26 अक्टूबर 2011

मेरा अहंकार भी शांत हो गया

कबीरदास के पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था । कमाली जब 16- 17 वर्ष की थी । तबकी 1 घटना है । कमाली सदैव प्रसन्न रहती थी । उसका स्वभाव मधुर और बोलचाल इतनी पवित्र थी कि कोई ब्राह्मण सोच भी नहीं सकता था कि वह बुनकर है । उसकी निगाहें नासाग्र रहती । वह इधर उधर नहीं देखती थी ।  कबीर की छत्रछाया में रहने से उसका जीवन बड़ा आभा सम्पन्न, प्रभाव सम्पन्न था । 1 बार कमाली पनघट पर पानी भरने गयी । कुएँ से गागर भरकर ज्यों ही बाहर निकली । इतने में 1 ब्राह्मण आया । और बोला - मैं बहुत प्यासा हूँ । कमाली ने गागर दे दी । वह ब्राह्मण गागर का काफी पानी पी गया । और लम्बी साँस ली ।
कमाली ने पूछा - भाई ! इतना सारा पानी पी गये । क्या बात है ?
ब्राह्मण ने कहा - मैं कश्मीर गया था । पढ़ने के लिए । अब पढ़ाई पूरी हो गयी । तो अपने घर जा रहा था । रास्ते में कहीं पानी मिला नहीं । सुबह का प्यासा था । पानी नहीं मानो यह तो अमृत था । बहुत देर के बाद मिला है । तो इसकी कद्र हो रही है । अच्छा तुम कौन सी जाति की हो ? 
कमाली बोली - कमाल है ! पानी पीने के बाद जाति पूछते हो ? ब्राह्मण ! पहले जाति पूछते ।
ब्राह्मण ने कहा - मैं तो समझा तुम ब्राह्मण की कन्या होगी । और फिर जल्दबाजी में मैंने पूछा नहीं । प्यास बहुत जोरों की लगी थी । बताओ । जाति की कौन हो तुम ?
कमाली बोली - हमारे पिता संत कबीर जी ताना बुनी करते हैं । हम जाति के बुनकर हैं ।
उस विद्वान का नाम था - हरदेव पंडित । बुनकर सुनते ही वह आग बबूला हो गया ।  बोला - कबीर तो ब्राह्मणों को धर्म भ्रष्ट करते हैं । और तुम भी उसमें सहयोगी हो । मुझे तो तू ब्राह्मण कन्या लगती थी । तूने मुझे पानी देने के पहले क्यों नहीं बताया कि हम बुनकर हैं ?
कमाली बोली - ब्राह्मण ! तुमने पूछा ही नहीं । और मैंने धर्म भ्रष्ट करने के लिए तुमको पानी नहीं पिलाया है । मैंने तो देखा कोई प्यासा पथिक जा रहा है । और पानी माँगता है । इसलिए पानी पिलाया है । तुमने पानी जैसी चीज माँगी । तो मैं ना कैसे करती ? क्यों तुम्हें जाति पांत के चक्कर में डालूँ ? मैंने तो देखा । पथिक प्यासा है । वैसे तो करोड़ों करोड़ों लोग प्यासे ही हैं । उनकी प्यास तो मेरे पिता ही बुझा सकते हैं । लेकिन तुम्हारे जैसे पथिक, जिसकी प्यास पानी से बुझती है । उसकी प्यास तो मैं भी बुझा सकती हूँ । जिसकी प्यास आत्म परमात्म अनुसंधान से बुझती है । उसकी प्यास तो मेरे पिता बुझा सकते हैं ।
ब्राह्मण ने कहा - वाह ! जैसा तेरा बाप चतुर है बात करने में । वैसी तू भी चतुर है । अपनी जाति नहीं बतायी । और लगी है ज्ञान छाँटने ।
कमाली बोली - पंडित जी ! ज्ञान के बिना तो जीवन खोखला है । ज्ञान तो पानी भरते समय भी चाहिए । रोटी बनाते समय और चलते समय भी चाहिए । कश्मीर के विद्वानों के पास उचित विद्या है । यह ज्ञान था । तभी तो तुम पढ़ने गये । पढ़ाई पूरी हुई । यह ज्ञान हुआ । तभी अपने वतन में आये हो । प्यास का ज्ञान हुआ । तभी तुमने पानी माँगा । ज्ञान तो सतत चाहिए । लेकिन वह ज्ञान अज्ञान संयुक्त शरीर को पोसने में लगता है । इसलिए दुःखकारी हो जाता है । यदि वह ज्ञान स्वरूप आत्मा के अनुसंधान में आकर फिर संसार का व्यवहार करता है । तो पूजनीय हो जाता है । वंदनीय हो जाता है । 
हरदेव पंडित ने सोचा कि मैं कश्मीर से पढ़कर आया । और यह जुलाहे की लड़की मुझे ज्ञान दे रही है । वह बोला - चुप रह । ब्राह्मणों को ज्ञान छाँटती है । 
कमाली बोली - पंडित जी ! ब्राह्मण कौन । और बुनकर कौन ?
ब्राह्मण ने कहा - जो जुलाहे लोग हैं । वे बुनकर होते हैं । और जो ब्राह्मण के कुल में जन्म लेते हैं । वे ब्राह्मण होते हैं ।
कमाली बोली - नहीं पंडित जी ! जो ब्रह्म को जानता है । वह ब्राह्मण होता है । और जो राग द्वेष में झूलता रहता है । वह जुलाहा होता है ।
ब्राह्मण ने कहा - तुम्हारे पिता भी ब्राह्मणों के विरुद्ध बोलते हैं । पंडित बदे सो झूठा । और तुमने हमारे साथ ऐसा किया । लेकिन लड़कियों से मुँह लगना ठीक नहीं । चलो तुम्हारे पिता के पास । वहीं खुलासा होगा ।
कमाली बोली - हाँ, चलिये पिताजी के पास ।
कबीर तो अपने सतत स्वरूप में रमण करने वाले थे । उन्होंने देखा कि कमाली के साथ कोई पंडित चेहरे पर रोष लिये आ रहा है । कबीर ने अपने स्वरूप आत्मदेव में गोता मारा । और पूरी बात जान ली । 
ब्राह्मण बोला - तुम्हारी लड़की ने मेरा ब्राह्मणत्व नाश कर दिया । मुझे अशुद्ध पानी पिलाकर अशुद्ध कर दिया ।
कबीर हँसने लगे । बोले - पंडित ! पानी इसके घड़े में आने से अशुद्ध हो गया । लेकिन कुएँ के अंदर क्या क्या होता है ? उसमें जो मछलियाँ रहती हैं । उनका मल मूत्र आदि उसी में होता है । कछुए आदि और भी जीव जंतु रहते हैं । उनका पसीना, लार, थूक, मैला, उनके जन्म और मृत्यु के वक्त की सारी क्रियाएँ सब पानी में ही होती हैं । घड़ा जिस मिट्टी से बना है । उसमें भी कई मुर्दों की मिट्टी मिली होती है । कई जीव जंतु मरते हैं । तो उसी मिट्टी में मिल जाते हैं । उसी मिट्टी से घड़े बनते हैं । फिर चाहे वह घड़ा ब्राह्मण के घर पहुँच जाय । चाहे बुनकर के घर । पृथ्वी पर अनंत बार जीव आये । और मरे । ऐसी कौन सी मिट्टी होगी । ऐसा कौन सा 1 कण होगा । जिसमे मुर्दे का अंश न हो ? पंडित ! कुआँ तो गाँव का है । उसमें से तो सभी लोग पानी भरते हैं । कई बुनकरों के घड़े, मटके, सुराहियाँ उसमें पड़ती होंगी । बुनकर के हाथ की रस्सियाँ भी पड़ती होंगी । उसी कुएँ से गाँव के सभी ब्राह्मण पानी भरते हैं । और तुम पवित्रता अपवित्रता का विचार करते हो । तो अपवित्र विचार यही है कि यह बुनकर है । शूद्र वह है । जो हाड़ मांस की देह को " मैं " मानता है । और ब्राह्मण वह है । जो ब्रह्म को जानता है । अथवा जानने के रास्ते चलता है ।
कबीर की युक्ति युक्त बात से पंडित बड़ा प्रभावित हुआ । कबीर के दिल में सतत स्वरूप का अनुसंधान था । वे घृणा, अहंकार से नहीं, नीचा दिखाने के लिए नहीं । बल्कि उसका अज्ञान, अशांति मिटाकर उसको शांति का दान देने के लिए बोल रहे थे । पंडित का गुस्सा शांत हुआ । 
कमाली को पंडित ने साधुवाद दिया । और कहा - हे देवी ! मैं कृतार्थ हो गया । आज मेरी विद्या सफल हुई कि मैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता के चरणों में पहुँचा । तुम्हारे पवित्र हाथों से पानी पीकर मेरा अहंकार भी शांत हो गया । मेरी बेवकूफी भी दूर हो गयी । अब मैं भी आप लोगों के रास्ते चलूँगा ।  
जो देह को मैं मानते हैं । वे भगवान के मंदिर में रहते हुए भी भगवान से दूर हैं । और जो भगवान के स्वरूप का चिंतन करते हैं । वे बाजार में रहते हुए भी मंदिर में हैं ।
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अष्टावक्र कह रहे हैं - परमज्ञान की अवस्था है । जब तुम्हें सिर्फ अपने में ही वेद का अनुभव हो । बाहर के सब वेदों से मुक्ति - निर्वेद ।
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तुम्हारे जीवन में जो भी महत्वपूर्ण घटेगा - अयाचित घटेगा । और नहीं घट रहा है । क्योंकि तुम याचना से भरे हो । तुम्हारी याचना ही अवरोध बन रही है । मांगो मत । अगर चाहते हो । तो मांगो मत । अगर चाहते हो । तो चाहो मत । होगा । अपने से हो जाता है । यह तुम्हीं थोड़े ही परमात्मा को तलाश रहे हो । परमात्मा भी तुम्हें तलाश रहा है । अगर तुम्हीं तलाश रहे होते । तो खोजना मुश्किल था । अगर वह छिप रहा होता । तो खोजना मुश्किल था । कैसे तुम तलाशते ? कुछ पता ठिकाना भी तो नहीं उसका । वह भी तुम्हें तलाश रहा है । उसके भी अदृश्य हाथ तुम्हारे आसपास आते हैं । मगर तुम्हें मौजूद ही नहीं पाते । तुम कुछ और ही खोज में निकल गए हो ।
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तुम बहते जाना, बहते जाना, बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।

तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई ।
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध से सूरज, चांद, सितारे ।
गल रही बरफ, चल रही हवा, जब रहे यहां अंगारे ।
है आना जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई ।
कब रुकने पाये झुकने वाले जीवन पर बेचारे ?
तुम किस पर खुश हो गये और तुम बोलो किस पर रूठे ?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे ।
है यह कांटो की राह विवश सा सबको चलते रहना ।
जो स्वयम प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे ।
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती ।
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती ।
तुम कल बनकर रजकण पैरों से ठुकराये जाओगे ।

है कौन यहां पर ऐसा जो खा आया हो अमरौती ?
यह रंग बिरंगी उषा लिये है दुख की काली रातें ।
हैं ग्रीष्मकाल की दाहक लपटों में रस की बरसाते ।
यह बनना मिटना अमिट काल के चल चरणों का क्रम है ।
छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख दुख की बातें ।
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई ।
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई ।
हिमखण्ड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश भागी ।
मना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई ।
तुम बहते जाना, बहते जाना बहते जाना भाई ।
तुम शीश उठाकर सरदी गरमी सहते जाना भाई ।
सब यहां कह रहे हैं रो रोकर अपने दुख की बातें ।
तुम हंसकर सबके सुख की बातें कहते जाना भाई । 

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