परिचय - आदिसृष्टि से ही जब परमात्मा द्वारा ब्रह्म, जीव और माया का खेल रचा गया तो अविद्या रूपी प्रबल माया के साथ-साथ ज्ञानस्थिति और सदगुरु जैसी विभूति का सृजन भी किया गया ताकि सभी जीव अपने सतकर्म, परमार्थ और भावभक्ति से अपना उत्थान कर सकें। उच्च-स्थितियों को प्राप्त हो सकें। जीव से ब्रह्म तक की यात्रा और स्व प्रतिष्ठा कर सकें।
अतः अविद्या रूपी प्रबल माया से मोहित हुआ निज स्वरूप, निज पहचान, निज घर को भूला हुआ जीव जब इस अपार भवसागर के दुखों में डूबता उतराता है और इस अन्तहीन भवसागर का कोई ओर छोर नही पाता है। तब वह इस कष्ट से छूटने हेतु बेहद करुणाभाव से अपने स्वामी को पुकारता है, और फ़िर कुल मालिक की दया दृष्टि होने पर पहले सन्तों की कृपा प्राप्त कर उनकी सेवा, सतसंग करता है । और बाद में कृमशः गुरु-सदगुरु का सानिंध्य पाकर इस अमर ज्ञान ‘हंसदीक्षा’ का पात्र बनता है।
सदगुरु - किसी भी एक समय में देहधारी वर्तमान सदगुरु एक ही होता है। दो-चार या कई नही होते। जिस शरीर में सदगुरु सत्ता का प्राकटय हुआ हो। उसे ही ‘समय का सदगुरु’ कहते हैं। सदगुरु का अर्थ उसका परमात्मा से एक हो चुका होना या उसके अन्दर परमात्मा का प्रकट होना होता है।
सब घट तेरा सांईया, सेज न सूनी कोय।
बलिहारी उन घटन की, जिहि घट परगट होय।
लाभ - हंसदीक्षा का सबसे बङा लाभ यह है कि एक बार सच्ची दीक्षा मिल जाने पर यदि शिष्य/भक्त साधारण भक्ति भी कर पाता है तो फ़िर उसका तिर्यक योनि यानी पशु पक्षी आदि 84 लाख योनियों में जन्म न होकर सदैव मनुष्य जन्म होता है। अच्छे कुल और अच्छे संस्कारी परिवार में अपनी भक्ति और सेवा अनुसार ही उद्धार होने तक जन्म पाता है।
ज्ञान बीज बिनसै नही, होवें जन्म अनन्त।
ऊँच नीच घर ऊपजे, होय सन्त का सन्त।
तुलसी अपने राम को, रीझ भजो या खीज।
खेत परे को जामिगो, उल्टो सीधो बीज।
सच्चे सदगुरु से हंसदीक्षा प्राप्त जीव (यदि बहुत ज्यादा विकारी और मनमुख या गुरुद्रोही न हो तो) कभी नर्क नही जाता।
सोना काई ना लगे, लोहा घुन ना खाय।
भला-बुरा जो गुरु-भगत, कबहुं न नरकै जाय।
वर्तमान में - गुरु-शिष्य परम्परा का धर्म की दृष्टि से नकली पाखंड जारी है। हैरानी की बात है कि तमाम अज्ञानी व्यक्ति किसी भी ज्ञान को आत्मज्ञान या परमात्म ज्ञान कहकर प्रचारित कर रहे हैं जबकि वास्तव में विशुद्ध आध्यात्मिक स्तर पर बात की जाये तो ये तन्त्र-मन्त्र जैसे तुच्छ ज्ञान की श्रेणी में भी नहीं आता। एक धार्मिक टीवी चैनल पर किसी गुरु को यह भी कहते सुना गया कि सभी जगह एक ही दीक्षा दी जा रही है?
आजकल ऐसे भी गुरु हैं जो कहते हैं - तुम कोई भी नाम मन्त्र जपो सभी परमात्मा से ही मिलाते हैं। निश्चय ही इसे भारतीय सनातन धर्म के अज्ञान की पराकाष्ठा ही कहा जायेगा।
कान में कर दी कुर्र। तुम चेला हम गुर्र।
लोभी गुरु लालची चेला। होय नरक में ठेलम ठेला।
सच्ची और दुर्लभ आत्मज्ञान की हँसदीक्षा - किसी भी इंसान के जो अभी सशरीर है आदिसृष्टि से अब तक करोङों मनुष्य जन्म हो चुके हैं। इसमें (सामान्य नियम में) एक मनुष्य जन्म से दूसरे मनुष्य जन्म के बीच में भोगी जाने वाली साढ़े 12 लाख साल समय अवधि की 84 लाख योनियां अलग से होती हैं।
बङे भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा।
कबहुंक करुना करि नर देही। देत हेत बिन परमसनेही।
इस तरह लगभग असंख्य (कोटि) जन्मों में जीव जब अशान्ति, कष्ट, दुखों और अज्ञान से त्राहि-त्राहि कर करुण भाव से परमात्मा को पुकारता है, और विभिन्न जन्मों में किये गये परमार्थिक पुण्य कार्यों से वह इतना भक्ति पदार्थ संचय कर लेता है कि उसका आगामी कोई जन्म उद्धार जन्म (जीवन) के रूप में होता है। तब उसे किसी सच्चे सन्त की शरण हासिल होती है और फ़िर कृमशः ही वह किसी माध्यम से उस सच्चे दरबार में महीनों पहले अर्जी लगाकर फ़िर वहाँ से मंजूर होने पर ही इस अति दुर्लभ हँसदीक्षा को प्राप्त कर पाता है।
निर्वाणी नाम या धुन - सच्ची हँसदीक्षा में कोई अक्षरी मन्त्र या नाम आदि कभी नहीं दिया जाता। यहाँ तक वाणी से ‘क’ जैसा अक्षर भी नहीं जपना होता बल्कि प्रत्येक मनुष्य की आवागमन करती स्वांस में जो निर्वाणी नाम (पहली अवस्था) स्वतः अजपा और निरन्तर हो रहा है को जाग्रत किया जाता है, और बाद में इसी पर अधिकाधिक ध्यान रखने का अभ्यास बताया जाता है। जिसे भजन, सुमरन, ध्यान, नाम जप या नाम कमाई भी कहा जाता है। हँसदीक्षा को भी अलग-अलग नामों से गुरुदीक्षा, नामदान, नाम उपदेश या (गुरु से) ज्ञान लेना आदि कहा जाता है।
निरंजन तेरे घट में, माला फ़िरे दिन रात।
ऊपर आवै नीचे जावै, स्वांस-स्वांस चढ़ि जात।
संसारी नर जानत नाहीं, विरथा जन्म गंवात।
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माला फ़ेरत जुग भया, फ़िरा न मन का फ़ेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फ़ेर।
सीधे आज्ञाचक्र से उठाना - सच्ची हँसदीक्षा में (आज्ञाचक्र से नीचे के सभी चक्रों को छोङकर) सीधा आज्ञाचक्र सक्रिय कर दिया जाता है ताकि भक्त साधक नीचे के चक्रों के कष्ट और मेहनत से बचकर सरल सहज योग भक्ति कर सके। जिसे सन्तमत में ‘सुरति-शब्द योग’ या ‘सहज योग’ कहा जाता है।
जङ-चेतन की गांठ खुलना - हँसदीक्षा में ही समर्थ सदगुरु जीव के उद्धार और सार, थोथा.. नीर, क्षीर बोध हेतु जङ चेतन की गांठ खोल देते हैं, और तीसरा नेत्र खुलकर दिव्य प्रकाश के दर्शन हो जाते हैं। कोई-कोई सात्विक वृति के साधक और पवित्र भाव की जीवात्मायें सिर्फ़ हँसदीक्षा के दौरान ही एक या दो अलौकिक लोक तक की सूक्ष्म यात्रायें करती हैं।
जिनमें अधिकांश को स्वर्गलोक के दर्शन होने का अनुभव अधिक प्रकाश में आया है। कुछ कुत्सित और तमोगुण मिश्रित साधकों को निम्न लोक या तांत्रिक लोक आदि जैसे नीच लोकों के दर्शन भी होते हैं। इस तरह ये सफ़ल पूर्ण हँसदीक्षा के प्रारंभिक अनुभव कहे जा सकते हैं।
विशेष - अपवाद स्वरूप जो शिष्य दीक्षा के समय हङबङा जाते हैं या खुद को चौकन्ना सा होकर ‘अलर्ट’ रखते हैं। उनको मामूली अनुभव होना या बिलकुल न होना भी अनुभव में आया है अतः दीक्षा के इच्छुक सभी शिष्यों को सुझाव है कि सरलता और भक्तिभाव से दीक्षा पूर्व के उपदेशों को ग्रहण करें। जिज्ञासाओं और शंकाओं का पहले ही गुरु से सहज निवारण कर लें, और खास दीक्षा के समय शरीर और मन को बिलकुल ढीला और आरामदायक (तनावरहित) अवस्था में छोङ दें।
दीक्षा का समय - हँसदीक्षा का समय सुबह लगभग 8-10 बजे तक का ही होता है। उससे पूर्व की संध्या और रात्रि में सदगुरु गुप्त आदिनाम की महिमा जानकारी आदि विषयों पर गूढ़ सतसंग आये हुये शिष्यों को उनकी जिज्ञासाओं के समाधान के साथ बताते हैं। इसके बाद अगली सुबह बृह्म-मुहूर्त में स्नान आदि से फ़ारिग होकर हँसदीक्षा दी जाती है।
दीक्षा की सामग्री - हँसदीक्षा में इस मरणधर्मा शरीर के पाँच तत्वों के प्रतीक पाँच रंग के पाँच पाँच फ़ूल और धूपबत्ती या अगरबत्ती का नया पैकेट और सफ़ेद रंग (बर्फ़ी, पेङा, बतासे, रेवङियां आदि जो ठीक लगे) का प्रसाद श्रद्धा और सामर्थ्य अनुसार रखा जाता है। ये सब दीक्षा के समय ही एक पूजा की थाली में रख दिया जाता है।
गुरुदक्षिणा - इस हँसदीक्षा में शिष्य का जीव से नया आत्मजन्म होता है अतः काल के प्रकोप से बचने हेतु गुरु की शरण में जाकर ‘तन मन धन’ यानी पूर्ण समर्पण किया जाता है। इसी हेतु गुरुदीक्षा में गुरुदक्षिणा में धन देने का एक निश्चित आदिविधान है जो शिष्य की श्रद्धा, सामर्थ्य अनुसार ही स्वयं उसके भाव से अर्पित किया जाता है।
हँसदीक्षा की आवश्यक वस्तुयें - गुरु के पाँच वस्त्र (यदि भाव और आर्थिक सामर्थ्य हो तो, अन्यथा आवश्यक नहीं)। चरणपादुका (भाव और सामर्थ्य अनुसार ही अन्यथा आवश्यक नही) पाँच (तत्वों के प्रतीक) रंग के पाँच पाँच (तत्व की प्रकृतियों अनुसार 25) फ़ूल, नया धूपबत्ती या अगरबत्ती का पैकेट, सफ़ेद रंग का का प्रसाद, गुरुदक्षिणा (भाव श्रद्धा और सामर्थ्य अनुसार)
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हंसदीक्षा के विषय में यथासंभव आवश्यक और सार संक्षिप्त जानकारी इस लेख में बता दी गयी है फ़िर भी किसी जिज्ञासु को कोई बात समझ न आयी हो या उनकी कोई अन्य शंका, प्रश्न आदि हो। वह टिप्पणी में लिखें। उसका पूर्णरूपेण समाधान किया जायेगा।
हंसदीक्षा के स्थान (आश्रम) और अन्य जानकारी के विषय में प्रकाशित चित्रों को देखें।
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मुक्तमंडल, आगरा, उत्तर प्रदेश।
phone - 82188 43911
अणुदीक्षा, परमहंस दीक्षा, समाधि दीक्षा और सारशब्द दीक्षा की जानकारी के लिये ‘हंसदीक्षा’ पेज देखें - क्लिक करें।
Guru Purnima Pravachan by Sri Shivanand ji Maharaj Paramhans
This video is captures on 2nd & 3rd of July at Chintaharan Ashram, Nagla Bhadon, Ferozabad, Uttar Pradesh.
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