समय की यात्रा क्या सम्भव है ? इस पर अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं है । एक बहुप्रसिद्ध शब्द " त्रिकालदर्शी " से क्या ध्वनि निकल रही है ? यानी भूतकाल, वर्तमान और भविष्यकाल को देखने वाला । और जब देख सकता है । तो इसके आगे की कङी में किसी भी काल में चले जाना भी हो सकता है । यदि सरल उदाहरणों में देखा जाये । तो राम श्रीकृष्ण आदि प्रसिद्ध उदाहरणों में बहुत से ऋषि मुनियों को उनके अवतरण के बारे में काफ़ी पहले से ही मालूम था । राम जब वनवास में कई ऋषियों से मिलते हैं । तो बहुत साधु उन्हें बताते हैं कि - आपके आगमन के बारे में फ़लाने ऋषि ने बहुत पहले ही बताया था । शबरी के गुरु मतंग ऋषि ने भी बताया था । श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध का परिणाम युद्ध से पूर्व ही अर्जुन को दिखा दिया था आदि आदि । ये भविष्यकाल की यात्रा थी । भूतकाल के उदाहरणों में जब कुछ धार्मिक चरित्र अपनी कष्टमय अवस्था को लेकर दुखी हुये । तो किसी सन्त आदि ने उन्हें उनके पूर्व जन्म के वृतांत बताकर कारण सहित समझाया कि अभी की परिस्थितियां पूर्वजन्म के किस कारण संस्कार वश बन रही हैं । इस तरह त्रिकालदर्शी शब्द यह साबित करता है - समय की यात्रा निश्चय ही संभव है । भूत वर्तमान और भविष्य में योग द्वारा ( अ ) प्राकृतिक आवागमन के ढेरों उदाहरण हैं । इसकी विधि में पूर्णतः सक्रिय और शक्ति सम्पन्न आज्ञाचक्र को योग चेतना से जोङा जाता है । फ़िर इन दोनों को " कारण क्षेत्र " में ले जाया जाता है ।
जहाँ सभी घटनायें किसी दृष्य श्रव्य चलचित्र की भांति मौजूद हैं । महाशक्तियों के बारे में जानने हेतु योग चेतना और आज्ञाचक्र को " महाकारण क्षेत्र " से जोङा जाता है । जहाँ अन्य त्रिकालिय बृह्माण्डिय गतिविधियों को भी देखा, जाना, हुआ, जा सकता है ।
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धुआं तभी उठता है । जब कहीं कोई चिंगारी होती है । और जब चिंगारी होती है । तो कुछ न कुछ सुलग भी रहा होता है । और जब सुलग रहा होता है । तो अनुकूलता पाकर वह आग का रूप भी धारण कर सकता है । और फ़िर वह आग और अधिक अनुकूलता मिलने पर प्रचंड भी हो सकती है । अतः महान सनातन भारतीय धर्म के कथानकों शब्दों तथ्यों को सिर्फ़ पोंगापंथी या " मिथक " जैसा ही मानने की भूल कभी न करें । हाँ अति सूक्ष्म रहस्य की विषय वस्तु और अति गूढता की परिभाषा में आने के कारण वह आम जन मानस को एकदम समझ में न आने जैसा अवश्य होता है । पर गम्भीरता से जब आप उसका अध्ययन मनन करने लगते हैं । तो वह फ़िर शनैः शनैः
ग्राह्य होने लगता है । फ़िर क्या ये बात भौतिकवाद में नहीं है । आप में से हरेक कोई क्या इस कम्प्यूटर के बिगङे स्थापन जैसे मामूली कार्य को पुनर्स्थापन कर सकता है । जबकि आप रोज ही इसका उपयोग करते हैं । तब फ़िर अति सूक्ष्म विज्ञान तो तुलनात्मक बेहद बेहद कठिन है । क्या आप सहमत हैं ?
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शास्त्रार्थ परम कर्तव्यम की जिज्ञासा भूतकाल में भौतिक शरीर या स्तर से जाने पर - इसके लिये सबसे आवश्यक चीज योग और उसके स्तर को समझना होगा । योगी का स्तर जितना ऊँचा होगा । उसके कार्य की उच्चता, प्रकार और पहुँच भी उसी स्तर के अनुसार ही होगी । जैसे संसार में भी किसी के तन मन धन - बल और उसके ज्ञात पहुँच क्षेत्र के अनुसार ही गतियां और विभिन्न कार्य संभव है । अतः सबसे पहले गीता आदि प्रमुख आत्मज्ञान ग्रन्थों के अनुसार ये समझना होगा कि आत्मा सदैव अचल ही है । सिर्फ़ जीव आता जाता है । जीव और आत्मा मिलकर जीवात्मा का सृजन होता है । यह सृजन आत्मा के सोहं भाव से होता है । जिसके अनेक प्रकार इच्छाओं से निर्मित होते हैं । राम जन्म के हेत अनेका । अति विचित्र एक ते एका । इसी स्थिति के लिये कहा गया है ।
किसी भी योग का मूल सिद्धांत अधिकाधिक स्वयं की चेतना में ( स्वयं ) स्थिति होना । जो बाहर बिखरी हुयी है । और फ़िर उस चेतना को भी परम चेतना से जोङना । और धीरे धीरे योगी चेतना को परम चेतना से एकाकार करते रहना । और फ़िर उसी में स्थिति होने को पाना । परम चेतना के संयोग से जब किसी योगी के चेतना स्तर में जो वृद्धि होती है । वही उस योगी का स्तर हो जाता है । सबसे अन्त में योगी की चेतना और ( कर्ता ) अस्तित्व खत्म ही हो जाता है । और वह परम चेतना ही हो जाता है । जेहि जानहि जाहे देयु जनाई । जानत तुमहि तुम ही हो जाई । फ़ूटा घट जल जलहि समाना । येहि गति बिरलै जानी । या बूँद का समुद्र से मिल जाना आदि आदि कहा गया है ।
अब भूतकाल यात्रा को आप मनुष्य स्तर पर ही समझें । आप अपनी स्मरण और इच्छाशक्ति की शक्ति के आधार पर ही उसके स्तर अनुसार भूतकाल के कई स्थानों पात्रों घटनाओं को लगभग स्मृति के अनुसार सजीव कर लेते हैं । और उस समय वह घटना या पात्र प्रभाव के अनुसार सजीव हो उठता है । इसी तरह आप भविष्य की कल्पनाओं के भी अक्सर ऐसे मनमोहक चित्र बनाते हैं । दरअसल जिनका अभी कोई अस्तित्व ही नहीं । फ़िर भी स्मृति और कल्पना दोनों में ही भूमि और सृष्टि पदार्थ पूर्णरूपेण मौजूद होते हैं । इसको सटीक रूप से समझने हेतु सामान्य जीवन में एक बहुत अच्छा उदाहरण है । जब किसी के अति प्रिय की मृत्यु हो जाती है । तो उसके अतीत और साथ से जुङे सभी दृश्य उस दुखी व्यक्ति के समक्ष जैसे साकार हो उठते हैं । जैसे दशरथ को भी मृत्यु के समय गहन आसक्ति और अति दुख के कारण सिर्फ़ राम लक्ष्मण सीता बार बार साक्षात दिख रहे थे ।
ऐसा क्यों होता है ? दरअसल उस समय समस्त इन्द्रियां और मन आदि वृति की पूर्ण एकाग्रता उसी एक विषय पर केन्द्रित हो जाती है । जैसे सर्प के काटे में मृत्यु भय से एकाग्र हुआ प्रभावित इंसान कबूलता है । यानी उस घटना को बिलकुल उसी रूप में बताता है ।
क्योंकि ये घटना तब स्वाभाविक क्रिया से अनचाहे हो जाती है । पर योग में यही क्रिया अभ्यास से सिद्ध होती है । दोनों की क्रिया लगभग समान ही है । तो अब आप ये समझें कि सामान्य अवस्था में क्षीण चेतना वाला व्यक्ति एकाग्र होने पर ऐसा अदभुत महसूस करता है । या अनुभव होता है । या फ़िर ( और आगे में ) होता है । तब योगी का स्तर सामान्य से बहुत अधिक होता है । अब मूल बात वही है । एक सामान्य व्यक्ति का ज्ञान पहुँच स्मृति इच्छाशक्ति तुलनात्मक योगी बहुत कम होते हैं । जबकि योगी में यह % बहुत बहुत अधिक होता है । तब वह भूत या भविष्य चित्र को आंतरिक विज्ञान द्वारा बाकायदा जानकारी और अधिकार में करता है । और उस भूमि को साक्षात कर उसमें प्रवेश कर जाता है । लेकिन सूक्ष्म रूप से जाने या न जाकर वहीं से कुछ कार्य करने जैसे यहाँ अनेकानेक प्रकार बन जाते हैं । हाँ भौतिक शरीर से सशरीर जाने हेतु उस तरह के योग को सिद्ध करना होता है । दरअसल इस स्थिति पर पहुँचा योगी बहुत कुछ कर सकता है । जैसे एक ही समय में अनेक जगह पर होना तक भी । जो आपको यहाँ कृमशः पढने को मिलता रहेगा ।
जहाँ सभी घटनायें किसी दृष्य श्रव्य चलचित्र की भांति मौजूद हैं । महाशक्तियों के बारे में जानने हेतु योग चेतना और आज्ञाचक्र को " महाकारण क्षेत्र " से जोङा जाता है । जहाँ अन्य त्रिकालिय बृह्माण्डिय गतिविधियों को भी देखा, जाना, हुआ, जा सकता है ।
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धुआं तभी उठता है । जब कहीं कोई चिंगारी होती है । और जब चिंगारी होती है । तो कुछ न कुछ सुलग भी रहा होता है । और जब सुलग रहा होता है । तो अनुकूलता पाकर वह आग का रूप भी धारण कर सकता है । और फ़िर वह आग और अधिक अनुकूलता मिलने पर प्रचंड भी हो सकती है । अतः महान सनातन भारतीय धर्म के कथानकों शब्दों तथ्यों को सिर्फ़ पोंगापंथी या " मिथक " जैसा ही मानने की भूल कभी न करें । हाँ अति सूक्ष्म रहस्य की विषय वस्तु और अति गूढता की परिभाषा में आने के कारण वह आम जन मानस को एकदम समझ में न आने जैसा अवश्य होता है । पर गम्भीरता से जब आप उसका अध्ययन मनन करने लगते हैं । तो वह फ़िर शनैः शनैः
ग्राह्य होने लगता है । फ़िर क्या ये बात भौतिकवाद में नहीं है । आप में से हरेक कोई क्या इस कम्प्यूटर के बिगङे स्थापन जैसे मामूली कार्य को पुनर्स्थापन कर सकता है । जबकि आप रोज ही इसका उपयोग करते हैं । तब फ़िर अति सूक्ष्म विज्ञान तो तुलनात्मक बेहद बेहद कठिन है । क्या आप सहमत हैं ?
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शास्त्रार्थ परम कर्तव्यम की जिज्ञासा भूतकाल में भौतिक शरीर या स्तर से जाने पर - इसके लिये सबसे आवश्यक चीज योग और उसके स्तर को समझना होगा । योगी का स्तर जितना ऊँचा होगा । उसके कार्य की उच्चता, प्रकार और पहुँच भी उसी स्तर के अनुसार ही होगी । जैसे संसार में भी किसी के तन मन धन - बल और उसके ज्ञात पहुँच क्षेत्र के अनुसार ही गतियां और विभिन्न कार्य संभव है । अतः सबसे पहले गीता आदि प्रमुख आत्मज्ञान ग्रन्थों के अनुसार ये समझना होगा कि आत्मा सदैव अचल ही है । सिर्फ़ जीव आता जाता है । जीव और आत्मा मिलकर जीवात्मा का सृजन होता है । यह सृजन आत्मा के सोहं भाव से होता है । जिसके अनेक प्रकार इच्छाओं से निर्मित होते हैं । राम जन्म के हेत अनेका । अति विचित्र एक ते एका । इसी स्थिति के लिये कहा गया है ।
किसी भी योग का मूल सिद्धांत अधिकाधिक स्वयं की चेतना में ( स्वयं ) स्थिति होना । जो बाहर बिखरी हुयी है । और फ़िर उस चेतना को भी परम चेतना से जोङना । और धीरे धीरे योगी चेतना को परम चेतना से एकाकार करते रहना । और फ़िर उसी में स्थिति होने को पाना । परम चेतना के संयोग से जब किसी योगी के चेतना स्तर में जो वृद्धि होती है । वही उस योगी का स्तर हो जाता है । सबसे अन्त में योगी की चेतना और ( कर्ता ) अस्तित्व खत्म ही हो जाता है । और वह परम चेतना ही हो जाता है । जेहि जानहि जाहे देयु जनाई । जानत तुमहि तुम ही हो जाई । फ़ूटा घट जल जलहि समाना । येहि गति बिरलै जानी । या बूँद का समुद्र से मिल जाना आदि आदि कहा गया है ।
अब भूतकाल यात्रा को आप मनुष्य स्तर पर ही समझें । आप अपनी स्मरण और इच्छाशक्ति की शक्ति के आधार पर ही उसके स्तर अनुसार भूतकाल के कई स्थानों पात्रों घटनाओं को लगभग स्मृति के अनुसार सजीव कर लेते हैं । और उस समय वह घटना या पात्र प्रभाव के अनुसार सजीव हो उठता है । इसी तरह आप भविष्य की कल्पनाओं के भी अक्सर ऐसे मनमोहक चित्र बनाते हैं । दरअसल जिनका अभी कोई अस्तित्व ही नहीं । फ़िर भी स्मृति और कल्पना दोनों में ही भूमि और सृष्टि पदार्थ पूर्णरूपेण मौजूद होते हैं । इसको सटीक रूप से समझने हेतु सामान्य जीवन में एक बहुत अच्छा उदाहरण है । जब किसी के अति प्रिय की मृत्यु हो जाती है । तो उसके अतीत और साथ से जुङे सभी दृश्य उस दुखी व्यक्ति के समक्ष जैसे साकार हो उठते हैं । जैसे दशरथ को भी मृत्यु के समय गहन आसक्ति और अति दुख के कारण सिर्फ़ राम लक्ष्मण सीता बार बार साक्षात दिख रहे थे ।
ऐसा क्यों होता है ? दरअसल उस समय समस्त इन्द्रियां और मन आदि वृति की पूर्ण एकाग्रता उसी एक विषय पर केन्द्रित हो जाती है । जैसे सर्प के काटे में मृत्यु भय से एकाग्र हुआ प्रभावित इंसान कबूलता है । यानी उस घटना को बिलकुल उसी रूप में बताता है ।
क्योंकि ये घटना तब स्वाभाविक क्रिया से अनचाहे हो जाती है । पर योग में यही क्रिया अभ्यास से सिद्ध होती है । दोनों की क्रिया लगभग समान ही है । तो अब आप ये समझें कि सामान्य अवस्था में क्षीण चेतना वाला व्यक्ति एकाग्र होने पर ऐसा अदभुत महसूस करता है । या अनुभव होता है । या फ़िर ( और आगे में ) होता है । तब योगी का स्तर सामान्य से बहुत अधिक होता है । अब मूल बात वही है । एक सामान्य व्यक्ति का ज्ञान पहुँच स्मृति इच्छाशक्ति तुलनात्मक योगी बहुत कम होते हैं । जबकि योगी में यह % बहुत बहुत अधिक होता है । तब वह भूत या भविष्य चित्र को आंतरिक विज्ञान द्वारा बाकायदा जानकारी और अधिकार में करता है । और उस भूमि को साक्षात कर उसमें प्रवेश कर जाता है । लेकिन सूक्ष्म रूप से जाने या न जाकर वहीं से कुछ कार्य करने जैसे यहाँ अनेकानेक प्रकार बन जाते हैं । हाँ भौतिक शरीर से सशरीर जाने हेतु उस तरह के योग को सिद्ध करना होता है । दरअसल इस स्थिति पर पहुँचा योगी बहुत कुछ कर सकता है । जैसे एक ही समय में अनेक जगह पर होना तक भी । जो आपको यहाँ कृमशः पढने को मिलता रहेगा ।
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