जाग्रत (तुरियातीत, हंस) अवस्था में आप जगत में किसी के अधीन नही हो । यदि कोई अपनी ही इच्छाओं के अधीन है । तो ऐसी अवस्था में आप जगत में किसी और के अधीन नही । बाह्य अधीनता तो केवल भ्रम है । वास्तव में तो केवल हम अपने ही अधीन हैं । अतः अपनी स्वतन्त्रता का अनुभव करो और उसे प्राप्त करो । तुम्हें अपने को किसी देवता ईश मुहम्मद या कृष्ण अथवा संसार के किसी महात्मा के अधीन क्यों समझना चाहिये ?
तुम सबके सब स्वतन्त्र हो, मुक्त हो । मुक्ति के भाव को ग्रहण करते ही वह तुम्हें सुखी बना देगा ।
एक बार एशिया के एक राजा ने एक आदमी को अपराधी समझा । अपराधी इसलिये समझा कि उसने राजा को सलाम नही किया था । इस बूढ़े राजा को जब कोई सलाम न करता तो वह बहुत क्रोधित होता ।
उस अपराधी ने राजा से कहा - तू नही जानता, मैं कितना प्रतापी और कठोर शासक हूँ । तू इतना धृष्ट है । तुझे मालूम नही, मैं तुझे मार डालूँगा ।
उस मनुष्य ने उसके मुँह पर थूक दिया और इतनी कङी नजर से देखा कि राजा घबरा गया ।
फ़िर वह बोला - अरे मूर्ख पुतले ! यह तेरी शक्ति, तेरे अधिकार में नही कि तू मुझे मार सके । मैं आप अपना स्वामी हूँ । तेरा अपमान करना मेरी शक्ति में है । यह मेरे अधिकार में है कि मैं तेरे मुँह पर थूक दूँ । और यह भी मेरे अधिकार में है कि इस शरीर को सूली पर चढ़ा देखूँ । अपने शरीर का आप स्वामी हूँ । तेरा अधिकार छोटा (पीछे) है । मेरा अधिकार पहले (बङा) है ।
इस प्रकार महसूस करो, अनुभव करो कि सदा आप अपने स्वामी हो । निजात्मा की दृष्टि से सब चीजों को देखो । दूसरों की आँखों से नही । अपनी स्वतन्त्रता का अनुभव करो । अनुभव करो कि आप ईश्वरों के ईश्वर, स्वामियों के स्वामी हो । क्योंकि आप वही हो - तत्वमसि ।
लोग क्यों दुख सहते हैं ? वे दुख भोगते हैं । निज आत्मा की अज्ञानता के कारण, जिससे उनको अपना सत्य स्वरूप भूल जाता है । और जो कुछ दूसरे उनको कहते हैं । वही वे अपने को समझ लेते हैं । और यह दुख तब तक बराबर रहेगा । जब तक मनुष्य आत्मसाक्षात्कार नही कर लेता । जब तक यह अज्ञान दूर नही होता ।
अज्ञान ही अन्धकार है । यदि किसी अंधेरे घर में तुम जाओ । तो दीवार अथवा किसी चीज से अवश्य टकराओगे । अवश्य किसी प्रकार की चोट खा जाओगे । यह अनिवार्य है । इससे बच नही सकते ।
लेकिन यदि घर में सिर्फ़ दीपक जला दो । तो फ़िर तुम्हें परेशान होने की जरूरत नही । तुम घर के किसी भी हिस्से में बिना चोट खाये आराम से आ जा सकते हो ।
संसार की भी यही दशा है । यदि आप अपने दुखों का अन्त करना चाहते हो । तो आपको इसके लिये अपनी बाह्य परिस्थिति पर व अपने सामाजिक पद के समाधान व संघटन पर भरोसा नही करना चाहिये । बल्कि अंतरस्थिति सूर्य के विकास के उपाय पर भरोसा करना चाहिये ।
सब कोई मानो फ़र्नीचर को यहाँ से वहाँ हटाकर या सांसारिक पदार्थों को इधर से उधर करके, दृव्य इकठ्ठा करके या बङे महल बनवा कर या दूसरों की जमीन मोल लेकर दुख से पीछा छुङाना चाहते हैं ।
अपनी परिस्थिति के सुधारने व चीजों को इस तरह या उस तरह सजाने से आप कभी दुख से नही बच सकते । केवल अपने घर में दीपक जलाने से प्रकाश प्रकाशित करने से केवल अपने ह्रदय की कोठरी में ज्ञान का ज्ञान का प्रवेश करने से ही दुख छूट सकता है । हटाया जा सकता है और दूर किया जा सकता है । अंधकार दूर होने दो । फ़िर आपको कोई हानि नही पहुँचा सकता ।
तुम सबके सब स्वतन्त्र हो, मुक्त हो । मुक्ति के भाव को ग्रहण करते ही वह तुम्हें सुखी बना देगा ।
एक बार एशिया के एक राजा ने एक आदमी को अपराधी समझा । अपराधी इसलिये समझा कि उसने राजा को सलाम नही किया था । इस बूढ़े राजा को जब कोई सलाम न करता तो वह बहुत क्रोधित होता ।
उस अपराधी ने राजा से कहा - तू नही जानता, मैं कितना प्रतापी और कठोर शासक हूँ । तू इतना धृष्ट है । तुझे मालूम नही, मैं तुझे मार डालूँगा ।
उस मनुष्य ने उसके मुँह पर थूक दिया और इतनी कङी नजर से देखा कि राजा घबरा गया ।
फ़िर वह बोला - अरे मूर्ख पुतले ! यह तेरी शक्ति, तेरे अधिकार में नही कि तू मुझे मार सके । मैं आप अपना स्वामी हूँ । तेरा अपमान करना मेरी शक्ति में है । यह मेरे अधिकार में है कि मैं तेरे मुँह पर थूक दूँ । और यह भी मेरे अधिकार में है कि इस शरीर को सूली पर चढ़ा देखूँ । अपने शरीर का आप स्वामी हूँ । तेरा अधिकार छोटा (पीछे) है । मेरा अधिकार पहले (बङा) है ।
इस प्रकार महसूस करो, अनुभव करो कि सदा आप अपने स्वामी हो । निजात्मा की दृष्टि से सब चीजों को देखो । दूसरों की आँखों से नही । अपनी स्वतन्त्रता का अनुभव करो । अनुभव करो कि आप ईश्वरों के ईश्वर, स्वामियों के स्वामी हो । क्योंकि आप वही हो - तत्वमसि ।
लोग क्यों दुख सहते हैं ? वे दुख भोगते हैं । निज आत्मा की अज्ञानता के कारण, जिससे उनको अपना सत्य स्वरूप भूल जाता है । और जो कुछ दूसरे उनको कहते हैं । वही वे अपने को समझ लेते हैं । और यह दुख तब तक बराबर रहेगा । जब तक मनुष्य आत्मसाक्षात्कार नही कर लेता । जब तक यह अज्ञान दूर नही होता ।
अज्ञान ही अन्धकार है । यदि किसी अंधेरे घर में तुम जाओ । तो दीवार अथवा किसी चीज से अवश्य टकराओगे । अवश्य किसी प्रकार की चोट खा जाओगे । यह अनिवार्य है । इससे बच नही सकते ।
लेकिन यदि घर में सिर्फ़ दीपक जला दो । तो फ़िर तुम्हें परेशान होने की जरूरत नही । तुम घर के किसी भी हिस्से में बिना चोट खाये आराम से आ जा सकते हो ।
संसार की भी यही दशा है । यदि आप अपने दुखों का अन्त करना चाहते हो । तो आपको इसके लिये अपनी बाह्य परिस्थिति पर व अपने सामाजिक पद के समाधान व संघटन पर भरोसा नही करना चाहिये । बल्कि अंतरस्थिति सूर्य के विकास के उपाय पर भरोसा करना चाहिये ।
सब कोई मानो फ़र्नीचर को यहाँ से वहाँ हटाकर या सांसारिक पदार्थों को इधर से उधर करके, दृव्य इकठ्ठा करके या बङे महल बनवा कर या दूसरों की जमीन मोल लेकर दुख से पीछा छुङाना चाहते हैं ।
अपनी परिस्थिति के सुधारने व चीजों को इस तरह या उस तरह सजाने से आप कभी दुख से नही बच सकते । केवल अपने घर में दीपक जलाने से प्रकाश प्रकाशित करने से केवल अपने ह्रदय की कोठरी में ज्ञान का ज्ञान का प्रवेश करने से ही दुख छूट सकता है । हटाया जा सकता है और दूर किया जा सकता है । अंधकार दूर होने दो । फ़िर आपको कोई हानि नही पहुँचा सकता ।