प्रणाम ! प्रश्न 1 - क्या धर्म की रक्षा के लिए हिंसा जायज है ? " अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: " ( अर्थात यदि अहिंसा परम धर्म है । तो धर्म हिंसा अर्थात कानून के ( अनुसार हिंसा ) भी परम धर्म है । अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है । और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उससे भी श्रेष्ठ है )
http://motivatedlifestyle.blogspot.in/2013/01/casteism-ignorance-vedas-manusmriti.html
उत्तर - जब हम किसी बात का विश्लेषण करते हैं । तो ये आवश्यक होता है कि वह बात किसने और किस संदर्भ में कही है ? कहने वाले व्यक्ति की स्व योग्यता क्या है ? उदाहरण के लिये श्रीमद भगवत गीता वेद व्यास द्वारा रचित है । जबकि ऐसा प्रचलित है कि वह श्रीकृष्ण अर्जुन के वचन हैं । सीधी सी बात है कि उस समय युद्ध के मैदान में आज की तरह कोई रिकार्डिंग उपकरण या जीवन्त प्रसारण की सुविधायें मौजूद नहीं थी । पर हमारे दिमाग में हमेशा यही आता है कि श्रीकृष्ण ने क्या कहा ?
इसलिये मैं धर्म हिंसा या अहिंसा परम धर्म क्या और कैसे है ? इन बातों का ही ठीक ठीक मतलब नहीं समझ पाता । क्योंकि अगर आप " परम " शब्द का इस्तेमाल करते हैं । तो परम में तो कोई धर्म भी नहीं है । धर्म का अर्थ होता है - धारण करना या धारण किया हुआ । और परम में जो है - सो है । शाश्वत है । अब जैसे हिंसा शब्द के बहुत सूक्ष्म अर्थ निकलते हैं । जिसको सार रूप में यों समझ सकते हैं । आपका कोई भी ऐसा कार्य जो दूसरे को कष्ट पहुँचा रहा है । वह हिंसा ही है । तन से । मन से । या धन से । हाँ अहिंसा परमो धर्म का अर्थ ये अवश्य है कि यदि आपके द्वारा किसी भी जीव मात्र को कोई कष्ट नहीं पहुँचता । तो ये सभी धर्मों से बढकर है ।
अब जैसा कि आज के हालातों के संदर्भ में जब हिन्दू मुस्लिम या हिन्दू ईसाई जैसे मुद्दों पर सामाजिक टकराव सा हो रहा है । आपको लग रहा होगा कि धर्म की रक्षा के लिये युद्ध के मैदान में कूदना श्रेष्ठ होगा । जबकि यह एकदम मूर्खतापूर्ण बात है । गौर से सोचिये । ये आप धर्म की रक्षा करेंगे । या समूह विशेष समाज विशेष की एकता हेतु स्वार्थवश करेंगे । क्योंकि आप भी उसी ( हिन्दू ) समाज का एक अंग हो । यदि आप ऐसा नहीं करते । तो कल को आप भी प्रभावित होंगे । फ़िर ये धर्म कहाँ ? ये तो स्वार्थ हुआ ।
अब दूसरी बात - आप कैसे कह सकते हैं कि आपका ही धर्म श्रेष्ठ है ? मुस्लिमों या ईसाईयों का धर्म श्रेष्ठ नहीं है । सबको अपना अपना धर्म ही श्रेष्ठ लगता है । इस बात पर आप हिन्दू और मुस्लिम ईसाई धर्म का तुलनात्मक आंकलन करेंगे । आप अपने धर्म की गुणवत्ता सभी के सामने रखेंगे । अब अगर कोई चीज दो अन्य चीजों की तुलना में श्रेष्ठ है । तो मेरी समझ में नहीं आता । फ़िर उसको साबित करने के लिये युद्ध आदि की क्या आवश्यकता है ? गौर से समझें । आप बाजार से दो रुपये की भी वस्तु लाते हैं । तो श्रेष्ठ का चुनाव तुरन्त कर लेते हैं । आपको अपना धर्म श्रेष्ठ लगता है । मुस्लिमों को अपना । ईसाईयों को अपना । दरअसल मुस्लिमों को लगता है कि तुम हो तो उन्हीं के जात भाई । पर भटककर काफ़िर हो गये हो । इसलिये वो कयामत के बाद जन्नत में मदिरा की नहरें ( ध्यान रहे - वैसे इस्लाम में शराब पीना हराम है । पर स्वर्ग में अल्लाह मियां ने शराब की नहरें खुदवा रखी हैं । ) और 72 हूर प्रत्येक इंसान के लिये दिलवाना चाहते हैं । यही बात ईसाईयों की है । वो भी कयामत के बाद तुम्हें स्वर्ग में ले जाने पर कमर कसकर तैयार है । और आप उनकी भावना को गलत बताते हो । ये लोग मुझसे कभी सम्पर्क ही नही करते । वरना मैं हर हफ़्ते एक हफ़्ता मुसलमान एक हफ़्ता ईसाई बनने को तैयार हूँ । फ़िर मैं इन दोनों से पूछूँगा कि - मुझे मुसलमान ईसाई बनकर क्या फ़ायदा होगा ? क्योंकि बिना फ़ायदे के तो मैं अपना मुँह भी नहीं धोता । तब ये दोनों कहेंगे - मरने के बाद कयामत के दिन आपको स्वर्ग की प्राप्ति और अप्सरायें आदि प्राप्त होगी । बस यही एक बेहद घटिया सी सस्ती चाकलेट इनके पास है । तब मैं कहूँगा - बस फ़िर उसके लिये कयामत का इंतजार क्या करना । तुम हिन्दू भी मत बनो । मुसलमान भी मत बनो । ईसाई भी मत बनो । सिर्फ़ इंसान बन जाओ । मैं तुम्हें अभी का अभी जीते जी ही स्वर्ग ( की असलियत ) दिखाकर लाता हूँ । और ये भी दिखाता हूँ कि तुम्हारे यीशु और मुहम्मद वास्तव में वहाँ दूर दूर तक नहीं हैं । वहाँ कोई अल्लाह मुल्लाह नहीं है । वहाँ का राजा इन्द्र है । और कुछ पुण्यात्मा जीव । जो छोटे मोटे देव पद प्राप्त कर अपने अपने निर्धारित कार्य करते हैं । वहाँ कोई शराब की नदियां नहीं बहती । और हूरें ( हैं मगर ) तुम्हें मिलना तो दूर तुममें लात भी नहीं मारेगीं ।
अब आप समझें । इसको कहते हैं - धर्म के लिये हिंसा करना । अज्ञान को ज्ञान से नष्ट करना । अगर आपके ज्ञान का सूर्य प्रकाशित है । तो कोई वजह नहीं कि अज्ञानी चकाचौंध न हो जायें । मैंने आपको बताया कि कई ( दोगले । हिन्दू से ईसाई बने ) पादरियों को मैंने बातचीत से ही रुला दिया । कांपने लगे । अच्छे अच्छे मौलवी ( स्वतः ही ) झुककर नमस्कार करते हैं । क्यों ? क्या मेरे हाथ में कोई अस्त्र है ।
ये आपका असल मुद्दे पर उत्तर है । लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी उतना ही सच है । यानी धर्म के स्वार्थी व्यवसायिक तत्वों द्वारा ऐसा माहौल तैयार कर देना कि व्यक्ति को अनचाहे हथियार उठाने मारने काटने की नौबत आ जाये ।
तब यहाँ बात वही आ जाती है । जिसके लिये हिन्दू रामायण और महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना हुयी है । पहले निष्पक्ष वार्ता द्वारा हल निकालना । और बात न बनने पर धर्म युद्ध में उतरना । यानी पहले समझाओ । लेकिन वह मदान्ध ही हो गया हो । जान लेने पर आमादा हो । तब उसका बध भी कर सकते हो । लेकिन ध्यान रहे । ये सब कर्ता भाव से रहित स्थिति परिस्थिति अनुसार करना चाहिये । यही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि - यदि इनको मारते समय तुझे कर्ता भाव आ गया । तो तुझे हत्या का पाप लग जायेगा । और वास्तव में ऐसा ही हुआ । अर्जुन ( आदि ) कर्ता भाव से ग्रसित होकर नरक को भी प्राप्त हुआ ।
यदि आपका प्रश्न मौजूदा परिस्थितियों को लेकर उपजा है । तो लगभग बेमानी है । अभी की परिस्थितियों को संभालना इंसानी क्षमता से बाहर है । क्योंकि ये सनातन धर्म की स्थापना का समय ( 2012 to 2020 ) है । सर्वोच्च शक्ति कभी की प्रकट हो चुकी है । अन्य कई महाशक्तियां इस समय ( इस ) प्रथ्वी के प्राकृतिक सामाजिक धार्मिक परिवर्तन को लेकर किसी धर्मयुद्ध की भांति ही पक्ष विपक्ष में युद्ध भूमि में उतरी हुयी हैं । युद्ध जारी है । जो मानवों को निमित्त ( माध्यम । आवेशित ) बनाकर तथा प्राकृतिक घटनाओं अलौकिक क्रियाओं आदि द्वारा खेला जा रहा है । इसमें करोङों लोगों का संहार तय है । यह निश्चित है कि ये युद्ध विधर्मियों के नाश के लिये ही है । अतः इस समय साधारण मानव का एक ही सबसे बङा धर्म है - अधिकाधिक भक्ति करके सात्विक गुण की वृद्धि करना ।
प्रश्न 2 - क्या जीवाणुओं ( बैक्टीरिया ) में भी आत्मा होती है ? एक ग्राम मिट्टी में 4 करोड़ जीवाणु कोष तथा 1 मिलीलीटर जल में 10 लाख जीवाणु पाएं जाते हैं । एक इंसान के अंदर कम से कम 10 हजार प्रकार के जीवाणु विषाणु रहते हैं ।
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%81
ये तो बहुत ज्यादा हो गया |
उत्तर - सच कहा जाये । तो इन जीवाणुओं में तो छोङो । मनुष्य या देवताओं आदि किसी में भी आत्मा नाम की कोई चीज नहीं होती । ये जीवाणु आदि दरअसल चेतन अणु होते हैं । जो प्रकृति के संयोग से आवरित हो जाते हैं । और जीव जैसे मालूम होते हैं । आवरित होने के बाद भी ये निर्लेप ही होते हैं । और अति सूक्ष्म चेतन अणु होते हैं । यदि कोई आंतरिक योग क्रियायें जानता हो । तो ये बिना आवरण के भी निराधार किसी भी स्थान में निरंतर गतिशील नजर आते हैं । ये अखिल सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं । और एक कंपन के सदृश मध्यम से कुछ कम गति में हिलते रहते हैं । जून महीने जैसी तेज कङी धूप में कभी कभी ये आम आदमी को भी नजर आते सुने गये हैं ।
अब आत्मा की बात समझिये । आत्मा वास्तव में एक ही है । और उसी को सृष्टि बनने के उपरांत ( सबसे परे होने के कारण ) परम आत्मा कहा गया है । मनुष्य आदि सभी ( किसी न किसी जीवन की इच्छा से ) जीवात्मा है । गौर से समझें - आत्मा का किसी भाव में किसी इच्छा से शरीर ( जीवन ) धारण करना ही आत्मा का जीवन या आत्मा से जीवन हुआ । तो जो वो नया शरीर नयी इच्छाओं नये संस्कार नये स्वभाव के साथ जीव ( भाव में ) धारण करता है । तब जीवात्मा कहलाता है । अब इसको भी समझें । जैसे कोई अभिनेता है । वह अनेकों अच्छे बुरे मध्यम चरित्र निभाता है । तो क्या उसका मूल प्रभावित हो जाता है ? अपने चरित्र को निभाने के बाद वह अपने मूल में स्थित हो जाता है । यही वात आत्मा और जीव के बीच सम्बन्ध को लेकर है । आप सब जानते हैं । आत्मा ने सबसे पहले सोचा कि - मैं कौन हूँ ? कोहम ? उस समय ये पूर्ण था । और हङबङाहट में था । तब उससे संकल्प हो गया - मैं एक से अनेक हो जाऊँ । तो कोहम से ही अहम की उत्पत्ति हुयी । फ़िर अनेक जीव बने । इसके बाद इसने सर्वश्रेष्ठ मनुष्य शरीर बनाया । और शरीर को कहा - ओहम ( ॐ ) । इसके बाद उस मनुष्य को जिज्ञासा हुयी - कोहम । तब ज्ञान से उत्तर मिला - सोहम । यानी मैं भी बही हूँ ।
वास्तव में यह समझाना बङा जटिल है । लेकिन इसको एक सटीक उदाहरण से इस तरह समझ सकते हैं । जैसे किसी विशाल मैदान ( अखिल सृष्टि ) में अनगिनत दर्पण ( अंतःकरण या मन ) रखे हो । और उन पर सूर्य ( आत्मा ) का प्रतिबिम्ब ( ही जीवात्मा ) पङ रहा हो । तो उन सभी में अलग अलग सूर्य नजर आयेगा । इसी तरह आत्मा का प्रकाश ( रूपी फ़ोकस ) अंतः करण पर पङता है । इस क्रिया को सिनेमा प्रोजेक्टर द्वारा भी सटीक जाना जा सकता है । प्रोजेक्टर का बल्ब ( आत्मा ) > इसके बाद फ़ोकस । इसके बाद आगे चढी रील जिसमें चित्र और ध्वनि हैं । ( अंतःकरण ) इसके बाद सिनेमा हाल में जाता फ़ोकस प्रकाश ( अदृश्य प्रकृति की क्रियायें ) और सिनेमा के परदे ( प्रथ्वी ) पर चलते चलचित्र ( मनुष्य आदि का जीवन और विभिन्न क्रियायें ) बस यही सच है । जब तक यह मन द्वारा अपने अहम माया रूप को सत्य मानता रहता है । तब तक जीव कहलाता है । और ज्ञान द्वारा निज स्वरूप को जान लेता है । तब यही मुक्त आत्मा हो जाता है ।
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आप मेरे प्रश्न नहीं समझे । मांसाहारी जानवर दूसरे जानवरों का मांस खाते है । तो क्या उनको भी पाप लगेगा ? क्योंकि अगर उनको पाप लगेगा । तो वो जानवर नीच योनियों में ही जाते रहेंगे ।
उत्तर - इस सृष्टि में सिर्फ़ मनुष्य योनि ही कर्म योनि है । जिसका अच्छा बुरा कर्म फ़ल ( परिणाम ) बनता है । बाकी सभी पशु पक्षी देव आदि भोग योनियां हैं । अतः उनमें कर्म तो होता है । परन्तु उनका अच्छा बुरा कोई फ़ल नहीं होता । दूसरे सृष्टि नियम अनुसार मांसाहारी जीवों के लिये अन्य जीवों को उनका भोजन बनाया गया है । अतः पाप पुण्य जैसी कोई बात नहीं होती । थोङा गहराई से देखें । तो शाकाहारी पशु पक्षी कभी मांस नहीं खा पायेंगे । और मांसाहारी कभी शाकाहार । कुछ मिश्रित प्रकृति के भी होते हैं । इन्हीं में से किसी कृम के बीच कोई मनुष्य बनता है । तब उसका वैसा ही स्वभाव होता है । और मनुष्य में से पशु बने का भी पूर्व स्वभाव प्रभावी होता है । पशु बनने के बाद भी ये सम्बन्धित अन्य जीवों से पूर्व ( मनुष्य ) जन्म के संस्कारी लेन देन अनुसार ही अच्छा बुरा व्यवहार करते हैं । आप और भी गौर से देखें । तो आत्मज्ञान रहित मनुष्य और पशु के स्वभाव में कोई भी अन्तर महसूस नहीं होगा ।
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आसाराम भगवान तो नहीं लेकिन संत है । "अगर आशाराम इसकी जगह ये कहता - सांच को आंच नहीं होती । यदि ऐसा कोई दोषारोपण मुझ पर हुआ है । तो मैं पूरे सहयोग से इसकी सभी जांच कराने को तैयार हूँ । "
इसके जवाब में मैं यहीं कहूँगा कि पुलिस वालों का क्या भरोसा ?
पुलिस वाले तो सच्चे को भी झूठे आरोप में फंसा देती है । जैसे कि बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण को जेल में डाल दिया था । बालकृष्ण को तो आज भी परेशान किया जा रहा है ।
उत्तर - आपने ये बात बिना सोचे समझे शीघ्रता में कही है । यदि इसी तरह एक सन्त भी सोचे और डरे । तो उसमें और एक आम आदमी में क्या फ़र्क हुआ ? सन्त बहुत बङी हस्ती होता है । यदि एक मध्यम स्तर के सच्चे तांत्रिक के साथ ऐसी घटना हुयी होती । तो वो अकेला ही समस्त विरोधियों को धूल चटा देता । वो भी गद्दी पर बैठे ही बैठे । ये दरअसल कोई सन्त वगैरह नहीं है । बल्कि एक आम इंसान ही है । जो धर्म शिक्षक की भूमिका में है । और एक शिक्षक का निजी स्वभाव भी अवश्य होता है ।
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- हमेशा की तरह फ़िर से मेरा कहना है । यदि लेख का कोई बिन्दु आपके लिये अस्पष्ट है । तो निसंकोच फ़िर से पूछ सकते हैं ।
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उत्तर - जब हम किसी बात का विश्लेषण करते हैं । तो ये आवश्यक होता है कि वह बात किसने और किस संदर्भ में कही है ? कहने वाले व्यक्ति की स्व योग्यता क्या है ? उदाहरण के लिये श्रीमद भगवत गीता वेद व्यास द्वारा रचित है । जबकि ऐसा प्रचलित है कि वह श्रीकृष्ण अर्जुन के वचन हैं । सीधी सी बात है कि उस समय युद्ध के मैदान में आज की तरह कोई रिकार्डिंग उपकरण या जीवन्त प्रसारण की सुविधायें मौजूद नहीं थी । पर हमारे दिमाग में हमेशा यही आता है कि श्रीकृष्ण ने क्या कहा ?
इसलिये मैं धर्म हिंसा या अहिंसा परम धर्म क्या और कैसे है ? इन बातों का ही ठीक ठीक मतलब नहीं समझ पाता । क्योंकि अगर आप " परम " शब्द का इस्तेमाल करते हैं । तो परम में तो कोई धर्म भी नहीं है । धर्म का अर्थ होता है - धारण करना या धारण किया हुआ । और परम में जो है - सो है । शाश्वत है । अब जैसे हिंसा शब्द के बहुत सूक्ष्म अर्थ निकलते हैं । जिसको सार रूप में यों समझ सकते हैं । आपका कोई भी ऐसा कार्य जो दूसरे को कष्ट पहुँचा रहा है । वह हिंसा ही है । तन से । मन से । या धन से । हाँ अहिंसा परमो धर्म का अर्थ ये अवश्य है कि यदि आपके द्वारा किसी भी जीव मात्र को कोई कष्ट नहीं पहुँचता । तो ये सभी धर्मों से बढकर है ।
अब जैसा कि आज के हालातों के संदर्भ में जब हिन्दू मुस्लिम या हिन्दू ईसाई जैसे मुद्दों पर सामाजिक टकराव सा हो रहा है । आपको लग रहा होगा कि धर्म की रक्षा के लिये युद्ध के मैदान में कूदना श्रेष्ठ होगा । जबकि यह एकदम मूर्खतापूर्ण बात है । गौर से सोचिये । ये आप धर्म की रक्षा करेंगे । या समूह विशेष समाज विशेष की एकता हेतु स्वार्थवश करेंगे । क्योंकि आप भी उसी ( हिन्दू ) समाज का एक अंग हो । यदि आप ऐसा नहीं करते । तो कल को आप भी प्रभावित होंगे । फ़िर ये धर्म कहाँ ? ये तो स्वार्थ हुआ ।
अब दूसरी बात - आप कैसे कह सकते हैं कि आपका ही धर्म श्रेष्ठ है ? मुस्लिमों या ईसाईयों का धर्म श्रेष्ठ नहीं है । सबको अपना अपना धर्म ही श्रेष्ठ लगता है । इस बात पर आप हिन्दू और मुस्लिम ईसाई धर्म का तुलनात्मक आंकलन करेंगे । आप अपने धर्म की गुणवत्ता सभी के सामने रखेंगे । अब अगर कोई चीज दो अन्य चीजों की तुलना में श्रेष्ठ है । तो मेरी समझ में नहीं आता । फ़िर उसको साबित करने के लिये युद्ध आदि की क्या आवश्यकता है ? गौर से समझें । आप बाजार से दो रुपये की भी वस्तु लाते हैं । तो श्रेष्ठ का चुनाव तुरन्त कर लेते हैं । आपको अपना धर्म श्रेष्ठ लगता है । मुस्लिमों को अपना । ईसाईयों को अपना । दरअसल मुस्लिमों को लगता है कि तुम हो तो उन्हीं के जात भाई । पर भटककर काफ़िर हो गये हो । इसलिये वो कयामत के बाद जन्नत में मदिरा की नहरें ( ध्यान रहे - वैसे इस्लाम में शराब पीना हराम है । पर स्वर्ग में अल्लाह मियां ने शराब की नहरें खुदवा रखी हैं । ) और 72 हूर प्रत्येक इंसान के लिये दिलवाना चाहते हैं । यही बात ईसाईयों की है । वो भी कयामत के बाद तुम्हें स्वर्ग में ले जाने पर कमर कसकर तैयार है । और आप उनकी भावना को गलत बताते हो । ये लोग मुझसे कभी सम्पर्क ही नही करते । वरना मैं हर हफ़्ते एक हफ़्ता मुसलमान एक हफ़्ता ईसाई बनने को तैयार हूँ । फ़िर मैं इन दोनों से पूछूँगा कि - मुझे मुसलमान ईसाई बनकर क्या फ़ायदा होगा ? क्योंकि बिना फ़ायदे के तो मैं अपना मुँह भी नहीं धोता । तब ये दोनों कहेंगे - मरने के बाद कयामत के दिन आपको स्वर्ग की प्राप्ति और अप्सरायें आदि प्राप्त होगी । बस यही एक बेहद घटिया सी सस्ती चाकलेट इनके पास है । तब मैं कहूँगा - बस फ़िर उसके लिये कयामत का इंतजार क्या करना । तुम हिन्दू भी मत बनो । मुसलमान भी मत बनो । ईसाई भी मत बनो । सिर्फ़ इंसान बन जाओ । मैं तुम्हें अभी का अभी जीते जी ही स्वर्ग ( की असलियत ) दिखाकर लाता हूँ । और ये भी दिखाता हूँ कि तुम्हारे यीशु और मुहम्मद वास्तव में वहाँ दूर दूर तक नहीं हैं । वहाँ कोई अल्लाह मुल्लाह नहीं है । वहाँ का राजा इन्द्र है । और कुछ पुण्यात्मा जीव । जो छोटे मोटे देव पद प्राप्त कर अपने अपने निर्धारित कार्य करते हैं । वहाँ कोई शराब की नदियां नहीं बहती । और हूरें ( हैं मगर ) तुम्हें मिलना तो दूर तुममें लात भी नहीं मारेगीं ।
अब आप समझें । इसको कहते हैं - धर्म के लिये हिंसा करना । अज्ञान को ज्ञान से नष्ट करना । अगर आपके ज्ञान का सूर्य प्रकाशित है । तो कोई वजह नहीं कि अज्ञानी चकाचौंध न हो जायें । मैंने आपको बताया कि कई ( दोगले । हिन्दू से ईसाई बने ) पादरियों को मैंने बातचीत से ही रुला दिया । कांपने लगे । अच्छे अच्छे मौलवी ( स्वतः ही ) झुककर नमस्कार करते हैं । क्यों ? क्या मेरे हाथ में कोई अस्त्र है ।
ये आपका असल मुद्दे पर उत्तर है । लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी उतना ही सच है । यानी धर्म के स्वार्थी व्यवसायिक तत्वों द्वारा ऐसा माहौल तैयार कर देना कि व्यक्ति को अनचाहे हथियार उठाने मारने काटने की नौबत आ जाये ।
तब यहाँ बात वही आ जाती है । जिसके लिये हिन्दू रामायण और महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना हुयी है । पहले निष्पक्ष वार्ता द्वारा हल निकालना । और बात न बनने पर धर्म युद्ध में उतरना । यानी पहले समझाओ । लेकिन वह मदान्ध ही हो गया हो । जान लेने पर आमादा हो । तब उसका बध भी कर सकते हो । लेकिन ध्यान रहे । ये सब कर्ता भाव से रहित स्थिति परिस्थिति अनुसार करना चाहिये । यही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि - यदि इनको मारते समय तुझे कर्ता भाव आ गया । तो तुझे हत्या का पाप लग जायेगा । और वास्तव में ऐसा ही हुआ । अर्जुन ( आदि ) कर्ता भाव से ग्रसित होकर नरक को भी प्राप्त हुआ ।
यदि आपका प्रश्न मौजूदा परिस्थितियों को लेकर उपजा है । तो लगभग बेमानी है । अभी की परिस्थितियों को संभालना इंसानी क्षमता से बाहर है । क्योंकि ये सनातन धर्म की स्थापना का समय ( 2012 to 2020 ) है । सर्वोच्च शक्ति कभी की प्रकट हो चुकी है । अन्य कई महाशक्तियां इस समय ( इस ) प्रथ्वी के प्राकृतिक सामाजिक धार्मिक परिवर्तन को लेकर किसी धर्मयुद्ध की भांति ही पक्ष विपक्ष में युद्ध भूमि में उतरी हुयी हैं । युद्ध जारी है । जो मानवों को निमित्त ( माध्यम । आवेशित ) बनाकर तथा प्राकृतिक घटनाओं अलौकिक क्रियाओं आदि द्वारा खेला जा रहा है । इसमें करोङों लोगों का संहार तय है । यह निश्चित है कि ये युद्ध विधर्मियों के नाश के लिये ही है । अतः इस समय साधारण मानव का एक ही सबसे बङा धर्म है - अधिकाधिक भक्ति करके सात्विक गुण की वृद्धि करना ।
प्रश्न 2 - क्या जीवाणुओं ( बैक्टीरिया ) में भी आत्मा होती है ? एक ग्राम मिट्टी में 4 करोड़ जीवाणु कोष तथा 1 मिलीलीटर जल में 10 लाख जीवाणु पाएं जाते हैं । एक इंसान के अंदर कम से कम 10 हजार प्रकार के जीवाणु विषाणु रहते हैं ।
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ये तो बहुत ज्यादा हो गया |
उत्तर - सच कहा जाये । तो इन जीवाणुओं में तो छोङो । मनुष्य या देवताओं आदि किसी में भी आत्मा नाम की कोई चीज नहीं होती । ये जीवाणु आदि दरअसल चेतन अणु होते हैं । जो प्रकृति के संयोग से आवरित हो जाते हैं । और जीव जैसे मालूम होते हैं । आवरित होने के बाद भी ये निर्लेप ही होते हैं । और अति सूक्ष्म चेतन अणु होते हैं । यदि कोई आंतरिक योग क्रियायें जानता हो । तो ये बिना आवरण के भी निराधार किसी भी स्थान में निरंतर गतिशील नजर आते हैं । ये अखिल सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं । और एक कंपन के सदृश मध्यम से कुछ कम गति में हिलते रहते हैं । जून महीने जैसी तेज कङी धूप में कभी कभी ये आम आदमी को भी नजर आते सुने गये हैं ।
अब आत्मा की बात समझिये । आत्मा वास्तव में एक ही है । और उसी को सृष्टि बनने के उपरांत ( सबसे परे होने के कारण ) परम आत्मा कहा गया है । मनुष्य आदि सभी ( किसी न किसी जीवन की इच्छा से ) जीवात्मा है । गौर से समझें - आत्मा का किसी भाव में किसी इच्छा से शरीर ( जीवन ) धारण करना ही आत्मा का जीवन या आत्मा से जीवन हुआ । तो जो वो नया शरीर नयी इच्छाओं नये संस्कार नये स्वभाव के साथ जीव ( भाव में ) धारण करता है । तब जीवात्मा कहलाता है । अब इसको भी समझें । जैसे कोई अभिनेता है । वह अनेकों अच्छे बुरे मध्यम चरित्र निभाता है । तो क्या उसका मूल प्रभावित हो जाता है ? अपने चरित्र को निभाने के बाद वह अपने मूल में स्थित हो जाता है । यही वात आत्मा और जीव के बीच सम्बन्ध को लेकर है । आप सब जानते हैं । आत्मा ने सबसे पहले सोचा कि - मैं कौन हूँ ? कोहम ? उस समय ये पूर्ण था । और हङबङाहट में था । तब उससे संकल्प हो गया - मैं एक से अनेक हो जाऊँ । तो कोहम से ही अहम की उत्पत्ति हुयी । फ़िर अनेक जीव बने । इसके बाद इसने सर्वश्रेष्ठ मनुष्य शरीर बनाया । और शरीर को कहा - ओहम ( ॐ ) । इसके बाद उस मनुष्य को जिज्ञासा हुयी - कोहम । तब ज्ञान से उत्तर मिला - सोहम । यानी मैं भी बही हूँ ।
वास्तव में यह समझाना बङा जटिल है । लेकिन इसको एक सटीक उदाहरण से इस तरह समझ सकते हैं । जैसे किसी विशाल मैदान ( अखिल सृष्टि ) में अनगिनत दर्पण ( अंतःकरण या मन ) रखे हो । और उन पर सूर्य ( आत्मा ) का प्रतिबिम्ब ( ही जीवात्मा ) पङ रहा हो । तो उन सभी में अलग अलग सूर्य नजर आयेगा । इसी तरह आत्मा का प्रकाश ( रूपी फ़ोकस ) अंतः करण पर पङता है । इस क्रिया को सिनेमा प्रोजेक्टर द्वारा भी सटीक जाना जा सकता है । प्रोजेक्टर का बल्ब ( आत्मा ) > इसके बाद फ़ोकस । इसके बाद आगे चढी रील जिसमें चित्र और ध्वनि हैं । ( अंतःकरण ) इसके बाद सिनेमा हाल में जाता फ़ोकस प्रकाश ( अदृश्य प्रकृति की क्रियायें ) और सिनेमा के परदे ( प्रथ्वी ) पर चलते चलचित्र ( मनुष्य आदि का जीवन और विभिन्न क्रियायें ) बस यही सच है । जब तक यह मन द्वारा अपने अहम माया रूप को सत्य मानता रहता है । तब तक जीव कहलाता है । और ज्ञान द्वारा निज स्वरूप को जान लेता है । तब यही मुक्त आत्मा हो जाता है ।
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आप मेरे प्रश्न नहीं समझे । मांसाहारी जानवर दूसरे जानवरों का मांस खाते है । तो क्या उनको भी पाप लगेगा ? क्योंकि अगर उनको पाप लगेगा । तो वो जानवर नीच योनियों में ही जाते रहेंगे ।
उत्तर - इस सृष्टि में सिर्फ़ मनुष्य योनि ही कर्म योनि है । जिसका अच्छा बुरा कर्म फ़ल ( परिणाम ) बनता है । बाकी सभी पशु पक्षी देव आदि भोग योनियां हैं । अतः उनमें कर्म तो होता है । परन्तु उनका अच्छा बुरा कोई फ़ल नहीं होता । दूसरे सृष्टि नियम अनुसार मांसाहारी जीवों के लिये अन्य जीवों को उनका भोजन बनाया गया है । अतः पाप पुण्य जैसी कोई बात नहीं होती । थोङा गहराई से देखें । तो शाकाहारी पशु पक्षी कभी मांस नहीं खा पायेंगे । और मांसाहारी कभी शाकाहार । कुछ मिश्रित प्रकृति के भी होते हैं । इन्हीं में से किसी कृम के बीच कोई मनुष्य बनता है । तब उसका वैसा ही स्वभाव होता है । और मनुष्य में से पशु बने का भी पूर्व स्वभाव प्रभावी होता है । पशु बनने के बाद भी ये सम्बन्धित अन्य जीवों से पूर्व ( मनुष्य ) जन्म के संस्कारी लेन देन अनुसार ही अच्छा बुरा व्यवहार करते हैं । आप और भी गौर से देखें । तो आत्मज्ञान रहित मनुष्य और पशु के स्वभाव में कोई भी अन्तर महसूस नहीं होगा ।
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आसाराम भगवान तो नहीं लेकिन संत है । "अगर आशाराम इसकी जगह ये कहता - सांच को आंच नहीं होती । यदि ऐसा कोई दोषारोपण मुझ पर हुआ है । तो मैं पूरे सहयोग से इसकी सभी जांच कराने को तैयार हूँ । "
इसके जवाब में मैं यहीं कहूँगा कि पुलिस वालों का क्या भरोसा ?
पुलिस वाले तो सच्चे को भी झूठे आरोप में फंसा देती है । जैसे कि बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण को जेल में डाल दिया था । बालकृष्ण को तो आज भी परेशान किया जा रहा है ।
उत्तर - आपने ये बात बिना सोचे समझे शीघ्रता में कही है । यदि इसी तरह एक सन्त भी सोचे और डरे । तो उसमें और एक आम आदमी में क्या फ़र्क हुआ ? सन्त बहुत बङी हस्ती होता है । यदि एक मध्यम स्तर के सच्चे तांत्रिक के साथ ऐसी घटना हुयी होती । तो वो अकेला ही समस्त विरोधियों को धूल चटा देता । वो भी गद्दी पर बैठे ही बैठे । ये दरअसल कोई सन्त वगैरह नहीं है । बल्कि एक आम इंसान ही है । जो धर्म शिक्षक की भूमिका में है । और एक शिक्षक का निजी स्वभाव भी अवश्य होता है ।
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- हमेशा की तरह फ़िर से मेरा कहना है । यदि लेख का कोई बिन्दु आपके लिये अस्पष्ट है । तो निसंकोच फ़िर से पूछ सकते हैं ।
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