तर के बाद वे इसी लेख को अति महत्वपूर्ण बताने लगे । अब मेरी बात सुनिये । यदि मैं किसी भी प्रश्न को उसके जानकारी युक्त तथ्यों ऐतहासिक प्रसंगों संदर्भों तथा कुछ तर्क प्रमाण के सहित न रखूँ । तो धीरे धीरे प्रतिक्रियात्मक टिप्पणियों में भी तो लम्बे समय तक वही सब होगा । जो मैं पूर्व में ही लिख देता हूँ । और आपको सटीक चिन्तन की तरफ़ ले जाता हूँ । अगर सत्य के तल पर बात कही जाये । तो मुझे आपसे कुछ नहीं जानना है । या चर्चा भी नहीं करनी । मेरे तीन साल के इंटरनेट मंचीय उपस्थिति में आज तक ऐसा कोई अवसर नहीं आया । जब मैंने किसी से कुछ पूछा हो ।

या कोई मुझे कुछ हटकर बता सका हो । बल्कि मैं ही आपको नये नये प्रश्न देता रहा । और उन प्रश्नों के उत्तर भी । फ़िर इस सबको कहने का मेरा तात्पर्य यही है कि क्या वाकई मेरे प्रश्न आधारहीन और अनावश्यक लम्बे उबाऊ बोरिंग हैं । क्या यह समूह निरुद्देश्य और व्यर्थ समय व्यतीत करने का माध्यम भर है । जैसा कि श्री शर्मा जी कहते हैं - गपशप स्वास्थय के लिये लाभदायक है । इस पर आपके क्या विचार हैं ? कृपया स्पष्ट और अधिकाधिक शब्दों में बतायें ।

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Every thought is a seed 

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अभी पिछले कई महीनों से विभिन्न स्तरों पर व्यथित लोग अपनी अपनी समस्याओं को लेकर मुझसे समाधान पूछते रहे हैं । और किसी अज्ञात और अलौकिकता का जानकार मानते हुये मुझसे अपनी आपदा विपदा हेतु सहायता की याचना भी की । पर मैं उन बनावटी साधुओं में से नहीं हूँ । जो फ़ौरी तसल्ली हेतु झूठ कहकर व्यक्ति को वास्तविकता से दूर ले जाते हैं । और और भी झूठे भृम में डाल देते हैं । जिससे उन्हें हानि ही होती है । यद्यपि मैं आने वाले सभी वैश्विक घटनाकृमों को लेकर बहुत पहले ही सभी स्तरों पर स्थिति स्पष्ट कर चुका हूँ । फ़िर भी लोग घङे में ऊँट खोजना ही चाहते हैं । तब मैं कर भी क्या सकता हूँ । आप यदि सत्यकीखोज ब्लाग पर देखेंगे । तो मैं काफ़ी पहले ही बता चुका कि 11-11-11 यानी 11-11-2011 यानी 11 NOV 2011 को इस प्रथ्वी का जीव लेखा जोखा समाप्त हो चुका है । और ये किसी प्राकृतिक आकस्मिक आपदा जैसा न होकर सृष्टि नियम कानून के अंतर्गत ही हुआ है । यानी इसको इस तरह समझ सकते हैं कि 11 NOV 2011 से 2020 तक प्रथ्वी पर सम्पूर्ण रूप से नयी व्यवस्था का गठन होगा । जैसे कि किसी कार्यालय या सरकार में भी कभी कभी कुछ समय के लिये हो जाता है । देश में हो जाता है । या दीपावली आदि पर्व पर आपका घर भी तो अस्त व्यस्त हो जाता है । अतः एक तरह से प्रथ्वी पर अभी कोई नियम कानून नहीं चल रहा । अभी एक अस्थायी सरकार जैसा माहौल ही है । अभी प्रथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों की स्थिति एक शरणार्थी शिविर में रहने जैसी ही है । जो अस्त व्यस्त जीवन का ही रूप है । तब ऐसे समय में जो व्यक्ति बुरे समय के लिये जागरूक थे । वे अपनी अतिरिक्त व्यवस्था के चलते परेशान नहीं होते । लेकिन जो शुतुरमुर्ग की भांति रेत में गर्दन दबाये ही खुद को सुरक्षित मानते रहे । उन्हें कष्ट भोगना ही होगा । संक्षेप में जो पुण्यफ़ल रूपी भाग्य को संचित किये हैं । उन्हें कोई अधिक परेशानी नहीं । लेकिन जो रिक्त हैं । वे कई स्तर पर अभाव का सामना कर रहे हैं । अतः ऐसे में दैहिक दैविक भौतिक आपदाओं में उपचार से कोई राहत नहीं मिलती । यही बात है । जिससे आज किसी रोजगार का न मिलना । असाध्य रोग का उपचार न मिलना । महामारी सा फ़ैलना । अनेक अज्ञात से कलेशों से मनुष्य पीङित है । आप कुछ कुछ इसको वर्षा हीनता से अकाल जैसा समय मान सकते हैं । जिसमें हर तरह से भुखमरी और निर्धनता की स्थितियां बनती हैं । और बेहद सीधी सी बात है । इससे छुटकारा तभी होगा । जब सम्पन्नता का भंडार भरे काले काले मेघों से समृद्धि की बूँदें बरसेंगी । प्रथ्वी पर पुनः हरियाली छायेगी । और नवजीवन की शुरूआत होगी । क्या मैं कोई नयी और अलग बात कह रहा हूँ ? अतः आप मुझसे किसी भी प्रकार की झूठी तसल्ली की आशा न रखें । क्योंकि वह मेरा स्वभाव नहीं है ।
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श्री कृष्ण मुरारी शर्मा और दीपक ने दो अलग अलग विषयों को लेकर मुझे लिंक भेजे हैं । इससे अच्छा तो आप लोग मुझे शेखचिल्ली की कहानियों के लिंक भेज दिया करें । क्योंकि वहाँ कुछ मनोरंजन और ज्ञान तो है । यहाँ तो युवा विधवा के प्रलाप से अधिक कुछ नहीं है । चलिये वो लिंक यहाँ देते हुये मैं दीपक के प्रश्न को हल करता हूँ ।
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अज्ञात व्यक्ति - भूतकाल में जाने के सम्बन्ध में । ये प्रश्न मैं पहले भी 2 बार पूछ चुका हूँ । पर मुझे संतुष्टि नहीं हुई । इसलिए मैं अलग अलग प्रकार से प्रश्न कर रहा था ।
समय यात्रा के कई विरोधाभास भी है । जैसे कि - क्या होगा । जब कोई व्यक्ति भूतकाल में जाकर अपने पैदा होने से पहले अपने माता पिता की हत्या कर दे ? प्रश्न यह है कि यदि उसके माता पिता उसके जन्म से पहले ही मर गये । तो उनकी हत्या करने के लिये वह व्यक्ति पैदा कैसे हुआ ?
- इस प्रश्न भाव की कुछ अलग स्थितियां बनती हैं । माना कि वह व्यक्ति अभी यही जीवित हैं । तब वह मान लो इसी जन्म के माँ बाप ( भले ही वो जीवित हैं । या मर चुके ) के पास भूतकाल में उस समय जाता है । जब अभी वह पैदा ही नहीं हुआ था । तो फ़िर वह उस घटना में सिवाय देखने के कुछ नहीं कर सकता । क्योंकि घटना तो घट चुकी है । अब मान लो । वही व्यक्ति भविष्य में होने वाले अपने किसी जन्म के माँ बाप के पास जाता है । तो वह क्या करेगा कि उनसे अपने अच्छे बुरे सभी पुत्र संस्कारों को नष्ट कर देगा । और बिलकुल अलग हो जायेगा । क्योंकि जीव अविनाशी है । उसको कभी मारा नहीं जा सकता । इसको सरलता से समझने हेतु आप रंगमंच के पात्रों का तरीका समझिये । मान लीजिये । कोई राम या रावण ( जीवात्मा ) रामायण के लिये चयनित हुआ । तब यकायक शुरू में या मध्य में ही किसी पात्र ने मंचन ( जीवन या संस्कार ) से अनिच्छा जताते हुये उससे अलग ( योग द्वारा ) होना चाहा । तो उसका स्थान ( अन्य जुङे संस्कार ) कोई अन्य ले लेगा । और उसकी भूमिका खत्म ( नष्ट ) हो जायेगी । क्या आप नहीं जानते । परदे के पीछे वे चरित्र अभिनेता ( जीवन सम्बन्ध ) नहीं । सिर्फ़ इंसान ( जीवात्मा ) है । यदि आप इस मूल ज्ञान को समझें कि ये माता पिता भाई बहन सभी सम्बन्ध हम विभिन्न कर्म संस्कारों से अज्ञान स्थिति में स्वयं लिखते हैं । तो ज्ञान स्थिति में उनको मिटाया भी जा सकता है । योग और आत्मज्ञान का विषय ही क्या है ? फ़िर यही तो है । और ये रहा । इनका लिंक -
http://vigyan.wordpress.com/2010/12/10/timetravel/
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क्रांतिकारी भगत सिंह की हठी मानसिकता को लेकर श्री शर्माजी ने पता नहीं किस उद्देश्य से बिना कुछ लिखे मुझे सिर्फ़ एक लिंक भेजा है । जो मुझे बेहद गरीबों द्वारा अमीरों की व्यर्थ बुराई करके खुद को झूठी तसल्ली देने से अधिक कुछ नहीं लगा । और जो किसी जवान विधवा हुयी औरत के प्रलाप जैसा भी था । जो वास्तव में पति के मरने से कम अपनी भाग्यहीनता और आने वाले संकट को सोचकर अधिक दुखी थी । उस बेहूदा लिंक सामग्री पर कोई प्रतिक्रिया देने से पहले मैं शर्माजी से पूछना चाहता हूँ कि आखिर वह इस मूढता भरे लेख पर मुझसे क्या चाहते हैं ? उसे और उन प्रश्नों को यहीं टिप्पणी या पोस्ट द्वारा स्पष्ट लिखें ।
शर्माजी द्वारा दिया गया लिंक
http://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1931/main-nastik-kyon-hoon.htm

26 सितंबर 2013

समय की यात्रा क्या सम्भव है ?

समय की यात्रा क्या सम्भव है ? इस पर अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं है । एक बहुप्रसिद्ध शब्द " त्रिकालदर्शी " से क्या ध्वनि निकल रही है ? यानी भूतकाल, वर्तमान और भविष्यकाल को देखने वाला । और जब देख सकता है । तो इसके आगे की कङी में किसी भी काल में चले जाना भी हो सकता है । यदि सरल उदाहरणों में देखा जाये । तो राम श्रीकृष्ण आदि प्रसिद्ध उदाहरणों में बहुत से ऋषि मुनियों को उनके अवतरण के बारे में काफ़ी पहले से ही मालूम था । राम जब वनवास में कई ऋषियों से मिलते हैं । तो बहुत साधु उन्हें बताते हैं कि - आपके आगमन के बारे में फ़लाने ऋषि ने बहुत पहले ही बताया था । शबरी के गुरु मतंग ऋषि ने भी बताया था । श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध का परिणाम युद्ध से पूर्व ही अर्जुन को दिखा दिया था आदि आदि । ये भविष्यकाल की यात्रा थी । भूतकाल के उदाहरणों में जब कुछ धार्मिक चरित्र अपनी कष्टमय अवस्था को लेकर दुखी हुये । तो किसी सन्त आदि ने उन्हें उनके पूर्व जन्म के वृतांत बताकर कारण सहित समझाया कि अभी की परिस्थितियां पूर्वजन्म के किस कारण संस्कार वश बन रही हैं । इस तरह त्रिकालदर्शी शब्द यह साबित करता है - समय की यात्रा निश्चय ही संभव है । भूत वर्तमान और भविष्य में योग द्वारा ( अ ) प्राकृतिक आवागमन के ढेरों उदाहरण हैं । इसकी विधि में पूर्णतः सक्रिय और शक्ति सम्पन्न आज्ञाचक्र को योग चेतना से जोङा जाता है । फ़िर इन दोनों को " कारण क्षेत्र " में ले जाया जाता है । 

जहाँ सभी घटनायें किसी दृष्य श्रव्य चलचित्र की भांति मौजूद हैं । महाशक्तियों के बारे में जानने हेतु योग चेतना और आज्ञाचक्र को " महाकारण क्षेत्र " से जोङा जाता है । जहाँ अन्य त्रिकालिय बृह्माण्डिय गतिविधियों को भी देखा, जाना, हुआ, जा सकता है ।  
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धुआं तभी उठता है । जब कहीं कोई चिंगारी होती है । और जब चिंगारी होती है । तो कुछ न कुछ सुलग भी रहा होता है । और जब सुलग रहा होता है । तो अनुकूलता पाकर वह आग का रूप भी धारण कर सकता है । और फ़िर वह आग और अधिक अनुकूलता मिलने पर प्रचंड भी हो सकती है । अतः महान सनातन भारतीय धर्म के कथानकों शब्दों तथ्यों को सिर्फ़ पोंगापंथी या " मिथक " जैसा ही मानने की भूल कभी न करें । हाँ अति सूक्ष्म रहस्य की विषय वस्तु और अति गूढता की परिभाषा में आने के कारण वह आम जन मानस को एकदम समझ में न आने जैसा अवश्य होता है । पर गम्भीरता से जब आप उसका अध्ययन मनन करने लगते हैं । तो वह फ़िर शनैः शनैः 

ग्राह्य होने लगता है । फ़िर क्या ये बात भौतिकवाद में नहीं है । आप में से हरेक कोई क्या इस कम्प्यूटर के बिगङे स्थापन जैसे मामूली कार्य को पुनर्स्थापन कर सकता है । जबकि आप रोज ही इसका उपयोग करते हैं । तब फ़िर अति सूक्ष्म विज्ञान तो तुलनात्मक बेहद बेहद कठिन है । क्या आप सहमत हैं ?
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शास्त्रार्थ परम कर्तव्यम की जिज्ञासा भूतकाल में भौतिक शरीर या स्तर से जाने पर - इसके लिये सबसे आवश्यक चीज योग और उसके स्तर को समझना होगा । योगी का स्तर जितना ऊँचा होगा । उसके कार्य की उच्चता, प्रकार और पहुँच भी उसी स्तर के अनुसार ही होगी । जैसे संसार में भी किसी के तन मन धन - बल और उसके ज्ञात पहुँच क्षेत्र के अनुसार ही गतियां और विभिन्न कार्य संभव है । अतः सबसे पहले गीता आदि प्रमुख आत्मज्ञान ग्रन्थों के अनुसार ये समझना होगा कि आत्मा सदैव अचल ही है । सिर्फ़ जीव आता जाता है । जीव और आत्मा मिलकर जीवात्मा का सृजन होता है । यह सृजन आत्मा के सोहं भाव से होता है । जिसके अनेक प्रकार इच्छाओं से निर्मित होते हैं । राम जन्म के हेत अनेका । अति विचित्र एक ते एका । इसी स्थिति के लिये कहा गया है । 

किसी भी योग का मूल सिद्धांत अधिकाधिक स्वयं की चेतना में ( स्वयं ) स्थिति होना । जो बाहर बिखरी हुयी है । और फ़िर उस चेतना को भी परम चेतना से जोङना । और धीरे धीरे योगी चेतना को परम चेतना से एकाकार करते रहना । और फ़िर उसी में स्थिति होने को पाना । परम चेतना के संयोग से जब किसी योगी के चेतना स्तर में जो वृद्धि होती है । वही उस योगी का स्तर हो जाता है । सबसे अन्त में योगी की चेतना और ( कर्ता ) अस्तित्व खत्म ही हो जाता है । और वह परम चेतना ही हो जाता है । जेहि जानहि जाहे देयु जनाई । जानत तुमहि तुम ही हो जाई । फ़ूटा घट जल जलहि समाना । येहि गति बिरलै जानी । या बूँद का समुद्र से मिल जाना आदि आदि कहा गया है ।
अब भूतकाल यात्रा को आप मनुष्य स्तर पर ही समझें । आप अपनी स्मरण और इच्छाशक्ति की शक्ति के आधार पर ही उसके स्तर अनुसार भूतकाल के कई स्थानों पात्रों घटनाओं को लगभग स्मृति के अनुसार सजीव कर लेते हैं । और उस समय वह घटना या पात्र प्रभाव के अनुसार सजीव हो उठता है । इसी तरह आप भविष्य की कल्पनाओं के भी अक्सर ऐसे मनमोहक चित्र बनाते हैं । दरअसल जिनका अभी कोई अस्तित्व ही नहीं । फ़िर भी स्मृति और कल्पना दोनों में ही भूमि और सृष्टि पदार्थ पूर्णरूपेण मौजूद होते हैं । इसको सटीक रूप से समझने हेतु सामान्य जीवन में एक बहुत अच्छा उदाहरण है । जब किसी के अति प्रिय की मृत्यु हो जाती है । तो उसके अतीत और साथ से जुङे सभी दृश्य उस दुखी व्यक्ति के समक्ष जैसे साकार हो उठते हैं । जैसे दशरथ को भी मृत्यु के समय गहन आसक्ति और अति दुख के कारण सिर्फ़ राम लक्ष्मण सीता बार बार साक्षात दिख रहे थे ।
ऐसा क्यों होता है ? दरअसल उस समय समस्त इन्द्रियां और मन आदि वृति की पूर्ण एकाग्रता उसी एक विषय पर केन्द्रित हो जाती है । जैसे सर्प के काटे में मृत्यु भय से एकाग्र हुआ प्रभावित इंसान कबूलता है । यानी उस घटना को बिलकुल उसी रूप में बताता है ।
क्योंकि ये घटना तब स्वाभाविक क्रिया से अनचाहे हो जाती है । पर योग में यही क्रिया अभ्यास से सिद्ध होती है । दोनों की क्रिया लगभग समान ही है । तो अब आप ये समझें कि सामान्य अवस्था में क्षीण चेतना वाला व्यक्ति एकाग्र होने पर ऐसा अदभुत महसूस करता है । या अनुभव होता है । या फ़िर ( और आगे में ) होता है । तब योगी का स्तर सामान्य से बहुत अधिक होता है । अब मूल बात वही है । एक सामान्य व्यक्ति का ज्ञान पहुँच स्मृति इच्छाशक्ति तुलनात्मक योगी बहुत कम होते हैं । जबकि योगी में यह % बहुत बहुत अधिक होता है । तब वह भूत या भविष्य चित्र को आंतरिक विज्ञान द्वारा बाकायदा जानकारी और अधिकार में करता है । और उस भूमि को साक्षात कर उसमें प्रवेश कर जाता है । लेकिन सूक्ष्म रूप से जाने या न जाकर वहीं से कुछ कार्य करने जैसे यहाँ अनेकानेक प्रकार बन जाते हैं । हाँ भौतिक शरीर से सशरीर जाने हेतु उस तरह के योग को सिद्ध करना होता है । दरअसल इस स्थिति पर पहुँचा योगी बहुत कुछ कर सकता है । जैसे एक ही समय में अनेक जगह पर होना तक भी । जो आपको यहाँ कृमशः पढने को मिलता रहेगा ।

24 सितंबर 2013

काले जादू का जन्म कैसे हुआ ?

चलिये आज आपको जादू अथवा काला जादू के जन्म के बारे में बताता हूँ । लेकिन यहाँ जादू शब्द से अर्थ आजकल के प्रचलित जादू से न होकर तन्त्र मन्त्र अथवा अलौकिक योग शक्तियों से ही है । इस घटना का सम्बन्ध उसी बात से है । जिसको लेकर आजकल मोक्ष या भागवत कथाओं का बहु प्रचलन फ़ैला हुआ है । यानी अर्जुन पुत्र अभिमन्यु पुत्र परीक्षित का कलि प्रेरित होकर ऋषि के गले में सर्प डालना । और फ़िर ऋषि पुत्र द्वारा सात दिन के अन्दर परीक्षित को खतरनाक तक्षक द्वारा डसने से मृत्यु का शाप देना । और परीक्षित द्वारा नैमिषारण्य में राजा जनक के शिष्य शुकदेव से मोक्ष उपाय कराना । यानी ये उसी सात दिन के बीच के समय की बात है । और शाप अनुसार तक्षक नाग मनुष्य रूप में उसी स्थान पर जा रहा था । जहाँ परीक्षित शुकदेव के साथ थे । 

तब अचानक उसने देखा । धनवंतरि वैद्य अपने कई शिष्यों की टोली के साथ उधर से ही जा रहे थे । जिज्ञासावश उसने यूँ ही पूछ लिया - आप लोग कहाँ जा रहे हो ? और उन्होंने जो कहा । उसे सुनकर तक्षक भौंचक्का रह गया । धनवंतरि बोले - एक शाप के अनुसार राजा परीक्षित को खतरनाक तक्षक डसने वाला है । जिससे उसकी मृत्यु हो जायेगी । और मैं उसको संजीवनी विद्या द्वारा पुनर्जीवित कर दूँगा ।
तक्षक को यह सुनकर मानों जबरदस्त हँसी आयी । पर अपने भावों को दबाकर वह उपहास से बोला - क्या आप ऐसा कर सकते हो ? क्योंकि तक्षक का विष बहुत भयंकर होता है ।
धनवंतरि ने सामान्य अन्दाज में इसको मामूली कार्य ही बताया । और कहा - मैं इसका प्रमाण यहीं तुरन्त भी दे सकता हूँ ।
तब एक हल्के विवाद के बाद तक्षक ने सामने ही खङे वट वृक्ष पर जहर फ़ेंका । तत्काल ही वह वट वृक्ष जलकर खाक हो गया । इसी घटना से बहुत से स्थानों पर ग्रामीण भाषा में वट को बरी ( जली हुयी ) कहा जाने लगा । धनवंतरि ने हल्की सी मुस्कान के साथ कुछ ही पलों में उस वृक्ष को पूर्ववत हरा भरा कर दिया । तक्षक के मानों होश उङ गये । धनवंतरि एकदम सही कह रहे थे । दरअसल एक अलौकिक विद्या के तहत धनवंतरि की दृष्टि में जहर को खत्म करने का विशेष प्रभाव था । अतः उनकी दृष्टि जहाँ जहाँ तक जाती थी । वह क्षेत्र विष रहित हो जाता था । 

इस बात को जानकर समझ कर तक्षक बेहद सोच में पङ गया । उसने धनवंतरि की भरपूर प्रशंसा की । और उनसे विदा लेकर अलग हो गया । तब मायावी तक्षक ने धनवंतरि को ही रास्ते से हटाने की एक नयी चाल खेली ( क्योंकि इस हिसाब से धनवंतरि सर्प जाति के दुश्मन समान थे ) । और घूमकर उसी रास्ते में एक सुन्दर छङी का रूप धारण कर लेट गया । जिस रास्ते से धनवंतरि को गुजरना था । धनवंतरि के शिष्यों ने जब रास्ते में एक सुन्दर बहुमूल्य छङी पङी देखी । तो उठाकर गुरु के पास ले आये । होनी शायद प्रबल थी । धनवंतरि ने उस छङी को कन्धे पर टांग लिया । यानी छङी का मुँह अब धनवंतरि के कन्धे पर था । और यही तो तक्षक चाहता था । उसी समय उसने धनवंतरि को डस लिया । धनवंतरि तुरन्त तक्षक की चाल समझ गये । पर अब देर हो चुकी थी । अपने ही कन्धे पर धनवंतरि की दृष्टि किसी भी हालत में नहीं जा सकती थी । और उनकी मौत निश्चित थी । तब उन्होंने उपचार के रूप में अपने शिष्यों से एक बढा गढ्ढा खोदकर उसमें नीम की बहुत सी पत्तेदार टहनियों के बीच खुद को दबाने को कहा । और एक महीने से पहले किसी भी हालत में न निकालने को कहा । अन्यथा फ़िर बचने का कोई चांस नहीं होगा । तथा इसी दरम्यान ढांक बजाते रहने को कहा । शिष्यों ने ऐसा ही किया । क्योंकि तक्षक उनसे मन ही मन दुश्मनी मान चुका था । अतः वह फ़िर से ब्राह्मण मनुष्य के वेश में गढ्ढे के पास ढांक बजाते धनवंतरि के शिष्यों के पास पहुँचा । और बोला - ये तुम सब क्या कर रहे हो ? 

धनवंतरि के शिष्यों ने दुखी अन्दाज में सब हादसा बताया । तब वह उनकी मति हरण करता हुआ बङे उपहास भरे अन्दाज में बोला - अरे पागलो ! कहाँ उस बूढे गुरु की बातों में पाप और समय नष्ट कर रहे हो । वो कब का सढ मर गया होगा । नहीं मानते । तो उसे निकाल कर देखो । वहाँ अब कुछ भी नहीं बचा होगा ।
शिष्य भृमित हो गये । और उन्होंने धनवंतरि को निकालना शुरू कर दिया । तक्षक चुपके से गायब हो गया । बाहर निकलने पर सब बात सुनकर धनवंतरि ने माथा पीट लिया । और शिष्यों से कहा । अब उनकी मृत्यु निश्चित है । लेकिन अपनी विद्याओं को सतत जारी रखने के उद्देश्य से उन्होंने अपने शिष्यों से कहा - अब मैं तो मरूँगा ही । ये तय है । पर तुम लोग मेरे शरीर के बहुत छोटे छोटे टुकङे करके माँस को अलग अलग हाँडी में पकाना । और प्रत्येक शिष्य उस माँस को खा लेना । इस तरह तुममें से प्रत्येक को वह ज्ञान प्राप्त हो जायेगा । जिसके लिये तुम मेरे शिष्य बने । और अबकी बार कोई कुछ भी कहे । किसी की बातों में मत आना ।
शिष्यों ने हामी भरी । और सब कुछ अजीब सा लगने के बाबजूद भी उन्होंने ऐसा ही किया । वे समुद्र तट के पास अलग अलग हांडी में गुरु का मांस पकाने लगे । तक्षक फ़िर किसी स्थानीय व्यक्ति के वेश में उनके पास पहुँचा । और हैरानी से बोला - ये तुम लोग क्या कर रहे हो ? संभवतः तक्षक मति हरण सा करता था । अतः मन्त्र मुग्ध से ही वह फ़िर से सब कुछ बताने लगे । तक्षक फ़िर ठठाकर हँसा । और बोला - तुम लोग निश्चय ही बङे पागल हो । अरे ! गुरु ने कुछ भी उल्टा सीधा बोल दिया । और तुमने मान लिया । तुम्हें मालूम नहीं कि गुरु का माँस खाकर तुम घोर नरक को प्राप्त होओगे । ऐसा कहीं होता है भला ।
शिष्य घबरा गये । और पूछा - फ़िर क्या करना चाहिये । 
तक्षक ने वह सभी हंडियां समुद्र में फ़िंकवा दी । लेकिन कहते हैं । एक काने शिष्य ने लालच और परीक्षण वश उसमें से एक टुकङा खा लिया ( कुछ लोग कहते हैं । उंगली डुबोकर चाट ली ) फ़िर वह हंडियां समुद्र में बहते हुये बंगाल के कुछ लोगों को भी प्राप्त हुयीं । और जिज्ञासावश उनमें से कुछ ने वह माँस खा लिया । और इस तरह धनवंतरि के कहे अनुसार कुछ उनके काने शिष्य और कुछ बंगाली लोगों द्वारा काला जादू अस्तित्व में आया ।
यह कथा आजकल के भागवत कथा वाचक अथवा शास्त्री भी प्रायः अपनी कथा में सुनाते हैं । क्या आप इस ऐतिहासिक अनोखी घटना से सहमत हैं ?
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आत्मज्ञानी या आत्म ज्ञान से जुङे सन्तों द्वारा मुर्दा जीवित करने के कई उदाहरण मिलते हैं । जिनमें से कुछ प्रसिद्ध उदाहरणों में कबीर नानक द्वारा भी मुर्दा जिन्दा करने का प्रसंग आता है । इनसे पूर्व एक प्रसिद्ध सन्त खिज्र साहव हुये । जो मूसा के गुरु थे । इन्होंने तो बारह वर्ष पूर्व नदी में डूब गयी पूरी बारात को ही मूसा के सामने कुछ देर के लिये जिन्दा किया था । और मूसा के ही सामने नदी में बहकर जाते एक अन्य मुर्दे को कुछ देर के लिये जीवित किया था । लेकिन कबीर और नानक द्वारा जीवित किये गये मृतक बाद में भी आयु भर जीवित बने रहे । पर यह सब तुलनात्मक इस उदाहरण के काफ़ी पुरानी बातें हैं । तोतापुरी के शिष्य रामकृष्ण परमहँस के गुरुभाई श्री अद्वैतानन्द जी ( छपरा, बिहार ) हुये हैं । अद्वैत मिशन, सार शब्द मिशन आदि से इनके स्थान स्थान पर कई शहरों में विशाल आश्रम हैं । आनन्दपुर ग्वालियर । आगरा तपोभूमि और पंजाब में भी कई स्थानों पर । इन्हीं के एक विश्व प्रसिद्ध शिष्य सन्त स्वरूपानन्द जी के नाम से हुये हैं । जो सिंध प्रान्त के टेहरी ( अब पाकिस्तान ) स्थान से थे । लेकिन उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश पंजाब आदि राज्यों में गुरु आज्ञानुसार आजीवन रहे । और लगभग 80 वर्ष पहले ही शरीर त्यागा है । 15 किमी के विशाल क्षेत्र में नंगली ( मेरठ ) तीर्थ के नाम से इनका आश्रम है । जहाँ ये अन्तिम समय तक रहे । इसी नंगली से प्रकाशित इन दोनों सन्तों के सम्पूर्ण जीवन चरित्र पर आधारित पुस्तक " स्वरूप दर्शन " में श्री स्वरूपानन्द जी द्वारा एक शिष्य के 15 वर्षीय बालक को जीवित करने का वर्णन है । जो आकस्मिक रूप से नहर में डूबकर मर गया था । जाहिर है । वह बालक या घटना के साक्षी कुछ अन्य लोग इस समय जीवित हो सकते हैं । स्वरूप दर्शन पुस्तक की एक खासियत और कई लोगों ने बतायी है कि यदि इसे पूर्ण श्रद्धा भाव से पढें । तो अंतर में जाग्रति के अलौकिक अनुभव उसी समय होने लगते हैं । भारत की इस अदभुत रहस्यमय सन्त परम्परा के दृष्टिगत क्या आपको यह सही लगता है ?
सन्तन की महिमा रघुराई । बहु विधि वेद पुरानन गाई ।
मोर वचन चाहे पङ जाये फ़ीका । सन्त वचन पत्थर की लीका ।

23 सितंबर 2013

पागल के संग पागल बनना

ऐसा भी होता है ? की तर्ज पर आप आश्चर्य करें । तो बेशक करते रहें । पर ये सत्य है । और मैंने दो लगभग लाइलाज ठहरा दिये गये रोगियों पर इसका सफ़ल प्रयोग किया है । अक्सर आपने बहुत से मन्दबुद्धि या पागल घोषित बच्चों व्यक्तियों को देखा होगा । या जीवन के लिये आवश्यक कर्तव्यों में बहुतों की निष्क्रियता उदासीनता भी देखी होगी । क्या ही आश्चर्य है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान न तो इसका सही कारण ही जानता है । और न ही उसके पास इसके लिये कोई सटीक चिकित्सा ही है । ओह ! विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति के बाबजूद भी ये दुखद ही है । पर आध्यात्म विज्ञान में इसका इतना सरल सटीक और मुफ़्त उपाय है कि आपको हैरानी होगी । आपने प्राचीन सनातन धर्म संस्कृति में हिन्दू स्त्री पुरुषों बच्चों आदि को मस्तक पर बिन्दी या तिलक लगाते देखा होगा । ये इसीलिये लगाया जाता है । ताकि आपका ध्यान और जुङाव आज्ञाचक्र से जुङा रहे । और आपका मन सही  विचारों पर सन्तुलित होकर केन्द्रित रहे । ऐसा होने पर कोई भी व्यक्ति असाधारण रूप से सन्तुलित और सम बुद्धि हो जाता है । पर ये तो सामान्य ( या कुछ ही अवस्थिति ) स्थिति वालों की बात थी । लगभग पागल या बुद्धि रहित 

घोषित व्यक्ति पर सिर्फ़ तिलक से काम नहीं चलेगा । दरअसल क्या होता है । मानसिक शारीरिक दैविक दोष या किसी तन्त्र मन्त्र क्रिया द्वारा उस व्यक्ति पर कोई घात या पूर्व जन्म के कर्म दोष के कारण ऐसे व्यक्तियों का आज्ञा चक्र सिकुङ जाता है । और फ़िर वे अपने मष्तिष्क और शरीर का या किसी क्रियात्मक कार्य का तारतम्य उस कार्य से एक सामान्य मनुष्य की तरह से नहीं जोङ पाते । और इस आदेश को ग्रहण करने के बाद । कार्य रूप परिणति होने ( तक या ) के बीच में उसकी रोग स्थिति अनुसार विभिन्न रोगियों के कई स्तर होते हैं । इसीलिये पागलपन का % बहुत मामूली से लेकर बहुत अधिक तक कुछ भी हो सकता है । उदाहरण के लिये ऐसे व्यक्ति से आप एक गिलास पानी माँगे । तो वो सुने ही न । देर लगाये । या पानी लाने में ही अजीब सी क्रियायें करें । या वो पानी लाने के लिये चले तो । लेकिन बीच में ही उसका मष्तिष्क कहीं और आकर्षित हो जाये । या वो कुछ ही सेकेण्ड में यह छोटी सी बात ही भूल जाये । या वो गिलास ही फ़ेंक दे । गिलास मार दे आदि आदि अनेकों स्थितियां हो सकती हैं । इसके उपाय के लिये उस व्यक्ति के माथे पर आज्ञाचक्र के स्थान पर हथेली से 

हल्की हल्की थाप देनी होती है । इसको थोङे थोङे अन्तर के बाद एक बार में आठ दस बार ही दें । इसके अतिरिक्त रोगी के माथे पर एक रुपये का सिक्का या वैसा ही कुछ अन्य पट्टी द्वारा देर तक बाँधे रखें । ध्यान रहे । प्रत्येक उपाय के बीच में उसे कुछ देर सामान्य स्थिति में भी छोङना होगा । इसके अलावा आप कोई गोंद समान पदार्थ भी कभी कभी आज्ञाचक्र पर लगा सकते हैं । जिससे वह सूखने पर कुछ जकङन या खिचाव सा बनाये । अतः आप सुविधानुसार ये तीनों ही तरीके अदल बदल कर दोहराते रहें । इसके अलावा ऐसे रोगी के प्रमुख उपचार में एक अनोखा मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाना होता है । वह है - पागल के संग पागल बनना । इस मनोवैज्ञानिक तरीके में कोई एक व्यक्ति उस पागल से दोस्ताना व्यवहार बना ले । और लगभग वैसे ही क्रियाकलाप स्वयं भी करे । जो पागल को लुभाते हैं । जैसे जीभ दिखाना । व्यर्थ में हँसना । ताली बजाना । नाचना कूदना आदि । तो उस सहयोगी व्यक्ति का व्यवहार उस पागल को आकर्षित करेगा । और वह स्वाभाविक ही सिद्धांततः उससे निकटता महसूस करेगा । उसके अधिकाधिक साथ रहना चाहेगा । क्योंकि उसे

वह अपने जैसा ही लगेगा । तब वह सहयोगी व्यक्ति उसे विभिन्न खेलों द्वारा अन्य क्रियाओं द्वारा फ़िर से मष्तिष्क की स्वाभाविक सामान्य क्रियाओं से जोङ सकता है । और बिगङ गये मानसिक असन्तुलन को फ़िर से ठीक कर सकता है । ऐसे खेलों के उदाहरण में एक दूसरे के द्वारा उछाली गयी बङी गेंद को लपकना । एक दूसरे को गोद में उठाना । उठाकर चलना । पी टी आदि एक्सरसाइज समान शारीरिक क्रियायें करना । अच्छे शब्द जोर जोर से बोलना । प्रार्थना आरती आदि जोर से गाकर स्मरण कराना आदि आदि व्यक्ति देश काल समाज स्थिति परिस्थिति साधन सुविधा के अनुसार आसानी से उपलब्ध किसी भी उपाय को सरलता से प्रयोग में लाया जा सकता है । शायद आप आश्चर्य करें । पर बहुत हद तक अवसाद लकवा या ऐसे ही कुछ शारीरिक मानसिक रोगों में भी यह उपाय कारगर होता है । लेकिन बहुत बेहतर होगा । आप ऐसा कोई गम्भीर प्रयास करने से पूर्व मुझसे फ़ोन न. 0 94564 32709  पर सलाह अवश्य कर लें । प्रस्तुत लेख के किसी बिन्दु पर यदि आप अस्पष्ट हैं । तो फ़िर से पूछें ।
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ये हँसने की ही बात है कि मैं भी कहाँ कहाँ से आपको झूठी पौराणिक बातें बताता रहता हूँ । और आप उन पर आसानी से यकीन भी कर लेते हैं । तब फ़िर एक और झूठी बात ये है कि रावण का भाई विभीषण दशरथ का पुत्र था । मुझे ऐसा लगता है । रावण और कुम्भकरण की आयु लगभग 4 000 वर्ष की थी । विभीषण की आयु 8 000

वर्ष थी । और राम की आयु लगभग 12 000 वर्ष थी । शायद आपको पता न हो । अभी दशरथ का एक भी विवाह नहीं हुआ था । और उससे पहले ही रावण का साम्राज्य फ़ैल चुका था । यहाँ तक कि इसी समय पर उसने सभी देवताओं को अपने कारागार में बन्दी कर दिया था । रावण स्वयं भी अच्छा योगी था । और अपने पिता आदि सहित अच्छे योगियों से भी जुङा हुआ था । तब देवताओं और ऐसी ही अन्य अलौकिक ज्ञान विभूतियों से उसे पता चल गया था कि दशरथ पुत्र राम के हाथों ही उसका वध होगा । अतः अपने ज्ञात मरण को रोकने के लिये रावण ने जो कई प्रयास किये । वह तो अलग थे ही । पर पुत्र मोह में उसकी माँ कैकसी ने भी एक प्रयास किया था । साम दाम दण्ड भेद की नीति अपनाते हुये कैकसी स्त्रियोचित चतुर युक्ति के साथ दशरथ के पास गयी । ध्यान रहे । दशरथ इस समय अविवाहित ही थे । कैकसी ने अपना स्त्रियोचित सरल उपाय काम आकर्षण से प्रभावित करना ही रखा । और वह कुछ समय तक दशरथ के साथ दूर दूर भी पास पास भी वाले अन्दाज में रही । दरअसल उसका उद्देश्य था कि किसी भी प्रकार वह दशरथ की सन्तानोत्पत्ति क्षमता को ही नष्ट कर देगी । कुछ साधु तो यहाँ तक मानते हैं कि उसने दशरथ को शिश्न रहित ही कर दिया था । जो भी हो । पर ये तय है कि दशरथ के साथ इसी भावना से समय बिताने के फ़लस्वरूप कैकसी को गर्भ ठहर गया । और उसी के फ़लस्वरूप बाद में विभीषण का जन्म हुआ ।
यह विवरण आपके मन में कई प्रश्न उठा सकता है । पर यदि गौर से इसके तथ्यों पर विचार करें । तो ये सत्यता के काफ़ी करीब लगता है । कैकसी असुर जाति से सम्बन्ध रखती थी । और विभिन्न जङी बूटी या मायावी ज्ञान से भी सम्पन्न थी । वह पूर्व योजना के साथ छल बुद्धि से इसी कार्य हेतु गयी थी । जबकि दशरथ को इसका कोई आभास या पूर्वाभास भी नहीं था । तब वह किसी भी समय उन्हें कोई ऐसी वस्तु खिला पिला सकती थी । जो उनकी सन्तान उत्पत्ति क्षमता को नष्ट कर दे । या गम्भीर शिश्न विकार हो जाये । ये घटना सत्य इसलिये और भी लगती है कि वाकई में दशरथ के वृद्धावस्था तक कोई सन्तान ही उत्पन्न नहीं हुयी । और फ़िर उनके द्वारा तो कभी ही नहीं हुयी । उधर विभीषण भी असुर कुल का होने के बाबजूद आश्चर्यजनक रूप से सात्विक आचरण का था । और राम ( तथा उनके परिवार ) से उसका बेहद लगाव था । जो वर्तमान के जींस आदि वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार मेल खाता है । जो भी हो । आप इस पर क्या सोचते हैं ? लेकिन कोई भी प्रतिक्रिया तथ्य रहित न हो । प्रतिक्रिया में कुछ स्पष्ट अवश्य होना चाहिये कि ऐसा या वैसा आखिर क्यों ?
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योगाग्नि के मूलभूत मुख्य सिद्धांत और रहस्य

हमारे एक नियमित पाठक और शुभचिन्तक को योगाग्नि के बारे में जिज्ञासा हुयी है । और मैंने सदैव ही कहा है । यदि वह शब्द हिन्दी या संस्कृत का है । तो बहुत अधिक अर्थ स्वयं ही स्पष्ट कर देता है । जैसे यह शब्द योग और अग्नि से संयुक्त होकर बना है । योग का सीधा मतलब जोङ या संग्रह से है । और अग्नि का ताप से है । तब यह शब्द इतना बताकर चुप हो जाता है कि किसी प्रकार के ताप का संग्रह । लेकिन हमने इतनी भारी भरकम धार्मिक धारणायें बना रखीं हैं कि किसी से इस शब्द का अर्थ पूछो । तो शायद सतयुग से लेकर अब तक की कथा ही बता डाले । इसीलिये हम इतना सरल सहज ज्ञान समझने से वंचित हो जाते हैं । क्योंकि हमें सरलता के बजाय जटिलता में उलझना कुछ अधिक ही अच्छा लगने लगा है ।
अतः हम योगाग्नि के बारे में बात करते हैं । अब यहाँ योग शब्द अपनी क्रिया ( जुङाव ) करके निष्क्रिय हो जायेगा । इसका कार्य सिर्फ़ इतना ही है । उदाहरण के लिये आप विद्युत के किसी प्लग का विद्युत स्रोत से योग कर दें । आगे जरूरत रह जाती है । किसी ताप विशेष की । यहीं से सृष्टि की अथाह विलक्षणता और विभिन्नता किसी साधक या योगी के सामने कृमशः उसके गुरु और स्वयं उसकी क्षमता अनुरूप प्रकट होने लगती है । फ़िर भी कहना उचित ही है कि कोई भी गिनती सदैव 1 से ही शुरू होती है । या आप किसी अपार खजाने के एकदम पास भी पहुँच जायें । तो भी उसको थोङा थोङा करके ही भर पायेंगे । आप किसी फ़लदार बाग में पहुँच जायें । तो भी क्षमता से अधिक नहीं खा सकते । अतः धीरता गम्भीरता सरलता आदि गुण किसी भी यौगिक क्रिया के आवश्यक अंग है । जो वास्तव में सच्चे सन्तों की संगत और सतसंग ( ज्ञान ) से ही समझ में आते हैं ।

बारह वर्ष रहो सन्त की टोली । आवे समझ तब हँस की बोली ।
खैर..आईये इसी बहाने आपको योगाग्नि या योगशक्ति के मूलभूत सिद्धांत और रहस्य से अवगत कराते हैं । ऊपर स्पष्ट हो चुका है - ताप । और इसको और भी प्राथमिक रूप में देखें । तो - ऊर्जा । अब यदि आध्यात्म के सूक्ष्म झमेले में पङने के बजाय सिर्फ़ ऊर्जा शब्द से ही समझें । तो अधिक आसानी रहेगी । पहले कई बार बता चुका हूँ । चेतन गुण सिर्फ़ आत्मा में ही होता है । और उसी की चेतना से मूल ऊर्जा का निर्माण होता है । जो विराट सृष्टि में स्थिति अनुसार वितरण होकर बिखरी हुयी भी है । और निरन्तर असीम स्तर पर उत्पन्न भी हो रही है । इसी मूल ऊर्जा के अनेक रूपान्तरण बन जाते हैं । जिसका सबसे प्रथम शुद्ध रूप वह आकाशीय विद्युत है । जो हमने देखी ही है । इसके बाद ये अनेकानेक स्थूल रूपों में हो ( कर विभिन्न पदार्थों में भी नियम अनुसार लय ) जाती है । लेकिन जो आकाशीय विद्युत वाली शक्ति है । यह सिर्फ़ उच्च स्तरीय आत्मज्ञानी सन्तों के पास 

ही होती है । द्वैत की सबसे बङी शक्तियों या अद्वैत की भी कुछ महाशक्तियां इससे वंचित रहती हैं । क्योंकि इसको संभालना तो दूर छूना भी कल्पना से परे ही है ।
तब कोई साधक नीचे से अपने सत रज तम तीन गुणों युक्त यंत्र शरीर से कृमशः सत गुण द्वारा सात्विक ऊर्जा को योग द्वारा ग्रहण करता हुआ संग्रह भी करता है । और उसी ऊर्जा का प्रयोग कर अंतरिक्ष में ऊपर भी उठता है ।
अब सबसे मुश्किल ये है कि हठवादिता के चलते प्रायः मनुष्य किसी भी वस्तु या क्रिया का मूलभूत नियम सिद्धांत जाने माने बिना अपनी मनमानी करता है । और किसी नतीजे पर न पहुँचता हुआ प्रायः ज्ञान या सन्तों में दोष निकालता है । या इस ज्ञान को " मिथक " जैसा नाम देता है । इसलिये आईये जाने । वर्षों तक ध्यान पर घण्टों बैठने जप तप के बाद भी क्यों मनुष्य में योग शक्ति का जागरण नहीं होता ।
लेकिन उससे पहले मैं आपको एक भौतिक जगत के उदाहरण से समझाता हूँ । मान लीजिये । आपके पास एक मोबायल फ़ोन का चार्जर है । और केवल वही यंत्र या तरीका है । जिससे निकलती 2-3 वोल्ट की ही विद्युत आप उपयोग कर सकते हैं । वह भी तब । जब वह चार्जर ( स्वस्थ शरीर ) एकदम सही स्थिति में हो । तब इस चार्जर से प्राप्त विद्युत से आप पंखा बल्ब एसी या अन्य बङे विद्युत उपकरण चला सकते हैं ? नहीं ना ।

अब मान लीजिये । आपके घर की विद्युत तार क्षमता ( कनेक्शन शब्द को समझें ) वाला विद्युत प्रवाह आपको मिले । तब उससे चक्की या कोई बङा कारखाना आदि चला सकते हैं ? नहीं ना । भौतिकवाद के काफ़ी करीब होने से आप समझ गये होंगे कि हमें जितना बङा उपकरण और जितना बङा कार्य करना है । उसी अनुसार हमें शक्तिशाली विद्युत प्रवाह और उस प्रवाह से जोङने हेतु उसी क्षमता के सम्बन्ध सूत्र की आवश्यकता होगी ।
अब अगर आपको यह बात समझ में आ गयी हो । तो फ़िर निश्चित तौर पर यह सत्य है कि मनुष्य की योग क्षमता सिर्फ़ मोबायल फ़ोन चार्जर के समान महज 2-3 वोल्ट ही है । इसीलिये योग में उच्चता प्राप्त करने के सभी प्रयास नाकाम हो जाते हैं । अब आईये । शरीर विज्ञान द्वारा इसका वैज्ञानिक कारण जानें । हमारे शरीर में प्रमुख चेतना प्रवाह सिर्फ़ हमारी स्वांस ही है । इसी डोर ( से उत्पन्न धङकन ) से प्राण वायु को चेतना मिलती है । फ़िर और भी यांत्रिक विधि नियमों द्वारा शरीर में ताप ( विभिन्न अग्नियां ) आदि अन्य चीजें बनती हैं ।
तो हमारी ये स्वांस दरअसल मष्तिष्क द्वारा एक जटिल प्रक्रिया से बहुत ही सूक्ष्म छिद्र द्वारा इतनी सीमित ( शक्ति या करेंट ) क्षमता के साथ आती है कि हम बस मनुष्य स्तर का ही जीवन आसानी से निर्वाह कर सकें । और अपने स्तर पर हम कभी इस क्षमता को बङा नहीं सकते । क्योंकि प्रथम तो हम जानते नहीं । दूसरे हमारे 

पास वह साधन ( बङी क्षमता के तार आदि ) भी नहीं । तीसरे हमें ज्ञात भी नहीं कि इससे बङा शक्ति स्रोत कहाँ और कैसे है ? अच्छा अचानक भी नहीं हो सकता । क्योंकि बाकायदा भौंहों से नीचे के शरीर भाग ( मान लो । भौंह से ऊपर का सभी शिरोभाग ) जिसे पिण्ड कहते हैं । तक ही सामान्य मनुष्य की पहुँच है । बाकी नाक की जङ से ऊपर का दिमागी हिस्सा बन्द ( लाक्ड ) है । और यहीं से वो मुख्य तार शुरू हुयी है । जो कृमशः आगे ( योग ) श्रंखला बनाती हुयी कृमबद्ध तरीके से अन्तिम छोर तक पहुँचती है । और इसी श्रंखला के बीच बीच में स्थापित विभिन्न क्षमता वाले विद्युत केन्द्रों को ही योग शक्ति कहा जाता है । आपने जहाँ तक की योग यात्रा कर उसे सिद्ध कर लिया । उतने शक्ति सम्पन्न हो गये ।
अब यदि मैं तन्त्र मन्त्र चक्र ध्यान कुण्डलिनी आदि योग विधियों से कृमशः कैसे शक्ति संग्रह कर योग क्षमता बढाई जाती है । तो वह तो अति अति विस्तार की बात हो गयी । अतः मैं सीधे हमारे यहाँ की आत्मज्ञान की हँसदीक्षा द्वारा बताता हूँ । हँसदीक्षा में आज्ञाचक्र को पूर्ण सक्रिय कर साधक को लगभग सीधे ही 2-3 वोल्ट से एकदम 11 000 वाली लाइन से जोङ दिया जाता है । लेकिन सिर्फ़ भौतिक विज्ञान से परिचित होने के कारण आपको ये बात अजीब सी लगेगी । क्योंकि फ़िर कोई भी शरीर इसको सहन नहीं कर पायेगा । बात बिलकुल सही है । इसीलिये साधक को सीधे सीधे जोङने के बजाय प्रथम किसी सक्षम माध्यम ( कोई उस स्तर का सफ़ल साधक ) के द्वारा जोङा जाता है । तब इस आंतरिकता से जुङ जाने के कारण नये साधक में आटोमेटिकली ही सत्व गुण प्रबल होने लगता है । क्योंकि सीनियर साधक अभ्यास द्वारा निरन्तर जुङा भी है । और सात्विक ऊर्जा में वृद्धि भी कर रहा है । यहाँ एक और चीज है । परमात्म सत्ता की व्यवस्था इतने सटीक ढंग से कार्यरत है कि विधिवत जुङे हुये साधक को

कब क्या कैसे आवश्यक है । वह लगभग स्वचालित ढंग से हो जाता है । यानी इसमें कोई भी त्रुटि दोष होने की कतई सम्भावना ही नहीं है । यहाँ तक कि माध्यम साधक को भी विशेष बोध नहीं हो पाता । फ़िर कालान्तर में स्वस्थ होकर जब नया साधक कुछ सक्षम होने लगता है । तब उसे परीक्षण हेतु धीरे धीरे कुछ समय के लिये स्वतन्त्र रूप से भी जोङ दिया जाता है । और फ़िर चेतना स्थिति बढने पर फ़िर उतना ही बङा माध्यम । इस तरह योगाग्नि का संचय होता है । अब प्रश्न ये है कि इस योगाग्नि का उपयोग क्या है ? यहाँ फ़िर वही सृष्टि की विलक्षणता वाला नियम सिद्धांत कार्य करता है । यानी वह योग किस तरीके से । किस भावना से । किस गुरु से । किस नियम से । किस लक्ष्य से आपने किया था । बाकी सरल अर्थों में योगाग्नि का अर्थ ( आत्मिक ) ऊर्जा और ऊर्जा के शुद्धतम रूप से ही है । इस योगाग्नि से आप अपने संस्कार भी जला सकते हैं । पाप जला सकते हैं । अज्ञान नष्ट कर सकते हैं । इसको धन आदि में परिवर्तित कर उच्च दिव्य स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं । इसको ईंधन में परिवर्तित कर आप लोक लोकान्तरों की यात्रा भी कर सकते हैं । इससे आप खुद का और अन्य का मनचाहा भला भी कर सकते हैं । सरल शब्दों में समझें । तो ये एक ऐसी शक्ति है । जिससे मनचाही स्थिति वैभव को प्राप्त हुआ जा सकता है । अगर गौर से देखें । तो आज संसार की डांवाडोल स्थिति ऊर्जा से ही तो है । अरब के तेल कुंयें और अमेरिका का उन पर आधिपत्य लालच ही तमाम वैश्विक असमता को जन्म दे रहा है कि नहीं । और योगी के पास तो शुद्ध ऊर्जा होती है । अतः यही योग आपको रावण भी बना सकता है । और राम भी । ये सभी योगी ही तो हैं ।
विशेष - मेरे विचार से मैंने इस विषय को अधिकाधिक स्पष्ट करने की कोशिश की है । फ़िर भी मेरी मानसिकता और आपकी मानसिकता में बेहद फ़र्क होने से आपको कहीं उलझन प्रतीत हो सकती है । यदि ऐसा है । तो उस बिन्दु पर स्पष्ट भाव में प्रश्न करें ।
- आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्म प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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22 सितंबर 2013

क्यों बे ! वैसे तो तू हनुमान की औलाद है

यदि आपको ऐसे ही अनोखे प्रश्नों पर उत्तर और जिज्ञासाओं तथा राजीव बाबा की अटपटी चटपटी बातों को जानना है । तो फ़िर नीचे दिये गये समूह से आपको जुङना ही होगा । 
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अगर हिन्दू धर्म शास्त्रों के कुछ विवरणों पर विश्वास किया जाये । तो किसी भी सच्चे सन्त द्वारा वृक्ष नदी या पहाङ ( या दूसरे भाव में अपवाद असुर भी ) जैसी जङ और जटिल योनियों को प्राप्त हुये जीवात्मा को किसी पूर्व जन्म के पुण्य फ़लस्वरूप यदि किसी सच्चे सन्त से उसी जङ योनि में संयोग हो । और वह सन्त उस वृक्ष ( योनि को प्राप्त हुये जीवात्मा ) के नीचे विश्राम करे । या उसका फ़ल खाये तो । इसी तरह नदी का भी कोई उपयोग करे तो । और पहाङ आदि पर रहे तो । अथवा समाधि आदि का अभ्यास करे । तो उसे सन्त के आशीर्वाद स्वरूप कुछ समय बाद ही या अगला मनुष्य जन्म भी प्राप्त हो जाता है । आपके विचार से क्या यह सत्य है ?
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एक अजीव सी कथा मैंने सुनी है । वह सत्य है । अथवा नहीं । मैं नहीं कह सकता । पर बहु प्रचलित है । तुलसीदास की पत्नी का नाम रत्नाबाई था । कहते हैं । वह एक विदुषी और धार्मिक महिला थीं । लेकिन इसके बजाय तुलसीदास सन्त बनने से पूर्व बेहद कामी प्रवृति के कहे गये हैं । तब एक बार जब उनकी पत्नी कुछ समय के लिये अपने मायके को गयीं । तो तुलसीदास जी 

काम पीङित अन्दाज में उनके पीछे पीछे ही अपनी ससुराल जा पहुँचें । लेकिन उससे पहले जब वह ससुराल जाने हेतु अपने घर से निकले । तो रात का अंधेरा फ़ैलने लगा था । और रास्ते में एक नदी पङती थी । घटना के अनुसार नदी चढी हुयी थी । और तुलसीदास ने रात के अंधेरे में ही बहकर आते मुर्दे ( को नाव समझकर उसके ) द्वारा वह नदी पार की । फ़िर जब वह ससुराल के द्वार पर पहुँचें । तो द्वार बन्द हो चुका था । और दरबाजे के ठीक ऊपर एक लम्बा सर्प लटक रहा था । ऐसा कहा जाता है । कामान्ध तुलसीदास ने समझा कि ये उनकी पत्नी ने उनके लिये रस्सी लटकायी है । जो भी हो । तुलसीदास उसी सर्प द्वारा छत के माध्यम से अपनी पत्नी के पास पहुँचें । रत्ना उन्हें देखकर भौंचक्का रह गयी । और जब उसे तुलसीदास की कामपिपासा के बारे में पता चला । तो उसने लगभग उन्हें फ़टकारते हुये कहा - इस हाङ मांस के शरीर से तुम्हें इतना लगाव है । यदि इतना लगाव तुम्हें भगवान से होता । तो तुम्हारा कल्याण ही हो जाता । कहते हैं । इसी फ़टकार ने तुलसीदास का जीवन बदल दिया । लेकिन मेरा इशारा सिर्फ़ मुर्दे द्वारा नदी पार करना । और छत से लटकते सर्प द्वारा छत पर जाने की तरफ़ है । आपके विचार में क्या यह संभव है ?
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आपने सुना होगा कि शेर जंगल का राजा होता है । लेकिन अभी के शोधित नवीनतम वैज्ञानिक तथ्य बताते हैं कि शेर बेहद सुस्त और आलसी होता है । तथा वह अधिक दौङ भी नहीं सकता । इसलिये अपने बच्चों और स्वयं 

के पालन पोषण हेतु शिकार शेरनियां ही करती हैं । लेकिन मुझे इन तथ्यों से अधिक मतलब नहीं है । आध्यात्म विज्ञानी सन्तों के अनुसार शार्दूल नाम का एक सेही चूहे जैसा जंगली जन्तु होता है । मुझे इसका अभी का वैज्ञानिक नाम ज्ञात नहीं है । पर हुलिया के आधार पर शायद आप इसे जान सकें । इसमें और सेही ( या साही ) चूहे में इतना फ़र्क होता है कि इसके मुँह पर करीब करीब 6 इंच के लगभग लम्बी थूथन या सूँङ जैसी होती है । जो किसी तेज नुकीले हथियार के समान ही होती है । कहते हैं । ये शेर का शिकार करता है । यानी ये शेर का खून पीता है । इसके लिये यह किसी चट्टान या झाङी या छोटे वृक्ष आदि से शेर की गर्दन पर जा गिरता है । और अपनी यही सूँङ उसकी गर्दन में गङा कर शेर का खून पीते हुये उसे निष्प्राण कर देता है । कहा जाता है । शेर इससे इतना भयभीत रहता है कि इसे देखते ही इससे बहुत दूर भागता है । ये शार्दूल नाम का जन्तु मैंने तो देखा है । पर आप इसे हुलिया के आधार पर

इंटरनेट पर सर्च कर सकते हैं । क्या आप इस जानकारी से सहमत है ?
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कोई भी धार्मिक कट्टरता हमारे अंतर्मन में कितनी गहरी पैठ लिये होती है । इसका आँखों देखा उदाहरण आपको बताता हूँ । यह आगरा की ही बात है । एक मुस्लिम महिला ने कई रोटियां बनाकर अपने कटोरदान में ऊपर ही खुली रखी थीं । एक बन्दर उसकी दीवाल पर चुपके से यह सब नजारा देख रहा था । तब जैसे ही उसे मौका मिला । वह कुछ अधिक रोटियां लेकर ऊपर भागकर चढ गया । मुस्लिम महिला यह आकस्मिक नुकसान देखकर बेहद बौखला गयी । और अक्षरशः यह 

शब्द बोली - क्यों रे ! वैसे तो तू हनुमान की औलाद बनता है । और रोटी मुसलमान की खाता है । आपको इस बात में क्या नजर आता है । उस महिला की बौखलाहट । या धार्मिक अलगाव वाद की भावना । या आकस्मिक हुये नुकसान की खीज ?
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मेरे एक दुष्ट शिष्य का कहना है कि - मैं किसी भी व्यक्ति के कपङे तक उतार लेता हूँ । दरअसल इसका भाव यह है कि मेरे द्वारा उसकी सभी पूर्व धारणाओं के आंतरिक बाह्य आवरण स्वतः ही उतर जाते हैं । और वह व्यक्ति किसी विषय विशेष पर निजी भावनाओं से पूर्णतया रिक्त हो जाता है । मेरी सिखाई योग क्रियाओं से वह नितांत शून्य 0 का अनुभव करने लगता है । क्या आपको ये बात सत्य लगती है ?
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किसी किसी को आश्चर्य होता होगा कि मैं आत्मा परमात्मा या परमानन्द के शोध के बजाय कहाँ इन पशु पक्षियों की बातों में उलझ गया । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है । दरअसल आत्मा परमात्मा तक पहुँचने से पहले प्रकृति या सृष्टि के रहस्य उसी मार्ग में आते हैं । और दरअसल ये रहस्य ही हमें उस अदभुत असीम अनन्त अविनाशी सत्ता के बारे में सोचने पर मजबूर करते हैं । जिसके अनन्त प्रकाश की हम एक किरण मात्र हैं । तब आईये । आज आपको कुछ और रहस्यों से अवगत कराऊँ । आपने TV में या साक्षात बहुत से पशु पक्षियों को मैथुन करते प्रायः देखा होगा । लेकिन किसी ने भी आज तक काग यानी कौआ को मैथुन करते हुये कभी कहीं नहीं देखा होगा । इसी तरह आपने मयूर यानी मोर को भी नहीं देखा होगा । काग के बारे में तो अभी मैं स्वयं अनिश्चित हूँ । पर मयूर का रहस्य निश्चय ही मुझे पता है । क्योंकि हमारे चिन्ताहरण आश्रम पर इनकी बहुतायत है । अतः मैं इसका साक्षी भी हूँ । वास्तव में मोर कभी संभोग नहीं करता । बल्कि नाचने के उपरांत इसकी आँख से आँसू या आँसू समान दृव्य आता है । मोरनी उसी को पी लेती है । और उसका गर्भ धारण

हो जाता है । ये सुन्दर पंख सिर्फ़ मोर के ही होते हैं । मोरनी प्रायः बेहद हल्के कत्थई रंग की और तुलनात्मक मोर लगभग बदसूरत ही होती है । सृष्टि के रहस्यों में से मोर उन अदभुत जीवों में से है । जिसमें मादा बेहद अनाकर्षक और नर बेहद सुन्दर होता है । क्या आपको ये सच लगता है ?
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भक्त प्रहलाद की तपस्या और उसके असुर पिता हिरणाकश्यप द्वारा उसको प्रताङित करने के बारे में आप सब प्रायः जानते ही होंगे । आत्मज्ञान के आंतरिक जानकार सन्तों के अनुसार अब से कुछ ही माह पूर्व प्रहलाद अपने तप के फ़लस्वरूप स्वर्ग में इन्द्र पद पर था । और अब पुण्य भोगफ़ल काल पूरा होने के बाद उसे फ़िर से

नीचे गिरा दिया गया । इस समय इन्द्र की पदवी पर एक दूसरा प्रसिद्ध तपस्वी ध्रुव नियुक्त है । लेकिन मेरा विषय यह नहीं है । तपस्या के दौरान हिरणाकश्यप ने प्रहलाद को अनेकों कष्ट दिये । पर वह विचलित नहीं हुआ । लेकिन अन्त में जब उसको पूर्णरूपेण मारने हेतु एक खम्बे को बिलकुल तप्त लाल दहकता हुआ कर दिया गया । और हिरणाकश्यप ने प्रहलाद को उससे बाँधने से पूर्व अन्तिम बार निर्णयात्मक अन्दाज में पूछा - क्या तेरा भगवान इसके अन्दर भी है ? ज्ञानी कहते हैं । इस समय प्रहलाद बेहद विचलित हो गया । और हार मानकर हिरणाकश्यप के सामने समर्पण करने ही वाला था कि तभी प्रभु प्रेरणा से उसे खम्बे पर चलती हुयी चीटीं दिखायी दी । प्रभु का यह संकेत मानों काफ़ी था । क्योंकि छूते ही भस्म कर देने की क्षमता वाले तप्त खम्बे पर चीटीं आराम से जीवित ही रेंग रही थी । तब अचानक प्रहलाद का खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया । और उसने दृणता से कहा - हाँ ! इस खम्बे में भी भगवान है । आगे की बात आप जानते ही हैं ।
पर आज बहुत से सिर्फ़ विज्ञानी सोच केन्द्रित व्यक्ति इसका उपहास सा करते हुये मानने से इंकार कर देंगे । और

उनको इस भूतकालिक घटना का कोई प्रमाण दिया भी नहीं जा सकता । लेकिन अभी अभी वैज्ञानिकों ने ही खौलते हुये ज्वालामुखी लावे या अन्य प्रकार के लावों में जीवित सूक्ष्म जीवाणुओं को बङी संख्या में देखा है ।
पर छोङिये । इसका भी आम आदमी को कोई साक्षात प्रमाण तो नहीं है । लेकिन एक प्रमाण मेरे पास है । बङा गूलर बिलकुल बन्द होता है । लेकिन यदि आप उसको तोङेंगे । तो उसमें कई आँखों से ही आराम से नजर आने वाले सैकङों छोटे जीव नजर आयेंगे । दूसरे प्रमाण के रूप में बङा वाला लभेङा या लिसौङा आप तोङिये । तो उस प्रत्येक फ़ल में बिलकुल एक बङे घुन के समान उतना ही बङा जीव मिलेगा । प्रश्न ये है । लगभग सील बन्द जैसे फ़ल में ये जीव किस कारीगरी से अन्दर पहुँच जाते हैं ? और किसी सृष्टि की भांति ही रहते हैं । हैं ना ये सृष्टि के अदभुत रहस्य । क्या आप सहमत हैं ?
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कबीर के जन्म के सम्बन्ध के बारे में आपने अनेक अजीब से किस्से कहानियाँ पढे सुने होंगे । पर आज मैं आपको सच्चाई बताता हूँ । भले ही आप मानना । या न मानना । कबीर का जन्म एक कुंवारी पवित्र युवा लङकी से हुआ था । ये कबीर के ही काल की बात है । एक युवा लङकी किसी कार्यवश हिमालय पर गयी । वहाँ एक तपस्वी संभवतः बहुत ही दीर्घकाल से तपस्यारत थे । जिस समय ये लङकी उनके पास पहुँचीं । ये बहुत लम्बे समय से ही ध्यानस्थ स्थिति में थे । और खुले बदन अत्यधिक शीत के कारण चेतना शून्य होने की स्थिति में 

पहुँच गये थे । सरल शब्दों में इनका शरीर खत्म होने वाला था । तब शायद किसी दैवीय प्रेरणावश उस लङकी ने इनके बदन को गर्मी देने के यथासंभव कई उपाय किये । पर योगी की चेतना नहीं लौटी । आखिरकार लङकी ने वही उपाय किया । जो अन्तिम था । उसने प्रयास से ध्यानस्थ योगी की कामाग्नि को जगाया । और लगभग अचेत योगी से संभोग किया । इसी संयोग के फ़लस्वरूप कबीर का जन्म हुआ था । आप शायद ही इस पर विश्वास कर पायें । लेकिन यदि आप किसी भी दिव्य अलौकिक विभूतियों के जन्म का खोजी अध्ययन करें । तो अधिंकाश अविवाहित संयोगों से, कुंवारी लङकियों से, या फ़िर किसी तपस्वी पुरुष के माध्यम से ही उत्पन्न हुये होंगे । जिसमें ईसामसीह, हनुमान, दशरथ के चारों पुत्र, धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर आदि नाम प्रसिद्ध हैं । इसके पीछे का अलौकिक वैज्ञानिक कारण दरअसल ये होता है कि कोई भी दिव्य विभूति साधारण व्यक्ति के वीर्य से । या रज से । और साधारण अस्तित्व से उत्पन्न ही नहीं हो सकती । एक दिव्य शरीर के निर्माण हेतु दिव्य वीर्य की ही आवश्यकता होती है । जहाँ तक ऐसे दिव्य शिशुओं की कुंवारी माँओं का प्रश्न है । मैंने अक्सर आपको बताया है । 84 लाख योनियों में 4 लाख प्रकार के तो मनुष्य ही होते हैं । और इनमें भी 10-15% मनुष्य शरीर सामान्य मनुष्य शरीर न होकर दिखावटी ही होते हैं । ये वे लोग हैं । जो किसी शापवश या किसी अन्य दैवीय कारणवश या द्वैत अद्वैत सत्ता के आदेश वश एक निर्धारित अवधि के लिये मनुष्य शरीर धारण करते हैं । और फ़िर कार्य पूरा होने पर किसी सामान्य से लगने वाले रहस्यमय अन्दाज में या अचानक ही कपङे के समान वह शरीर त्याग कर गायब हो जाते हैं । आपको आश्चर्य होगा । बहुत सी अप्सरायें । छोटी देवियां । देवता अन्य दिव्य आत्मायें यहाँ होती हैं । लेकिन ये शरीर धारण करने के बाद मायावश वे अपनी स्थिति को भूल जाते हैं । और जैसे ही कार्य पूरा हो जाता है । उन्हें अपनी पहचान याद हो आती है । अतः इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ऐसी रहस्यमय सन्तानों को लेकर किसी भी प्रकार का सामाजिक विवाद नहीं होता । क्योंकि इनकी देखरेख आदि की पूरी जिम्मेदारी प्रकृति और माया की होती है । अतः वह उस पर रहस्य आदि का परदा डालकर वैसी स्थितियां निर्मित कर देती है । और अलौकिक शिशु सामाजिक हो जाता है । क्या आप इससे सहमत हैं ?
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21 सितंबर 2013

प्रथ्वी से शादी करने की ख्वाहिश

आदि शंकराचार्य के प्रसिद्ध विवरण के अनुसार वे अपनी माँ के अकेले ही पुत्र थे । और उनके पिता जीवित नहीं थे ( हालांकि मैं इस बिन्दु पर पूर्णतयाः स्पष्ट नहीं हूँ ) फ़िर एक घटना के अनुसार तालाब में मगरमच्छ ने उनका पैर पकङ लिया । माँ द्वारा उससे छुङाने का आग्रह करने पर शंकराचार्य ने उनसे वचन लिया कि वे उनके सन्यास में बाधा नहीं बनेंगी । यानी घर त्यागने से रोकेंगी नहीं । तब माँ ने भी वचन लिया कि भले ही शंकराचार्य जीवन भर उनके पास न आयें । पर मृत्यु समय अवश्य आयें । शंकराचार्य ने वचन दिया । कालान्तर में शंकराचार्य ने सन्यास योग वेदान्त आदि पर अध्ययन प्रयोग आदि किये । जिनमें काशी के मंडन मिश्र से उनका शास्त्रार्थ बहु प्रसिद्ध ही है । इसमें काम ( वासना ) कला विषयक प्रश्नों पर आचार्य को मंडन मिश्र की पत्नी के समक्ष हार माननी पङी । क्योंकि शास्त्रार्थ के नियम अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी विषय पर अधिकारिक तौर पर उत्तर देने का तभी अधिकारी है । जब वह

उस विषय में खुद के प्रयोगात्मक अनुभव रखता हो । न कि सुने पढे हुये । अतः शंकराचार्य ने सन्यासी होने की विवशता बताते हुये इस विषय से अपरिचित होने का कारण बताया । और कुछ समय लेकर उसी समय मृत्यु को प्राप्त हुये एक राजा के शरीर में योग ज्ञान " परकाया प्रवेश " द्वारा  स्थिति हो गये । और राजा की रानियों से संयोग कर कामकला के विभिन्न पहलुओं का प्रयोग किया । और अधिकारिक व्यक्ति होने के बाद मंडन मिश्र की पत्नी को हराया । तभी उन्हें जगदगुरु की उपाधि दी गयी । इसके बाद कहते हैं कि जब उनकी माँ का निधन हुआ । तो शंकराचार्य के मुँह ( जीभ पर ) में दूध आया । इससे शंकराचार्य को अपनी माँ के निधन का अहसास हो गया । और वे अपने शिष्यों को जमीन मार्ग से आने को कहकर स्वयं आकाश मार्ग से द्रुति गति से माँ के पास पहुँचे । आपके विचार से क्या ये मनगढन्त ही है । या पूर्णतया सच है । या आंशिक सच है ।
- आध्यात्म वैज्ञानिकों के अनुसार अलल पक्षी एक ऐसा पक्षी है । जो कभी जमीन पर नहीं रहता । यहाँ तक कि पैर भी नहीं रखता । लगभग कोयल जैसे दिखने वाले इस पक्षी की मादा अपना अंडा भी आकाश में बहुत ऊँचाई से उङते हुये देती है । फ़िर ये अंडा तेजी से जमीन पर गिरने लगता है । ये अविश्वसनीय सा है । मगर जमीन पर आते आते आने से बहुत पहले ही वह अण्डा परिपक्व होकर फ़ूट जाता है । और हैरतअंगेज तरीके से जमीन पर आने से पूर्व ही इसमें निकला शिशु पक्षी वापस आकाश की ओर उङ जाता है । जहाँ उसका वास्तविक घर है ।

और अपने माँ बाप से जा मिलता है । दरअसल ये वास्तविक मगर तुलनात्मक उदाहरण उन साधकों के लिये हैं । जो प्रथ्वी से सिर्फ़ उतना ही वास्ता रखते हैं । जितना आवश्यक है । और अपना काम पूरा होते ही वे फ़िर से अपने असली घर और असली पिता के पास उङ जाते हैं । क्या आप इस अनोखी मगर सत्य कथा से सहमत हैं ।
- चलिये पक्षियों की ही बात चल गयी है । तो अलल पक्षी तो अपवाद स्वरूप ही किसी ने देखा होगा । लेकिन आज मैं आपको एक ऐसे पक्षी के बारे में बताता हूँ । जिसको " हारिल पक्षी " के नाम से जाना जाता है । और आपको ये आम देखने को मिल जायेगा । हमारे चिन्ताहरण आश्रम के पास तो ये बहुतायत में हैं । एक प्रसिद्ध प्राचीन कथा के अनुसार प्रियवृत नाम का एक राजा हुआ था । वह ( गो रूप ) प्रथ्वी ( देवी ) की सुन्दरता पर आसक्त होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव कर बैठा । प्रथ्वी देवी ने मन ही मन उसका उपहास सा करते हुये विवाह की स्वीकृति दे दी । और अपने स्थूल भू मंडल की विधिवत सात भांवर डालने की शर्त रखी । या कहा । इसको स्वीकार करते हुये प्रियवृत भांवरें डालने लगे । और चौथी पाँचवी भांवर में ही वृद्धावस्था को प्राप्त होकर निढाल से गिर पढे । और हार मानकर उन्होंने प्रथ्वी को माँ मान लिया । और ( संभवत ) प्रथ्वी के शापवश हारिल पक्षी रूप हो गये । प्रसिद्ध पुस्तकों और प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार ये हारिल पक्षी आज भी जमीन पर पैर नहीं रखता । और इस हेतु जमीन पर उतरने से पूर्व अपने पंजों में एक लकङी दबाये रहता है ।  क्या आप इस अदभुत कथा से सहमत हैं ?
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ॐ कार का वास्तविक रहस्य

आज बहुत से सन्तों ने बहुत से पंथों ने बहुत से आस्तिकों ने और बहुत से पुजारियों ने ॐ कार को ही सबसे बङा मन्त्र, परमात्मा या परमात्मा का वास्तविक नाम, शब्द, आदि जाने क्या क्या मान लिया है ? ओशो ने भी इसकी बहुत माला सी जपते हुये गुणगान किया है । तमाम ओशोवादी भी उसी तर्ज पर ॐ कार ॐ कार का कीर्तन करते रहते हैं । स्वयं गुरुनानक ने भी " एक ॐ कार सतनाम " जैसी बात कही है । पर वास्तव में ज्ञान के तल पर ये बात एकदम अज्ञानता पूर्ण और अवैज्ञानिक ही है । क्योंकि ॐ कार सिर्फ़ मनुष्य शरीर का सबसे प्रमुख बीज मन्त्र है । इस बात पर गौर किया आपने - सिर्फ़ बीज मन्त्र । तब बीज और मन्त्र का मतलब क्या है । ये बताना आवश्यक नहीं है । क्योंकि बीज से ही तो ( जीवन ) वृक्ष की उत्पत्ति होती है ।
इस ॐ बीज मन्त्र में 5 अंग हैं । अ, उ, म, अर्धचन्द्र और बिन्दु । ये अ उ म तीन गुणों यानी सत रज तम का प्रतिनिधित्व करते हैं । प्रतीकात्मक स्थूल ज्ञान में ये बृह्मा विष्णु शंकर की तरंगे ही हैं । जो तीन गुण आधारित जीवन को क्रियाशील करती हैं । 
बृह्मा विष्णु सदा शिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर ( ॐ ) के मध्ये ये तीनों एका ।
इसमें अर्ध चन्द्र इच्छाशक्ति का प्रतिनिधित्व करता है । जो प्रतीकात्मक या स्थूल ज्ञान में माया या देवी शक्ति आदि कहा जाता है । और शेष बचा बिन्दु इसमें शब्द, अक्षर या ररंकार का प्रतिनिधित्व करता है । जिसे प्रतीकात्मक या स्थूल ज्ञान में राम, खुदा ( अल्लाह नहीं )

god आदि कहते हैं । ये बिन्दु कंपन में बनने वाले बिन्दु पर ही आधारित अक्षर प्रतीक है । क्योंकि आप किसी भी नाद से उत्पन्न ध्वनि तरंगों का जब ग्राफ़ बनायेगें । तो वह सूक्ष्म स्थिति में बिन्दुवत ही होगा । एक राम घट घट में पैठा । इसी बिन्दु के लिये ही कहा जाता है । क्योंकि शरीर की समस्त चेतना स्थिति इसी बिन्दु से ही बन रही है । अब आप आसानी से समझ सकते हैं । जिस प्रकार की ये जीव सृष्टि है । उसमें इन 5 के संयुक्त हुये बिना जीव जीवन या सृष्टि संभव नही है । तब समझ में नहीं आता । ओशो गुरुनानक या अन्य लोग इसी ॐ कार पर ही क्यों अटक कर रह गये । जबकि ये महा मन्त्र भी नहीं है । परमात्मा का शब्द आदि होना तो बहुत दूर की बात है ।
अब ये समझिये । ये सबसे प्रमुख बीज मन्त्र क्यों है ? दरअसल इसी ॐ कार ( कार मतलब कर्ता ) से सभी मनुष्यों के ? शरीर की रचना हुयी है ।
ओहम ( ॐ ) से काया बनी सोहम से मन होय । 
ओहम सोहम ( सोहं ) से परे जाने बिरला कोय ।
ॐ कार से शरीर की रचना किस तरह से हुयी ? ये उपरोक्त के आधार पर समझना बहुत कठिन भी नहीं है । ॐ कार में बिन्दु चेतना । अर्ध चन्द्र इच्छाशक्ति । और अ उ म तीन गुण यानी सत रज तम हैं । और किसी भी मनुष्य शरीर का मुख्यतयाः इन्हीं 5 से काम होता है । इसीलिये किसी भी मन्त्र आदि का संधान करते समय इसी ॐ यानी चेतना इच्छाशक्ति और तीनों गुणों को एकाकार करके जीव स्तर पर स्व उत्थान हेतु किसी दैवीय शक्ति या ज्ञान का संधान किया जाता है । और जब शरीर ही नहीं होगा । तब आप किसी अन्य देवी देवता मन्त्र आदि का संधान अनुसंधान किस प्रकार करेंगे । जाहिर है । जीव स्तर पर किसी भी क्रिया के लिये शरीर बेहद आवश्यक है ।

इसी आधार पर आध्यात्म विज्ञानियों ने प्रत्येक मन्त्र के आगे आवश्यकतानुसार ॐ कार को जोङ दिया है । जैसे - ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । ॐ नम शिवाय, ॐ भूर्भुव स्व.. आदि आदि । अर्थात मैं इस शरीर द्वारा समग्र रूप से किसी लक्ष्य विशेष की तरफ़ क्रियाशील होता हूँ । ॐ के आगे लिखा भाव वाची शब्द या वाक्य उस संधान या लक्ष्य का द्योतक है ।
अब मान लीजिये । ये तो तत्व ज्ञान की बात है कि कोई इसके सभी अंगों और अर्थ विशेष को जानता है । तब वह अपनी साधना संधान में वह भाव नहीं लायेगा । जो ना जानकार का होता है । पर फ़िर भी आप अपने उस गुरु के आधार पर भी जो ॐ कार के इस रहस्य से अनभिज्ञ है । ॐ कार का गहरा जाप करते हैं । तो इसमें स्थित धातुयें तथा प्रथम तीन गुण ( सयुंक्त होकर एकाकार हुये ) फ़िर इच्छाशक्ति ( और गुण सयुंक्त हुये ) फ़िर चेतना ( से इच्छाशक्ति और गुण संयुक्त होकर जुङ गये ) और फ़िर ये पाँचों संयुक्त होकर उस लक्ष्य विशेष का संधान करने लगे । जिसके लिये आपका भाव था । तो मेरे कहने का मतलब । यदि आप सही लय में निरन्तर ॐ ॐ ऐसा जाप करते हैं । तो आप शरीर को प्रमुख घटकों के साथ एकाकार करने के अभ्यासी हो जाते हैं बस । और ॐ ॐ का जाप इसी एक लय चेतना को जानने लगता है । अब मान लीजिये । आपने इसके आगे श्रीकृष्ण भक्ति के लिये मन्त्र नमो भगवते वासुदेवाय का चयन किया है । तो इसका अर्थ यह होगा । मैं अपनी सम्पूर्ण चेतना गुण और इच्छाशक्ति के साथ भगवान वासुदेव का संधान करता हूँ । 
अब यहाँ भी 2 बातें हो जाती हैं । यदि आप श्रीकृष्ण को उसी लीला शरीर यानी स्थूल रूप से ही जानते हैं । और तत्व रूप से श्रीकृष्ण के आकर्षण या कर्षण रहस्य को नहीं जानते । तव आपका ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उतना प्रभावी नहीं होगा । लेकिन यदि आप श्रीकृष्ण को तत्व से जानते हैं । तो ये ही मन्त्र हजार गुणा प्रभावी हो जायेगा । इसीलिये श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है - जो मुझे तत्व से जानता है ।
और ये ठीक उसी तरह से है । जिस प्रकार आप स्थूल रूप से अपने कम्प्यूटर को सिर्फ़ साफ़्टवेयर एप्लीकेशन ( बाह्य रूप ) के रूप में प्रयोग करना जानते हैं । फ़िर आप उसे हार्डवेयर ( आतंरिक ) के रूप में भी जानते हैं । और फ़िर आप उसके मूल सिद्धांत c++ ( सूक्ष्म ) आदि जैसे भाषा रूप में भी जानते हैं ।
अतः ॐ सिर्फ़ बीज मन्त्र है । कोई परमात्मा का नाम या महा मन्त्र आदि भी नहीं है । ॐ से कहीं बहुत बङा सोहं है । जिसको महा मन्त्र कहा जाता है ।
आईये आपको एक और मजेदार स्थिति के रहस्य की बात बताऊँ । यदि आपसे प्रश्न किया जाये कि शरीर और मन में से किसकी रचना पहले हुयी । तो निसंदेह ना जानकारी के कारण आप शरीर की पहले बतायेंगे । क्योंकि आपके अनुसार शरीर में ही मन होता है । जब शरीर ही नहीं होगा । तो मन कहाँ से आयेगा ?
पर दरअसल ये एकदम विपरीत ही है । किसी भी शरीर से पहले उसके मन ( सोहं ) की रचना हो जाती है ।
इच्छा काया इच्छा माया इच्छा जगत बनाया ।
इच्छा पार हैं जो विचरत उनका पार न पाया ।
क्योंकि मन ( अंतःकरण  ) में जो कुछ अच्छा बुरा लिखा है । उसी अनुसार शरीर भाग्य परिवार आदि सभी सम्बन्धों का जीवन में प्रकटीकरण होगा ।
ॐ कार त्रिकुटी के भूपा । जा ते परे निरंजन रूपा । 
चलिये ये थोङा गूढ और बेहद सूक्ष्म आंतरिक विषय है । अतः आपके चिन्तन हेतु थोङे पर ही विराम देता हूँ । साहेब ।
आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम । 

20 सितंबर 2013

जीव हत्या सबसे जघन्य पाप है

यदि आप इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर उत्तर प्रति उत्तर जानने के इच्छुक हैं । तो नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें ।
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि आप इस मनुष्य जीवन में निश्चित और गिनती की सांसे लेकर आये हैं । और इसी तरह भाग्य और अन्य दूसरी चीजें भी । लेकिन क्योंकि मनुष्य योनि कर्मयोनि के अंतर्गत आती है । अतः जीवन को न सिर्फ़ बढाया भी जा सकता है । बल्कि पाप कर्मों आदि से घटाया भी जा सकता है । और यही बात भाग्य आदि अन्य चीजों पर भी लागू होती है । उदाहरण के लिये योग विज्ञान द्वारा स्वांस को सम और धीमा करके जीवन बढ जाता है । और कुम्भ स्नान ( अनुलोम विलोम प्राणायाम आदि ) से पाप धुलकर ताप कम हो जाते हैं । जिससे जीवन में दिव्यता आने लगती है । आपके विचार से क्या ये सही है ?
प्रश्न - जीव हत्या सबसे जघन्य पाप है । और इसके परिणाम स्वरूप अन्त में दीर्घकाल तक घोर नरक की प्राप्ति होती है । कल्पना करिये । यदि आपके शरीर में कोई पीङादायी स्थिति बन जाये । तो आप कितना तङपते हैं ? तब माँसाहार के लिये जो जीव मारे जाते हैं । वो भयंकर वेदना और दुख के साथ प्राण त्यागते हैं । और आप उनको 

स्वाद से खाते हैं । किसी के कष्ट से सुख पाना ही पैशाचिक प्रवृति है । लेकिन ईश्वर का विधान " जैसे को तैसा " और हजार दस हजार गुणा फ़लित होकर है । तब आगामी कालक्रम में ऐसे ही जीव अंग भंग अपंग और मलिन दशा आदि को प्राप्त होकर घोर कष्ट भोगते हैं । ऐसा आपने देखा ही होगा । क्या आपके विचार में यह सही है ।
प्रश्न - भृंगी कीट एक पंखों वाले चींटे के समान जीव होता है । इसकी विशेषता ये है कि ये जनन क्रिया द्वारा बच्चे उत्पन्न नहीं करता । क्योंकि भृंगी कीट में मादा जीव होता ही नहीं है । ये दीवाल आदि पर बने अपने तीन चार छिद्रों वाले मिट्टी के छोटे से गोल घर में किसी तिनके जैसे मामूली कीङे को उठा लाता है । और घर के अन्दर डालकर स्वयं बाहर से पंख फ़ङफ़ङाता हुआ तेज

भूँ भूँ हूँ हूँ की ध्वनि करता है । इसके स्वर से छोटा कीङा भय से बेहोश हो जाता है । और भय से ही उसकी आंतरिक बाह्य संरचना परिवर्तित होकर भृंगी कीट जैसी ही हो जाती है । ये कोई सुनी हुयी दन्तकथा नहीं है । बल्कि सिद्ध है । प्रमाणित है । और इसका परीक्षण करने हेतु बस आपको किसी भृंगी कीट पर निगरानी रखनी होगी । क्या आप इससे सहमत हैं ?
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि सूचना और प्रसारण के सशक्त माध्यम इंटरनेट और फ़ेसबुक ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग आदि बेवसाइटस का सदुपयोग बहुत ही कम और दुरुपयोग बहुत ही अधिक हो रहा है । झूठा से झूठा मिला हाँ जी हाँ जी होय.. की तर्ज पर या तो अधिकांश लोग एक ग्रुप में बंधकर साधारण सी फ़िजूल बातों पर ही एक दूसरे के अहम को कमेंट शेयर 

लाइक तुष्टि दे रहे हैं । या फ़िर नकली फ़ीमेल आई डी बनाकर बेहूदा क्रियाकलापों से तन मन धन की बरबादी करते हुये अपना और दूसरों का भी अनमोल जीवन नष्ट करने का घोर पाप कर रहें हैं । क्या आप मेरी बात से सहमत हैं ?
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि ये मनुष्य शरीर आपको करोङों बार मिल चुका है । और हर बार जब आप गर्भ में चैतन्य थे । तब आपने न सिर्फ़ निश्चय बल्कि प्रभु से वादा किया था कि अबकी बार मैं ये जन्म व्यर्थ नहीं जाने दूँगा । और अपने उद्धार के सम्पूर्ण प्रयत्न करूँगा । लेकिन जन्म के बाद गर्भ से बाहर आते ही धीरे धीरे आप माया के प्रभाव में आते गये । और दुर्लभ जीवन को व्यर्थ में गंवाकर कई और जन्मों के " कारण बीज " बो दिये । क्या आपके विचार में यह सही है ?
प्रश्न - प्राचीन भारत में किसी साधु की मान्यता उसके ज्ञान पर आधारित होती थी । इसके लिये बाकायदा काशी में ( और अभी दिल्ली में भी ) एक धर्म संसद होती है । जिसमें साधु सन्तों के स्तर और उनके गुरु जगत गुरु आदि उपाधियों का निर्णय एक विद्वान सन्तों का निर्णायक मंडल तय करता था । भूतकाल में याग्व्लक्य और आदि शंकराचार्य मंडन मिश्र आदि इसके प्रसिद्ध उदाहरण रहे हैं । जबकि आज ये ज्ञान के बजाय प्रचार, धन, समृद्धता और उसके प्रसार पर अधिक केन्द्रित हो गया है । जा के संग दस बीस है ताको नाम महन्त । इसी से सन्तों के नाम पर अज्ञानियों की भरमार सी हो गयी है । इससे भी अधिक अज्ञान की बात ये हैं कि हम ऐसे महज गेरुआ 

वस्त्र और मालाधारी सन्तों को असली सन्तों जैसा सम्मान देकर इस अज्ञान को बढाने में और भी सहयोग कर रहे हैं । क्या आप मेरे इस विचार से सहमत हैं ?
प्रश्न - सिख धर्म स्थापित हो जाने के बाद जब कालान्तर में नवम दशम गुरु तक आते आते बाद में गुरु पद के लिये विवाद और आंतरिक कलह जैसे लक्षण सिखों में आपसी रूप से दिखने लगे । तब तत्कालीन जटिल परिस्थितियों के अनुसार इस समस्या को दूर करने हेतु गुरुग्रन्थ साहिब को ही गुरु की मान्यता दे दी गयी । मेरे विचार से एक पुस्तक कभी शरीरधारी गुरु की पूर्ण भूमिका नहीं निभा सकती । क्योंकि उसका अध्ययन करने वाला अपनी अपनी मानसिकता अनुसार ही अर्थ निकालेगा । जबकि किसी देहधारी गुरु की पूरी जिम्मेदारी हो जाती है । दूसरे एक आम इंसान किसी वाणी का इतना सूक्ष्म अध्ययन नहीं कर सकता । अतः मेरे दृष्टिकोण से सिखों पर धर्म का सार सार ( आत्म ) ज्ञान होने के बाबजूद भी वे उसके असली लाभ से वंचित ही रह गये । गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणी कहीं अन्य से नहीं आयी । बल्कि इसी सनातन धर्म की ही वाणी है । तुलसीदास के अनुसार - जो विरंच शंकर सम होई । गुरु बिनु भव निधि तरे न कोई । अतः सिखों को इस गुरु

आदेश से हमेशा के लिये एक अनमोल उपलब्धि से वंचित हो जाना पङा । क्या आप इससे सहमत हैं ?
प्रश्न - अगर हम पूर्णतः 100 वर्ष का स्वस्थ जीवन जियें । तो भी हमारी जिन्दगी में लगभग 24 घण्टे = 36  500 दिन ही होते हैं । और आप ये मानते ही होंगे कि किसी भी व्यक्ति को कम से कम 8 घण्टे की नींद अनिवार्य है । इस तरह से 24 घण्टे में से 8 घण्टे तो हमारे सोने में ही निकल जाते हैं । यानी 1/3  जीवन यानी 12 हजार 165 दिन के बराबर का समय तो सोने में ही निकल जायेगा । फ़िर आप ये भी मानते होंगे कि लगभग 8 घण्टे ही हमें सुबह शाम दोनों समय दैनिक क्रियाओं के लिये चाहिये होते हैं । इस तरह औसतन 1/3  जीवन यानी 12 हजार 165 दिन सिर्फ़ शरीर के लिये आवश्यक कार्यों में निकल जाते हैं । और अब शेष बचे 12 हजार 165 दिन ( लेकिन इनकी अवधि पूरे 24 घण्टे की होगी ) या यूँ कह लीजिये । 12 हजार 165 गुणा 24 घण्टे = यानी ये 75 000 घण्टे लगभग का समय होगा । ध्यान रहे । ये तब है । जब आप 100 वर्ष का स्वस्थ जीवन जीते हैं । अतः इन्हीं 75 000 घण्टे में आपका बचपन शिक्षा शादी विवाह प्रेम प्रसंग नौकरी व्यापार आदि और अन्य दायित्व भी करने होते हैं । तब आपके पास योग मोक्ष उद्धार भक्ति आदि जैसे विषयों के लिये कब और कितना समय बचता है ? क्या आपने पहले कभी इस पर ध्यान दिया था ।
प्रश्न - क्या आपका बौद्धिक स्तर इतना क्षीण हो गया है कि आप अपने ही जीवन के लिये महत्वपूर्ण इन प्रश्नों को सिर्फ़ लाइक कर पाते हैं । और आलोचना समालोचना जिज्ञासा या तर्क वितर्क कुतर्क की दो चार पंक्तियां भी नहीं लिख पाते । यदि ऐसा है । तो ये बहुत ही अफ़सोस जनक है ।
प्रश्न - कभी बेहद कामी प्रवृत्ति के रहे राजा भर्तहरि ने " काम शतक " जैसा ग्रन्थ भी लिखा है । इसमें उन्होंने कामवासना का खुलकर समर्थन और उसके अनेकों पक्षों पर विस्तार से वर्णन किया है । फ़िर इसके बाद कामवासना से ऊबकर उन्हें तीवृ वैराग हुआ । तब उन्होंने " वैराग शतक " जैसा महान ग्रन्थ लिखा । संभवतः ओशो के कामवासना की प्रवृति पर  दिये गये व्याख्यान को ठीक से न समझ पाने के कारण तमाम ओशोवादियों ने सिर्फ़ कामवासना को ही बेहद महत्वपूर्ण मान लिया । और अधिकतर इसमें पूर्ण तल्लीनता से सलंग्न हैं । जैसा कि मैंने इंटरनेट और फ़ेसबुक आदि साइटस पर देखा । मुक्त कामवासना के दीवाने विदेशी नागरिक तो एक भारतीय साधु ओशो द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से कामवासना का धार्मिक समर्थन मानकर तरह तरह के काम प्रयोगों द्वारा कुण्डलिनी, काम तन्त्र, सिद्ध काम जैसे घोर अनाचारी प्रयोगों में जुट गये । और बजाय उत्थान के स्वयं और अन्य के महा पतन का गढा खोद दिया । क्या आप इस विचार से सहमत हैं ?   
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