कबीर की ‘भेदवानियां’ आमतौर पर सामान्य लोगों के लिये उतनी उपयोगी नहीं होती । जितनी आत्मज्ञान के खोजी शोधियों के लिये होती हैं । फ़िर भी जनसामान्य का इस विषय में प्रवेश तो हो ही जाता है । लेकिन इस दिशा में कुछ न कुछ मंजिल तय कर चुके और ठहराव पर नया मार्ग खोजते लोगों के लिये ऐसी वाणियां गूढ़ दुर्लभ संकेतों के समान होती हैं । अतः ऐसी वाणियों की एकदम खुले और सरल शब्दों में व्याख्या या स्पष्ट अर्थ हित के स्थान पर अहितकारी होती है । क्योंकि सबसे बङी बात फ़िर सैद्धांतिक पुष्टता, वैचारिक घटन और नीर क्षीर विघटन नही हो पाता । जो कि किसी भी सिद्ध ज्ञान की अनिवार्यता और आवश्यकता है । अतः उपरोक्त दृष्टिकोण के चलते ‘भेदवानी’ का अर्थ नही किया है । वैसे मुझे लगता है - यह बहुत कठिन भी नही है ।
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चला जब लोक को । सोक सब त्यागिया । हँस को रूप सतगुरु बनाई ।
भ्रंग ज्यों कीटि को पलटि भ्रंगै किया । आप सम रंग द्वै लै उङाई ।
छोङि नासूत मलकूत को पहुँचिया । विस्नु की ठाकुरी दीख जाई ।
इन्द्र कुबेर रंभा जहाँ नृत करें । देव तैंतीस कोटिक रहाई ।
छोङि बैकुंठ को हंस आगे चला । सून्य में जोति जगमग जगाई ।
जोति परकास में निरखि निःतत्व को । आप निर्भय भया भय मिटाई ।
अलख निर्गुन जेही वेद अस्तुति करै । तीनहूं देव को है पिताई ।
भगवान तिन के परे सेत मूरत धरे । भग की आनि तिनको रहाई ।
चार मोकाम पर खंड सोरह कहे । अंड को छोर ह्यां तैं रहाई ।
अंड के परे स्थान आचिंत को । निरखिया हंस जब उहाँ जाई ।
सहस औ द्वादसौ रूह है संग में । करत किलोल अनहद बजाई ।
तासु के बदन की कौन महिमा कहौं । भासती देह अति नूर छाई ।
महल कंचन बने मनी ता में जङे । बैठ तहँ कलश अखंड छाजे ।
अचिंत के परे अस्थान सोहंग का । हंस छत्तीस तहवाँ विराजे ।
नूर का महल औ नूर की भूमि है । तहाँ आनन्द सौं दुंद भाजे ।
करत किलोल बहु भांति से संग इक । हंस सोहंग के जो समाजे ।
हंस जब जात षट चक्र को वेधि के । सात मोकाम में नजर फ़ेरा ।
परे सोहंग के सुरति इच्छा कही । सहस बावन जहाँ हंस हेरा ।
रूप की रासि तें रूप उन को बनो । नाहिं उपमाहिं दूजी निबेरा ।
सुर्त से भेंट के सब्द की टेक चढ़ि । देखि मोकाम अंकुर केरा ।
सून्य के बीच में विमल बैठक तहाँ । सहज अस्थान है गैब केरा ।
नवो मोकाम यह हंस जब पहुंचिया । पलक बिलंब ह्वां कियो डेरा ।
तहाँ से डोरमिक* तार ज्यों लागिया । ताहि चढ़ि हंस गौ दै दरेरा । (मकङी)
भये आनन्द सो फ़न्द सब छोङिया । पहुँचिया जहाँ सतलोक मेरा ।
हंसिनी हंस सब गाइ बजाइ के । साजि के कलस वोहि लेन आये ।
जुगन जुग बीछुरे मिले तुम आइ के । प्रेम करें अंग सों अंग लाये ।
पुरुस ने दरस जब दीन्हिवा हंस को । तपनि बहु जन्म की तब नसाये ।
पलटि के रूप जब एक सो कीन्हिया । मनहुं तब भानु षोङस उगाये ।
पुहुप के दीप पीयू्ष भोजन करै । सब्द की देह जब हंस पाई ।
पुष्प के सेहरा हंस औ हंसिनी । सच्चिदानन्द सिर छत्र लाई ।
दिपै बहु दामिनी दमक बहु भांति की । जहाँ घन सब्द की घुमङ लाई ।
लगे जहाँ बरसने गरज घन घोर के । उठत तहँ सब्द धुनि अति सुहाई ।
सुनै सोइ हँस तहँ जुत्थ के जुत्थ ह्वैं । एक ही नूर एक रंग रागे ।
करत विहार मन भावनी मुक्ति भे । कर्म और भर्म सब दूरि भागे ।
रंग औ भूप कोइ परख आवै नही । करत किलोल बहु भांति पागे ।
काम औ क्रोध मद लोभ अभिमान सब । छाङि पाखंड सत सब्द लागे ।
पुरुष के बदन की कौन महिमा कहौं । जगत में उभय कछु नाहि पाई ।
चन्द औ सूर गन जोति लागै नही । एकहू नख का परकास भाई ।
पान परवान जिन बंस का पाइया । पहुँचिया पुरुष के लोक जाई ।
कहैं कबीर यह भांति सो पाई हौ । सत्त की राह सो प्रगट गाई ।
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चला जब लोक को । सोक सब त्यागिया । हँस को रूप सतगुरु बनाई ।
भ्रंग ज्यों कीटि को पलटि भ्रंगै किया । आप सम रंग द्वै लै उङाई ।
छोङि नासूत मलकूत को पहुँचिया । विस्नु की ठाकुरी दीख जाई ।
इन्द्र कुबेर रंभा जहाँ नृत करें । देव तैंतीस कोटिक रहाई ।
छोङि बैकुंठ को हंस आगे चला । सून्य में जोति जगमग जगाई ।
जोति परकास में निरखि निःतत्व को । आप निर्भय भया भय मिटाई ।
अलख निर्गुन जेही वेद अस्तुति करै । तीनहूं देव को है पिताई ।
भगवान तिन के परे सेत मूरत धरे । भग की आनि तिनको रहाई ।
चार मोकाम पर खंड सोरह कहे । अंड को छोर ह्यां तैं रहाई ।
अंड के परे स्थान आचिंत को । निरखिया हंस जब उहाँ जाई ।
सहस औ द्वादसौ रूह है संग में । करत किलोल अनहद बजाई ।
तासु के बदन की कौन महिमा कहौं । भासती देह अति नूर छाई ।
महल कंचन बने मनी ता में जङे । बैठ तहँ कलश अखंड छाजे ।
अचिंत के परे अस्थान सोहंग का । हंस छत्तीस तहवाँ विराजे ।
नूर का महल औ नूर की भूमि है । तहाँ आनन्द सौं दुंद भाजे ।
करत किलोल बहु भांति से संग इक । हंस सोहंग के जो समाजे ।
हंस जब जात षट चक्र को वेधि के । सात मोकाम में नजर फ़ेरा ।
परे सोहंग के सुरति इच्छा कही । सहस बावन जहाँ हंस हेरा ।
रूप की रासि तें रूप उन को बनो । नाहिं उपमाहिं दूजी निबेरा ।
सुर्त से भेंट के सब्द की टेक चढ़ि । देखि मोकाम अंकुर केरा ।
सून्य के बीच में विमल बैठक तहाँ । सहज अस्थान है गैब केरा ।
नवो मोकाम यह हंस जब पहुंचिया । पलक बिलंब ह्वां कियो डेरा ।
तहाँ से डोरमिक* तार ज्यों लागिया । ताहि चढ़ि हंस गौ दै दरेरा । (मकङी)
भये आनन्द सो फ़न्द सब छोङिया । पहुँचिया जहाँ सतलोक मेरा ।
हंसिनी हंस सब गाइ बजाइ के । साजि के कलस वोहि लेन आये ।
जुगन जुग बीछुरे मिले तुम आइ के । प्रेम करें अंग सों अंग लाये ।
पुरुस ने दरस जब दीन्हिवा हंस को । तपनि बहु जन्म की तब नसाये ।
पलटि के रूप जब एक सो कीन्हिया । मनहुं तब भानु षोङस उगाये ।
पुहुप के दीप पीयू्ष भोजन करै । सब्द की देह जब हंस पाई ।
पुष्प के सेहरा हंस औ हंसिनी । सच्चिदानन्द सिर छत्र लाई ।
दिपै बहु दामिनी दमक बहु भांति की । जहाँ घन सब्द की घुमङ लाई ।
लगे जहाँ बरसने गरज घन घोर के । उठत तहँ सब्द धुनि अति सुहाई ।
सुनै सोइ हँस तहँ जुत्थ के जुत्थ ह्वैं । एक ही नूर एक रंग रागे ।
करत विहार मन भावनी मुक्ति भे । कर्म और भर्म सब दूरि भागे ।
रंग औ भूप कोइ परख आवै नही । करत किलोल बहु भांति पागे ।
काम औ क्रोध मद लोभ अभिमान सब । छाङि पाखंड सत सब्द लागे ।
पुरुष के बदन की कौन महिमा कहौं । जगत में उभय कछु नाहि पाई ।
चन्द औ सूर गन जोति लागै नही । एकहू नख का परकास भाई ।
पान परवान जिन बंस का पाइया । पहुँचिया पुरुष के लोक जाई ।
कहैं कबीर यह भांति सो पाई हौ । सत्त की राह सो प्रगट गाई ।
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