यदि आप इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर उत्तर प्रति उत्तर जानने के इच्छुक हैं । तो नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें ।
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि आप इस मनुष्य जीवन में निश्चित और गिनती की सांसे लेकर आये हैं । और इसी तरह भाग्य और अन्य दूसरी चीजें भी । लेकिन क्योंकि मनुष्य योनि कर्मयोनि के अंतर्गत आती है । अतः जीवन को न सिर्फ़ बढाया भी जा सकता है । बल्कि पाप कर्मों आदि से घटाया भी जा सकता है । और यही बात भाग्य आदि अन्य चीजों पर भी लागू होती है । उदाहरण के लिये योग विज्ञान द्वारा स्वांस को सम और धीमा करके जीवन बढ जाता है । और कुम्भ स्नान ( अनुलोम विलोम प्राणायाम आदि ) से पाप धुलकर ताप कम हो जाते हैं । जिससे जीवन में दिव्यता आने लगती है । आपके विचार से क्या ये सही है ?
प्रश्न - जीव हत्या सबसे जघन्य पाप है । और इसके परिणाम स्वरूप अन्त में दीर्घकाल तक घोर नरक की प्राप्ति होती है । कल्पना करिये । यदि आपके शरीर में कोई पीङादायी स्थिति बन जाये । तो आप कितना तङपते हैं ? तब माँसाहार के लिये जो जीव मारे जाते हैं । वो भयंकर वेदना और दुख के साथ प्राण त्यागते हैं । और आप उनको
स्वाद से खाते हैं । किसी के कष्ट से सुख पाना ही पैशाचिक प्रवृति है । लेकिन ईश्वर का विधान " जैसे को तैसा " और हजार दस हजार गुणा फ़लित होकर है । तब आगामी कालक्रम में ऐसे ही जीव अंग भंग अपंग और मलिन दशा आदि को प्राप्त होकर घोर कष्ट भोगते हैं । ऐसा आपने देखा ही होगा । क्या आपके विचार में यह सही है ।
प्रश्न - भृंगी कीट एक पंखों वाले चींटे के समान जीव होता है । इसकी विशेषता ये है कि ये जनन क्रिया द्वारा बच्चे उत्पन्न नहीं करता । क्योंकि भृंगी कीट में मादा जीव होता ही नहीं है । ये दीवाल आदि पर बने अपने तीन चार छिद्रों वाले मिट्टी के छोटे से गोल घर में किसी तिनके जैसे मामूली कीङे को उठा लाता है । और घर के अन्दर डालकर स्वयं बाहर से पंख फ़ङफ़ङाता हुआ तेज
भूँ भूँ हूँ हूँ की ध्वनि करता है । इसके स्वर से छोटा कीङा भय से बेहोश हो जाता है । और भय से ही उसकी आंतरिक बाह्य संरचना परिवर्तित होकर भृंगी कीट जैसी ही हो जाती है । ये कोई सुनी हुयी दन्तकथा नहीं है । बल्कि सिद्ध है । प्रमाणित है । और इसका परीक्षण करने हेतु बस आपको किसी भृंगी कीट पर निगरानी रखनी होगी । क्या आप इससे सहमत हैं ?
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि सूचना और प्रसारण के सशक्त माध्यम इंटरनेट और फ़ेसबुक ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग आदि बेवसाइटस का सदुपयोग बहुत ही कम और दुरुपयोग बहुत ही अधिक हो रहा है । झूठा से झूठा मिला हाँ जी हाँ जी होय.. की तर्ज पर या तो अधिकांश लोग एक ग्रुप में बंधकर साधारण सी फ़िजूल बातों पर ही एक दूसरे के अहम को कमेंट शेयर
लाइक तुष्टि दे रहे हैं । या फ़िर नकली फ़ीमेल आई डी बनाकर बेहूदा क्रियाकलापों से तन मन धन की बरबादी करते हुये अपना और दूसरों का भी अनमोल जीवन नष्ट करने का घोर पाप कर रहें हैं । क्या आप मेरी बात से सहमत हैं ?
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि ये मनुष्य शरीर आपको करोङों बार मिल चुका है । और हर बार जब आप गर्भ में चैतन्य थे । तब आपने न सिर्फ़ निश्चय बल्कि प्रभु से वादा किया था कि अबकी बार मैं ये जन्म व्यर्थ नहीं जाने दूँगा । और अपने उद्धार के सम्पूर्ण प्रयत्न करूँगा । लेकिन जन्म के बाद गर्भ से बाहर आते ही धीरे धीरे आप माया के प्रभाव में आते गये । और दुर्लभ जीवन को व्यर्थ में गंवाकर कई और जन्मों के " कारण बीज " बो दिये । क्या आपके विचार में यह सही है ?
प्रश्न - प्राचीन भारत में किसी साधु की मान्यता उसके ज्ञान पर आधारित होती थी । इसके लिये बाकायदा काशी में ( और अभी दिल्ली में भी ) एक धर्म संसद होती है । जिसमें साधु सन्तों के स्तर और उनके गुरु जगत गुरु आदि उपाधियों का निर्णय एक विद्वान सन्तों का निर्णायक मंडल तय करता था । भूतकाल में याग्व्लक्य और आदि शंकराचार्य मंडन मिश्र आदि इसके प्रसिद्ध उदाहरण रहे हैं । जबकि आज ये ज्ञान के बजाय प्रचार, धन, समृद्धता और उसके प्रसार पर अधिक केन्द्रित हो गया है । जा के संग दस बीस है ताको नाम महन्त । इसी से सन्तों के नाम पर अज्ञानियों की भरमार सी हो गयी है । इससे भी अधिक अज्ञान की बात ये हैं कि हम ऐसे महज गेरुआ
वस्त्र और मालाधारी सन्तों को असली सन्तों जैसा सम्मान देकर इस अज्ञान को बढाने में और भी सहयोग कर रहे हैं । क्या आप मेरे इस विचार से सहमत हैं ?
प्रश्न - सिख धर्म स्थापित हो जाने के बाद जब कालान्तर में नवम दशम गुरु तक आते आते बाद में गुरु पद के लिये विवाद और आंतरिक कलह जैसे लक्षण सिखों में आपसी रूप से दिखने लगे । तब तत्कालीन जटिल परिस्थितियों के अनुसार इस समस्या को दूर करने हेतु गुरुग्रन्थ साहिब को ही गुरु की मान्यता दे दी गयी । मेरे विचार से एक पुस्तक कभी शरीरधारी गुरु की पूर्ण भूमिका नहीं निभा सकती । क्योंकि उसका अध्ययन करने वाला अपनी अपनी मानसिकता अनुसार ही अर्थ निकालेगा । जबकि किसी देहधारी गुरु की पूरी जिम्मेदारी हो जाती है । दूसरे एक आम इंसान किसी वाणी का इतना सूक्ष्म अध्ययन नहीं कर सकता । अतः मेरे दृष्टिकोण से सिखों पर धर्म का सार सार ( आत्म ) ज्ञान होने के बाबजूद भी वे उसके असली लाभ से वंचित ही रह गये । गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणी कहीं अन्य से नहीं आयी । बल्कि इसी सनातन धर्म की ही वाणी है । तुलसीदास के अनुसार - जो विरंच शंकर सम होई । गुरु बिनु भव निधि तरे न कोई । अतः सिखों को इस गुरु
आदेश से हमेशा के लिये एक अनमोल उपलब्धि से वंचित हो जाना पङा । क्या आप इससे सहमत हैं ?
प्रश्न - अगर हम पूर्णतः 100 वर्ष का स्वस्थ जीवन जियें । तो भी हमारी जिन्दगी में लगभग 24 घण्टे = 36 500 दिन ही होते हैं । और आप ये मानते ही होंगे कि किसी भी व्यक्ति को कम से कम 8 घण्टे की नींद अनिवार्य है । इस तरह से 24 घण्टे में से 8 घण्टे तो हमारे सोने में ही निकल जाते हैं । यानी 1/3 जीवन यानी 12 हजार 165 दिन के बराबर का समय तो सोने में ही निकल जायेगा । फ़िर आप ये भी मानते होंगे कि लगभग 8 घण्टे ही हमें सुबह शाम दोनों समय दैनिक क्रियाओं के लिये चाहिये होते हैं । इस तरह औसतन 1/3 जीवन यानी 12 हजार 165 दिन सिर्फ़ शरीर के लिये आवश्यक कार्यों में निकल जाते हैं । और अब शेष बचे 12 हजार 165 दिन ( लेकिन इनकी अवधि पूरे 24 घण्टे की होगी ) या यूँ कह लीजिये । 12 हजार 165 गुणा 24 घण्टे = यानी ये 75 000 घण्टे लगभग का समय होगा । ध्यान रहे । ये तब है । जब आप 100 वर्ष का स्वस्थ जीवन जीते हैं । अतः इन्हीं 75 000 घण्टे में आपका बचपन शिक्षा शादी विवाह प्रेम प्रसंग नौकरी व्यापार आदि और अन्य दायित्व भी करने होते हैं । तब आपके पास योग मोक्ष उद्धार भक्ति आदि जैसे विषयों के लिये कब और कितना समय बचता है ? क्या आपने पहले कभी इस पर ध्यान दिया था ।
प्रश्न - क्या आपका बौद्धिक स्तर इतना क्षीण हो गया है कि आप अपने ही जीवन के लिये महत्वपूर्ण इन प्रश्नों को सिर्फ़ लाइक कर पाते हैं । और आलोचना समालोचना जिज्ञासा या तर्क वितर्क कुतर्क की दो चार पंक्तियां भी नहीं लिख पाते । यदि ऐसा है । तो ये बहुत ही अफ़सोस जनक है ।
प्रश्न - कभी बेहद कामी प्रवृत्ति के रहे राजा भर्तहरि ने " काम शतक " जैसा ग्रन्थ भी लिखा है । इसमें उन्होंने कामवासना का खुलकर समर्थन और उसके अनेकों पक्षों पर विस्तार से वर्णन किया है । फ़िर इसके बाद कामवासना से ऊबकर उन्हें तीवृ वैराग हुआ । तब उन्होंने " वैराग शतक " जैसा महान ग्रन्थ लिखा । संभवतः ओशो के कामवासना की प्रवृति पर दिये गये व्याख्यान को ठीक से न समझ पाने के कारण तमाम ओशोवादियों ने सिर्फ़ कामवासना को ही बेहद महत्वपूर्ण मान लिया । और अधिकतर इसमें पूर्ण तल्लीनता से सलंग्न हैं । जैसा कि मैंने इंटरनेट और फ़ेसबुक आदि साइटस पर देखा । मुक्त कामवासना के दीवाने विदेशी नागरिक तो एक भारतीय साधु ओशो द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से कामवासना का धार्मिक समर्थन मानकर तरह तरह के काम प्रयोगों द्वारा कुण्डलिनी, काम तन्त्र, सिद्ध काम जैसे घोर अनाचारी प्रयोगों में जुट गये । और बजाय उत्थान के स्वयं और अन्य के महा पतन का गढा खोद दिया । क्या आप इस विचार से सहमत हैं ?
यदि आप एक स्वस्थ सार्थक देश समाज और स्वयं के लिये उपयोगी खुली बहस में भाग लेना चाहते हैं । तो इस समूह से अवश्य जुङिये ।
https://www.facebook.com/groups/supremebliss/
If you wish to participate in a healthy and meaningful discussion, beneficial to yourself, your country and your society, then you should definitely join this group.
https://www.facebook.com/groups/supremebliss/
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि आप इस मनुष्य जीवन में निश्चित और गिनती की सांसे लेकर आये हैं । और इसी तरह भाग्य और अन्य दूसरी चीजें भी । लेकिन क्योंकि मनुष्य योनि कर्मयोनि के अंतर्गत आती है । अतः जीवन को न सिर्फ़ बढाया भी जा सकता है । बल्कि पाप कर्मों आदि से घटाया भी जा सकता है । और यही बात भाग्य आदि अन्य चीजों पर भी लागू होती है । उदाहरण के लिये योग विज्ञान द्वारा स्वांस को सम और धीमा करके जीवन बढ जाता है । और कुम्भ स्नान ( अनुलोम विलोम प्राणायाम आदि ) से पाप धुलकर ताप कम हो जाते हैं । जिससे जीवन में दिव्यता आने लगती है । आपके विचार से क्या ये सही है ?
प्रश्न - जीव हत्या सबसे जघन्य पाप है । और इसके परिणाम स्वरूप अन्त में दीर्घकाल तक घोर नरक की प्राप्ति होती है । कल्पना करिये । यदि आपके शरीर में कोई पीङादायी स्थिति बन जाये । तो आप कितना तङपते हैं ? तब माँसाहार के लिये जो जीव मारे जाते हैं । वो भयंकर वेदना और दुख के साथ प्राण त्यागते हैं । और आप उनको
स्वाद से खाते हैं । किसी के कष्ट से सुख पाना ही पैशाचिक प्रवृति है । लेकिन ईश्वर का विधान " जैसे को तैसा " और हजार दस हजार गुणा फ़लित होकर है । तब आगामी कालक्रम में ऐसे ही जीव अंग भंग अपंग और मलिन दशा आदि को प्राप्त होकर घोर कष्ट भोगते हैं । ऐसा आपने देखा ही होगा । क्या आपके विचार में यह सही है ।
प्रश्न - भृंगी कीट एक पंखों वाले चींटे के समान जीव होता है । इसकी विशेषता ये है कि ये जनन क्रिया द्वारा बच्चे उत्पन्न नहीं करता । क्योंकि भृंगी कीट में मादा जीव होता ही नहीं है । ये दीवाल आदि पर बने अपने तीन चार छिद्रों वाले मिट्टी के छोटे से गोल घर में किसी तिनके जैसे मामूली कीङे को उठा लाता है । और घर के अन्दर डालकर स्वयं बाहर से पंख फ़ङफ़ङाता हुआ तेज
भूँ भूँ हूँ हूँ की ध्वनि करता है । इसके स्वर से छोटा कीङा भय से बेहोश हो जाता है । और भय से ही उसकी आंतरिक बाह्य संरचना परिवर्तित होकर भृंगी कीट जैसी ही हो जाती है । ये कोई सुनी हुयी दन्तकथा नहीं है । बल्कि सिद्ध है । प्रमाणित है । और इसका परीक्षण करने हेतु बस आपको किसी भृंगी कीट पर निगरानी रखनी होगी । क्या आप इससे सहमत हैं ?
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि सूचना और प्रसारण के सशक्त माध्यम इंटरनेट और फ़ेसबुक ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग आदि बेवसाइटस का सदुपयोग बहुत ही कम और दुरुपयोग बहुत ही अधिक हो रहा है । झूठा से झूठा मिला हाँ जी हाँ जी होय.. की तर्ज पर या तो अधिकांश लोग एक ग्रुप में बंधकर साधारण सी फ़िजूल बातों पर ही एक दूसरे के अहम को कमेंट शेयर
लाइक तुष्टि दे रहे हैं । या फ़िर नकली फ़ीमेल आई डी बनाकर बेहूदा क्रियाकलापों से तन मन धन की बरबादी करते हुये अपना और दूसरों का भी अनमोल जीवन नष्ट करने का घोर पाप कर रहें हैं । क्या आप मेरी बात से सहमत हैं ?
प्रश्न - क्या आप मानते हैं कि ये मनुष्य शरीर आपको करोङों बार मिल चुका है । और हर बार जब आप गर्भ में चैतन्य थे । तब आपने न सिर्फ़ निश्चय बल्कि प्रभु से वादा किया था कि अबकी बार मैं ये जन्म व्यर्थ नहीं जाने दूँगा । और अपने उद्धार के सम्पूर्ण प्रयत्न करूँगा । लेकिन जन्म के बाद गर्भ से बाहर आते ही धीरे धीरे आप माया के प्रभाव में आते गये । और दुर्लभ जीवन को व्यर्थ में गंवाकर कई और जन्मों के " कारण बीज " बो दिये । क्या आपके विचार में यह सही है ?
प्रश्न - प्राचीन भारत में किसी साधु की मान्यता उसके ज्ञान पर आधारित होती थी । इसके लिये बाकायदा काशी में ( और अभी दिल्ली में भी ) एक धर्म संसद होती है । जिसमें साधु सन्तों के स्तर और उनके गुरु जगत गुरु आदि उपाधियों का निर्णय एक विद्वान सन्तों का निर्णायक मंडल तय करता था । भूतकाल में याग्व्लक्य और आदि शंकराचार्य मंडन मिश्र आदि इसके प्रसिद्ध उदाहरण रहे हैं । जबकि आज ये ज्ञान के बजाय प्रचार, धन, समृद्धता और उसके प्रसार पर अधिक केन्द्रित हो गया है । जा के संग दस बीस है ताको नाम महन्त । इसी से सन्तों के नाम पर अज्ञानियों की भरमार सी हो गयी है । इससे भी अधिक अज्ञान की बात ये हैं कि हम ऐसे महज गेरुआ
वस्त्र और मालाधारी सन्तों को असली सन्तों जैसा सम्मान देकर इस अज्ञान को बढाने में और भी सहयोग कर रहे हैं । क्या आप मेरे इस विचार से सहमत हैं ?
प्रश्न - सिख धर्म स्थापित हो जाने के बाद जब कालान्तर में नवम दशम गुरु तक आते आते बाद में गुरु पद के लिये विवाद और आंतरिक कलह जैसे लक्षण सिखों में आपसी रूप से दिखने लगे । तब तत्कालीन जटिल परिस्थितियों के अनुसार इस समस्या को दूर करने हेतु गुरुग्रन्थ साहिब को ही गुरु की मान्यता दे दी गयी । मेरे विचार से एक पुस्तक कभी शरीरधारी गुरु की पूर्ण भूमिका नहीं निभा सकती । क्योंकि उसका अध्ययन करने वाला अपनी अपनी मानसिकता अनुसार ही अर्थ निकालेगा । जबकि किसी देहधारी गुरु की पूरी जिम्मेदारी हो जाती है । दूसरे एक आम इंसान किसी वाणी का इतना सूक्ष्म अध्ययन नहीं कर सकता । अतः मेरे दृष्टिकोण से सिखों पर धर्म का सार सार ( आत्म ) ज्ञान होने के बाबजूद भी वे उसके असली लाभ से वंचित ही रह गये । गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणी कहीं अन्य से नहीं आयी । बल्कि इसी सनातन धर्म की ही वाणी है । तुलसीदास के अनुसार - जो विरंच शंकर सम होई । गुरु बिनु भव निधि तरे न कोई । अतः सिखों को इस गुरु
आदेश से हमेशा के लिये एक अनमोल उपलब्धि से वंचित हो जाना पङा । क्या आप इससे सहमत हैं ?
प्रश्न - अगर हम पूर्णतः 100 वर्ष का स्वस्थ जीवन जियें । तो भी हमारी जिन्दगी में लगभग 24 घण्टे = 36 500 दिन ही होते हैं । और आप ये मानते ही होंगे कि किसी भी व्यक्ति को कम से कम 8 घण्टे की नींद अनिवार्य है । इस तरह से 24 घण्टे में से 8 घण्टे तो हमारे सोने में ही निकल जाते हैं । यानी 1/3 जीवन यानी 12 हजार 165 दिन के बराबर का समय तो सोने में ही निकल जायेगा । फ़िर आप ये भी मानते होंगे कि लगभग 8 घण्टे ही हमें सुबह शाम दोनों समय दैनिक क्रियाओं के लिये चाहिये होते हैं । इस तरह औसतन 1/3 जीवन यानी 12 हजार 165 दिन सिर्फ़ शरीर के लिये आवश्यक कार्यों में निकल जाते हैं । और अब शेष बचे 12 हजार 165 दिन ( लेकिन इनकी अवधि पूरे 24 घण्टे की होगी ) या यूँ कह लीजिये । 12 हजार 165 गुणा 24 घण्टे = यानी ये 75 000 घण्टे लगभग का समय होगा । ध्यान रहे । ये तब है । जब आप 100 वर्ष का स्वस्थ जीवन जीते हैं । अतः इन्हीं 75 000 घण्टे में आपका बचपन शिक्षा शादी विवाह प्रेम प्रसंग नौकरी व्यापार आदि और अन्य दायित्व भी करने होते हैं । तब आपके पास योग मोक्ष उद्धार भक्ति आदि जैसे विषयों के लिये कब और कितना समय बचता है ? क्या आपने पहले कभी इस पर ध्यान दिया था ।
प्रश्न - क्या आपका बौद्धिक स्तर इतना क्षीण हो गया है कि आप अपने ही जीवन के लिये महत्वपूर्ण इन प्रश्नों को सिर्फ़ लाइक कर पाते हैं । और आलोचना समालोचना जिज्ञासा या तर्क वितर्क कुतर्क की दो चार पंक्तियां भी नहीं लिख पाते । यदि ऐसा है । तो ये बहुत ही अफ़सोस जनक है ।
प्रश्न - कभी बेहद कामी प्रवृत्ति के रहे राजा भर्तहरि ने " काम शतक " जैसा ग्रन्थ भी लिखा है । इसमें उन्होंने कामवासना का खुलकर समर्थन और उसके अनेकों पक्षों पर विस्तार से वर्णन किया है । फ़िर इसके बाद कामवासना से ऊबकर उन्हें तीवृ वैराग हुआ । तब उन्होंने " वैराग शतक " जैसा महान ग्रन्थ लिखा । संभवतः ओशो के कामवासना की प्रवृति पर दिये गये व्याख्यान को ठीक से न समझ पाने के कारण तमाम ओशोवादियों ने सिर्फ़ कामवासना को ही बेहद महत्वपूर्ण मान लिया । और अधिकतर इसमें पूर्ण तल्लीनता से सलंग्न हैं । जैसा कि मैंने इंटरनेट और फ़ेसबुक आदि साइटस पर देखा । मुक्त कामवासना के दीवाने विदेशी नागरिक तो एक भारतीय साधु ओशो द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से कामवासना का धार्मिक समर्थन मानकर तरह तरह के काम प्रयोगों द्वारा कुण्डलिनी, काम तन्त्र, सिद्ध काम जैसे घोर अनाचारी प्रयोगों में जुट गये । और बजाय उत्थान के स्वयं और अन्य के महा पतन का गढा खोद दिया । क्या आप इस विचार से सहमत हैं ?
यदि आप एक स्वस्थ सार्थक देश समाज और स्वयं के लिये उपयोगी खुली बहस में भाग लेना चाहते हैं । तो इस समूह से अवश्य जुङिये ।
https://www.facebook.com/groups/supremebliss/
If you wish to participate in a healthy and meaningful discussion, beneficial to yourself, your country and your society, then you should definitely join this group.
https://www.facebook.com/groups/supremebliss/
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें